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________________ १४६ ] तत्त्वार्थसूत्रजैनाऽऽगमसमन्वयः भाषा टीका-संरम्भ, समारम्भ और आरम्भ । फिर इन तीनों भेदों को मन, वचन और काय के द्वारा तीन प्रकार करने से नौ भेद हुए। फिर इन नौ को न करना (कृत), न कराना (कारित) और न करते हुए अन्य व्यक्ति का समर्थन करना (अनुमोदना)। सो यह नौ तिया सत्ताईस भेद हुए। फिर इन सत्ताईसों में क्रोध, मान, माया और लोभ के होने से [ सत्ताईस चौक एक सौ आठ भेद जीवाधिकरण के होते हैं।] संगति - इन सब सूत्रों का आगम वाक्यों के साथ नाम मात्र का ही भेद है। निर्वतनानिक्षेपसंयोगनिसर्गा द्विचतुर्द्वित्रिभेदाः परम्। णिवत्तणाधिकरणिया चेव संजोयणाधिकरणिया चेव ।। स्थानांग स्थान २, सु. ६०. आइये निक्खिवेज्जा । उत्तराध्ययन भ० २५, गाथा १४. पवत्तमाणं । उत्तराध्ययन अ० २४, गाथा २१-२३. छाया- निर्वर्तनधिकरणिका चैव संवोगाधिकरणिका चैव । आददीत निक्षिपेद्वा । प्रवर्तमानम् (मनोवचः काये)। भाषा टीका - निर्वतनाधिकरण, संयोगाधिकरण, निक्षेपाधिकरण और प्रवर्तमानाधिकरण (मन, वचन, काय में प्रवर्तमान) [यह चार भेद अजीवाधिकरण के होतेहैं ] संगति – प्रवर्तमानाधिकरण और निसर्गाधिकरण में केवल शाब्दिक भेद ही है, तात्विक भेद बिलकुल नहीं है। तत्प्रदोषनिह्नवमात्सर्यान्तरायासादनोपघाता ज्ञानदर्शनावरणयोः। ६,१०.
SR No.022531
Book TitleTattvartha Sutra Jainagam Samanvay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaram Maharaj, Chandrashekhar Shastri
PublisherLala Shadiram Gokulchand Jouhari
Publication Year1934
Total Pages306
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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