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________________ द्वितीयाध्यायः [ ५१ उत्तर - ऐसी ही अनुश्रेणि होती है । और इसी प्रकार अनन्त प्रदेश वाले स्कन्धों तक को भी अनुश्रेणि गति ही होती है। प्रश्न - भगवन् ! नारकियों की गति अनुश्रेणि होती है, अथवा विश्रेणि । ___ उत्तर - इसी प्रकार अनुश्रेणि गति होती है। और इसी प्रकार वैमानिकों तक की भी अनुश्रेणि गति होती है। संगति - आगम का कथन विशेष हुआ करता है । अतः इनमें जीव और पुद्गल दोनों को ही गति का वर्णन किया गया है। "अविग्रहा जीवस्य ।” २, २७. उज्जूसेढीपडिवन्ने अफुसमाणगई उड्ढं एकसमएणं अविगहेणं गंता सागारोवउत्ते सिन्झिहिइ। औपपातिक सूत्र सिद्धाधिकार सू० ४३ छाया- ऋजुभेणिप्रतिपन्नः अस्पृशद्गतिः उद्ध्वं एकसमयेन अविग्रहेण गत्वा साकारोपयुक्तः सिध्यति। आकाश प्रदेशों की सरल पंक्ति को प्राप्त होकर, गति करते हुए भी किसी का स्पर्श न करते हुए बिना मोड़ा लिये हुए साकार उपयोग युक्त एक समय में ऊपर को जाकर सिद्ध हो जाता है। संगति-गम वाक्य का मी सूत्र के समान यही आशय है कि सिद्धमान् जीव की गति मोड़े रहित (एक समय वाली) होती है। “विग्रहवती च संसारिणः प्राक् चतुर्थ्यः ।” २, २८. णेरइयाणं उक्कोसेणं तिसमतीतेणं विग्गहेणं उववज्जति एगिदिवजं जाव वेमाणियाणं । . स्थानांग स्थान ३ उद्दे० ४ सूत्र, २२५.
SR No.022531
Book TitleTattvartha Sutra Jainagam Samanvay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaram Maharaj, Chandrashekhar Shastri
PublisherLala Shadiram Gokulchand Jouhari
Publication Year1934
Total Pages306
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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