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तस्वार्थसूत्रजैनाऽऽगमसमन्वयः
२०-श्रुतमान मतिज्ञान के निमित्त से होता है । उसके दो भेद हैं-प्रथम अंगवास
के अनेक भेद हैं और अंगप्रविष्ठ के प्राचारांग आदि बारह भेद हैं। २१-[अवधिज्ञान दो प्रकार का होता है
भवप्रत्यय अवधि और क्षयोपशम निमित्त अवधि ]
भवप्रत्यय अवधि देव और नारकियों के ही होता है । १२-क्षयोपशम निमित्त अवधिज्ञान मनुष्य और तिर्यंचों के होता है । वह छै प्रकार
का होता है- [अनुगामी, अननुगामी, वर्द्धमान, हीयमान, अवस्थित और
अनवस्थित ।] २३-मनःपर्यय ज्ञान दो प्रकार का होता है
जुमति और विपुलमति। २४-परिणामों की विशुद्धता और अप्रतीपात (केवलज्ञान होने तक चारित्र से
न गिरने ) से इन दोनों में न्यूनाधिकता है । अर्थात् ऋजुमति से विपुलमति वाले के परिणाम अधिक विशुद्ध होते हैं और न विपुलमति मनःपर्यय ज्ञान
बाला चारित्र से ही गिर सकता है। १५–अवधि और मनः पर्यय ज्ञान में भी विशुद्धता, क्षेत्र, स्वामी और विषय की
अपेक्षा से भेद होता है। २६–मति और श्रुतज्ञान के विषयों के जानने का नियम द्रव्यों को कुछ पर्यायों में
है। अर्थात् मतिज्ञान और श्रुत ज्ञान छहों द्रव्यों की सब पर्यायों को नहीं
जानते, थोड़ी २ पर्यायों को ही जान सकते हैं। २७–अवधिज्ञान के विषय का नियम रूपी अर्थात् मूर्तिक पदार्थों में है । अर्थात्
भवधि ज्ञान पुद्गलद्रव्य की पर्यायों को ही जानता है। २८–अवधिज्ञान द्वारा जाने हुए सूक्ष्म पदार्थ के अनंतवें भाग को मनःपर्यय
ज्ञान जानता है। -केवलज्ञान के विषय का नियम समस्त ट्रव्यों की समस्त पर्यायों में है । अर्थात् केवल ज्ञान छहों द्रव्यों की समस्त पर्यायों को एक काल में जानता