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________________ २५२ ] तत्त्वार्थसूत्रजैनाऽऽगमसमन्वय : ४१-इन दोनों शरीरों का आत्मा से अनादि काल से सम्बन्ध है [ और संतान को अविवना से सादि सम्बन्ध भी है ।] ४२-ये दोनों शरीर समस्त संसारी जोवों के होते हैं। ४३-एक श्रात्मा में विभाजित किये हुए इन दोनों शरीरों को आदि लेकर एक साथ चार शरीर तक होते हैं । ४४–अंत का कर्माण शरीर उपभोग रहित है अर्थात् इंद्रियों द्वारा शब्द आदि विषयों के उपभोग से रहित है । ४५–गर्भ जन्म और सम्मर्छन जन्म वालों के आदि का औदारिक शरीर ही होता है। ४६–उपपाद जन्म से उत्पन्न होने वालों के वैक्रियिक शरीर होता है । ४७–वैक्रियिक शरीर लब्धि अर्थात् तपो विशेष रूप ऋद्धि की प्राप्ति के निमित्त से भी होता है । ४८-तथा तेजस शरीर भी लब्धि प्रत्यय अर्थात् ऋद्धि होने से प्राप्त होता है। ४६-आहारक शरीर शुभ है अर्थात् शुभ कार्य को करता है, विशुद्ध है, व्या___घात रहित है तथा प्रमत्तसंयत मुनि के ही होता है । जीवों के वेद५०–नारकी और सम्मूर्छन जोव नपुंसक होते हैं। ५१-देव नपुंसक नहीं होते । अर्थात् देवों में पुरुषलिंग और स्त्रीलिंग दो ही लिंग होते हैं। ५२-नारकी, देव और सम्र्छनों के अतिरिक्त गर्भज, तिर्यञ्च, और मनुष्य तीनों वेद वाले होते हैं। परिपूर्ण आयु वाले जीव- . ५३–देव, नारकी, चरमशरीर वाले, और असंख्यात वर्ष की आयु वाले भोगभूमि के जोव परिपूर्ण आयु वाले होते हैं । अर्थात् इनकी अकाल मृत्यु नहीं होती। -0:
SR No.022531
Book TitleTattvartha Sutra Jainagam Samanvay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaram Maharaj, Chandrashekhar Shastri
PublisherLala Shadiram Gokulchand Jouhari
Publication Year1934
Total Pages306
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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