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________________ ६८ ] तत्त्वार्थसूत्रजनाऽऽगमसमन्वय : इस रत्नप्रभा पृथिवी के बाहिर घनोदधिवालवलय है, उसके बाहिर घन बातवलय है, उसके भी बाहिर तनु वातवलय है और सबसे बाहिर आकाश है, इसी प्रकार नीचे २ सातवीं पृथ्वी तक है। संगति - आगम वाक्य तथा सूत्र में शाब्दिक भेद ही है। तासु त्रिंशत्पञ्चविंशतिपञ्चदशदशत्रिपञ्चोनैकनरकशतसहस्राणि पंच चैव यथाक्रमम्। तीसा य पन्नवीसा पण्णरस दसेव तिमिण य हवंति ।। पंचूणसहसहस्सं पंचेव अणुत्तरो णरगा। जीवाभिगम प्रतिपत्ति ३ सूत्र ६६ प्रज्ञापना पद २ नरकाधिकार छाया- त्रिंशतश्च पञ्चविंशतयः पञ्चदशाः दशाः एव त्रयश्च भवन्ति । पञ्चोनशतसहस्राः पञ्चैव अनुत्तराः नरकाः॥ भाषा टीका- प्रथम नरक में तीस लाख, द्वितीय में पञ्चीस लाख, तृतीय में पन्द्रह लाख, चतुर्थ में दस लाख, पञ्चम में तीन लाख, छटे में पांच कम एक लाख और सातवें में कुल पांच ही नरक हैं। . नारकाः नित्याशुभतरलेश्यापरिणामदेहवेदनाविक्रियाः। पस्परोदीरितदुःखाः। ..अण्णमण्णस्य कार्य अभिहणमाणा वेयणं उदीरेंति इत्यादि। जीवाभिगम० प्रतिपत्ति ३ उद्दे० २ सूत्र ८९ ३. ४.
SR No.022531
Book TitleTattvartha Sutra Jainagam Samanvay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaram Maharaj, Chandrashekhar Shastri
PublisherLala Shadiram Gokulchand Jouhari
Publication Year1934
Total Pages306
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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