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________________ ४२ ] तत्त्वार्थसूत्रजैनाऽऽगमसमन्वयः “सद्विविधोऽष्टचतुर्भेदः।” कतिविहे णं भंते! उवओगे पण्णत्ते? गोयमा! दुविहे उवमओगे पण्णत्ते, तं जहा -सागारोवओगे, अणगारोवओगे य ॥१॥ सागारोवोगे णं भंते! कतिविहे पणते ? गोयमा! अट्ठविहे पण्णत्ते। प्रज्ञापना सूत्र पद २६ अणगारोवोगे णं भंते! कतिविहे पण्णते? गोयमा ! चउविहे पण्णत्ते। प्रज्ञापना सूत्र पद २६ छाया- कतिविधः भदन्त ! उपयोगः प्रज्ञप्तः १ गौतम ! द्विविधः उपयोगः प्रज्ञप्तः, तद्यथा- साकारोपयोगः, अनाकारोपयोगश्च । साकारोपयोगः भदन्त कतिविधः प्रज्ञप्तः ? मौतम! अष्टविधः प्रज्ञप्तः? अनाकारोपयोगः भदन्त ! कतिविधः प्रज्ञप्तः ? गौतम ! चतुर्विधः प्रज्ञप्तः। प्रश्न-भगवन् ! उपयोग कितने प्रकार का बतलाया गया है ? उत्तर – गौतम ! उपयोग दो प्रकार का बतलाया गया है- साकारोपयोग और अनाकारोपयोग। प्रश्न - भगवन् ! साकारोपयोग कितने प्रकार का कहा गया है ? उत्तर – गौतम ! वह आठ प्रकार का कहा गया है। प्रश्न - भगवन् ! अनारोपयोग कितने प्रकार का कहा गया है ? उत्तर – गौतम ! वह चार प्रकार का कहा गया है। संगति – यहां भी सूत्र और आगम बिलकुल एक ही बात को बतला रहे हैं। आठ प्रकार का सकारोपयोग पांच ज्ञान तथा तीन अज्ञान रूप है और चार प्रकार का अनाकारोपयोग चार प्रकार का दर्शन है।
SR No.022531
Book TitleTattvartha Sutra Jainagam Samanvay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaram Maharaj, Chandrashekhar Shastri
PublisherLala Shadiram Gokulchand Jouhari
Publication Year1934
Total Pages306
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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