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________________ १२४ ] तत्त्वार्थसूत्रजैनाऽऽगमसमन्वय : और कोई भेद नहीं है । इसके अतिरिक्त इस आगमवाक्य ने प्रथम सूत्र के भाव को तो खोलकर दर्शा दिया है। नित्यावस्थितान्यरूपाणि। रूपिणः पुद्गलाः। पंचत्थिकाए न कयाइ नासी न कयाइ नत्थि, न कयाइ न भविस्सइ भुविं च भवइ अ भविस्सइ अ धुवे नियए सासए अक्खए, अव्वए, अवट्ठिए निच्चे अरूवी । नन्दिसूत्र० सूत्र ५८. पोग्गलस्थिकायं रूविकायं । व्याख्याप्रज्ञप्ति शतक ७ उद्देश्य १०. छाया- पञ्चास्तिकायः न कदाचित् नासीत् , न कदाचित् न भवति, न कदाचित् न भविष्यति, अभूत च, भवति च, भविष्यति च, ध्रुवः नियतः शाश्वतः अक्षतः अव्ययः अवस्थितः नित्थः अरूपी। पुद्गलास्तिकायः रूपिकायः। भाषा टीका - यह असम्भव है कि पांच अस्तिकाय किसी समय में न थे, या नहीं होते, या कभी भविष्य में न होंगे। यह सदा थे, सदा रहते हैं और सदा रहेंगे । यह ध्रुव, निश्चित, सदा रहने वाले, कम न होने वाले, नष्ट न होने वाले, एक से रहने वाले, नित्य और अरूपी हैं। इनमें केवल पुद्गल अस्तिकाय रूपी द्रव्य है। आ आकाशादेकद्रव्याणि। निष्क्रियाणि च । ५. ६.
SR No.022531
Book TitleTattvartha Sutra Jainagam Samanvay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaram Maharaj, Chandrashekhar Shastri
PublisherLala Shadiram Gokulchand Jouhari
Publication Year1934
Total Pages306
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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