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________________ दशमोऽध्यायः मोहक्षयाज्ज्ञानदर्शनावरणान्तरायक्षयाच केवलम् । १०, १. खीणमोहस्स णं अरहओ ततो कम्मंसा जुगवं खिजंति, तं जहा-नाणावरणिजं दंसणावरणिजं अंतरातियं । स्थानांग स्थान ३, उ० ४, सू० २२६. तप्पढमयाए जहाणुपुवीए अट्ठवीसइविहं मोहणिजं कम्म उग्घाएइ, पञ्चविहं नाणावरणिजं, नवविहं दसणावरणिजं, पंक विहं अन्तराइयं, एए तिन्नि वि कम्मसे जुगवं खवेइ । उत्तराध्ययन अध्ययन २९, सू० ७१. छाया- क्षीणमोहस्याहतस्ततः कांशाः युगपत् क्षपयन्ति, तद्यथा-ज्ञाना वरणीयं, दर्शनावरणीयं अंतरायिकं । तत्पथमतया यथानुपूर्व्या अष्टाविंशतिविधं मोहनीयं कर्मोद्घातयति । पंचविधं ज्ञानावरणीयं, नवविधं दर्शनावरणीयं, पञ्चविष मन्तरायिकमेतानि त्रीण्यपि कर्माणि युगपत् क्षपयति । भाषा टीका-मोहनीय कर्म को नष्ट करने वाले अहंत के इसके पश्चात् निम्नलिखित कर्मो के अंश एक साथ नष्ट होते हैं- ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अंतराय । [अर्थात् ] सब से प्रथम पूर्व आनुपूर्वी के अनुसार अट्ठाइस प्रकार के मोहनीय कर्म को नष्ट करता है। [इसके पश्चात् ] पांच प्रकार के ज्ञानावरणीय, नौ प्रकार के दर्शना वरणीय, और पांच प्रकार के अंतराय इन तीनों ही कर्मों को एक साथ नष्ट करता है। संगति - और तब इसके केवलज्ञान प्रगट होता है।
SR No.022531
Book TitleTattvartha Sutra Jainagam Samanvay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaram Maharaj, Chandrashekhar Shastri
PublisherLala Shadiram Gokulchand Jouhari
Publication Year1934
Total Pages306
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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