SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 193
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सप्तमोऽध्यायः [ १७५ पर शय्या और संस्तारक को भली प्रकार विशेष रूप से निरीक्षण न करना । यदि करना तो अस्थिर चित्त से । २. अप्रमार्जित दुष्प्रमार्जित शय्यासंस्थारक - शय्या और संस्तारक को भली प्रकार विशेष रूप से रजोहरणादि द्वारा प्रमार्जित न करना । यदि करना तो अस्थिर चित्त से । ३. अप्रत्युपेक्षित दुष्प्रत्युपेक्षित उच्चारप्रस्रवण भूमि – भलीप्रकार विशेष रूप से उच्चार (मल) प्रस्रवण (मूत्र) के त्यागने की भूमि को निरीक्षण न करना । यदि करना तो स्थिर चित्त से | ४. अप्रमार्जित दुष्प्रमार्जित प्रस्रवण भूमि - भलीप्रकार विशेष रूप से मल मूत्र के त्यागने की भूमि को प्रमार्जित (शुद्ध) नहीं करना । यदि करना तो अस्थिर चित्त से । ५. प्रोषधोपवासस्य सम्यगननुपालनता प्रोषधोपवास का भली प्रकार पालन न करना । उसमें चित्त को अस्थिर रखना । - सचित्तसम्बन्धसम्मिश्राभिषवदुः पक्काहाराः । ७, ३५. भोयणतो समणोवासणं पञ्च अइयारा जाणियव्वा, न समायरियव्वा, तं जहा - सचित्ताहारे सचित्तपडिबद्धाहारे उप्पउलियोसहिभक्खण्या, दुप्पोलितोस हिभक्खणया, तुच्छो सहिभक्खया । उपा० अध्या० १ छाया - भोजनतः श्रमणोपासकेन पञ्चातिचाराः ज्ञातव्याः, न समाचरितव्याः, तद्यथा - सचित्ताहारः, सचित्तप्रतिबद्धाहारः, अपकौषधिभक्षणता, दुःपौषधिभक्षणता, तुच्छौषधिभक्षणता । भाषा टीका - श्रमणोपासक को भोजन ( उपभोगपरिभोगपरिमाण) के पांच व्यतिचार जानने चाहियें | किन्तु उनका आचरण नहीं करना चाहिये । वह यह हैं१. सचिताहार —— त्यागहोने पर जीव सहित पुष्प फल आदि का आहार करना ।
SR No.022531
Book TitleTattvartha Sutra Jainagam Samanvay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaram Maharaj, Chandrashekhar Shastri
PublisherLala Shadiram Gokulchand Jouhari
Publication Year1934
Total Pages306
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy