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________________ परिशिष्ट ने०२ [ २६७ हर अंगों को देखने का त्याग, पूर्वकाल में भोगे हुए भोगों को स्मरण करने का त्याग, पौष्टिक तथा प्रिय रसों का त्याग और अपने शरीर का शृंगार युक्त करने अथवा सजाने का त्याग यह पांच ब्रह्मचर्य व्रत की भावनाएं हैं। ८-पांचों इन्द्रियों के स्पर्श रस आदि इष्ट अथवा अनिष्ट रूप पांचों विषयों में राग द्वेष का त्याग करना परिग्रह त्याग व्रत की पांच भावनाएं हैं। ९–हिंसा आदि पांचों पापों में इस लोक में दण्ड मिलने तथा परलोक में पाप बन्ध होने का चिन्तवन करे। १०-अथवा यह चिन्तवन करे कि यह पांचों पाप दुःख रूप ही हैं। ११–सर्व साधारण जीवों में मैत्री भावना, गुणाधिकों में प्रमोद भावना, दुःखियों में कारुण्य भावना और अविनयी अथवा मिथ्यादृष्टियों में माध्यस्थ भावना रखे । १२-अथवा संवेग* और वैराग्यो के लिये जगत् और काय के स्वभाव का भी बारम्बार चिन्तवन करे । पांचों पापों के लक्षण१३-प्रमाद के योग से द्रव्य अथवा भाव प्राणों का वियोग करना हिंसा है। १४-असत् वचन कहना अनृत अथवा असत्य है । १५–बिना दी हुई वस्तु को ले लेना चोरी है । १६-मैथुन करना अब्रह्म अर्थात् कुशील है । १७-[ चेतन अचेतन रूप परिग्रह में ] ममत्वरूप परिणाम ही परिग्रह है। १८- जो शल्य रहित है वही व्रती है । * संसार के दुःख से डरना, + संसार से विरक्त होना, पांच इन्द्रिय, मन बल, वचन बल. कायबल, आयु और श्वासोच्छ्वास यह दश प्राण हैं, मिात्मा के मान दर्शन आदि स्वभावों को भाव प्राण कहते हैं।
SR No.022531
Book TitleTattvartha Sutra Jainagam Samanvay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaram Maharaj, Chandrashekhar Shastri
PublisherLala Shadiram Gokulchand Jouhari
Publication Year1934
Total Pages306
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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