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________________ परिशिष्ट नं० २ [ २५३ . तृतीय अध्याय १-नरकों की सात भूमियां हैं: रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, बालुकाप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तमप्रभा, और महातमप्रभा । यह सातों पथिवी एक दूसरी के नीचे २, तीन वातवलय और आकाश के आश्रय स्थिर हैं। अर्थात् समस्त भूमियां घनोदषि वातवलय के आधार हैं, घनोदधि वातवलय घनवातवलय के आधार है, घनवातवलय तनुवातवलय के आधार है, तनुवातवलय आकाश के आधार है और आकाश स्वयं अपने ही आधार है। २–प्रथम पृथिवी में तीस लाख, दूसरी में पच्चीस लाख, तीसरी में पन्द्रह लाख, चौथी में दश लाख, पांचवीं में तीन लाख, छटी में पांच कम एक लाख और सातवीं में कुल पांच ही नरक अर्थात् नारकावास हैं। ३--नारकी जीव सदा ही अशुभतर लेश्या वाले, अशुभतर परिणाम वाले. अशुभतर देह के धारक, अशुभतर वेदना वाले, और अशुभतर विक्रिया वाले होते हैं। ४-वह परस्पर एक दूसरे को दुःख उत्पन्न करते रहते हैं। ५-तीसरे नरक तक उन नारकी जोवों को संक्लिष्ट परिणाम वाले असुर कुमार देव भी दुःखी किया करते हैं । ६-प्रथम नरक की उत्कृष्ट (अधिक से अधिक) आयु एक सागर, दूसरे की तीन सागर, तीसरे की सात सागर, चौथे की दश सागर, पांचवें की सतरह सागर, छटे की बाईस सागर और सातवें नरक की उत्कृष्ट आयु तेंतीस सागर की है। मध्य लोक का वर्णन [इस पृथ्वी पर ] जम्बूद्वीप आदि तथा लवण समुद्र आदि उत्तम २ नाम वाले द्वीप और समुद्र हैं।
SR No.022531
Book TitleTattvartha Sutra Jainagam Samanvay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaram Maharaj, Chandrashekhar Shastri
PublisherLala Shadiram Gokulchand Jouhari
Publication Year1934
Total Pages306
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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