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________________ १४] तत्वार्थसूत्रजनाऽऽगमसमन्वय : प्रश्न- भगवन् ! अंतराय कर्म कितने प्रकार का कहा गया है ? उत्तर- गौतम ! वह पांच प्रकार का कहा गया है: - दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय और वीर्यान्तराय । इस प्रकार प्रकृतिबंध का वर्णन किया गया। अब स्थितिबंध का वर्णन किया जाता है आदितस्तिसृणामन्तरायस्य च त्रिंशत्सागरोपमकोटीकोट्यः परा स्थितिः । उदहीसरिसनामाण, तीसई कोडिकोडीओ | उक्कोसिया ठिई होइ, अन्तोमुद्दत्तं जहन्निया ॥ १६ ॥ आवरणिज्जाण दुरहंपि, वेयाणिज्जे तहेव य । अन्तरा य कम्मम्मि ठिई एसा वियाहिया ॥ २० ॥ उत्तराध्ययन अध्ययन ३३. ८, १४. गया उदधिसदृङ्नाम्नां, त्रिंशत्कोटाकोटयः । उत्कृष्टा स्थितिर्भवति, अन्तर्मुहुर्त जघन्यका ॥ १९ ॥ आवरणोर्द्वयोरपि, वेदनीये तथैव च । अन्तराये च कर्मणि, स्थितिरेषा व्याख्याता ॥ २० ॥ भाषा टीका – ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय और अन्तराय कर्म की स्थिति तीस कोड़ाकोड़ी सागर और जघन्य स्थिति अन्तर्मुहुर्त होती है। सप्ततिमहनीयस्य । ८, १५. उदहीसरिसनामाण, सत्तरिं कोडिकोडीओ । मोहणिजस्स उक्कोसा, अन्तोमुहुत्तं जहन्निया ॥ उत्तराध्ययन अ० ३३, गाथा २१.
SR No.022531
Book TitleTattvartha Sutra Jainagam Samanvay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaram Maharaj, Chandrashekhar Shastri
PublisherLala Shadiram Gokulchand Jouhari
Publication Year1934
Total Pages306
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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