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पहाड़ आदि में प्रवेश करते हुए भी नहीं रुके उसे सूक्ष्मशरीर नामकर्म कहते हैं । २४. जिसके उदय से अन्य को रोकने योग्य वा अन्य से रुकने योग्य स्थूल शरीर प्राप्त हो उसको बादर शरीर नामकर्म कहते हैं ।
अष्टमोऽध्याय:
२५. जिसके उदय से जीव आहारादि पर्याप्ति पूर्ण करता है उसे पर्याप्तिनामकर्म कहते हैं । यह छह प्रकार का है:- १. आहार पर्याप्ति २. शरीर पर्याप्ति, ३. इन्द्रिय पर्याप्त, ४. प्राणापान पर्यामि, ५. भाषा पर्याप्ति, और ६. मनः पर्याप्त ।
यहां यह प्रश्न हो सकता है कि प्राणापानपर्याप्ति नाम कर्म के उदय का जो उदर पवन का निकालना वा प्रवेश होना फल है, वही उच्छ्वास कर्म के उदय का भी है। फिर इन दोनों में अंतर क्या हुआ ? सो इसका उत्तर यह है कि इन दोनों में इन्द्रिय अतीन्द्रिय का भेद है। अर्थात् पञ्चेन्द्रिय जीवों के सर्दी-गर्मी के कारण जो श्वास चलती है और जिसका शब्द सुन पड़ता है तथा मुंह के पास हाथ ले जाने से जो स्पर्श से मालूम होती है तो उच्छ्वास नाम कर्म के उदय से होती है। और जो समस्त संसारी जीवों के होती है और जो इन्द्रियगोचर नहीं होती है वह प्राणापान पर्याप्ति के उदय से होती है।
वह
एकेन्द्रिय जीवों के भाषा और मनको छोड़ कर चार; द्वीन्द्रिय, त्रींद्रिय, चतुरिन्द्रिय सैनी पंचेन्द्रिय जीवों के भाषा सहित पांच और सैनी पंचेन्द्रियों के छहों पर्याप्ति
होती हैं।
२६. जिसके उदय से जीव छहों पर्याप्ति में से एक को भी पूर्ण नहीं कर सके उसे पर्याप्तिनामकर्म कहते हैं ।
२७. जिसके उदय से एक शरीर बहुत से जीवों के उपभोगने का कारण हो उसे साधारण शरीर नामकर्म कहते हैं। जिन अनंत जीवों के आहार आदि चार पर्याप्ति, जन्म, मरण, श्वासोच्छ्वास, और उपकार एक ही काल में होते हैं वे साधारण जीव है। जिस काल में जिस आहार आदि पर्याप्ति, जन्म, मरण, श्वासोच्छ्वास को एक जीव ग्रहण करता है उसी काल में उसी पर्याप्ति आदि को दूसरे भी अनन्त जोष ग्रहण करते हैं। ये साधारण जीव वनस्पति काय में होते हैं। अन्य स्थावरों में नहीं होते । इनके साधारण शरीर नामकर्म का उदय रहता है ।
२८. जिसके उदय से एक शरीर एक आत्मा के भोगने का कारण हो उसे प्रत्येकशरीर