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________________ नवमोऽण्याव: [ २१७ (साधुओं ) का वैयावृत्य, साधर्मियों ( मनोज्ञों ) का वैयावृत्य, कुल का वैयावृत्य, गण का वैयावृत्य, और संघ का वैयावृत्य । संगति - यहां संख्या समान होते हुये भी दो नामों में अन्तर हैं । सूत्र के साधु और मनोज्ञ के स्थान पर आगम में क्रमशः स्थविर और साधर्मि कहा गया है । जिसमें कोई विशेष भेद नहीं है। वाचनापृच्छनानुप्रेक्षाम्नायधर्मोपदेशाः। ६, २५ सज्झाए पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा-वायणा पडिपुच्छणा, परिप्रणा अणुप्पेहा धम्मकहा। ___ व्याख्याप्रज्ञप्ति श० २५, उ० ७, सू० ८०२. छाया- स्वध्यायः पञ्चविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-वाचना, प्रतिपृच्छना, परि वर्तना, अनुप्रेक्षा, धर्मकथा । __ भाषा टीका - स्वाध्याय पांच प्रकार का कहा गया है:- वाचना, परिपृच्छना, परिवर्तना (आम्नाय ), अनुप्रक्षा और धर्मकथा (धर्मोपदेश )। बाह्याभ्यन्तरोपध्योः। ९, २६. विउसग्गे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-दव्वविउसग्गे य भावविउसग्गे य । व्याख्याप्रज्ञप्ति श० २५, उ०७, २० ८०२. छाया- व्युत्सर्गः द्विविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-द्रव्यविसर्गश्च भावविसर्गश्च । भाषा टीका - व्युत्सर्ग दो प्रकार का कहा गया है:-द्रव्य का विसर्ग (त्याग) और भाव का विसर्ग। ...---संगति – बाह्य परिग्रह और द्रव्य परिग्रह प्रथक् २ नही हैं । इसी प्रकार भाव परिग्रह अथवा आभ्यन्तर परिग्रह भी प्रथक् २ नहीं हैं।
SR No.022531
Book TitleTattvartha Sutra Jainagam Samanvay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaram Maharaj, Chandrashekhar Shastri
PublisherLala Shadiram Gokulchand Jouhari
Publication Year1934
Total Pages306
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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