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तत्त्वार्थसूत्रजैनाऽऽगमसमन्वय :
३९–विधिविशेष, द्रव्यविशेष, दातारविशेष और पात्रविशेष के कारण उस दान में भी विशेषता होती है।
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अष्टम अध्याय बंध के कारण१-मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग यह पांच बन्ध के
कारण हैं। बंध का स्वरूप२-जीव कषाय सहित होने से कमों के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है
वह बंध है। बंध के भेद३–प्रकृति बन्ध, स्थिति बन्ध, अनुभाग बन्ध और प्रदेश बन्ध यह चार उस
बन्ध की विधियां (भेद) हैं । प्रकृति बंध-आठों कर्मों की प्रकृतियां४-श्रादि का प्रकृति बन्ध, ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु,
नाम, गोत्र और अन्तराय इस तरह आठ प्रकार का है । [इनमें से झानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय यह चार घाति कम
हैं और शेष चार अघाति कर्म हैं ।] ५-उन कर्मों के क्रम से प च, नौ, दो अट्ठाईस, चार, बयालीस, दो और
पांच भेद हैं। दुक्करं करेति दुल्लहं लहइ बोहिं बुज्झइ तो पच्छा सिन्झति जाव अंतं करेति।
व्याख्याप्रज्ञप्ति शतक ७७० १ सूत्र २६४ इस सूत्र के आगमपाठों में इस पाठ को भी मिला लेना चाहिये।