Page #1
--------------------------------------------------------------------------
________________
=
“અહો શ્રુતજ્ઞાન” ગ્રંથ જીર્ણોધ્ધાર – ૧૩ શિલ્પશાસ્ત્ર ગ્રંથ
પ્રાસાદ મારી
દ્રવ્ય સહાયક
અધ્યાત્મયોગી આચાર્ય મહારાજા શ્રી કલાપૂર્ણસૂરીશ્વરજી મ.સા.ને જ્ઞાનન એટલો રસ, વિહાર ગમે તેટલો કરીને આવ્યા હોય છતાં મહાત્માઓને વાચના આપે જ, તેઓશ્રીના હાથમાં પુસ્તક હોય જ, ક્યારે પણ પુસ્તક વીના બેઠેલા જોયા નથી... જેઓશ્રીએ જ્ઞાન માટે અથાગ મહેનત કરી હતી. એવા અધ્યાત્મયોગી ૫.પૂ. કલાપૂર્ણસૂરીશ્વરજી મહારાજાના પટ્ટપ્રભાવક ગચ્છનાયક પ.પૂ. કલાપ્રભસૂરીશ્વરજી મહારાજાના આજ્ઞાવર્તીની સરલ સ્વભાવી પ.પૂ. ન્યાયશ્રીજીના શિષ્યા માતૃહૃદયા પ.પૂ. વિદ્યુતપ્રભાશ્રીજીના શિષ્યા વિક્રમઇન્દ્રાશ્રીજીના શિષ્યા શ્રીઈન્દ્રયશાશ્રીજી મ.સા.ની પ્રેરણાથી કેશવબાગ કોલોનીના બહેનોની જ્ઞાનખાતાની ઉપજમાંથી
: સંયોજક :
શાહ બાબુલાલ સરેમલ બેડાવાળા
શ્રી આશાપૂરણપાર્શ્વનાથ જૈન જ્ઞાનભંડાર
શા. વીમળાબેન સરેમલ જવેરચંદજી બેડાવાળા ભવન હીરાજૈન સોસાયટી, સાબરમતી, અમદાવાદ-૩૮૦૦૦૫
(મો.) ૯૪૨૬૫૮૫૯૦૪ (ઓ.) ૨૨૧૩૨૫૪૩ (રહે.) ૨૭૫૦૫૭૨૦ સંવત ૨૦૬૫ ઈ.સ. ૨૦૦૯
Page #2
--------------------------------------------------------------------------
Page #3
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ श्री विश्वकर्मणे नमः ॥
सूत्रधार नायजी विरचित वास्तुमजर्यान्तर्गत
॥ प्रासादमञ्जरी॥ ॥ सुप्रभ नाम्ची भाषाटीका ।।
PRASADAMANJARI.
BY
SUTRADHARA : NATHJI.
%
संपादक स्थपति : प्रभाशंकर ओघडभाइ सोमपुरा
शिल्प विशारद - पालीताणा सौराष्ट्र
भूमिका: ढो. बामदेवशरण अग्रवालजी अभ्यापक-हिन्दु युनिवर्सिटि-बनारस-वाराणसी.
:प्रकाशक:
श्री बलवंतराय प्र० सोमपुरा एवं भ्राताओ
वि.सं. २०२१
“सने १९६५ ३
Page #4
--------------------------------------------------------------------------
________________
ग्रंथ प्राप्तिस्थान : स्थति प्रभाशंकर ओ. सोमपुरा, शिल्पविशारद
गोरावाडी, शिल्पि निवास-पालीताणा-(सौराष्ट्र)
श्री बलवंतराय प्र. सोमपुरा
३. पथीक सोसायटी सरदार पटेल कोलोनी -अहमदाबाद नं.१३
भारतीय विद्याभवन चोपाटी रोड
वंबइ ७
गुर्जर ग्रंथरत्न कार्यालय, गांधी रोड- अहमदाबाद
एन. एम. त्रिपाठी एण्ड कु.
प्रिन्सेस स्ट्रीट-बघा २ सरस्वती पुस्तक भंडार, रतनपोळ-हाथीखाना
अहमदाबाद
यह ग्रंथका प्रत्येक विभाग एवं चित्राकृति आदि प्लान डीझाईन
ग्रंथकर्ता के स्वाधिन है।
प्रथमावृत्ति: प्रत १०००-हिन्दी अनुवाद तथा मूल प्रत १०००-गुजराती अनुवाद तथा मूल
प्रत्येकका मूल्यः रुपीया ६ पोस्टेज पृथक
मुद्रक : श्री चंदुलाल लल्लुभाई भट्ट अपना छापखाना : भावनगर (सौराष्ट्र)
Page #5
--------------------------------------------------------------------------
________________
देव स्तुति तथा ग्रंथकर्ता का परिचय
गणाधिपं नमस्कृत्य देवीं सरस्वतीं तथा ब्रह्मा विष्णु महेशादि सूर्य दिनकरं सदा ||१|| शिल्पशास्त्रप्रकर्त्तारं विश्वकर्मा महामुनिम् 1 मनसा वचसा नत्वा संथारम्भ करोम्यहम् ||२||
गणोंके अधिपति श्री गणेश, देवी सरस्वती, ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदिको और दिनको प्रज्वलित करने वाले सूर्यको नमस्कार करके शिल्पशास्त्रोको उत्कृष्ट करनेवाले (प्रयोजक) महामुनि श्री विश्वकर्माको मनवचन से वंदन करके में प्रभाशंकर इस ग्रंथके अनुवादका प्रारंभ करता हूं ।
वंशेऽस्मिन् रामजी शिल्पी ख्यातोऽवं वास्तुकर्मणि । तस्मिन्नैवान्वये जातः प्रभाशङ्करः पञ्चमः ||३|| सूत्रधार इति ख्यातो नाथनामाभिधानवान् । वास्तुमञ्जरी नामाऽयं ग्रंथः प्राणकृतवान् शिवः || ४ || तस्मिन्नैवान्तरगते प्रासादमञ्जरी संज्ञके | सुप्रबोधिनी टीकां ग्रन्थेऽस्मिन हि करोति सः ||२५||
८८
भारद्वाज गोत्र जिसमें श्री रामजीभा जेसे वास्तुकर्म में प्रख्यात शिल्पी हो गये । ऊसी कुलमे श्री ओघडभाइ के कनिष्ठ पुत्र प्रभाशङ्कर पांचवी पीढीमें हुए । नाथजी नामके विख्यात सूत्रधारने कल्याणकारी “ वास्तुमञ्जरी ग्रन्थ सोलहवीं शताब्दिमें लिखा । जिसके अंतर्गत प्रासाद मञ्जरी नामके ग्रन्थ पर सुप्रबोधिनी नामकी टीका उसी विख्यात कुलमें पैदा हुए स्थपति श्री प्रभाशंकरने लिखी है ।
66
""
ગણાના અધિપતિ એવા શ્રી ગણપતિને, શ્રી સરસ્વતી દેવી અને બ્રહ્મા, વિષ્ણુ અને મહેશ આદિ દેવેને અને દિવસને ઉજ્જવળ કરનારા એવા સૂર્ય - નઃરાયણને નમસ્કાર કરીને તથા શિલ્પશાસ્ત્રના ઉત્કૃષ્ટ કરનારા મહામુનિ શ્રી વિશ્વકર્માને મન અને વાણીથી નમસ્કાર કરીને હું આ ગ્રંથના અનુવાદના પ્રારંભ કરૂ છું.
..
પ્રત્યેાજક ) પ્રભાશંકર
વાસ્તુકમ માં પ્રખ્યાત એવા જે ભારદ્વાજ ગેાત્રમાં શ્રી રામજીભા નામના સ્થપતિ થયા તેમના વશમાં પાંચમા શ્રી પ્રભાશકર જે સ્થપતિ આઘડભાઇના કનિષ્ઠ પુત્ર થયા તેઓએ શ્રીનાથજી નામના વિખ્યાત સૂત્રધારે કલ્યાણકારી
વાસ્તુમ જરી ” નામના ગ્રંથ પહેલાં સેાળમી સદીમાં રચેલા. તેના અંતર્ગત
प्रासाद मंजरी" नामनो ग्रंथ पर सुप्रबोधिनी नामनी टीअ ते प्रसिद्ध વશકુળમાં ઉત્પન્ન થયેલા શ્રી પ્રભાશ કર સ્થપતિએ કરી.
Page #6
--------------------------------------------------------------------------
________________
अभिनन्दन पत्र म्
|| श्री शंकरः पातु वः ॥
इह खलु गीर्वाणगीर्शा विपश्चितोऽविपश्चितच जनन्ति ब्रह्मस्वरूपिणं शिल्पशास्त्रदक्षं बहुकलाप्रवीणं नाम प्रभाशंकरम् । सोमपुराविप्रसमाजे जरीजागर्ति तस्य विपुलं यशः, तद्यथा—
श्लोक-मुदाधिकयोत्फुल्ल द्विजवरशतास्य श्रुतिखावलि ।
प्रभा पूर्वो यत्र द्विज गृहिणी तु पार्वती रूपा अनेक शिल्पशास्त्रषु ओघडभाई जनकस्तस्य
व्याप्तं शश्वज्जयतु यमुने पालितानः || कपटवेषी स्मरहरः 1 मोतीबाईति विश्रुता ॥ १ ॥ कृत भूरि परिश्रमः ।
शिल्पशास्त्रसुदीक्षितः ॥ २ ॥
स साक्षा विश्व हि क्षीरार्णव टीकायां
जगत्यां मन्यते बुधैः । चमत्कारः प्रदर्शितः || ३ ||
dering प्रभाकरस्य टीका ग्रन्थानधीत्यापि सः । वेदाया प्रासादतिलकमुभयं शास्त्रान्समभ्यस्य च ॥ नूतनाचैक स्वहस्तलेखनकला लोके समक्षीकृता । सोयं वै विदधातु तस्य मनसः कीर्ति सदा माधवः ॥ ४ ॥
7
सर्वशास्त्रान समाधीत्य शुद्धाशुद्धिविवेकतः । निरमा पि प्रयत्नेन प्रभाशंकर धीमता ॥ ५ ॥
तत्र भवतां शुभचिंतकः । पं. चुन्नीलाल व्याकरणाचार्य : ठे. नगरापाइसा, मु. मथुरा.
अद्यावधि न केनापि विदुषा पूर्वोक्तानां प्रन्धानामेतादृशी टीका निर्मिता निर्मायिता च । यस्याः पठनमात्रेण पामरोपि बुधायते । किमधिकंजल्पितेनेतिशम ।
Page #7
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सोमनाथजीके महाप्रासादके प्रवेशः (मध्यमें संपादक)
Page #8
--------------------------------------------------------------------------
________________
१ श्री सोमनाथ प्रासाद के निर्माता श्री प्रभाशंकरजी. २ राष्ट्रपति डो. राजेन्द्रप्रसादजी. ३ ना. जामसाहेब.
Page #9
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रस्तावना
देशकी संस्कृतिका मूल्य प्राचीन स्थापत्य और साहित्य पर निर्भर है। विद्या और कला देशका अनमोल धन है। शिल्प स्थापत्य मानव जीवन का अत्यंत उपयोगी और मर्मसे भरा हुआ अंग है। असके द्वारा ही प्रजा जीवनका विकास, सुघडता, ध्येय, कलाप्रियता स्पष्ट देखनेमें आता है। यह फन हृदय और चक्षु दोनों को आकर्षित करता है। शिल्प सांदर्य मात्र तरंग नहीं है किन्तु हृदयका भरपूर भाव है। जगतमें भारतीय स्थापत्य अच्च कोटिका और गौरवान्वित करे असा है। धर्मबुद्धिसे प्रेरित होकर भारतमें सर्व साहित्यका प्रारंभ हुआ है। इससे शिल्प शास्त्रभी धर्मभावना के साथ संकलित हुआ है और असकी बुद्धि पूर्वककी रचना प्राचीन ऋषि मुनियोंने की है।
प्रागैतिहासिक कालमे संसारके प्रत्येक प्राणीको शीत. ताप वर्षा आदि विविध प्राकृतिक कठिनाभी के सामने अपनी रक्षाकी जरूरत महसूस हुअी। अिसीसे वास्तु विद्याका प्रारंभ स्थूलरूपसे आदि कालसे हुआ मनाया जाय । जिस तरह भूचरोंने जमीनमें बिल वनाया, खेचरोंने घोंसला बनाया, असी तरह मनुष्यने भी घासफूसकी पर्णकुटी बनायी या तो पहाडोमें गुफा खोज वास किया है । अिस तरह मानव निवास के प्रारंभ के बाद सामुहिक वासका ग्राम स्वरूप और बादमें नगररूप देखनेमे आता है । मानव सभ्यताके साथ ही शिल्प विज्ञानका विकास क्रमशः होता रहा ।
भारतीय वास्तुविद्या का प्रारंभ काल बहुत प्राचीन है। वेद, ब्राह्मणग्रंथ, पुरान, गमायण, महाभारत, जैन आगम ग्रंथ; बौद्धग्रंथ, संहिता, और स्मृति ग्रंथोंमें भी वास्तुविद्याके अल्लेख पाये जाते हैं। ऋग्वेदादिमें वास्तुविद्याके वर्णन और अन्य उल्लेख जव नजर आते है तब ज्ञात होता है कि जिनके भी पूर्व कालमे यह विद्या व्यवहारमें होनी चाहिये। अथर्व वेदके सूक्तों में स्थापत्य कलाके बारेमें बहुत कुछ कहा है। शिल्प शब्दका प्रथम · झुपयोग ब्राह्मणग्रन्थोंमें हुआ है। प्रतिमा पूजनका प्रारंभ वैदिक ब्राह्मण युगमें हुआ है । आश्वलायन गृह्यसूत्र और अन्य सूत्रप्रथोमें वास्तुविद्याके कितने सिद्धांत देखने मिलते है । सामवेदमें गृह्यसूत्र गोभिल में वास्तुविद्याके सिद्धांत दिये है। घरका द्वार किस दिशामें रखना, अिसका फल क्या है, किन किन दिशा या विदिशाओं में कौन कौनसे वृक्ष बोना, भूमिफल, स्तुति, भूमि परीक्षा, रस, वर्ण, गंध, प्लव (ढाल) और आकार परसे कहे है।
Page #10
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्राचीन आर्ययुगमें यह कला सरल रूपमें अल्पजीवी पदार्थ युक्त थी । काष्ठ, पाषाण, बादमें इष्टिका, धातु आदि वास्तु द्रव्योंका झुपयोग शनैः शनैः होता गया । रामचरित मानस और महाभारत जैसे जैतिहासिक महाकाव्योंमें देवालय, महालय
और सामान्य गृहोंके विविध वर्णनके शाब्दिक चित्र हैं। मानव उत्क्रांतिके साथसाथ शिल्प विद्याका भी विकास होता गया ।
समरांगण सूत्रधार और अपराजित सूत्रस'तानमें' वास्तुउद्भवकी पौराणिक आख्यायिकाओंमें अेक मनोरंजक कथा है । पृथ्वीके विकासके प्रारंभकालमें पृथुराजासे भयत्रस्त पृथ्वी सृष्टिकर्ता ब्रह्माके पास गी । और अपने पर गुजरते त्रासका निवेदन किया । ब्रह्माजीने पृथुराजको बुलाया और हकीकत पूछी । पृथुने ब्रह्माजीसे प्रार्थना करते हुओ कहा कि हे जगन्नाथ, आपने मुझको जगतस्वामि बनाया । पृथ्वी के अपर तो गढे, टीले, पर्वत आदि बहुत है तो वर्णाश्रमधर्म के योग्य लोगों के वास के लीये समतल भूमि बनाना अनिवार्य है ही। अिसके सिवा उपाय क्या है ? महाराजा पृथुकी बात सुनकर, दोनों को शांत करके प्रजापतिने कहा "हे महीपाल, आप मही याने कि पृथ्वीका विधिवत् पालन करें तभी यह पृथ्वी निस्संदेह निष्पाप होकर आप और समस्त प्राणिवर्ग के उपभोगके लिये योग्य बनेगी। अपने स्थानादि के लिये सर्व सिद्धि प्रवर्तक भृगुऋषिके भानजे (प्रभास के पुत्र) विश्वकर्माका बहुमान करे, सुनको सेवा संपादन करे । वे बृहस्पतिसम प्रखरबुद्धिवाले हैं। वे आपके राज्यमें पुर, ग्राम, नगर गृहादि बसायेंगे जिससे यह पृथ्वी स्वर्गसम बसने योग्य बनेगी । अतः हे वत्स, तुम जाओ अपना काम करो। और हे पृथ्वी, तुम भी भय छोडके राजा पृथुकी प्रियंकर, बनो और हे विश्वकर्मा आप भी राजा प्रजाके अिच्छित कार्य कीजिये ॥” अिस तरह पृथुराजाने विश्वकर्माकी सेवा प्राप्त की और पृथ्वीको शिल्प- स्थापत्यसे सजाया ।
जैन आगम ग्रंथो में भी वास्तुदेवों के नाम और अनकी बलिपूजादि विधियां दी गयी है । अस संप्रदायके स्थापत्योमें चैत्य, स्तूप, विहार और स्तंभोंकी प्रथा थी। बौद्धोंने भी अनका अनुसरण किया था नहीं यह बात खोजनेकी है । ईसवीसनके पूर्वका मथुरामें अक जैन स्तूप था । जैन आगामें देवालय को वैत्य कहते हैं। जैनसाधुओंके वासके लिये विहारकी प्रथा अस संप्रदाय में थी । अिस प्रथामें परिवर्तन हुआ और वर्तमानमें शहरों में "उपाश्रय” होने लगे। जैनोंमें स्तंभकी प्रथा अबतक दिगम्बर संप्रदायमें मौजुद है।
भगवान वृषभदेवके बाद अनके पुत्र भरत चक्रवर्ती और बाहुबलीने की
Page #11
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्थापत्यों की रचना की, और असका ब्योरा जैन ग्रंथोमें किया गया है । बाहुबली ने तक्षशिला बसायी जहाँ इक्कीस इक्कीस २१४२१ प्रत्येक बाजूके मडपवालो चतुमुख प्रासाद अन्होंने बंधाया भरतचक्रवर्तीके पुत्र सोमयशाने त्रैलोक्य दीपक नामका प्रासाद बनाया जिसका अद्भुत वर्णन जैन ग्रंथों में है। पवित्र शत्रुजय नदीकी पूर्व में और दक्षिणमें "सुरविश्राम" और "रत्न तिलक" नामके प्रासाद, और गिरनार पर "सुरसुदर" नामके चतुर्मुख प्रासादके अिर्दगिई ४४११ चौवालीस म डपवाला उद्यान सहित प्रासाद और पश्चिममें "स्वस्तिका-वर्तिक' नामका प्रासाद भी बनवाया था।
भरत चक्रवर्तीने अष्टापद पर्वतपर की जहाँ ऋषभदेव के अग्नि संस्कार हुओ थे असी स्थलपर तीन बडे स्तूप बंधाये और अक योजन लंबा और चौडा चतुर्मुख 'सिंहनिषद्या” नामक प्रासाद बनवाया और वहाँ पर अँचा स्तूप और छोटे छोटे स्तूप बंधाये । अिन सबों के वर्णन जैन ग्रंथोमें दिये हैं। परंतु अनके अवशेष आज देखनेमें आते नहीं । ___ महाभारतकी पांडवो की सभाका वर्णन देते हुओ "विश्वकर्मा" या "मय" स्थपतिके स्थानपर अर्जुनके मित्र मणिधुडविद्याधरने विद्यावलसे इंद्रसभा जैसी नवीन सभाका निर्माण किया था असा वर्णन दिया है ।
बौद्ध संपदायके स्थापत्यो में भी जैनियों जैसी चैत्य. स्तूप विहार और स्तंभकी प्रथा विदामान थी । बुद्ध निर्वाण के दो शताब्दि वाद प्रतिमा पुजनका प्रारंभ हुआ। अनके अपर देवालय बनाये गये जिनको चैत्य कहते हैं। बुद्ध या अनके संप्रदायके महापुरुषोंके अस्थि, बाल, या भस्मके अपर स्मारक बनाने में आते । असे स्थापत्यको "स्तूप (उलटे टोकरेके आकारका)" कहते हैं। बौद्धसाधुओंके रहने के या अध्ययन करनेके स्थानको “विहार" कहते है। खुद बुद्ध भगवानने विहारके मापके बारे में कहा है । बुद्ध भगवानने जहाँ जहाँ बास किया हो या अपदेश दिया हो, जैसे पवित्र स्थानोंपर अनुयायीयोंने स्मृतिरूप विशाल "स्तंभ" खडे किये हैं। वर्तमानमें यह सब स्थापत्य संपूर्ण रूपसे या अवशेष रूपमें देखने में आते हैं। ___ वैदिक, जैन, या बौद्धसंप्रदायकी कंदराओ बनाी जानेके बाद देवालयोंको बांधनेकी प्रथा शुरु हुी होगी अमा माननेका कारण मिलता है। देशके पृथक पृथक भागों में कैदरा बन सके जैसी गिरिमालाओं मौजुद है । वहाँ पहले तो सरल रूपमें गुफाओं होने लगी और बादमें घाट और नक्काशी कामसे अलंकृत होने लगी। अिनमेंसे की गुहाओं की छत काष्ठकी प्रतिकृति रूप हैं । असा माना जाय कि यह कला लकडीपरसे पत्थरमें उतरी । जैसी कलामय गुफाओं की छत
Page #12
--------------------------------------------------------------------------
________________
४
दिवारोंपर पौराणिक धार्मिक प्रसंग सुंदर मूर्तिओं के साथ नराशी गयी है । अनको देखते ही जगत भरके कला रसिकों के सर भारतीय शिल्पियोंके सामने झुक जाते हैं ।
महाबलिपुरम्, धारापुरी, नासिक, भज, अजंदा अिलारा बिहार अडीमाकी उदयगिरि खंडगिरि इत्यादि गुफाओं दर्शनीय हैं । जहाँ शिल्पियों ने जड पत्थरको सजीव रूप दिया, और पुराण के कालका हूबहू प्रदर्शन किया, वैसे स्थानोंको देखकर गुणज्ञ प्रेक्षक शिल्प की सर्जनशक्तिको सराहते हैं । यहाँपर टाँकी के शिल्पसे या (पीछी) तूलिका के चित्रोंसे ये शिल्प अमर कृतियाँ सिरज गये हैं । अखंड पहाडमेंसे बनायी गयी इलोराके कलामंदिरकी रचना तो शिल्पिकी अद्भुत चातुर्यकलाका अजोड नमूना है ।
मूर्तिपूजा और देवालयोंकी आवश्यकता
भारतके प्रत्येक संप्रदाय में मूर्तिपूजा प्रधान है । असके आरंभ कालके बारेमें विद्वानोंका मतभेद है । वेदोंमें मूर्तिके विषय में उल्लेख हैं। ध्यान योगकी सिद्धिके लिये ज्ञानी महापुरुषोंने प्रतिमाकी जरूरी स्विकारी । वेदकालमें यज्ञके क्रियाकाडोंमें देवोंकी स्तुति के साथ बलि दिये जाते थे । अिन देवोंके वर्णनमें अनके आयुध, वाहन, वर्ण इत्यादिकी कल्पना परसे प्रतिमाका स्वरूप निर्माण हुआ । भक्तिमार्गमें प्रतिमा पूर्ण अवलंबनरूप होनेसे मूर्तिपूजाकी जरूरत खड़ी हुआ ।
अस विचारका मूल प्रारंभ निराकार लिङ्ग पूजनसे हुआ, जिसके बाद में ही साकार मूर्तियाँकी कल्पना पैदा हुआ । आर्यावर्त के सिवा पच्छमके देशों में आदम- इवाको पृथ्वीकी प्रजोत्पत्तिका आद्य मानने लगे । आर्यावर्तने सुनको शिव और शक्ति स्वरूपमें स्विकारा । बादमें वैदिक धर्ममें सर्जक, पालक और संहारक देवो ब्रह्मा विष्णु और महेशकी कल्पना प्रादुर्भूत हुआ । धार्मिक दृष्टिसे साधक, साध्य और साधन अनुक्रमसे भक्त, प्रतिमा और माक्ष, - माने जाते हैं ।
•
प्रतिमा - मूर्ति की जरूरत स्वीकार्य होनेके बाद देवालयोंकी आवश्यकता हुआ । त्रिमूर्ति और बादमें पंचदेव-ब्रह्मा, विष्णु, शिव, गणेश, और सूर्य की पूजा भारत में स्थल स्थल पर होने लगी । विविध तीर्थ स्थानोंके माहात्म्य अनुसार देवदेवियोंके मंदिर भारतके प्रत्येक प्रांत में बंधाने लगे ।
शिल्प स्थापत्यकी कितनी ओक शैलियों का जन्म ही भारतीय आध्यात्मिक विचार धारा से हुआ है । पुनर्जन्म के सिद्धांत अनुसार जीव-प्राणी विकास करते करते अनेक उच्च कोटियोंमें जन्म लेते हुये आखिरको ब्रह्ममें विलीन हो जाता है।
Page #13
--------------------------------------------------------------------------
________________
यह सिद्धांत देवमंदिरके शिखग्रूप शकु आकारमें समाया हुआ है । अिसमें भारतीय शिल्प पद्धति अंडसृष्टिके सिद्धांत की विलीनताका दर्शन कराती है । शिल्प की आध्यात्मिक भावनाका यह अक स्पष्ट चिन्ह हैं । धर्मप्रवृत्तिसे ही धार्मिक स्थापत्य भारत भरमें खडे हुआ है । और अिनके द्वारा ही शिल्पि वर्गको प्रोत्साहन भी मिला है । प्राचीन कालमें शिल्पीको ब्रह्माका पुत्र मानते थे और असका पूजन होता था । अशिया खंडमें जापानमें बौद्ध धर्मका प्रचार हुआ तब अस देशकी राजमाताने बाखुशी मुनाद द्वारा अपनी अिच्छा प्रदर्शित की थी कि “अपने राज्यके नगरों या अद्यानों में शिल्पियों के टॉकों का गुंजार हमेशां सुनाता रहे"।
संहिता और स्मृतिग्रंथोंमें स्थापत्य ।। असा कहा है कि चतुर्विध स्थापत्य, अष्टादश आयुर्वेद और ज्योतिष-अिन सब शास्त्रों के मूल प्रवतक ब्रह्माजी हैं । चतुर्विध स्थापत्यमें (१) पुरनिवेशादि (२) भवन निर्माणादि (३) प्रासाद वास्तुशास्त्र (४) जलाशयादि का समावेश होता है । वास्तुविद्या अथर्ववेदका अपवेद है । जिस तरह शुक्राचार्यजी कहते है अनंत विद्या और असंख्य कलाओं की गिनती नहीं हो सकती किन्तु मुख्य विद्या बत्तीस ३२ हैं और मुख्य कला चौसठ ६४ अन्होंने कही हैं । अिन विद्या और कलाओं की व्याख्या देते हुओ शुक्राचार्यजी कहते हैं
यद् यत्स्याद् वाचिकं सम्यक्कम विद्याभिसंज्ञितम् ।
शक्तो मूकोऽपि यत्कर्तुं कलासंज्ञं तु तस्मृतम् ।। जो कार्य वाणीसे हो सके असे “विद्या" कहते हैं । और गूंगा भी जिस । कायको कर सके वह कला । शिल्प, चित्र, नृत्य आदि मूक भावसे हो सकते है । अतः अन सबको कला कहते हैं ।। ___शुक्राचार्यजीने ६४ कला कही है। जैन सूत्रों में समुद्रपालने ७२ कला गिनाी हैं । कामशास्त्रमें यशोधरने ६४ कला कही है जिन के अव्य तर भेदसे ५१२ कला दी हैं । ललित विस्तारमें ६४, कामसूत्रमें २७ और श्रीमद् भागवतमे ६४ कही है। मालाकार (माली), लोहकार (लोहार) शंखकार (शंखके आभूषण बनाने वाला ) सुवर्ण कार (सुनार), कुलिन्दर (जुलाहा), कुभकार (कुम्हार) केसकार (कसेरा), सूत्रधार और चित्रकार । अिस तरह कलाओ मे विविध हुनर का समावेश किया है। नृत्य, गीत, वादिन ये सब कलाओं हैं । महाभारतमें विश्वकर्माको हजार शिल्पिका स्रष्टा कहा है ।
भृगुसंहितामें महर्षि भृगुने १ धातुखंड, २ साधनखड ३ वास्तुख'ड का
Page #14
--------------------------------------------------------------------------
________________
वर्णन दिया है जिनमें (१)धातुखंडके तीन वर्ग कृषि, जल और खनिजखेती करना जलबाँध बनाना और जमीनमेंसे खनिज द्रव्य खोद कर निकालना ।
(२) साधनखडमें "नौकारथाग्नियानानां कृतिः साधनमुच्यते । नौका, रथ, अग्निसे चलता वाहन (ो जिन) ये तीन वाहन पृथ्वी पर रथ, अग्नियान, और जलमें नौकायान और हवामें व्योमयान "आकाशे अग्नियानं च व्योमयानं तदेव हि" अिस तरह जलचर, भूचर और खेचर तीन प्रकारके वाहन कहे है ।
(३) वास्तुखंडमें " वेश्मप्राकारनगररचना वास्तुसंज्ञितम् ” मकान, किले, नगर, देवालय, जलाशय इत्यादि कहे हैं।
आजीविकाके साधनकी हैसियतसे जिस कलाका मनुष्यने स्विकार किया, असी व्यवसाय वर्गके समूह के अनुसार ज्ञातियां हुी विविध कला विविध क्रियाद्वारा होती है। मनुष्य जिस कलाका आश्रय लेता है असीके अनुसार असकी ज्ञाति या बिरादरीका नाम होता है । अिस तरह कलाके वर्ग अनुसार पेशेवाली ज्ञातियोंके समूह हुआ ।
वास्तुशास्त्र, शिल्प और स्थापत्यकी व्याख्या वास्तु स्थापत्य और शिल्प शब्दकी स्पष्ट व्याख्या के अभावमें उनका मिश्र स्वरूप समजकर भाषा प्रयोग हम करते हैं किन्तु वास्तुशास्त्र अिन सर्वके विस्तृत अर्थमें है । असके अंतर्गत स्थापत्य और स्थापत्य के अंतर्गत शिल्प है
वास्तुशास्त्र-स्थापत्य-शिल्प वास्तुशास्त्र-देशपथ, नगर, दुर्ग, सरोवरादि जलाशय, उद्यान, वाटिका, आरामस्थान, राजप्रासाद, देवप्रासाद, सामान्यगृह, शल्यज्ञान, सिराज्ञान, भूमि परीक्षा अिन सर्व विद्याके शास्त्र को वास्तुशास्त्र कहते हैं।
स्थापत्य नगर, दुर्ग, जलाशय, राजप्रासाद, देवप्रासाद, सामान्य गृह इत्यादिका काम स्थापत्यमें आता है।
शिल्प--दुर्गद्वार, राजभवन, देवप्रासाद, जलाशय, आदि स्थापत्यो में सुशोभन, अलंकरण, गोखा, झरोखा बगेराह को अलंकृत करना इस कलाको शिल्प कहते है।
स्थापत्य का विकास भारतीय स्थापत्यका विकास बहुधा धार्मिक भावनासे हुआ है । देवमंदिरो के बाद राजाद्वारा नगर, दुर्ग और राजभवन हुए। धनिकोंने अपनी जरूरतके
Page #15
--------------------------------------------------------------------------
________________
मुताविक अदार वृत्तिसे इस कामको आगे बढाया । इसवीं पूर्व पाँचवीं शताब्दि के प्राचीन भनावशेष मिलते है जिनको देखकर हम कह सकते हैं कि यह विकास राजा और धनिकों की बदौलत ही हुआ है । इस देशकी शिल्प स्थापत्य और विद्याकला कौशल्यकी समृद्धि अजोड है जिसके वर्णन प्राचीन महाकाव्यों में उपलब्ध हैं।
प्राचीन स्थापत्यके कालक्रमसे हम असा अंदाजा लगा सकते हैं कि दीर्घकालकी व्यवहारू अनुभूति के बादही स्थापत्यके नियम गढ़े गये थे । भारतके अलावा. और प्रदेशों में भी अिसका असर देखने में आता है ।
स्थापत्यों में खास करके देवमंदिरों के विविध विभागों की रूप पद्धति का विकास पृथक्पृथक् कालमें प्रत्येक विभागमें स्वयम् होता गया । धार्मिक मान्यता, भावना और साधनके योगसे भिन्नभिन्न रूपों का अद्भव हुआ है। जिससे यह कहना कि अमुक पद्धति चौकस संप्रदायको है यह गलत है । अमुकरूपका प्रवर्तन अमुक स प्रदायने किया अिससे यह ब्राह्मणी, वैदिक, बौद्ध या जन संप्रदाय की शैली है यह कहना ठीक नहीं, मनगढंत है । देशके चौकस विभागमें प्रचलित ओक या दूसरे संप्रदायकी शैलीमें देशके अस विभागमें कालक्रमानुसार नवीं दसवीं शताब्दि पर्यंत स्थापत्यों के रूप संबंधी परिवर्तन होते ही रहे हैं, जिसके बाद ही स्थायी सिद्धांत तय हुआ होंगे जैसा मानना होता हे । पाश्चात्य विद्वानलोग भारतीय स्थापत्य कलाके सांप्रदायिक भेद बताकर रचनाकी पहचान कराते है यह बिलकुल असत्य हैं । ये तो मात्र कालभेद और प्रांत भेदसे प्रचलित शिल्प पद्धति के भेद हैं। भारतीय स्थापत्य कलाका खास लक्षण तो अिसमें बाँधकामके रूपकी सहेतुक रचना है जो वैदिक, बौद्ध या जैन किसीभी संप्रदायके मदिरमें स्पष्ट रूपसे देखने में आती है ।
__ कलाको प्रोत्साहन __भारतमें राजा, धर्माध्यक्ष, आचार्य और श्रीम'त वर्गने शिल्प स्थापत्य और कलाको प्रोत्साहन देकर असे जीवंत रखा है । वे असे अपना प्रधान धर्म मानते । द्रविडके बडे बडे राजाओने अपना राज्य धन देवधर्म मानकर खूब खरचा था । अिसीसे ही द्रविडके स्थापत्य बिशाल और भव्य हुआ हैं। वर्तमानमें राज्याध्यक्ष, धर्माध्यक्ष, और धनाध्यक्ष ये तीनो वर्ग अदृश्य होते जाते हैं । अिस तरह कलाका कदरदान वर्ग घिसता जाता है । अफसोसके साथ कहना पड़ता है कि वर्तमान राज्य सरकार भारतीय शिल्प स्थापत्य प्रति उदासीन है। वर्तमान सरकार नाटक, चेटक, नृत्य, संगीत जैसी क्षणिक मनोरंजक कलाको स्थान देकर
Page #16
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रोत्साहित करती है, जब स्थायी स्थापत्य कला और असके प्राचीन प्रथों के संशोधन की और दुर्लक्ष करती है । अतः अर्मज्ञ. कलाविदों को लाजिम है कि वे अिस प्रश्नको झुठा लें और अत्तजन के लिये प्रबल प्रयत्न करके बचेखुचे कलामर्म झोंको प्रोत्साहित करे । विद्यापीठों का भी यह कर्तव्य है । अॅजिनीयरींग कालेजों मे अिस विद्याको स्थान मिलना चाहिये । उसमें थीअरेटिकल और प्रेकटिकल (क्रियात्मक ) ज्ञानकी व्यवस्था होनी चाहिये ।
शिल्पि प्रशंसा भारतीय शिल्पियोंने पुराण प्रसंगोको पत्थरमें सजीव किया है। उनके टॉकेकी सर्जन शक्ति परम प्रशंसापात्र है । पाषाण शिल्पसे शौर्य और धर्मका बोध होता है । अचेतन पत्थरको वाचा देने वाले जैसे कुशल शिल्पि भी कवि हैं। सचमुच वे हमारे धन्यवाद के काबिल हैं । अलबत्ता, कला कोऔं धर्म या जाति विशेषकी पूंजी नहीं, यह तो समग्र मानव समाज की है । भारतीय शिल्पियोंने अिस कलाद्वारा स्वर्ग वैकुंठको पृथ्वीपर उतारा है। राष्ट्र जीवनको समृद्ध बनाया और प्रेरणा अर्पण की है। हमारी जैसी स्थापत्य कलाकी ओर आज राजकर्ता सरकार विरक्त हुी है । धनीवर्ग दुर्लक्ष करे जैसे संयोग है । देशका यह दुर्भाग्य है ।
जड पाषाणमें प्रेम, शौर्य', हास्य या करुण भाव दिखाना मुश्किल है । चित्रकार तो रंगरेखासे यह दिखा सकता है। किन्तु शिल्पी विना रंग पाषाणमें जिनका भावात्मक सर्जन कर सकता है यही उसकी खूबी है यहाँ पर उसकी अपूर्व शक्तिकं दर्शन होते है । भारतीय कलाने तो जगत के शिल्प स्थापत्यमें अनमोल हिस्सा दिया है ।
सार्वजनिक उद्यानों में नग्नस्वरूप बनानी हुश्री प्रतिमा अभद्र विकारोंको जगाती हैं । अपने शास्त्र अिसका निषेध करते हैं और असे शिल्पी को अपराध मानते हैं । किन्तु की आधुनिक कला विवेचक कहते हैं कि नम देह तो नैसर्गिक है। उसके उपर (कृत्रिम) बनावटी वस्त्रोंके परिधानसे कलाकी हत्या हो जाती है । उनके प्रति हमारा अक ही सवाल है कि कलाके साथ नीतिका कोी संबंध है या नहीं ?
मूर्तिविधानमें सर्व शिल्पि समान कर्तव्यशील नहीं हैं । अप्रतिम कौशल्य बिना किसीको मूर्ति घडना ही नहीं असा प्रतिबंध तो शक्य नहीं । जिससे ही भिन्न भिन्न कलाकारों से निर्मित मूर्तियों में कम या अधिक सौन्दर्य देखने में आते हैं।
Page #17
--------------------------------------------------------------------------
________________
कलाकृति कुंदरत के साथ साम्य धराती होनी चाहिये। जिस दृष्टिसे भारतीय कलाकृतियोंको हम देखें तो भारतीय शिल्पि कुदरतकी बनिस्बत भावनाको प्रबल मानते हैं ।
वास्तु शास्त्र के महान प्रणेता
मत्स्यपुराण और अन्य शिल्पग्रंथो में वास्तुशास्त्र के अठारह आचार्यके नाम दिये हैं । उन्होंने शिल्पग्रंथों की रचना की और अन्य शास्त्रों पर भी उन्होंने लिखा है । वे ऋषिमुनि अरण्य के शांत वातावरणमें रहते थे और विद्याके जिज्ञासुओं को अपने आश्रम में रखकर उन्हें विद्यादान देते थे। जिनके नाम हैं१ भृगु, २ अत्रि, ३ वसिष्ठ, ४ विश्वकर्मा, ५ मय, ६ नारद ७ नग्नजित, ८ विशालाक्ष, ९ पुरंदर, १० ब्रह्मा, ११ कुमार, १२ नंदीश, १३ शौनक, १४ गर्ग, १५ वासुदेव, १६ अनिरुद्ध, १७ शुक्र, १८ बृहस्पति ।
जिनके अतिरिक्त बृहत्संहितामें और सात नाम दिये हैं । ये हैं १ मनु, २ पराशर, ३ काश्यप, ४ भारद्वाज, ५ प्रल्हाद, ६ अगस्त्य और ७ मार्कंडेय | अग्निपुराण अ० ३९ की लोकाख्यायिकामें शिल्पशास्त्रके २५ ग्रंथोंकी नोंध मिलती है । वे तंत्र ग्रंथ है । पर जिनमें शिल्प उल्लेख मिलते हैं । उनमें १ शांडिल्य, २ गालव, ३ स्वयंभूव, ४ कपिल और ५ नृसिंह आदि के नाम हैं । वे तांत्रिक शिल्पग्रंथोके प्रणेता माने जाते हैं ।
उपरोक्त मुनिप्रणित शिल्पग्रंथ आज प्राप्य नहीं हैं किन्तु उन ग्रंथोके अलग अलग अध्याय मिलते हैं । या उन ग्रंथोके अवतरण या रेफरन्स अन्य ग्रंथोंमें देखने में आते हैं । बृहत्संहिता में गर्गमत का समर्थन है ।
स्मृति, संहिता और नीतिशास्त्र के ग्रंथो में शिल्प के उल्लेख हैं । पुराणों में तो अध्याय के अध्याय दिये हैं । तांत्रिक ग्रंथोंमें भी जैसा ही है । ज्योतिष ग्रंथों में भी शिल्प का विषय बहुत कुछ मिलता है । हमारे कमभाग्य हैं कि उपरोक्त आचार्यो का अक अखंड अटूट ग्रंथ उपलब्ध नहीं है ।
मासाद शिल्पशैली के प्रकार
नागरादि शिल्प प्रथोंमें कहा है कि भारतके विविध शिल्पकी चौदह जातियाँ विद्यमान थीं, जिनमें से आठ जातियों को देशके किन किन भागोंमें उस जाति के प्रासादकी रचना होती थी उल्लेख है ।
प्रांतोंके प्रासाद
उत्तम कहा है ।
जिसका अस्पष्ट
Page #18
--------------------------------------------------------------------------
________________
नागरा द्राविडाश्चैव भूमिजा लतिनास्तथा । सांधाराश्च विमानाश्च मिश्रकाः पुष्पकान्विताः ।। १ ।। एते चाप्टौ शुभा ज्ञेयाः शुद्धच्छंदाः प्रकीर्तिताः ।
दशजाति--कुल--स्थान-वर्णभेदैरुपस्थिताः ॥२॥ १ नागरादि, २ द्राविडादि, ३ भूमिजादि, ४ लतिनादि, ५ सांधारादि. ६ विमानादि. ७ मिश्रकादि, ८ पुष्पकादि अिन आठ जाति के प्रासाद (चौदहमेंसे) शुद्ध छंदकी, देश, जाति, कुल, स्थान अनुसार वर्ण रूप भेदसे उपस्थित हुओं ।
और आगे किस प्रांतमें किस जातिके प्रासादकी रचना होती है यह भी कहा है। शिल्पग्रंथोमें प्रासादोंकी जातियोंके उद्भवके बारे में कथा आती है कि हिमालयकी उत्तरमें दारुकावनमें जिन जिन देव दानवादि गाने जिस जिस प्रकार और आकारमें शिवजी के पूजनकी रचना की उसी के अनुसार प्रासाद के अिस घाटकी आकृति का जन्म हुआ ।
द्रविड शिल्पग्रंथोंमें १ नागर, २ द्राविड ३ वेसर-ये तीन जातियां कही हैं । उत्तर में नागरादि जाति, दक्खनमें द्राविडजाति, और अिन दोनों के मध्यभागमें वेसरजाति के प्रासाद कहे हैं । तब उत्तर भारतके प्रथोमें विस्तार पूर्वक चौदह जातियाँ कही है। ब्रह्मदेश, सियाम, बाली, सुमात्रा आदि अग्नि पूर्वमें प्रवर्तती हुी जातियाँ, भारतकी अिन चौदह जातियों में से हैं असो लगता है।
____ अिन सब जाति के प्रासाद किन किन प्रांतोमें किन किन स्वरूपोंमें बनाये जाते थे, अिसके संशोधन की जरूरत हैं । विद्वान और अनुभवी ज्ञाता स्थपतियोंकी नियुक्ति करके सरकार को यह आवश्यक श्रेष्ठ पुरातत्व कार्य त्वरित करना चाहिये। स्थापत्याधिकारी
_ वास्तुशास्त्रके प्रथमें कहा है कि यजमानको चाहिये कि शिल्पके गुणदोषकी कसौटी के बाद ही श्रेष्ठ शिल्पिको चुनकर कार्यका आरंभ कराना । स्थपति के गुणदोष संबंधमें कहा है-गुणवान्, शास्त्रज्ञ, गणितज्ञ, धार्मिक, सदाचारी, चरित्रवान् , मिष्टभाषी, निष्कपटी, निर्लोभी, बहु बंधुवाला, नीरोगी और शारीरिक दोषहीन, निर्व्यसनी, चित्ररेखा कार्यमें भी प्रवीण, कुशल होना जरूरी है । स्कंदपुराण के प्रभाम खंडमें सोमपुरा शिल्पि श्रेष्ठ माना गया हैं । शास्त्रकारोंने बांधकाम के अधिकारी के वर्ग कहे हैं - १ स्थपति, २ सूत्रग्राही, ३ तक्षक, ४ वर्धकी । अिन चारोंके कर्तव्यकी नाँध है ।
१ स्थपति-स्थापत्यकी स्थापनामे संपूर्ण योग्यतावाला (चीफ अॅजीनीयर) , २ सूत्रग्राही-स्थपति के गुणकर्मको अनुसरनेवाला पुत्र या शिष्य जिसे शिल्पिओंको भाषामें “ सुतर छोडो” कहते हैं । रेखा चित्र बनानेवाला ड्राफ्ट्समेन
Page #19
--------------------------------------------------------------------------
________________
और सर्व कार्यों का चलान कर सके जैसा निपुण, स्थपतिका आझापालक । सुत्रमाही आर्किटेक्ट अॅजिनीयर ।
३ तक्षक-सूत्रमान प्रमाणको जाननेवाला छोटेबडे पत्थरोंका काम करनेवाला या करानेवाला । सरल या नक्काशी या रूप काम करनेवाला, सदा प्रसन्न चित्त, स्थपति प्रति सद्भाव धरानेवाला तक्षक (ओवरसीयर) है।
___४ वर्धकी-शास्त्रमें अिसके दो प्रकार कहे है। अक तो काष्ठ कार्य करनेवाला (सूत्रधार) और दूसरा मिट्टी कार्यमें निपुण (मोडलिस्ट) गुरुभक्त वर्षकी जानना ।
आधुनिक कालमें सोमपुरा शिल्पिओं को कच्छ देशमें “ गीधर” कहते हैं। वह शब्द गजधर (गज को धारण करनेवाला) का अपभ्रंश है । सौराष्ट्र गुजरात आदि पश्चिम भारतके पुराने शिलालेखांमें शिल्प शास्त्रीको “सूत्रधार" कहा है। उसका अपभ्रंश "ठार" हुआ और सौराष्ट्रके शिल्पी परस्पर अिस शब्दका प्रयोग करते है । अंग्रेजी राज्य शासन कालमें कारीगरेके समूहके अधिकारी को “ मिस्त्री " कहते हैं परंतु यह शब्द शिल्पियोंके लिये ठीक नहीं । शिला को घडने वाला शिलावट, जिसका अपभ्रंश सलाट हो गया। उत्तर भारतमें “शिलावट" शब्द विद्यमान है ।
भारतका शिल्पि वर्ग-भारतके प्रत्येक प्रांतमे' प्राचीन शिल्पका अभ्यासी वर्ग बसा हुआ था । अपने अपने प्रांतोंमें वे प्रचलित जाति (नागरादि, द्राविडादि, भूमिजा, इत्यादि) के प्रासादांकी रचना करते । परंतु कालधर्म और विधर्मीयांकी धर्माधतासे अमुक प्रांतोंमें अिस वर्गका नाश हो गया और उसके स्थापत्य भी (नष्ट) मलियामेह हो गया । प्राचीन शैलीके शास्त्रोक्त नियमानुसार जैसे स्थापत्य होते जिससे उन प्रांतोकी शिल्पशैली (पद्धति) मूलमें किस प्रकारकी और किस कालकी थी यह जानने के साधन अल्प है। बंगाल, बिहार, सरहद प्रांत, पंजाब, उत्तर प्रदेश, कश्मिर या आंध्र प्रदेशमें प्राचीन शिल्प स्थापत्य अभ्यासके लिये तुलनात्मक दृष्टिसे अल्प हैं। यद्यपि खुदाी में ये अवशेषरूपमें पाये जाते हैं। उपर कहा हुवा शिल्पका अभ्यासी वर्ग तेरहवीं चौदहवीं शताब्दि तक अस्तित्वमे था । उन्होंने शिल्पग्रंथों की अच्छी हिफाजत की थी । ग्रंथोके अनुसार उन्होंने कार्य करवाये थे । जैसा शिल्पिवर्ग आज भी सोमपुरा शिल्पिवर्ग पश्चिम भारत गुजरात राजस्थान और मेवाड़में भी है। उनकी उत्पत्ति का अितिहास सोमनाथ महादेव की स्थापना के साथ जुडा हुआ है । स्कंदपुराणके प्रभासखंडमें सर्वश्रेष्ठ शिल्पि सोमपुराको विश्वकर्मा रूप मानकर देवोंने शिल्प स्थापत्यका व्यवसाय उनको सुपूर्द किया था । उन के पास प्राचीन शिल्पग्रंथोका संग्रह है। पूर्व
Page #20
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२
भारतमें उडिया-आरिस्सा प्रांतमें महापात्रका अपभ्रंश महाराणा जातिका शिल्पिवर्ग आज भी विद्यमान है, उनके पास भी शिल्प ग्रंथोका संग्रह ठीक प्रमाणमें है। पुरी और भुवनेश्वर के अनेक मंदिरांका निर्माण उनके पूर्वजोंने किया था । भुवनेश्वरमें उनके दो परिवार (कुटुम्ब) है। जगन्नाथपुरी में बीस परिवार (कुटुम्ब) है और याज पुर में दो बसते हैं ।
द्रविड के शिल्पि विश्वकर्माके वंशज-ब्राह्मणकुल के होनेका दावा करते हैं। उनमें से की सिलोनमें बसते हैं । कुंभकोणम् के पास शिल्पिओंका अंक छोटासा गांव बसा है। वे धातुकी मूर्तिकलामें प्रवीण हैं।
म्हैसुर प्रदेशमें कर्णाटकमें शिल्पि वर्ग बसनेका सुना है। हलशाल राज्य कालने बँधाये हुओ हलीबड, बेलुर और सोमनाथपुरम् के मंदिरोंकी सर्वोत्तम आश्चर्यकारक कृतियाँ अिनके पूर्वजोंकी बनाी हुी है । १११७ ईसवीमें डंकनाचार्य नाम के प्रसिद्ध शिल्पि हो गये । उस काल के अन्य शिल्पियोंके नाम-मलितम्मा, बालेया, चंदेया, यामया, भर्मया, नानज्या, पालमसिया इत्यादि के नाम उपरोक्त मंदिरेमें पाषाण पर खुदवाये मिलते हैं । कर्णाटककी शिल्पशैली वेसर या विराट जातिकी द्रविडसे उत्तरमें होती ।
___ जयपुर और अल्वर की तर्फ के प्रदेशों में गौड ब्राह्मण जाति के शिल्पि प्रासाद शिल्पि की बनिस्बत प्रतिमा विधानके व्यवसाय में प्रवीण है। उत्तर प्रदेशके कितने भागोंमें “जांगड" नामकी जाति है जो अपनेको शिल्पिवर्ग में खपाती है। वे काष्ठकाम, सादा पाषाणकार्य, चित्रकाम, कृषि, और लोहेका काम भी करते हैं । विश्वकर्माको अपना इष्टदेव मानते हैं।
गुजरात और मेवाडमें वैश्य, मेवाडा, गुर्जर और पंचाल ये चारों शिल्पिवर्गकी ज्ञातियाँ हैं । वे दावा करते हैं कि हम विश्वकर्माके पुत्र हैं । वैश्य, मेवाडा, और गुर्जर काष्ठकर्म करते हैं । और पांचाल लोहकार्य में कुशल है।
भारतके की प्रांतोंमें धर्माधता और धर्मभ्रष्टता से धर्म परिवर्तन के कारण कुल परंपरा के व्यवसाय वाला शिल्पिवर्ग नष्ट हो गया हो असा लगता है। शिल्पकार्य में आजीविका की अभाव महसूस होने से वे अन्य व्यवसायमें जुटे हों। वास्तुशास्त्र के ग्रंथांका साहित्य
वास्तुविद्या, ज्योतिष, गणित, भूमिति इत्यादि शास्त्रोंका प्रादुर्भाव, भारतमें ही हुआ है । ये शास्त्र अरब और ग्रीक प्रजाद्वारा पश्चिमके देशोंमें गये । प्रत्येक विद्याके सिद्धांतोंका वर्णन उस विद्याके प्राचीन संस्कृत ग्रंथोंमे उसकाल के प्रसिद्ध ऋषिमुनियोंने किये हुओ, पाये जाते है । उन ग्रंथों में उनके नाम भी जुटे हुआ
Page #21
--------------------------------------------------------------------------
________________
है। यह साहित्य अमूल्य था। पिछले समयमें प्रयोगाभावसे ये वैज्ञानिक अद्भुत विद्याओं पड़ी रही । दुर्भाग्यसे चौदहवीं सदी के बाद विधर्मी धर्माधि शासकोंके हाथ से स्थापत्यांचे साथ अिस अमूल्य साहित्य का भी नाश हुआ । अिसके अलावा शिल्पियों की संकुचित वृत्ति के कारण भी विद्याचोरीसे विकास रुक गया । कालक्रमसे शिल्प ग्रंथ द्रीमकोंके भोग बने । और अज्ञान विधवाओंने अिन ग्रंथोंको भिगोकर "थेपडे" (कागजसे बनाये हुओ बरतन) भी बनाये ! उनमें से जो कुछ बचाखुचा साहित्य रहा वह छिन्न भिन्न अवस्थामे हस्तलिखित प्रतोंके रूपमें प्राप्य है। पूरेपूरा संपूर्ण ग्रंथ क्यचित् हि मिलता है। देवमंदिरोंके बाँधनेवाले शिल्पियोंके पास अपने पेशेकी जरूरत के लिये पर्याप्त भाग मौजुद होता है, बाकी के ग्रंथका कोई हिस्सा अप्राप्य हैं हस्तलिखित प्रतों परसे बनी हुी नकलोंमें भी असंख्य अशुद्धियाँ होती है क्योंकि शिल्पिवर्गमें बहुधा संस्कृत पढे कम है। पिता पुत्रको सक्रिय ज्ञान दे जिससे परंपरासे विद्याका क्रियात्मक ज्ञान टिक रहा । प्रथों पर या सिद्धांतो पर लक्ष कम रहा।।
सोलहवीं सदीमें शिल्पग्रंथ जिस कालमें छिन्न भिन्न हुओ थे उसीकालमें भारद्वाज गोत्र के सोमपुरा मंडनका जन्म सूत्रधार क्षेता - खेता के घर हुआ । अिस विद्वान कुलको मेवाडके कुंभाराणाने गुजरात पादणसे बुलाया, राज्याश्रय दिया और उनके पास भव्य स्थापत्योंकी रचना करवानी । विद्वान मंडनने छिन्न भिन्न शिल्पग्रथांका उद्धार किया । अस्त व्यस्त शिल्पग्रंथोंका संशोधन किया । संक्षिप्त रूपमें वास्तुविद्याका पुनरुद्धार किया । ग्रंथोद्धार का महान कार्य किया जिसके लिये शिल्प जगत उनका अत्यंत ऋणी है। उन्होंने पूर्वाचार्य के मतानुसारराजबल्लभ, वास्तुसार प्रासाद मंडन, रूप मंडन, रूपोवतार. देवता मूर्ति प्रकरणम्ग्रंथांकी रचनाएं की उनके छोटे भाी नाथुजीने भी वास्तुमंजरी नामक ग्रंथ तीन स्तयक ( अध्याय) का लिखा । उस ग्रंथका मध्यका प्रकरण “प्रासाद मञ्जरी" |
सूत्रधार वीरपाल, सूत्रधारमल्ल, सत्रधार राजसिंह सूत्रधार गोविंद, सूत्रधार गणेश, सूत्रधार कौशिक, सू. सुखानंद, पंडित वासुदेव आदि विद्वानांने शिल्प पर छोटे बडे ग्रथ लिखे हैं । ये ग्रथ शिल्पियोंके ग्रंथ संग्रह और भंडारोंमें मिलते हैं । अिन विद्वानोंके स्थल और काल संबंधी निर्णय अभी तक नहीं हो सका है।
शिल्प हमारे कुल परंपराका व्यवसाय होने से नीचे के ग्रंथ संग्रहमें उपलब्ध हैं। कितने ग्रथोंकी एक, दो तीन या पाँच प्रते, जुदे जुदे कालकी थोडे बहुत प्रमाणमें मिलती हैं । ज्ञान रत्न कोश की एक प्रत चौदहवी सदीकी पड़ीमात्रा शैलीकी है । पंद्रहवीं सदीका एक ज्योतिष ग्रंथ है । अन्य कितने प्रथ तीनसौ से सौ वर्षकी अंदर के हैं ।
Page #22
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री विश्वकर्मा प्रणीत । स्. राजसिंह रचित । २ शिल्प रत्नम् १ क्षीरार्णव २४ वास्तुराज
३ मानसार २ वृक्षार्णव २५ वास्तुराज
४ काश्यप शिल्प ३ दीपाव
(अन्य सवी विष्य) ५ वास्तुविद्या ४ वास्तुविद्या सू. गणेश रचित
६ मनुष्यालचंद्रिका ५ सूत्रसंतान २६ वास्तुकौतुक
७ ईशान शिव __ अपराजित सू गोविद रचित
गुरुदेव पद्धति ६ ज्ञानरत्नकोश २७ कलानिधि
पुराण ७ जय पृच्छाधिकार २८ वास्तु उद्धार धोरणी
५ मत्स्य २ अग्नि ८ सूत्रप्रतान
३ भविष्य ४ गरूड ९ विश्वकर्मप्रकाश सु. कौशिक रचित
५ स्कंध ६ अत्कल २९ वास्त्वध्याय ५० विश्वकर्म विद्याप्रकाश
७ विष्णुधर्मातर सु. सुखानंद ११ वास्तुशास्त्रकारिका
संहिता स्मृति आदि ३० सुखानंदवास्तु महाराज भोजदेव कृत
१ बृहत संहिता ३१ वास्तुराजतिलक १२ समराङ्गण सूत्रधार
२ वसिष्ठ ३ नारद ४ गर्ग ३२ सूत्रप्रतान
शुक्रनीति विवेकविलास सूत्रधार मंडन प्रणीत ३३ देव्याधिकार
जैन ग्रंथ १३ राजवल्लभ
पं. वासुदेव १४ वास्तुसार
२ शत्रुजय महात्म्य ३४ वास्तुप्रदीप १५ वास्तुमंडन
२ बृहद्वृत्ति ३५ सच्छिल्पतंत्र १६ प्रासादमंडन
३ प्रवचन सारोद्धार. ये ३५ ग्रंथो अन्य ग्रंथोके १७ रूपमंडन
४ आचार दिनकर
प्रकरण है १८ रूपावतार
५ मत्राधिराज १९ देवता मूर्ति प्रकरण
| ये अपग्रंथ अन्य ग्रंथोका ६ त्रिषष्ठि शलाका पुरुष
छूटे अध्याय है । ७ जिन चतुर्वि शतिका ठक्कुर फेरू कृत १ आयतत्व
८ कुमारपाल भूपाल २० वास्तुसार २ केशराज
चरित्र सूत्रधार नाथु कृत ३ जिनप्रासाद
आगमग्रंथ २१ वास्तुमञ्जरी
४ ऋषभादि प्रासाद १ सुप्रभेद २ कीमिका सूत्र. वीरपाल
५ प्रासाद तिलक । ३ किरण ४ अंशुमभेद २२ वेडाया प्रासाद तिलक | ६ अकविशति मेरु ५ सकला ६ पूर्व करणा
सू. मल्लदेव रचित मुद्रित ग्रंथों में द्रविडके |७ सिद्धांत शेखर ८ सार २३ प्रमाणमञ्जरी । १ मयमत्तम्
। संग्रह ९ जीणों द्वार दशक
Page #23
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रासाद रचना और राज्याश्रय
भारतके प्रत्येक प्रांतकी प्रासाद शिल्पशैली मिन्नभिन्न देखनेमें आती है, किन्तु उसमें तलदर्शन प्लानकी रचना का विकास होता गया । ओरिस्सा, मध्य प्रदेश, गुजरात, राजस्थान, द्रविड, हलशाल, आंध्र, कश्मिर, विहार, बंगाल वगैरह प्रांत बचे खुचे स्थापत्यांका अभ्यास दर्शन करते । उनकी शिल्प शैली और रचनामे थोड़ी बहुत भिन्नता है । मूलदेव, स्थापन गर्भगृह (निजमंदिर) को द्रविड उडीसामें विमान कहते हैं । उससे आगे अंतराल, अिसके बाद प्रार्थना मंडप और आगे चतुष्किका (चौकी) इतना सामान्यतः होता है । उडीसामे नृत्य मंडप और भोग मंडप खास करके होते हैं । गुजरात राजस्थानमें गूढमंडप (दीवार वाला मंडप) स्त्रींकमंडप और नृत्य मंडप-तीन मंडप तेरहवीं सदीके बाद जैनमें होने लगे । अिस तरह क्रमशः विकसते हुए देवमंदिरोंकी रचना पूर्ण हुश्री ।
हरेक मंदिरमें थोडे बहुत खंडोका आधार देव महात्म्य, द्रव्य और स्थान पर निर्भर हैं । यह रचना उत्तर भारतके मंदिरोंमें देखने मीलती है । जब द्रविड मंदिर तो एक छोटी नगरी जैसे विस्तारमें होते हैं। निजमंदिर और प्रार्थना मंडप तो उत्तर भारत जैसे ही हैं, परंतु द्रविड मंदिरोंमें सुंदर कलामय प्रदक्षिणा पथ एक दो तीन या सात तक की संख्यामें होते है । दो प्रदक्षणाके बीच चौक होता है मंदिरकी सुरक्षाके लिये अत्तरोत्तर दुर्ग-कीला जैसे प्रदक्षणा मार्ग होता है । मंदिर के विस्तार में जलाशय, कुंड, भजनकिर्तन मंडप, अन्य परिवार देवोंके मंदिर खुला चौक और बाजार भी होते हैं । कभी मंदिरों में तो मंडप भी हजार हजार स्तंभो के हैं । अिससे ही द्रविड मंदिरोंकी विशालता अधिक होती है । मंदिरकी ऊँचाभी भी बहुत और भव्य है । प्रवेशद्वार भव्य और अनके अपर के सातसे बारह दरजे तक के गोपुर मीलोंतक देखने में आते हैं।
द्रविड मंदिरोंका विशाल स्थापत्य समूहरुपसे ग्रेनाअिट जैसे काले पत्थरोंका है । करोडों का खर्च हुआ होगा । विख्यात पांड्य, चौल, पल्लव, चेरा और चालुक्य राजकुलोने शिव, विष्णु, देवी, कार्तिकस्वाभि आदि जुदे जुदे देवों के ये मंदिर हैं । ये राज्यकुल मंदिर निर्माणको भावप्रधान मानते । प्रत्येक भाविक भक्त भगवान के साकाररूपका पूजन अर्चन करने में अपने को धन्य समजता । अपने राज्य को देवांका राज्य मानते राजकी विपुल आयका ज्यादा भाग देव द्रव्य मानते । परिणामरूप द्रविडमें असे भव्य और विशाल देवमंदिरे के निर्माण हुआ है । विधर्मीके ससे वंचित होनेसे आजभी अनका अस्तित्व हैं ।
अत्तर भारत के राज्यवंशोकी धर्मभावना द्रविडोसे कम न थी। गुजरात में
ENTERTAITHIL
Page #24
--------------------------------------------------------------------------
________________
दशवी से तेरहवीं सदी तक जैसे विशाल स्थापत्य चालुक्य राज्यकुलने बँधाये । सिद्धपुरका रुद्रमहालय, सरस्वती के पूर्व में महाराज प्रासाद, पाटण के सहस्रलिंग तालाब की विशाल रचना सोलंकी राजाओंने की थी । अत्तर भारतमें असे विशाल स्थापत्योंका नाश विधर्मीयोंकी धर्मा धताके कारण हुआ । अनके कालमें असा भय सात सदी तक रहा अतः मंदिर रचना का अद्भव संकुचित स्वरूपका हुआ ।
___ भारतके पूर्व में समुद्रपार हिंदी चीन , अनाम (चंपा), श्याम (सियाम -थाअिलेन्ड), जावा, सुमात्रा वगैरह दूर पूर्वके अग्निशियाके टापुओंमें भारतकी साहसिक प्रजा देढ दो हजार वर्षासे बसी हुश्री थी । वहाँ के भव्य स्थापत्य भारतीय कला और धर्मके हैं। कंबोडिया के अंकोरवाटके विशाल मंदिरका वर्णन करते तो बड़ा ग्रंथ हो जाय ।
भारतकी मय जातिके शिल्पियोंका समुदाय समुद्रपार (पातालभूमि) अमेरिकाकी ओर जाके वर्तमान मेकिसको प्रदेशमें बसे । हालमें भी माया नामकी अलग प्रजाकेरूपमें वे विद्यमान है । अनके रस्म-रिवाज, धर्म पृथक् है । अिजनेरी कलामें अमेरिकामें ये लोग-मेक्सिकन होशियार हैं।
ये लोग सर्व विश्वकर्माके शिष्य शिल्पशास्त्री मय के वंशज हजारे। वर्षो से यहाँ बसे हैं असा माना जाता है । मुस्लिम शासक और भारतीय शिल्प ।
मुस्लिम राजाओंने तेरहवीं या चौदहवीं शताब्दि के बाद कितने शहर, बसाये । दरगाहे', मस्जिदें, राजसभा, दीवान-ओ-खास, दीवान-ओ-आर्म और किल्ले देशकी गजपूत शैलीके बँधाये । अिस प्रकार अन्हेांने भी कलाको अत्तेजन दिया यह न भूलना चाहिये । बाहरके मुस्लिम बादशाह भारतमें आये, पुष्कल द्रव्यको लूटके साथ, हमारे शिल्पियोंको भी साथमें ले गये और अपने देशमें सुदर भवन निर्माण कराया ।
ताजमहल और दक्षिण के बीजापुर के विशाल गुंबद आवाज के परावर्तनक कारण खूब प्रशंसनीय हैं। दिल्ही, आग्रा, फतहपुरसीक्री, लखनौ, लाहौर, मांडवगढ, अहमदावाद, चांपानेर आदि शहर मुग्लिम बादशाह और सुलतानाने बँधाये और अनमें बेजोड काम कराये । भारतीय शिल्प के साथ पाश्चात्य शिल्पकी तुलना ।
भारतीय कला अधिक मौलिक और वैविध्य पूर्ण है अन्यत्र असा कम देखनेमे आता है । भारतीय शिल्प स्थापत्य पर आज सातसौ वर्षों के प्रहारके
Page #25
--------------------------------------------------------------------------
________________
बाद जीवती कलाके दर्शन होते हैं । पाश्चात्यों के साथ भारतीय शिल्पियोंकी तुलना करते कहना पड़ता है कि भारतीय शिल्पिका लक्ष्य अपनी कृतिमें सिर्फ भावना अतारनेका होता है जब पाश्चात्य शिल्पि ताश्यताका निरूपण- अनुकरण करते हैं । भारतीय शिल्पियोंने अपनी कृतियोंमें पृथक्करणीय भावना अँडेलनेका कठिन कार्य किया है।
भारतीय और पाश्चात्य शिल्पियोंके मूर्ति विधानका अक ही अदाहरण पर्याप्त है । अनेक कवियोंने स्त्रीकी प्रकृति-विकृति के गान गाये है। असके सौंदर्य पान करानेवाले भवभूति-कालिदास जैसे महान कवियोंने असके रूपगुण की शाश्वत गाथा गाधी है । भारतीय शिल्पियोंने स्त्री सौंदर्य को मातृत्व भावनाले प्रदर्शित किया जब पाश्चात्य शिल्पियोंने वासनाके फल स्वरूप असको कोरा है ।
भारतीय शिल्पियोंने भारतीय जीवन दर्शन और संस्कृतिको अपना सर्वोत्तम लक्ष्य माना, राष्ट्र के पवित्र स्थानों को पसंद किया, और अपना सर्वस्व जीवन बीताकर विश्रकी शिल्पकलाके अितिहासमें अद्वितीय विशाल भवन निर्माण किये जिनको देखते हम दंग रह जाते हैं । भारतीय शिल्पियोंने पहाडोंके सफेद, मुंगिया, रक्त राता, श्याम, रेतीला और चूनेदार पत्थरोंकी दीर्घकाल शिलाओंको सोडा और भूख प्यासकी परवाह किये बिना अपने धर्मकी महत्तम भावनाको राष्ट्रके चरणोंमे अर्पित किया । जनता जनार्दन और धर्मकी संस्कृतिके प्रतीक को प्रस्थापन किया । जनताने भी शंखनादसे अपने शिल्पकारांकी अक्षय कीर्तिको फैलाया । असे शिल्पियोंकी अजब स्थापत्य कलाके कारन जगतने भी भारतको अजर अमर पद पर संस्थापित किया है । असे पुण्यवान शिल्पियोंको कोटि कोटि धन्यवाद । मासाद मजरी ग्रंथ के बारेमें
यह छोटासा ग्रंथ "प्रामाद मञ्जरी" -मूलमें वास्तु मञ्जरी नामक ग्रंथ के तीन स्तबकों में से मझला प्रकरण है । पंदरहवीं शताब्दि के प्रारंभ में जब सेवाडके राणा कुंभा के बाद अनके पुत्र रायमलजी गद्दी नशीन थे अस कालमें सुत्रधार खेताके पुत्र नाथजीने यह ग्रंथ लिखा है । सूत्रधार क्षेत्र यानी खेताके ज्येष्ठ पुत्र मडन महान स्थपति थे जिन्होंने शिल्पग्रथोका अद्धार किया और सातेक ग्रंथोंकी रचना की । अनके लघुबधु नाथजी अिस ग्रंथके कर्ता हैं । ये भारद्वाज गोत्र के थे । सोमपुरा के पूर्वज गुजरात पाटण के रहेनेवाले थे । महाराणा कुभाने अनको मेवाडमें बुलाया और चितौडगढ में बसाया ।
Page #26
--------------------------------------------------------------------------
________________
१८
मूल ग्रंथ वास्तुमञ्जरीमें तीन स्तबकों में से प्रथम स्तबक गणित, ज्योतिष, नगर, जलाशय, सामान्य गृह, राजगृह, किल्ला वगेरे विषयका है। दूसरा स्तबक -प्रासादमञ्जरी,-प्रासाद विषयका है। तीसरा प्रकरण मूर्ति विधानका है। कुभाराणा के बाद महाराणा रायमल्लजीने विक्रम संवत १५३० से ६६ तक राज्य किया और अनके समयमें नाथजीने वास्तुमञ्जरी ग्रंथकी रचना की।
प्रासाद मंडन के कितनेक श्लोक मंडनने रचे हुओ प्रासाद मंडनसे मिलते जुलते हैं । अमुकको काट छाँट करके नयी रचना की है । मंडनने भी विश्वकर्मा प्रणीत ग्रंथों में से अपने ग्रंथमें लिया हो असा महसूस होता है । और यह म्वाभाविक भी है । पूर्वाचार्योका कहा हुआ भूतकाल के आचार्य दुहराते हैं ।
सूत्रधार खेताके दो पुत्र मंडन और नाथजी, मंडनके दो पुत्र गोविंद और अिशन । अिशनका छिता वि. सं. १५५५ । सूत्रधार गोविंदने कला निधि, अद्धार धोरणी और द्वार दीपिका ग्रंथ लिखे । अिस ग्रंथकी पाँचेक प्रतें अपने पास हैं जिनमें ओक ओळिया (टीपणा) वि. स. १८०० का है । जिसको मेरे पूर्वज श्री नरभेराम मंगलजी जब अदेपुर गये थे तब लिख आये थे अस प्रत का आधार भी लिया है। .
निजी नांध-सामान्यतः आत्मश्लाघाके भयसे मनुष्य निजी नांध देनेमें संकुचाता है । मैं भी असा ही महसूस करता हूं, फिर भी वृद्धजन, मित्र और शुभेच्छकों का यही आग्रह रहा हैं कि जिससे जैसी नांध द्वारा जिज्ञासु पाठकों को कुछ प्रेरणा या मार्ग मिले । अतः नांध लिखने प्रोत्साहित हुआ हूँ जिसे सुज्ञ वाचक क्षमा करे।
शिल्प स्थापत्यका पेशा हमारे वंशपरंपराका व्यवसाय है । बालवयमें अंग्रेजी विद्याभ्यासकी अिच्छा थी परंतु विधिने कुछ और ही निर्माण किया था । कौटुम्बिक आर्थिक स्थिति के कारण शिल्प व्यवसायमें जुटना पडा । समय मिलने पर घरमें पुराने बडे पिटारों में से शिल्पग्रंथोकी पोटलियाँ, संग्रहकी हस्तलिखित पाथियाँ. टीपणे, नांधके कागजात, पुर्वजेने किये हुआ बाँधकाम के नक्शे-अिन सर्व मैं पढ़ता । नकल करता । दिनको काम पर जाता रातको यह पढाीका काम चलता । प्रथम तो शिल्प के प्राथमिक गणितका "आयतत्व" नामक सौएक श्लोकों का ग्रंथ मुखपाठ किया । यह “दीपाव" का प्रथम अध्याय है । जिसके बाद "केशराज” और प्रासाद मडनके चार अध्याय जबानी किया । ये सब फर्राटेसे बोल जाता ।
अिन तीन ग्रंथों की समज और गणित के अटपटे अंगोको जानकारी के
Page #27
--------------------------------------------------------------------------
________________
बाद, अनके सक्रिय ज्ञान आलेखन (डॉअिंग ) भी करता । जहाँ वडिलांकी सहाय जरुरी लगती वहाँ पहुँच जाता । सबसे छोटा होने के कारण कुल परंपराकी यह विद्या चालू रहेगी अिस हिसाबसे सुनको भी संतोष होता ।।
शिल्प शास्त्रके संस्कृत ग्रंथ लोक भोग्य भाषामें अनूदित हो तो सामान्य शिल्पि वर्ग असका लाभ झुठा सके औसी तमन्ना दिलमें होती थी। शिल्पका सक्रिय ज्ञान गुरुजनों द्वारा दिनको काम पर मिलता ही था और रातको अनुवाद करने की कोशिश करता । शुरू शुरू में तो यह कठिन लगा किन्तु दृढ़ संकल्प बल साथ था। कभी कभी तो रात को दो तीन बजे तक बैठता । निष्ठाके साथ जंब कामके पीछे पड़ जाते है तो कठिन विषयोंके प्रश्न आपही हल हो जाते है । विश्वकर्मा और सरस्वतीकी प्रार्थना की कि अपनी बानी बुद्धि और लेखनीमें बल सींचे ।।
ई. स. १९१७ में प्रासाद मंडन ग्रंथका अनुवाद शुरू किया । कठिनाश्री तो बहुत ही । शब्दोंका भाषा और क्रियामें मेल बैठे तभी यह अपयोगी हो सकता है जैसी मानसिक मुश्किलें पैदा होती थी । अिसमें पुरखोंने किये हुआ आलेख भी कभी मददगार होते । अिस तरह अनुवादकी गाडी प्रगति करती गयी ।
ई. स. १९२४ से २९ के समयके वर्षों में आरासण कुभारीयाजीकी स्थिरता और शान्ति के कालमें मेरे अनुवाद कार्यमें जोश मिला । श्रीरार्णव, दीपार्णव जैसे दुष्कर ग्रंथों का संशोधन कार्य यथा शक्ति पूर्ण किया। जिसके बाद रूपमंडन, प्रासादमञ्जरी, वास्तुसार और जिनप्रासाद के अनुवाद किये । संस्कृत भाषणका अपना मर्यादित झाम होने से अिन सर्व साहित्यांकी टीप पेन्सीलसे करता । दरमियान कुटुम्बकी आर्थिक स्थिति सुधरती चली ।
शिल्प प्रथोंमें अनगिनत अशुद्धियाँ पायी जाती है। अमुक शब्दों के मूल, झुनकी व्याकरण शुद्धि यह काम विद्वानों के लिये भी दुष्कर है क्योंकि पारिभाषिक शब्दोकी सूझ बड़ों बड़ों के लिये भी कठिन है । ई. स. १९३० से छ सालों के मेरे कदमगिरिके वास दरम्यान अिन सर्व अनुवादेको-कि जो मैने पेनसिलसे किये थे-पक्का कितावेमें सुधारकर लिख लिये । जिसमें वृक्षार्णव जैसे अमूल्य ग्रंथकी घृद्धि हुी ।
तेरहवीं सदी के बाद सांधार प्रोसाद जैसे महाप्रासाद बँधाते नहीं । अिनके प्रमाण और यमनियम बिलकुल जूदा होनेसे हमारे शिल्पि वर्ग अिनको भूल गये थे । किन्तु क्षीराणव, दीपार्णव और वृक्षार्णय ग्रंथों में अिनके विशद वर्णन हैं जिससे प्रारंभमें अिनको समजने में बहुत दिक्कते' हुआ । परंतु पुरखांके पुराने नक्शे (स्केच) और जैसे क्रमांक प्रत्यक्ष अवलोकन के बाद श्री विश्वकर्मा
Page #28
--------------------------------------------------------------------------
________________
२०
और सरस्वती देवीकी कृपासे ये भेद स्वयम् समजने में आते रहे और अनके पाठके प्रत्यक्ष प्रमाण मिलते रहे । जिससे मेरा मन मयूर नाच अठता । मेरे अन प्रयत्नों का प्रयोग श्री सोमनाथके भ्रमयुक्त सांधार महा प्रासादके निर्माण में सफल करनेका मौका मिला। यह आकस्मिक ही हुआ । किसी भी विद्याकी साधना किसी भी समय पर जल्द या देरी से सफल होती ही है ।
शिल्पग्रंथों के प्रकाशनकी अपनी महेच्छा मैंने दीपार्णवसे शुरू की । और पाँचेक पुस्तकों की प्रेस कापी अपने पास है - जिनको क्रमशः यथाशक्ति प्रकाशन करनेकी अपनी अिच्छा है । दीपार्णव के प्रकाशनमें खर्च ज्यादा हुआ यद्यपि राष्ट्रपतिजीने मुझे ४००० रुपयांका पारितोषिक दिया था। जिसके बाद प्रासादमञ्जरी प्रकाशित करनेका अपना और प्रयत्न है जिसे शिल्पज्ञ और कलारसिक विद्वान अपनायेगे जैसी आशा रखता हूँ ।
प्राचीन विद्याथोंका संशोधन अक बात है और संशोधनके साथ अनका अनुवाद करना यह तो जिससे ही कठिन बात है | अनुवादके साथ मर्म तो सिर्फ स कलाके परंपरागत वारिस ही समझते हैं अगर केवल अनुवाद म और रेखाचित्र विहीन हो तो असकी कीमत ही नहीं । भाषानुवाद के साथ प्रत्येक अंगकी टीका, अन्य प्रधोंके मतभेदों की नींव भी देना जरूरी है । विषयोंका मर्म समझने के लिये अनके नीचे फूटनोट देकर समझाने की कोशिश की है । कोठे, नक्शे, चित्र देकर विषयको बराबर समझानेकी भरसक कोशिश की है । क्रियात्मक ( प्रेक्टीकल ) ज्ञान के मर्म देने से ग्रंथ संपूर्ण होता है। ग्रंथ के मूल पाठों के साथ गुजराती, हिन्दी और अंग्रेजी आवृत्तियोंका प्रकाशन करके देश और विदेशमें रसज्ञ विद्वान वर्ग उसकी कदर करेंगे जैसी आशा है ।
किसी भी विषयमें मतमतांतर तो होते ही हैं । मूलपाठका अर्थ बिटाने में मतभेद हो सकता है । कभी बार मूलपाठ और क्रियामें भिन्नता होने से असा होता है । किन्तु विद्वान कभी दुराग्रह नहीं रखते । क्रियाका अलग अर्थ बिठाकर कोभी कार्य हुआ हो तो वह गलत है जैसा नहीं कहा जा सकता ।
क्षमायाचना
afrat जिह्वामें और शिल्पिके हाथमें सरस्वती का वास है । जिससे शिल्पिकी वाणी या कलममें कोओ त्रुटी या गलती हो तो जिसके प्रति दुर्लक्ष करना असी मिन्नत है । अशुद्धि की ओर उपेक्षा करके ग्रंथका मूल अर्थ - भाव ही ग्रहण करें और हंस रस वृत्तिको करें यही आशा है ।
Page #29
--------------------------------------------------------------------------
________________
कैलास वासी पूज्य पिताजी और अपने ज्येष्ठ बंधु श्री. त्र्यंबकलाल भाजी और भाशंकर भाओ ने संस्कारका सिंचन किया और मार्गदर्शन दिया- जिसका कर्ज कभी नहीं चुका सकुंगा । कनिष्ठ बंधु रेवाशंकर भाओने अपने प्रथ प्रकाशन में जो श्रम अठाया और अपने अनुभव का लाभ दिया जिसके लिये मैं सुनका भी ऋणी हूँ। जिस तरह बड़ों-बुजर्गोका ऋण स्विकारते में पुलकित हो अठता हूँ । अनके शुभाशिर्वादोंकी कृपा वर्षा अहर्निश अपने पर होती रहे असी जगन्नियंता श्री हरिके पास अपनी नम्र प्रार्थना है ।
૧૬
अस ग्रंथका हिन्दी अनुवाद डुंगरपुर निवासी कुशल आचार्य श्री. भारतानंदजी सोमपुराने किया और प्रस्तावना का हिन्दीकरण अपने स्नेही मित्र श्री. कपिलराय जेसुखलाल आचार्य ने किया । अिन दो भाभियों का मैं आभारी हूँ । थकी भूमिका समर्थ पुरात्वज्ञ डा. वासुदेव श्री शरणजी अग्रवालजीने लिखने की कृपा की अन महाशयका में ऋणी हुँ ।
जिस ग्रंथका अंग्रेजी अनुवाद तथा प्रस्तावना अपने परम मित्र पुरातत्व रसज्ञ श्री. मधुसुदनभाओ अमीलालभाओ ढाकीने कर दिया जिसके लिये अन्होंने मुझे उपहृत किया है । अगर अनकी मदद न होती तो यह कार्य अितना न हो सकता और बार बार जैसे प्रकाशनों के लिये अन्होंने मुझे प्रोत्साहित किया ।
ग्रंथका छपाओ काम जितनी जल्दी से अपने प्रिन्टिंग प्रेस कर देने के लिए श्री. चंदुलाल भाभी ( अपना प्रेस भावनगर) और प्रेस कामदारोंको धन्यवाद । प्रथमें दिये हुअ चित्र - नक्शे आदिके ब्लोक के लिये राजकोटकी रूपम् प्रिन्टरी के मालिक श्री. बाबुभाओ वाघेला का अहसानमंद हूँ ।
66
सर्वेऽत्र सुखिनः सन्तु सर्वे सन्तु निरामयाः । सर्वे भद्राणि पश्यंतु मा कश्चिद् दुःखमाप्नुयात् ॥ "
ता. ३० ओगष्ट - १९६४.
श्रावण वद ८ जन्माष्टमी वि. सं. २०२०. शिल्पि निवास, पालीताणा ( सौराष्ट्र )
स्थपति-प्रभाशंकर 'ओघडभाओ सोमपुरा शिल्पशास्री
Page #30
--------------------------------------------------------------------------
________________
अथ प्रासादमञ्जरी की विषयसूची श्लोक पत्र
श्लोक पत्र क्रम विषय संख्या संख्या क्रम विषय संख्या संख्या १ प्रासादकी चौद जाति
१४ वास्तुपूजन के सप्त एवं नाम
१-३ १ पुण्याह
२७ ४ २ शक्तयनुसार वास्तुद्रव्यसे
१५ वास्तुशान्ति चौदाह ___ मंदिर निर्माणका फल ४-५
मुहूर्त
२८-२९ ४
१ १६ प्रासाद प्रमाण कहांसे ३ कार्यारंभके शुभ मुहूर्त एवं
लेना भूपरिक्षा,भूमिका, ढाल. ६-७ २ १७ भ्रमयुक्त सांधार ४ वास्तुपूजा एवं दिग्पालादि
पासाद एवं निरंधार पूजन
प्रासादकी समज ओर ५ त्याज्य मुहूर्त एवं
मेरु प्रासादका प्रमाण. वत्सदोष
१२-१३ २ १८ मंडोवरको थर एवं ६ आयादि गणितशुभ
छाद्य, निर्गम
३२ ५ आय, नक्षत्र और
१९ प्रासादका अंत व्यय (देवगणा शुभ
फोलना संख्या ३३-३४ ५ नक्षत्रका गणितका
२० प्रासादके अंग फालना कोष्टक)
१४-१५ ३ निर्गमका दोविधान ७ खात मुहूर्त कूर्मशिला
समदल एवं हस्तांगुल ३५ ६ रोपण विधि केसी
२१ एक प्रकारके तल पर भूमिमें करना १५-१६ ३ अनेक प्रकारके शिखर ८ सुवर्ण रौप्य कूर्म प्रमाण १७-१८ ३ चढते हे परंतु शिखरका ९ शिलारोपण विधि क्रम
आकारादि से प्रासाद बलिदान पूजनादि १९-२१ ३ का नाम और जा १० गृहारंभ शुभ नक्षत्रो २२ ४ समजाती हे ११ शिलास्थापनके शुभ
२२ जगती का पाच नक्षत्रो
२३ ४ स्वरुपाकृति। १२ प्रासाद योग्य स्थान
२३ प्रासाद से जगतीका एवं पुण्य
प्रमाण भ्रम १३ प्रासाद निर्माणमें
२४ जिन ब्रह्मा विष्णु एवं वास्तुद्रव्यानुसार
शिव प्रासाद से छे पुण्य प्राप्ति
२६ ४ सात गुनी जगती बनाना ३९ ६
२४-२५
Page #31
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्लोक पत्र
श्लोक पत्र क्रम विषय संख्या संख्या क्रम विषय संख्या संख्या २५ जगत्योदय मान प्रमाण ४० ६ ३५ प्रासाद उदयमान । २६ जगती का उदयमें
(उभणी) ६१-६२ ९ दिक्पालका स्वरुप
३६ मंडावर १४४ भागका ६३-६५ ९ प्रनाल प्राकार किल्ला
३७ सांधार निरंधार प्रासाद्वार मंडप तोर
____दका भित्तिमान ६६-६७ १० ___णादि करना ४१-४३ ६ ३८ गर्भगृह स्वरुप .६८ १० २७ देव वाहन स्थान
३९ मंडोवर ओर स्तंभ का अंतर
छोडकी समसूत्रता ६९ २८ ज़िन प्रासाद रचना
४० गर्भगृहोदय स्तंभ समवसरण गुढ मंडप
छोड विभाग ७०-७१ १० चोविश बावन बहातेर
४१ द्वार मान प्रमाण जिनालय अष्टापद
(नागरादि) ७२-७३ १० त्रिशाला बलाणक ४५-४७ ७ ४२ त्रिपंच सप्त नव २९ नाभिवेध अन्य देव
शाख क्या देवके लिये प्रासादोका निर्माण
बनानी शाखा परिकर करने में नाभिवेध त
युक्त बनानी प्रतिहार जनाओर दोष पर्याय ४८-४९ ७ द्वारपाल प्रमाण ७४-७६ ११ ३० प्रनाल विचार उत्तर
४३ उदम्बर शंखोद्वार ७७-७८ ११ या पूर्व दिशामे प्रनाल
४४ कौली कपिली ७९ ११ रखनी मयमत ५०-५१ ८ ४५ शिखर श्रृङ्गो पर ३१ अथ पंचदेव आयतन
श्रङ्ग चढानेकी विधि की रचना १ सूर्य २
४६ अङ्ग सवाइ प्रमाणका गणेश ३ विष्णु ४ चंडी
बनाना
८२ १२ ५ शिव आयतनकी
४७ मूल कर्ण पायचा रचनाका तल दर्शन ५२-५४ ८ गर्भगृहसे थोडा ३२ त्रिदेव स्थापन क्रम
विस्तीर्ण रखना ८२-८३ १२ एवं उदयमान ५५ ८ ४८ भद्र पर उरुश्रृङ्ग ३३ अथभिट्ट मान ५६ ९ १ से ९ तकचढाना ८४ १२ ३४ पीठमान एवं महा
४९ पहेले से दुसरा उरुपीठका थर विभाग ५७-६० ९ श्रृङ्ग उदयका प्रमाण ८४ १२
Page #32
--------------------------------------------------------------------------
________________
क्रम
विषय
५० शिखरको मूल कर्ण (पायचे १० भाग
करके स्कंधे छ भाग
रखना
५१ सवाया शिखर के
लिये चतुर्गुणी कामडी रखना
५२ रेखा सूत्र
५३ आमल सारा प्रमाण विभाग
५४ मूल शिखरका उपाङ्ग वालंजर
५५ शुकनाश शिखरेदिय से शुकनाशविभाग
५६ श्रृङ्ग ऊरुशृङ्ग एवं प्रत्याङ्ग की गणना अंडक श्रृङ्गमें होती है तव तिलक ये
५७ आमलसारा विस्तार
मान में
सुवर्ण का प्रासाद पुरुषकी स्थापना
५८ ध्वजाधार - ध्वजा
खडे रखने का कलाबा किधर रखना
५९ कलश इंडाका मान
श्लोक पत्र संख्या संख्या क्रम
८५ १२
६० ध्वजादंड मान प्रमाण दंडका स्वरुप काष्ट
८६
८७
८८-८९
९०
९१
प्रासाद का भूषणरुप हे ९२-९३ १३
९४
९५
प्रमाण एव विभाग ९५ - ९८
१२
१२
१२
१३
१३
१३
१३
१३
२४
१३
विषय मर्कटि पाटलीका
प्रमाण दंड सुशोभन
पताका प्रमाण
६१ ध्वजा हीन देव प्रतिष्ठा रहित प्रासाद रखने से दोष
६२ अथ प्रासाद वैराग्यादि प्रासाद का
स्वरुप नंदन प्रासाद
तश्रृङ्ग सांधार प्रा
साद की भ्रमभिति
प्रमाण
६३ केशरादि
विभक्ति
१ केशरी प्रासाद
अष्ठाई तल
६४ विभक्ति ( २ ) दशाइ तल सर्वतोभद्र प्रा
श्लोक पत्र संख्या संख्या
९९-१०३
६५ विभक्ति ३ बाराइ
मंदिर प्रा० ६ ६६ विभक्ति ४ चौदा
१०५-६-७
१०४ १४
१०८
१४
साद (२) नंदन प्रा०३ नंदिशालि प्रा० नंदिश प्रा० ५ ११०-११ १५
४
११२
तल श्री वृक्षा प्रा०७ अमृतोद्भव प्रा० ८ ११३-१४ हेमवान प्रा० ९
हेमकूट प्रा० १० ११५ कैलास प्रा० ११ पृथ्वीजय प्रा० १२ ११६ ६७ विभक्ति ५ सोलाइ
१५
१०९ १५
7
१५
१५
१६
१६
१६
तल इंद्रनील ११७-१८ १६
Page #33
--------------------------------------------------------------------------
________________
क्रम बिषय
प्रा० १३ महानीलप्रा०
१४ भूवर प्रा० १५ ६८ विभक्ति ६ अढाराइ
६९ विभक्ति ७ विशाह
तल मुकुटोज्वल प्रा०
२० गजराज प्रा०२१
राजहंस प्रा० २२ गरुड प्रा० २३ ७० विभक्ति ८ चोबिसवां
तल रत्नकूट प्रा०१६ वैडूर्य प्रा० १७ पद्म
राग प्रा०१८ वज्रक १९१२०-२३ १७
तल वृषभ प्रा० २४ मेरु प्रासाद २५
७१ केशरादि सांधार अथवा निरंधार प्रकारका प्रासाद पचश करना ७२ मेरु प्रासाद पाँच हाथ
को १०१अंडका करना बिश बिश अंडक की वृद्धि करके ५० हाथ
तकको प्रासाद राजाओंके लिये बनाना अन्य वर्णके लिये नह बनाना । मेरु प्रासाद
श्लोक पत्र संख्या संख्या
११९ १६
२५
१२४-२८ १७
१२९-३२
१७
१३३ १८
ब्रह्मा विष्णु शिव
ओर सूर्य के लिये
बनाना अन्य देवो के
लिये नहि बनाना १३४-५ १८
क्रम
विषय
७३ अथ मंडप - प्रासाद के आगे एक या तिन
द्वारका मंडप जिन एवं त्रिपुरुषके लिये बनाना प्रासाद के
प्रमाण से मंडपका प्रमाण
७४ अथ चतुष्कि प्राग्रीव मंडप ७५ प्रासादना मध्यपदने अनुसार मंडपका पद रखना
७६ प्रासाद का शुकनाश के प्रमाण से मंडप का
७९ अथ
पत्र
श्लोक संख्या संख्या
१३६-३९
८०-८५ अथ बलाणक पांच
स्वरुप एवं नाम बलाणक
कहा
१४०-४१
आमलसारा रखना १४२ ७७ कक्षासन युक्त स्तंभ
का छोड विभाग १४३-४५ ७८ अथ गुढ मंडप आठ
का स्वरूप एवं नाम १२
१४२
नृत्य मंडप सत्तावीशकी स्तंभ संख्या नृत्य प भूमि युक्त करना वितान गुम्बज १४८-४९
१४४-४७
१८
१८
१८
१८
१९
१९
ܘܢ
करना १ वामन २
विमान ३ हर्म्यशाल
४ पुष्कर ५ उत्तुङ्ग १५०-५४ २०
Page #34
--------------------------------------------------------------------------
________________
२६
क्रम विषय श्लोक पत्र क्रम विषय श्लोक पत्र __ संख्या संख्या
संख्या संख्या ८६ संवरणा (शामरण)
९४ अथ प्रतिष्ठा मुहूर्त १६८-७१ २२ पांच से पचिश घंटा
९५ प्रतिष्ठा मंडप १७२-७३ तककी
१५६ २१ ९६ यज्ञकुंड आहुति ८७ स्वयंभू बाम एवं
संख्यासे यज्ञकुङका रत्नलिङ्ग मानसे न्यु
प्रमाण
१७४-७८ नाधिक का दोष नहि
९७ सर्वतोभद्र मंडल घटितलिङ्ग शास्त्रविधि
भद्र मंडळ १७९ २३ प्रमाण से बनाना १५७-५८ २१ ८८ देवपुर का प्रमाण
९८ सूत्रधार स्थपति ८९ भिन्नदोष १५९.
पूजन सत्कार अन्य ९० मानसे अधिक या
कर्मकार पूजा १८२-८३ २४ हस्व दीर्घ वक्र होवे
९९ यजमाने प्रार्थना छेद भेद के जातिभेद
करनी सुत्रधारके या हीनमान का दोष
आशिर्वचन १८४ २४ महाभय उपजाती है १५९-६० २१ १०० गुरु मार्ग से सर्व ९१ प्रतिमा मान प्रमाण
ज्ञानका भेद प्राप्त (१) द्वार का प्रमाणसे
होता है
१८५ प्रतिमा प्रमाण (२)
१०१ अनेक शास्त्रो का प्रासाद या गर्भगृह
अभ्याससे पदार्थकी का मानसे प्रतिमा
सिद्धि होती है १८६ २४ प्रमाण
१६१-६४ २१ १०२ सुत्रधार क्षेत्र-खेताका ९२ प्रतिमा द्रष्टि स्थान १६५-६६ २२ पुत्र नाथजीने ये ९३ देवता पद स्थापन
प्रासाद मञ्जरीकी विभाग
१६७ २२ रचनाकी ग्रंथ प्रशस्ति १८७ २४
Page #35
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रासादमञ्जरी ग्रन्थमें उपर्युक्त शास्त्रीय ग्रन्थसूचि
ऋण स्वीकार विश्वकर्मा प्रणित :- । सूत्रधार मंडन कृत :- | भोजदेव कृत :.. १ क्षीरार्णव
७ प्रासाद मण्डन | ११ समराङ्गण सूत्रधार
| १२ बृहद्संहिता
८ देवतामूर्ति प्रकरणम् २ दीपार्णव
द्रविडग्रन्थ :३ वृक्षार्णव सूत्रधार विरपाल कृत :
| १३ मानसार ४ ज्ञान रत्नकोश ९ बेडाया प्रासादतिलक ५ सूत्र स तान अपराजित
१५ काश्यपशिल्पम् सत्रधार राजसिंह कृत:
१६ मत्स्यपुराण ६ विश्वकर्मा प्रकाश १० वास्तुराज
१७ अग्निपुराण
१४ मयमतम
हमारा शिल्प स्थापत्य ग्रन्थोंका प्रकाशन १ दीपार्णव :
श्री विश्वकर्मा प्रणित शिल्पका प्राचीन महान प्रन्थ-७६+४८८:५५४ पृष्ठों, ३५० लाइन ब्लोक रेखाचित्र; १०५ हाफटोन ब्लोक सहित, मूल श्लोक, टीकायुक्ति, मर्म और टीपणी आदिसे भरपूर, संपूर्ण विवरण के साथका । दलदार प्रन्थ; अध्याय २७ जिनमें अनेक देव-देवीओंका शिल्पाकृतियाँ-सांधार तल प्लान इलिवेशन साथ दिये गये हैं। अिस ग्रन्थ पर ना० जामसाहेब, श्री कनैयालाल मुनशीजी, डो. वासुदेवशरण अग्रवालजीने विस्तृत भूमिका दी है। सरकारका टेम्पलसर्वे सुप्री. श्री कृष्णदेवजी, द्वारिका पीठ के श्रीमद् शंकराचार्यजी, जैनाचार्य श्री विजयोदयसूरिश्वरजीने ग्रन्थकी प्रामाणिकता, उपयोगिता, और श्री प्रभाशंकरभाइके दीर्घ अनुभवकी प्रसंशा की है। ४४ पृष्ठोंकी विद्वतापूर्ण प्रस्तावना पढनेसे संपादकके अनुभव और विद्वताका परिचय होता है।
मूल्य रु. २५. डाक खर्च पृथक २ प्रासादमञ्जरी (हिन्दी):
__पंदरवीं शताद्विका यह ग्रन्थ सूत्रधार नाथजी- जो सूत्रधार मण्डनके छोटे बन्धु थे उन्होने “ वास्तुमञ्जरी” नामक वही अन्थ लिखा था उसके मध्यका स्तबक प्रासाद विषयका संक्षिप्त रुप है। उसमें ९० पृष्ठ, ८० ब्लोक रेखाचित्र और हाफटोन २० है । इस ग्रन्थकी भूमिका एशिया खण्डके सुप्रसिद्ध पुरातत्वज्ञ डो. वासुदेवशरण अग्रवालजीने लिखी है। जिसमें ग्रंथकी और संगदक श्री प्रभाशंकरभाइकी विद्वताका परिचय दीया है ।
भन्थकी हिन्दी आवृत्तिका मूल्य रु. ६-५० डाक खर्च पृथक
Page #36
--------------------------------------------------------------------------
________________
३ मासादमञ्जरी (गुजराती):
उपरोक्त लिखे विवरणवाली गुजराती आवृत्ति. मूल्य रु. ६-५० " ४ PRASADAMANJARI (अंग्रेजी):
उपरोक्त दीये हूये विवरणवाली अंग्रेजी आवृत्ति-जिसका अंग्रेजी अनुवाद और अन्य विभाग. प्रस्तावना आदि विभाग पुरातत्वज्ञ विद्वान श्री मधुसुदन भाई ढाकीने अच्छी तरहसे लिखा है। भारतके प्रत्येक प्रांत और विदेशके शिल्प विषयका रसज्ञ विद्वानोंको भारतीय प्राचीन कलाका परिचय हो। अिस तरहसे लिखा है।
मूल्य रु. ७-०० सात, डाक खर्च पृथक ५ वेधवास्तुप्रभाकर :
इस ग्रन्थमें प्रासाद गृह, प्रतिमा आदिके वेधदोषका विवरण दीये हैं। विविध प्राचीन ग्रन्थोंके प्रमाणोंके सार अच्छी तरहसे लिखे हैं। यह ग्रन्थ " दीपार्णव " ग्रन्थकी पूर्तिरूप है। असमें क्रिया, विधि आदिका साहित्य भी दीया है। ये ग्रन्थ प्रेसमें छपा रहा है।
मूल्य रु. ६ छ, डाक खर्च पृथक ६-७ क्षीरार्णव-वृक्षार्णव :
विश्वकर्मा और नारदजीका संवाद रुप दोनो ग्रन्थ-अद्भूत अद्वितीय है। सांधार महा प्रासादो, और चतुर्मुख महा प्रासादोंके विषयमें तीनसे-बारा भूमि तकका उदययुक्त महा प्रासादका अद्भुत विवरण दीया है। दुष्प्राप्य शिल्प साहित्य प्राप्ति हुआ है। क्षीरार्णवका २२ अध्याय, ८०० श्लोक संख्या है और प्रासाद १८०० श्लोक प्रमाण है। यह दुष्प्राप्य अन्धका संशोधन हो रहा है। दोनु ग्रन्थमें महा चतुर्मुख प्रासादकी चारो और २७, २७ मंण्डप मेघनाथ आदि बनानेका विवरण है। तीन भूमितककी लिंगकी स्थापना
की विधि चतुर्मुखमें कहा है। एसा अद्भुत प्रन्थ दुर्लभ है। ८ बेडाया प्रासाद विलक:
ये ग्रन्थ पंदरवीं शताबीका सूत्रधार विरपालकी रचना है। शिल्पका अन्य ग्रन्थकी अनुष्टुप छन्दमें रचना की है। ये प्रासाद् तिलक संस्कृत राग रागिनीमें शार्दूलविक्रीडित, वसंततिलका आदि छंदमें ग्रन्थकी सुंदर रचना की है। अबतक उसका चार अध्याय प्राप्त हुआ है । ग्रन्थका संशोधन कार्य चल रहा है ।
प्रकाशको
बलवंतराय प्र. सोमपुरा एवं मातृओ ३. पथिक सोसायटी सरदार पटेल कोलोनी
अमदावाद-१३
Page #37
--------------------------------------------------------------------------
________________
भूमिका लेखक, अशियाखंड के सुप्रसिद्ध कला स्थापत्य का मर्मज्ञ-प्रखर पुरातत्वज्ञ डॉ. वासुदेवशरणजी अप्रकालजी--अध्यापक-कला और स्थापत्य विभाग-काशी विश्वविद्यालय
भूमिका
डॉ. श्री वासुदेवशरण अग्रवाल श्री प्रभाशंकर ओघडभाई सोमपुरा हम सब के धन्यवाद के पात्र है। क्योंकि उन्होंने भारतीय स्थापत्य एवं शिल्प शास्त्र के कई उत्तमग्रन्थों का उद्धार किया है। इससे पूर्व वे शिल्प के महान् ग्रन्थ दीपार्णव का मूल सानुवाद और सचित्र प्रकाशन कर चुके है । वह प्रमाणिक ग्रन्थ देव मन्दिरों के निर्माण से संवान्धित बहुविध सामग्री से युक्त है । प्रस्तुत ग्रन्थ "प्रासाद मजरो" को मूल अनुवाद और विस्तृत प्रस्तावना के साथ प्रकाशित करने का श्रेय श्री सोमपुराजी को है । मुझे इस बात का हर्ष हैं कि दीपार्णव की भांति “प्रासाद मञ्जरी" की भूमिका लिखनेका कार्य श्री प्रभाशंकरभाई ने अपने सहज-स्नेह वश मुझे सेांपा है । में उनके इस सत्प्रयत्न का स्वागत करता हूं। उन्होंने अपने इस प्रन्थ का विस्तृत प्रस्तावना में भारतीय स्थापत्य शास्त्र और स्थपतियों के संबन्ध में बहुत सी मूल्यवान् और रोचक सामग्री दी है-उसे पढकर मुझे ज्ञान-लाभ और प्रसन्नता हुई हैं । श्री प्रभाशंकर ओघडभाइ प्राचीन स्थापत्य वंश के रत्न हैं और उन्होंने स्थापत्य शास्त्र के प्रायोगिक विज्ञानकी अभितक रक्षा की है । परंपरागत ऐसी किंवदत्ती है कि सौराष्ट्र देश में प्रभास पट्टन में भगवान सोमनाथ के महान् देवालय का निर्माण हुआ इसी समयसे सोम पुरा स्थपतियों के पूर्व वंशो का प्रारंभ हुआ। अवश्य ही उन स्थपतियों ने एक नवीन स्थापत्य शास्त्र,वास्तुशास्त्र और शिल्पशास्त्र का जन्म दिया। उन्हीं की संचिलित प्रयोग विधि से सौराष्ट्र प्रदेश में एक से एक विलक्षण मन्दिरों का निर्माण होता रहा । इस संबन्ध में रेवतक या गिरनार के शिखर पर बने जैन मन्दिरों का एवं पालिताना के निकट शत्रुजय पर्वत पर बने मन्दिरों पर विशेष ध्यान जाता है । उसी संदर्म में अर्बुद या आपूपर्वत पर बने महान् जिनालयां का स्मरण भी आता है । कितने देवाल : सोमपुरा के स्थापतियों द्वारा बांधे गए अथवा उनके द्वारा प्रचारित शैली में निर्मित् हुए। इसका सर्वेक्षण गुजरात सौराष्ट्र और दक्षिणी क्षेत्रमें होना आवश्यक है। ऐसा उल्लेख है कि मेवाड
Page #38
--------------------------------------------------------------------------
________________
के महाराणा कुम्भा ने जब अपने प्रदेश में स्थापत्य और शिल्प को नवीन प्रोत्साहन देना चाहा तो उन्होंने सौराष्ट्र से शिल्पीयों को आमंत्रित किया।
राणा कुम्भा ने चित्तौड में सुप्रसिद्ध कीर्तिस्तम्भ का निर्माण कराया। उनके राज्य में कई प्रसिद्ध शिल्पी थे। उनके द्वारा राणा ने अनेक वास्तु और स्थापत्य के कार्य सम्पादित कराये। कीर्तिस्तम्भ के निर्माण का कार्य सूत्रधार 'जहता'
और उसके दो पुत्र 'नापा' और 'पूजा' ने १८८२ से १८९८ तक के समय मैं पूरा किया। इस कार्य में उसके दो अन्य पुत्र पामा और बलराज भी उसके सहायक थे। राणा कुम्मा के अन्य प्रसिद्ध राजकीय स्थपति सूत्रधार मण्डन हुए। वे संस्कृत भाषा के भी अच्छे विद्वान थे। उन्होने निम्निलिखित प्रन्थों की रचना की ।
प्रासादमण्डन, वास्तुमण्डन, ३पमण्डन, राजवल्लभमण्डन, देवतामूर्सि-प्रकरण, रूपावतार, वास्तुसार, वास्तुशास्त्र । राजवल्लभ ग्रंन्ध में उन्होंने अपने अपने संरक्षक राणाकुम्भा का गौरव के साथ उल्लेख किया है। रूपमण्डन ग्रन्थ में सूत्रधार मण्डनने अपने विषय में लिखा है :
श्री मद्येशे मेदपार्यभिधाने क्षेत्राव्योऽभूत् सूत्रधारो वरिष्ठः ।
पुत्रो ज्येष्ठो मण्डनस्तस्य तेन प्रोक्त शास्त्रं मण्डनं रूप पूर्वम् ॥ ६-४०
इससे ज्ञात होता है कि मण्डन के पिता का नाम सूत्रधार क्षेत्र था । इन्हें ही अन्य लेखों में क्षेत्राक कहा गया हे । क्षेत्राक का एक दूसरा पुत्र सूत्रधार नाथ था जिसने वास्तुमञ्जरी नामक ग्रन्थ की रचना की । इस वास्तुमञ्जरी में तीन स्तबक है, उसी का मध्य स्तबक यह प्रासाद मंजरी है ।जिसे अलग अलग करके श्री प्रभाशंकरजी ने यहां संपादित किया है और अभिप्रायसूचक अनुवाद भी प्रकाशित किया है । इस ग्रन्थ में १८७ श्लोक है । उनके वय विषय प्रायः वही है जो प्रासाद शिल्प के अन्य ग्रन्थों में पाए जाते हैं। सूत्रधार मण्डन कृत प्रासाद भण्डन एवं ठक्कुर फेक कृत वास्तुसार इसके निदर्शन हैं। फिर भी जसा ग्रन्थकर्ता सूत्रधार नाथ ने अपने ग्रन्थ के अंत में लिखा है । उन्हों ने प्रसाद या देवमन्दिर का जो उनके समकालीन या पूर्ववर्ती साहित्य था उसका सार ग्रहण करके अपने ग्रन्थ की रचना की । इसके अनेक वर्ण्य-विषय इस प्रकार जानने योग्य है :
आरम्भ में कल्पना की गई है कि हिमालय में स्थित भगवान् शिवकी पूजा के लिए देवता असुर और मनुष्य एकत्र हुए और भगवान् की पूजा कि। सर्वोत्तम प्रकार उन्हे यही प्रतीत हुआ कि उन्होंने देश-भर में व्याप्त १४
Page #39
--------------------------------------------------------------------------
________________
३१
'जातियों के मन्दिर बनाकर उनमें शिवलिङ्गो की स्थापना की और भगवान् शिव की अर्चना की । यह लेखक की बुद्धिमण्डित कल्पना है जिसकी पृष्ट भूमि में उन्होंने देशभर में व्याप्त १४ जातियों के प्रासादों के नाम गिनाए हैं (श्लोक १-३३) । इसके अनन्तर कहा है कि वास्तु निर्माण में मिट्टी, काष्ट, इष्टिका, शिला, धातु और रत्नों का यथारुचि - यथाशक्ति उपयोग किया जाता है और तदनुसार ही उत्तरोत्तर अधिक फल भी प्राप्त होता है ( श्लो० ४-५ ) । फिर निर्माण कार्य आरम्भ करने के लिए शुभ मुहूत बताए गए हैं। भू परीक्षा (७) वास्तुपूजा. चास्तुपुरुष पूजन ( ८-११ ), त्याज्य या अशुभ मुहूर्त ( १२ - १३ ), आयव्यय ( १४ - १५ ) नाग वास्तु ( १६ ) कर्म ( १७ - १८ ); शिलारोपण विधि ( १९ - २१ ) गृहारम्भ शुभ नक्षत्र (२२), शिला स्थापन शुभ नक्षत्र ( २३ ), प्रासाद योग्य स्थान (२४ २५) वास्तु द्रव्यानुसार पुण्य प्राप्ति ( २६ ), वास्तु पूजन के सात विशेष अवसर (२७), वास्तु पुरुष शान्ति के १४ मुहूर्त ( २८-२९); प्रासाद प्रमाण (३०) प्रदक्षिणा पथ के साथ सांधार प्रासाद का प्रमाण ( ३१-३३ ) प्रासाद की रेखा में रथ, प्रतिरथ, कोणरथ और फालनाओं का निर्गम ( ३३-३६ ): जगती ( ३७-४० ) जगती पीठ के उदय का प्रमाण ( ४० - ४१ ) चतुरस्र आयत वृत्त अष्टास्र, वर्तुलायत ( बेसर जिसका पीछे का भाग वर्तुल और आगे का आयत होता है) प्रासाद के संमुख भाग में बने हुए सोपान के ऊपर तोरण ( ४२-४३ ) । प्रासाद के सामने कुछ हय हुआ देवता के वाहन का मण्डप (४४) जिन प्रासाद रचना ( ४५ - ४७ ), नाभिवेध ( ४७ - ५०), प्रणाल विचार ( ५०-- ५१ ); आयतन अर्थात् मूल पुरुष के प्रासाद में अन्य देवों के स्थान, (५२ - ५४ ) त्रिदेवस्थानक्रम (५५) इतने विषयों का प्रस्तावना रूप में वर्णन है । इसके अनन्तर ब्रह्मसूत्रमें प्रासाद निर्माण विधि का वर्णन करते हुए सर्वप्रथम अनगढ़ खंड शिला के अपर तीन मिट्टों की कल्पना का उल्लेख है । भिट्ट एक प्रकार से प्रासाद की नीव होते है । उनको दृढता पर प्रासाद की दृढता निर्भर करती है ( ५६-५७ ) भिट्टों के उपरु पीठका निर्माण किया जाता है उसेही अगती पीठ भी कहते है । इसी पीठ में कई प्रस्तर के घर बनाए जाते थे किन्तु उनकी कल्पना ऐच्छिक थी श्री सोमपुराजी ने नामतः उनका उल्लेख किया है । इनके अन्तर प्रासाद के उत्सेध का वर्णन किया गया है जो छज्जे के भातक लिया जाता हैं (६१-६२) इमी में मण्डोवर विभाग की कल्पना है । मण्डोवर शब्द अपना विशेष महत्त्व रखता है । प्रासाद के ऊत्सेध छन्द का मध्य भाग मण्डोवर में विशेष रूपमे से देखा जाता है । मण्डोवर शब्द की व्युत्पत्ति विशेषरूप से उल्लेखनीय है । किसी ऊचें मंच या चतरे को मण्ड कहते थे जैसे कुए की जगत मण्डु कही जाती
——
Page #40
--------------------------------------------------------------------------
________________
है । प्रासादका मण्ड उत्सेका जगती पीठ होता था उसके अपर प्रासादका जो भाग पीठ से छज्जे तक बनाया जाता था वह मण्ड के उपर होने के कारण मण्डोपरि या मण्डोवर कहलाया। इसी मण्डोवर भाग में गर्भगृह रहता है। यहां मण्डोवर के उत्सेध या उदय अथवा उँचाई के १४४ भाग करके उन भागों के भिन्न भिन्न नाम दिए गए हैं-जसे बरा कुम्मा, कलश, अन्तराल, केवॉल आदि, मण्डोवर के रूप संपादन के लिए उनमें से प्रत्येक का अपना महत्त्व है (६३-६५) गर्भगृह के द्वारमान का वर्णन सुनिश्यित और सटीक है। यह वर्णन प्रासाद-शिल्प संबन्धी सभी छोटे बडे ग्रन्थों में पाया जाता है । वराहमिहिर ने बृहत्संहिता में द्वार के पार्श्वस्तंभापर माङ्गल्य विहंगों का उल्लेख किया है। अबतक केवल तेजपुर के दहपर्वतिया मन्दिर के पार्श्वस्तम्भों पर ही उत्कीर्ण पाए गए है। वे अत्यन्त सुन्दर उडते हुए हंसो के रूप में हैं। द्वार के पार्श्वस्तम्भों को द्वार शास्त्रा कहते है और प्रत्येक शाखा के कई अवान्नर भाग होते हैं जिन्हें संस्कृत में उपशाखा या हिन्ही में बांट कहते है। प्रासाद मञ्जरी के अनुसार द्वार शाखा के १, ३, ५, ८ और ९ तक स्वांचे या अवांत्तर विभाग बनाए जाते हैं। हिन्दी में अभीतक त्रिसाही (त्रिशाखा) पंचसाही (पञ्चशाखा) शब्द चलते हैं। इन शाखाओं के अलंकरणों पर स्थपति और काष्ट कर्म करनेवाले बहुत ध्यान देते हैं। ज्ञात होता है कि इनकी रचना में प्राचीन परम्पराएं भी अवशिष्ट रह गई हैं। शाखाओं पर प्रतिहार या द्वारपाल की मूर्तियां विशेषत बनाई जाती थीं। कभी कभी उनके हाथ में पूजा को मालाएं भी रहती हैं ! द्वारका सबसे विशिष्ट अल कार गंगा
और यमुना की मूर्तियां हैं जो अपने वाहन मकर, कच्छप पर पूर्णघट और चामर लिए हुए दिखाई जाती है। गुप्त कालीन मन्दिरों में ही इन्हें उत्कीर्ण किया जाने लगा था। जैसा कालिदास के स्पष्ट उल्लेख से ज्ञात होता हैं।
मूर्ते च गंगा यमुने तदानी स चामरे देवमसेविषाताम् । समुद्रगा रूप विपर्ययेऽपि सहसपाते इव लक्षभागे ।
[ कुमार संभव ७-४२] चामर लिए हुए गङ्गा यमुना की मूर्तियों के उडते हुए हंसो का वह उल्लेख बहुत ही महत्त्वपुर्ण है । इस अल करण का शबसे विशिष्ट स्वरूप देवगढ़ के गुप्तकालीन दशावतार मन्दिर में पाया जाता है। इसमें गङ्गा यमुना की मूर्तियां द्वार के अपरी कोनो में बनाई गई है किन्तु कालान्तर में वे पार्श्वस्तम्भों के लेचन भाग में बनाई जाने लगी । और भी उपशाखाओं पर मिथुन प्रथथ या गण चतुर्दल कमल आदि शोभनीय अलंकरणों से द्वार को सुन्दर बनाया जाता था।
Page #41
--------------------------------------------------------------------------
________________
भारतीय मन्दिर द्वारों का सर्वाङ्गीण अध्ययन अभीतक नहीं किया गया । द्वार के देहली भाग में निकलता हुआ अर्द्धचन्द्र और शखोद्वार अलंकरण भी रखते थे जिनका उल्लेख श्री सोमपुराजीने किया है। मध्यकालीन उपशाखाओं में और भी कई प्रकार के अलं करण बनाए जाते थे। द्वार के शीर्षदल (हिन्दी-सिरदल) या उत्तरंगे पर मध्यभाग में गर्भगृह के देवताके अनुरूप एक प्रतिमा बनाई जाती थी जिसे ललाट-बिम्ब कहा जाता था। विष्णु के मन्दिरों में वह गजलक्ष्मी की मृनि होती थी-जिसके कारण उसे लक्ष्मी-बन्ध भी कहते थे । देवगढ के दशावतार मन्दिर में कुण्डलित शेषनाग के आसन पर स्वयं विष्णु की चतुर्भुजी मूर्ति अङ्कित की गई है । उसी पृष्ठ भूमि में कालिदास ने विष्णु के लिए भोगीभोगासनासीन (ग्घु० १०-७) विशेषण का प्रयोग किया है ।
: प्रासाद के निर्माण में दूमरा अङ्ग शिखर है। उसके विषय में उरुशृङ्ग और शृंङ्गो को कल्पना महत्त्वपूर्ण है। जिसका अच्छा वर्णन यहां किया गया है । मध्यकालिन मन्दिरों में शिखरों का बहुमुखी विस्तार हुआ । शिखर के अङ्ग प्रत्यङ्गों का और उनकी रेखाओं का संपूर्ण अध्ययन अभी स्पष्टता से करने योग्य है। शिखर के निर्माण में अण्डक तबङ्ग और तिलक का भी उल्लेख किया गया है किन्तु उनका स्पष्टीकरण व्याख्या मापेक्ष है। शिखर की चोटी के पर आमलक शिला का भी महत्त्व पूर्णस्थान है । अवयवों का कुछ स्पष्ट उल्लेख इस ग्रन्थ में पाया जाता है ।
इसके अनत्तर विभिन्न प्रकार के प्रासादों का वर्णन किया गया है। (इलोक १०५-१३४) । प्रासादों के भेद मुख्यः शिखरों की विभिन्न कल्पनाओं पर निर्भर है। एवं शिखरों के भेद शृङ्ग ऊरुशृङ्ग अण्डक और तिलक आदि के भेदोपभेदों पर निर्भर करते हैं । उनका विवरण इस प्रासाद मञ्जरी ग्रंथ में तथा शिल्प के अन्य अनेक ग्रंथों में भी दिया गया है । परम्परा प्राप्त स्थपति इन्हें जानते आए है । और इन्ही के अनुसार विभिन्न प्रकार के शिखर युक्त प्रासादों का बन्धान बांधते है । प्रासाद निर्माण में मण्डपों का भी विशेष महत्त्व है । गर्भ गृह के सामने अंतराल मण्डप रङ्गमण्डप, नृ यमण्डप, मुखमण्डप, भोगमण्डप आदि कई प्रकार के मण्डपों का निर्माण किया जाता था । और उनके द्वारा ही प्रासाद का पूरा म्वरूप विकसित होता था । मध्यकालीन मन्दिरों में मण्डपों के म्यरूप का अध्यधिक विस्तार किया गया । मण्डपों के स्तम्भ, वितान, गुमट संवरण और शिखर आदि के विपय में बहुत अधिक सामग्री शिल्प ग्रंथों में पाई जाती है। उसका भी विशेष रूप से अध्यान आवश्यक है । विशेषतः उड़ीसा के मन्दिरों
Page #42
--------------------------------------------------------------------------
________________
३४
में रङ्गमण्डप को पीढ़ा देउल कहा जाता है और उनके कई प्रकार के उठान वाले पीढ या पीढाओं की संख्या उनके घण्टा और सिंह के विवरण पर विशेष ध्यान दिया जाता था । मध्यदेश के चन्देल मन्दिरों (खजुराहो) में भी रङ्गमण्डप के वितान की कल्पना अत्यन्त सुन्दर रूप में पाई जाती है । चालुक्य कालीन मन्दिरों एवं राजस्थानी मन्दिरों में भी उनके शिल्प पर विशेष ध्यान दिया गया और उनके स्तम्भों की संख्या का अधिकाधिक विस्तार किया गया ।
प्रासाद निर्माण में सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण स्थान अर्चा या देवप्रतिमा का है जिसकी स्थापना गर्भगृह में की जाती है। इस शास्त्र की विशेष विधि प्रतिमालक्षण नामक ग्रन्थों में पाई जाती है। प्रतिभा का प्रमाण और स्वरूप दोनों ही वर्णन के विषय है। इन्हीं के सूक्ष्म परिचय के आधार पर कुशल शिल्पी सुन्दर प्रतिमाओं का निर्माण करते हैं । प्रतिमा जितनी सुन्दर होती है उतना ही अधिक देवता का सांनिध्य उसमें माना जाता है । प्रतिमा के सौन्दर्य से दर्शक को मनः समाधि प्राप्त होती है। देवता का सान्निध्य यही प्रतिमा का साफल्य है, और उसी-की चरितार्थता के लिए प्रासाद का निर्माण किया जाता है । एक और सौंदर्यशास्त्र के अनुसार देवप्रतिमा की सुन्दरता का अस्तित्व रहता है, दूसरे और देवता की आराधन करने वाले भक्त के मन को शति या मनः समाधि-अस्तित्त्व है। दोनों के संयोग से प्रासाद में देव पूजन की सफलता सिद्ध होती है । विष्णु धर्मोत्तर पुराण में कहा है कि .प्रासाद निर्माण में अन्तर्वेदि ओर बहिर्वेदि दोनो की सिद्धी प्राम होती है। अन्तर्वेदिका तात्पर्य यज्ञ-यागादि से एवं बाहिर्वेदि इष्टपूजादि धार्मिक कार्योंने है । प्रासाद निर्माण से इन दोनोका फल प्राप्त होता है। प्रासाद निर्माणका एक प्रत्यक्ष फल वास्तु स्थापत्य, शिल्प, चित्र, नृत्य, गीतादि कलाओं की आराधना भी है एवं इन कलाओका दर्शन सर्वसाधारण के लिए सुलभ हो जाता है। अतः प्रासाद निर्माण कोई साधारण बस्तु नहीं. अपितु महान् पुण्य हैं। जिसके द्वारा समस्त लोक को देवत्व के प्रभावका अनुभव होता है।
प्रासाद निर्माण के परिसमाप्ति पर सूत्रधार स्थपति का पूजन अवश्य करना चाहिए सूत्रधार की प्रतिमाही सुन्दर प्रासाद का रूप ग्रहण करती हैं सूत्रधार के आराधन ही प्रासाद निर्माण की सानंन्द समाप्ति समजनी चाहिए ।
(ह.) वासुदेवशरण का. हि. वि. वि. वाराणसी
Page #43
--------------------------------------------------------------------------
________________
सोमनाथ के सन्मुख दर्शन ।
मोढेराका सूर्यमंदिरका द्वार और स्थंभो
Page #44
--------------------------------------------------------------------------
________________
आबु- देलवाडा जैन मंदिरका स्थंभ और हिन्डोल के तोरण ।
Page #45
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूत्रधार नाथुनी विरचित वास्तुमचर्यान्तरगत
प्रासादमञ्जरी
प्रासादजाति
हिमालये दारुवने सुरासुर नरादिभिः । भासादाकार पूजाभिः पुरोदेवः शिवोऽर्चितः ॥१॥ प्रासादानयं तत्र जाता जातयस्तु, चतुर्दशः । नागरा द्रापिडाश्चैव लसिनाख्या च विमानका ॥२॥ मिश्रकारूया बराटाश्च सांधाराभूमिजास्तथा । विमाननागरास्तद्वदिमानपुष्पका भिधाः ।।३।। बलभी फांसनाकारा सिंहावलोक रथारुहाः ।
वास्तुद्रव्यानुसारपुण्यफल मृदाकाष्टेष्टकाशैल धातुरत्नादिभिः सुधीः ॥४॥ कूर्याद स्वशक्त्या प्रासाद चतुर्वर्गफलमदः । पांमुनापि मुरागारे क्रीडया विहितेश्रियः ॥५॥
Page #46
--------------------------------------------------------------------------
________________
* प्रासादमञ्जरी .
कार्यास्भेशुभमुहूर्त मुलग्ने शुभनक्षत्रे पंचग्रहक्लान्विते । मास संक्रांतिवत्सादि निषिद्धकालवनिते ॥६॥
भू परिक्षा सर्व दिक्षप्रवाहो वा प्रागुदक् शकरप्लवम् । मुवंपरीक्ष्यसिंचयेद पंचगव्येन कोविदः ॥
वास्तुपूजा मणिना स्वर्ण रुध्येण विद्रुमेण फलेन वा । चतुःषष्टिपदैर्यास्तु लिख्येतापि. शतांशकैः ।।८।। फिष्टे च वाक्षतैरुवे ततोवास्तु समर्च येत । पूर्वोक्तेन विधानेन कलिंपुष्पादि पूजयेनैः ॥९॥ इन्द्रोवह्निः पितृपति नैऋत्यो वरुणो मरुत् । कुबेर इस पतयः पूर्वादिना दिशांक्रमावः ॥१
दिपाल: क्षेत्रपालश्च गणेशश्चंडिका तथा । एतेषां विधिवत पूजा कृत्सा कर्म समारभेत् ॥११॥
त्याज्यमुहूर्त धनुर्मीने स्थिते सूर्ये गुरौशुक्रेऽस्तगे विधौ ।
घृतौ व्यतिपाते के दन्थे नष्ट कदाचन ॥१२॥ कन्यादि त्रित्रिगेसूर्ये द्वारपूर्वादिषु त्यजेत् ।
सृष्ट्या वत्समुखं तत्र स्वामिनोहानिपदभवेत् ॥१३॥ V9S. 6-99 absent in B; VS. 17, lowever, is given elsewhere with a varient reading in the selfsame text.
1.
Page #47
--------------------------------------------------------------------------
________________
* Prasad Manjari *
आयादिगणित आयो व्यय मंशस्य मिचिबाये सुरालये । ध्वजायोदेवनक्षत्रं व्ययांशी प्रथमौशुभौ ॥१४॥ केषां च मरुतां येहे वृषसिंह गजाः शुभाः । मास नक्षत्र लनादि-चिन्तनं पूर्वशाखाः ॥१५॥
नागवास्तु
नागवास्तु समालोक्य कूर्यात खातविधै सुधीः । पाषाणांतं जलांतं वा ततः कूर्म निवेशयेत् ॥१६॥
रौप्यसुवर्णादिकूर्मप्रमाण अर्धा गुलो भवेच कूर्म एक हस्ते सुरालये । अर्दा गुल्लो ततो वृद्धिः कार्याविधि करावधि ॥१७॥ एक त्रिंशत् करांतं च तदर्धा वृद्धि रिष्यते । ततोऽर्धापि शताभ कमन्वङ्गुलोत्तपः ॥१८॥ चतुर्थी शोऽधिको ज्येष्ठः कनिष्ठो होन योगतः ।
शिलारोपणविधि सौवर्णो रौप्यजो पापि स्नाप्य पंचामृतेन साः ॥१९॥ इशानादनिकोणाता शिलाः स्थाप्या प्रदक्षिणाः ।
मध्ये कूर्मशिलापवाद् गीतवादित्र मंगलैः ॥२०॥ V. R. in B.
एकहस्ले सुरागारे कूर्ममोगुलं म्यसेत् । । अर्धा गुलाः प्रतिकर वृद्धिः पंचदशावधि ॥
2.
Page #48
--------------------------------------------------------------------------
________________
.
* प्रासादमजरी * बलिदानं च नैवेद्य विविधान्नं घृतप्लुतम् । देवताभ्यः सुधीर्दधात् कूर्मन्यांसे शिलासु च ॥२१॥
गृहारंभशुभनक्षत्रो
मूत्रार भो गृहादानां मुत्तरायां करत्रये । बाह्ये पुण्ये मृगे मैत्रे पौषणे वासववारुणे ॥२२॥
शिलास्थापनशुभनक्षत्रो शिलान्यासस्तु रोहिण्यां श्रवणेहस्तपुष्ययोः । मृगशीर्षे च रेवत्यां मुत्तरात्रितये शुभः ॥२३॥
प्रासादयोग्यस्थानपुण्य नद्यांसिद्धाश्रमे तीर्थे पुरैग्रामे व गव्हरे । वापी वाटी तडागादि स्थाने कार्य सुरालयम् ॥२४॥ देवानां स्थापनं पूजा पापहृदर्शनादिकम् । धर्म वृद्धिर्भ वेदर्थ कामौ मोक्षस्ततो नृणाम् ॥२५॥
वास्तुद्रव्यानुसारपुण्यप्राप्ति कोटिघ्नं तृणजे पुण्य मृण्मये दशसंगुणम् । ऐष्टके शतकोटिघ्नं शैलेऽनंतफलं भवेत् ॥२६॥
वास्तुपूजनसप्तमुहूर्त कर्म संस्थापने द्वारे पाख्यायां च पौरुषे । घटे ध्वजे प्रतिष्ठायामेवं पुण्याह सप्तकम् ॥२७॥
Page #49
--------------------------------------------------------------------------
________________
* Prasad Manjari *
वास्तुशान्तिचतुर्दशमुहूर्त भूम्यार भे तथा कर्मे शिलायां सूत्रपातने । खुरेद्वारोछ्ये स्तंभे पट्टे पद्मशिलामु च ॥२८॥ शुकनासे च पुरुषे घंटायां कलशे तथा । ध्वजोच्छाये च कुर्वीत शान्तिकानि चतुर्दश ॥२९॥
प्रासादप्रमाणस्थान
एक हस्तादि प्रासादे यावद् हस्त शताधके । प्रमाणं कुंभके मूलनासिके भित्तिबाबत; ॥३०॥
भ्रमयुक्तसांधारप्रासादप्रमाण
दशहस्तादोंनस्यात् मासादो भ्रम संयुतः । स्यादेकादिरसग्नंत निरंधारो भ्रमं विना ॥३१॥
पंचहस्तादितोमेरु: श्यात्पंचाशत्करावधिः । कुंभादि स्थराणां तु निगमः समसूत्रतः ॥३२॥ पीठस्य निर्गमो बाये कर्तव्यश्छायकस्य च ।
समदलहस्तांगुलफालना त्रिपंचसक्षनवभिः फालनाभिविभाजयेत् ॥३३॥ प्रासादमङ्ग संख्या च वारि मार्गान्तरे स्थिताः ।
फालना कर्ण तुल्यास्याद् भद्रंतु द्विगुणंमतम् ॥३४॥ 3. षद् त्रिंशतम् in B. 1. पंचहस्सोमवेत्मेरु in B.
Page #50
--------------------------------------------------------------------------
________________
* प्रासादमञ्जरी * सामान्योऽयं विधिस्तत्र द्विविधार विनिर्गमः । अङ्गव्यास समो यद्वा धामहस्तमितालैः ॥३५॥ प्रासादां शाश्वतु गंगाद् यावत् सूर्यो तरं शतम् । एकस्यापि तलस्योर्षे शिखराणि बहून्यपि ॥३६।। नामानि जातयस्तेषां मूर्धाकारानुसारतः ।
जगतो वेदास्रमायतंवृतमष्टास्रवर्तुला तम्
॥३७॥ प्रासादं कारयेत्तस्यानुरुपा जगतोमपि । पासादात्रिचतुः पंच गुणेति जगती त्रिधा ॥३८॥ ज्येष्ठादिषु क्रमायोज्या विधैक्ये भ्रमसंयुताः । षट् सप्तत्रिजिनेगृहे द्वारका पुरुषत्रये ॥३९॥ दैध्य सपादासार्धा वा द्विगुणामंडपक्रमात् ।
जगत्यो यप्रमाण भासादेक करांते दें ज्यशेद्वाविंशदंतके ॥४०॥ , उच्चा युगांशा द्वात्रिंशे भूतांशोचाशताईके । सृष्टया कर्णेषु दिक्पालैः प्राकार द्वार मंडपैः ॥४॥
सोपान तोरण सोपानैस्तोरणेर्युक्ता चतुर्दिक्षु प्रणालकैः । मंडपाग्रे प्रतोल्याने सोपाना च तोरणम् ॥४२॥
भित्तिगर्भमित सीमा-मानं वा गर्भमानत ।
तोरणं स्तंभान्तरे स्यात् पदपट्टानु सारतः ॥४३॥ 5. प्रासादं कार्ये तत्र जगतिस्थानुरुपतः in c.
Page #51
--------------------------------------------------------------------------
________________
* Prasad Manjari
देववाहनस्थान
चतुष्कि वाहनस्थाने प्रासादाने प्रकारयेत् । एकद्वित्रि चतुष्पंच रससप्त गुणान्तरे ॥४४॥
जिनप्रासादरचना जिनाग्रे समवसरणं मुखाग्रे गूढमंडपः । चतुर्विंशतिपिंचाशद् वा द्विसप्ततिः प्रक्रमै ॥४५|| जिनालये चतुर्दिक्षु युक्तस्यात् जिनमंदिरम् । मंडपाद् गर्नसूत्रेण वामदक्षिणोदिशोः ॥४६॥ अष्टापद मंडपागे त्रिशाला वा बलाणकम् ।
नाभिवेध प्रासादस्याग्रतः पृष्ठे चामतोदक्षिणोऽथवा ॥४७॥ पासादं कारयेदन्यं नाभिवेध विवर्जितम् । लिंगाो प्रतिमारुपां न कुर्यात् देवताः सुधी ॥४८॥ ब्रह्मविष्णवीशजैनान्स्विस्वमृर्त्य तो न्यसेत् । शिवस्यागेऽन्य देवस्य दष्टिभेदे महद्भयम् ॥४९।। पाकार राजपथयोरंतरे न्यानपि न्यसेत् ।
प्रनालविचार पूर्वापरास्य प्रासादे नालंसौम्ये प्रकारयेत् ॥५०॥
तत्पूर्वे याभ्यसौम्यास्ये मंडपोवामदक्षयोः । 6. Missing in B.
Page #52
--------------------------------------------------------------------------
________________
* प्रासादमसरी -
-
मयमते
इष्टदिग् मुखलिङ्गस्य नालवामे प्रकारयेत् ॥५१॥
आयतनं
"रुद्रस्यायतने सृष्या गौरी मातृ रवि मठम् । विष्णुं शान्तिगृहं विघ्नराजमाग्नेय कोणत ॥५२॥ विष्णोगणाधिप मातः सूर्य जलशयं विधिम् । नाट्येशं पार्वती ताक्षे न्यसेत्.भृशेविष्णु च मध्यतः ५३॥ वाराहो मातृ विनशांतरे वा मातृसूर्ययोः । .... .... .... .... .... ॥५४॥
त्रिदेवस्थापनक्रम रुद्रस्त्रिपुरुषे मध्येदक्षे ब्रह्मावामोहरिः ।
रुद्रवक्त्र त्रिमागोनो हरिरर्वेविरच्यूमे ॥५५॥ 7. Iu lieu of this Vss. 35, 36/2 of Prasadamandana have been
giveu in C. 8. The topic is thus elaborated in Prasadanandana. सूर्यायतनः-सूर्यो गणेशो विष्णुब्ध चंडीशंभुः प्रदक्षिणे ।
भानोगृहे प्रहास्तस्य गणाद्वादश मूर्तयः ।। गणेशायतन:---णेशस्य गृहेतद्व चंडी शंभुईरी रविः ।
मूर्तयो द्वादशान्येऽपि गणाः स्थाप्या हिताश्चये ।। विष्णुआयतनः-विष्णोः प्रदक्षिणेनव गणेशोऽर्कोऽम्बिका शिवः ।
गोप्यस्तरयावतारस्य मूर्तयो द्वारिका तथा ।। चंडयायतनः-चंड्याः शंभुर्गणेशोऽर्का विष्णुः स्थाप्यः प्रदक्षिणे ।
मातरो मूर्तयो देव्या योगिन्यो भैरवादयः ।। शिवपंचायतन-शंभोः सूर्योगणेशश्च चंडी विष्णुः प्रदक्षिणे ।
स्थाप्याः सर्वे शिवस्थाने दृष्टिवेधविवर्जिताः ॥
Page #53
--------------------------------------------------------------------------
________________
* Prasad Manjari *
भिट्टः भिट्टशिलोई प्रासादे एकहस्ते युगांगुलम् । अर्दा गुल वृध्यातु यावत् , पंचाशतकरान् ॥५६॥ एकंटे त्रोणि वा हीनहीनानि पादनिर्गमः ।
पीठः
पासादस्य समुत्सेध्वे एकविंशति भाजिते ॥५७॥ पंचादि नवभागान्ते पंचधापीठमुछूये । त्रिपंचाशत्समुत्सेधे द्वाविंशत्यशनिर्गमे ॥५८।। कुर्यान्नवादि सप्तार्क दशवस्वंशकानक्रमात् । जाड्यकुंभ कणी प्रासपट्टी भाश्वनरस्तरान् ।।५९।। पंचसा त्रि सा ब्धि चतुस्त्रिध्वंशनिर्गमान् । सर्वेषां पीठमाधारः पीठहीन निराश्रयम् ॥६॥ पीठहीनं विनश्येत् प्रासाद भवनादिकम् ।
पासादोदय मानः हस्तादि पंचहस्तांते प्रासादे च समोच्छ्यः ॥६१॥ मूर्या गुला प्रतिकर वृद्धि स्त्रिंशत्करावधिः । नवाङ्गला शतान्तिमेवंच्छाऱ्यातमुच्छ्यः ॥६२।।
मंडोवरविभाग १४४
उत्सेधो वेदवेदेन्दु भक्ते पीठोतेो न्यसेत् । पंच नखाष्ट सार्धद्वि वास्वंक: पंचत्रिंशतः ॥६३॥
Page #54
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०
9.
* प्रासादमञ्जरी *
तिथ्यष्ट दश वश्वंशै सार्द्धद्वि विश्व भाग ।
कुंभकलशं चान्तरपत्रकम् ||६४॥
क्रमेण खुरकं कपोताली मंची जंघोद्रमाश्र भरणीतत: । शिरः पट्टीं कपोतालिम तरच्छाद्यमाचरेत् ॥६५॥
दशांशे निर्गतो
वारि-मागेदिल कलांशतः ।
भित्तिमान
इष्टिकाभित्ति कृतेगेहे भितिपादेन कारयेत् ॥ ६६ ॥
पंचमांशेऽथवासार्द्धं
दारुजे
घडशेवापिशैलजे । सांधारेष्टमांशतः ॥६७॥
दशांशे
कुभैमूलनासिके ।
सप्तमांशस्यात्
धातुरत्नजस्यात्
गर्भगृहस्वरुप
गर्भगे युगाथ वा भद्राढ्यं वायतंशुभम् ||६८||
स्वरसमसूत्र
कुंभकेन समाकु भी स्तंभउद्गम साम्यतः । भरण्यां भरणं शीर्ष कपोताल्यां समभवेत् || ६९ ||
कूटछाद्यस्य पेटान्तं कुर्याद पटस्यपेटकम् ।
गर्भगृहोदय
" गृहदेवालये गर्भे व्यासात् सार्द्ध
सपादकः ॥७०॥
गर्भादयः स्यात् पट्टांते तस्य तु वसुभाजिते । एकसार्द्ध' शरार्द्धक साधैः क्रमेण कुंभिका ॥ ७१ ॥
Vss. 70, 71 are absent in B. but found in C.
10
Page #55
--------------------------------------------------------------------------
________________
.
* Prasad Manjari * स्तंभोध भरणंशीर्ष पट्टोदोर्द्ध करोटकम् ।
द्वारमान एकास्ते सुरागारे दैर्द्धद्वारं कलांगुलम् ॥७२॥ षोडशाङ्गला या वृद्धयाः प्रतिहस्त युगान्तकै । ऽयंगुलाचाऽष्ट हस्तांते द्विवृद्धद्या स्थात् शतार्द्धके ॥७३॥ द्वारोच्छ्याई विस्तिर्ण षोडशांशाधिक हिवा । शाखास्त्वंग समा एक त्रिपंचादि नवांशके ॥७४॥ हीनानेष्टाऽधिकाश्रेष्ठास्तास्युर्देवालयं गवत् । देवानां सप्तशाखवा नवांत हरिरुद्रयो ॥७५॥ पंचशाखं सार्वभौमे त्रिशाखं मंडलेश्वरे । द्वारेस्वस्व प्रतीहारान् परिकरयुतस्थितान् ॥७६।। द्वार'द्वैध्ये चतुर्थी शे द्वारपाल प्रकारयेत् ।
दुम्बरार्धचन्द्र मूलकर्णस्य सूत्रेण कुंभिनादुम्बर समम् ॥७७॥ गर्भ का तस्यात् मंदारस्तुत्रिभागतः । द्वार व्यास समौदैश्यों अर्द्धचन्द्रस्त्वर्धनिर्गत:13 ॥७८।। खुरकेन समोत्सेध स्वत्रार्धा शस्तु चंद्रिका ।
मंडपेषु समस्तेषु पीठान्ते रङ्गभूमिका ॥७९॥ 10. Missing in B. 11. न्यसेत् परिकर स्थितान् in A. 12. कोणेना in A. 13. Abseat iu B and C.
Page #56
--------------------------------------------------------------------------
________________
* प्रासादमञ्जरी *
I
-
कपिलोप्रमाण
प्रासाद दशभक्ते द्वीत्रिवेदांशाश्च वार्धतः । ध्यंशेऽथ पादैका कौलीस्यादुई शुकनाशकः ॥८॥
शिखरः छाद्यस्योर्चे महारःस्यात् ततःशृंङ्गाणि कारयेत् । शृगे शृगे त्वधच्छाध मूर्ध्वशृङ्गाधोऽनुद्गमम् ॥८॥ स्वस्याङ्गास्य प्रमाणांतु सपादं शृङ्गमुच्छ्ये । कंध स्या?दये घंटा (शृङ्गे महति वालधौ ?) ८२६ मूलकणे रथादौ वाध्येकद्वित्रिक्रमात् न्यसेत् । निरंधारे मूलभित्तौ सांधारे भ्रमभित्तिषु ॥८३॥ रेखागर्भ समाशस्ता विस्तिर्णवान संकटा । . उरुशगाणि भद्रस्युरेकादितो नवांत्तकम् ।।८४॥ लुब्धा सप्तसप्तास्तां तूचे रसांशस्त्रयोदशः । रेखामूले दशभक्ते कूर्यादग्रं षडंशकम् ॥८५।। रेखाम्लेत्सपादकर्ण मानेवा शिखरोदये । रेखोदयेऽष्ट भक्ते तु स्कंधोये सप्तभागिकम् ॥८६।। उर्वाशे तिर्यगलस्य (लांछनाद्वेषिका मतः ?) । यद्वारेखा मूलस्य विस्तराद पृथकसूत्रे चतुर्गुणे ॥८७॥ पद्मकोशं समालेख्य सपाद शिखरोदयः ।
आमलसाराप्रमाण स्कधकोशान्तरे सप्त भक्तेग्रीवांशकोदयः ॥८८||
Page #57
--------------------------------------------------------------------------
________________
13
* Prasad Manjari * सार्द्ध आमलसारः स्यात् पमछत्रं तू सार्द्धतः । त्रिभागमञ्च कलशं कुर्याद्विभाग विस्तरः ॥८९॥
मूलशिखरउपाङ्गचालंजर रेखामूले तु दिग्भक्ते कोणः कार्याद्विभागकः । त्र्यंशभद्रं रथः सार्द्ध स्कंधोध्वं च नवांशके ॥९॥ ''कोणौ युगांशौ भद्रं च द्वयंशत्र्यंशोरथो भवेत् ।
शुकनासमान छाद्यांतः स्कंधान्तमेकद्वि भक्तैकदिकशिवांशकै ॥९१।। सूर्य विश्वांशकैरुवं च छाद्योवें शुकनासक । शृङ्गोरुशृङ्ग प्रत्याङ्गं गणयेन्दंडकानिहि ॥१२॥ 1"तबङ्गा तिलक कर्णे कूर्यात् प्रासादभूषणम् ।
आमलमार विस्तारमान द्वयो प्रतिरथोर्मध्ये वृत्तमामलसारकम् ॥१३॥ व्यासार्द्धन तदुत्सेधं धृतपात्रं तदंतरे । मासाद पुरुषं स्तत्र हेमपर्यकशायिनः ॥९४||
ध्वजाधरस्थान प्रासाद पृष्ठे नैरुत्ये रथे कूर्याद ध्वजाधरम् ।
कलशः प्रासादस्याष्टमांशेन कलशांऽके विस्तरः ॥९५॥ 14. C. stops here. 15. Absent in B.
Page #58
--------------------------------------------------------------------------
________________
१४
16.
17.
18.
प्रासादमञ्जरी *
16
" पूर्वोक्त मानतो ज्येष्ठः षोडशांशाधिको भवेत् । तादशोनः कनीयो: नवांशैरुदयं भवेत् ॥ ९६ ॥
*
ग्रीवापीठं भवेद्भागं त्रिभागं नाण्डकं कणिके भाग तुल्ये च त्रिभागं
तथा । बीजपूरकम् ॥९७||
एकांशोऽग्रे च मूलेद्वौ वह्नि वेदांश ग्रीवाद्वौ पीठमर्ध द्वीप भागं
ध्वजादंड
तदुच्छ्रायो भवेद्दंड: प्रासाद व्यास मानतः । दीग् शरांशोन तो वास्या हस्ते पृथु पादोनाङ्गुला ॥ ९९ ॥
कर्णिको । विस्तराण्डके ॥ ९८ ॥
प्रति हस्ते शतार्द्धा ते त्वर्ध्वाङ्गुल वृद्धितः । समग्रंथी पर्वभिर्विषमैर्युतः ॥१००॥
वृत्तसार
शिशव वंश
17
" अगर कगरेण वा दंडः कार्यः
खदिर मधुकोरुण चंदनै ।
मर्कटी दंडः षष्ठांशे दैर्ध्यार्द्धन तु समुच्छ्रिता त्रिभागैव किंकिणीयुत
18
Vss. 93 to 95 absent in B.
Absent in B.
Absent in B.
सुशोभनः ॥१०१॥
विस्तृता । चंद्रिका ॥१०२॥
वंशो कलशचैव अधः घंटा मलंबयेत् । ध्वजादंड शूतादेध्ये साप्टामांशेन विस्तृता ॥ १०३ ॥
निष्चिन्हं शिखरं दृष्ट्वा ध्वजाहीनं न कारयेत् । वासमिच्छन्ति ध्वजहीन सुरालये ॥ १०४॥
असुरा
14
Page #59
--------------------------------------------------------------------------
________________
15
* Prasad Manjari *
प्रासादाः
चतुरस्र चतुर्दारो द्वाराग्रे च चतुष्किका । वैराज्योऽथ चतुर्भक्ते कोणोशोद्वोतुभद्रकम् ॥१०५॥
भागाचं निगम भद्रं मुख भद्रं प्रकारयेत् । शृङ्गमेकं न्यसेत्कर्णे भदेवोद च नंदनः ॥१०६॥
सांधारकेशरीप्रासादः
सांधारे दिग् नवांष्टांशे भ्रमौमित्तिश्च भागतः । क्षेत्रेऽष्ट भक्ते द्वौ कर्णो भद्रं वेदांश विस्तरम् ॥१०७।।
भागार्द्ध निर्गम पंचांऽकोयं केसरीमतः । चतुरऽक वृध्यान्ये यावदेकोत्तर शतम् ॥१०८॥
दशभक्ते द्वयं कर्णः सार्द्ध भद्रा केरथे । श्रीवत्स शिखर सर्वतोभद्रो नव शृङ्गवान ॥१०९।।
भद्रे श्रीवत्स सहितो रथिकाद्यश्च नंदनः । शृङ्ग तदूर्वे भद्रं तत् सदश नंदशालकः ॥११॥ कर्णेशृङ्गाद्वयंत्वेक रथे नंदिशईरितः । सूर्याशे मरथः कर्णो भद्रार्द्ध द्विद्विभागतः ॥११॥ कर्णे भने च शृङ्गेद्वे स्थेत्वेकं स मदर ।
मनुभक्ते रथः कर्णो भद्रार्थ द्विद्वि भागः1 ॥११२॥ 19. क्षेत्रेष्ट भक्तेद्वौकर्ण तत्र भद्रांश विस्तरम् in B. 20 Absent in A and B, but kuown in mss. fron Rajasthan. 21. Ibid.
Page #60
--------------------------------------------------------------------------
________________
16
* प्रासादमञ्जरी * भद्रपार्श्व द्वये कूर्याद् भाग भागेन नंदिके । कर्णे शृङ्गाद्वयं शृङ्गो परिष्टात् तिलक रथे ॥११३॥ नद्यामेकैक तिलक भद्रे शृङ्ग त्रयं न्यसेत् । श्री वृक्षस्तत्र कर्णे त्रिशङ्गैः स्यादमृतोद्भवः ॥११४।।
द्वे द्वे प्रतिरथे द्वे द्वे भद्रे च हिमवान् मतः । भद्रे तृती। नंयांस्तु तिलकं हेमकूटकः ॥११५|| रेखोर्ध्वस्तिलकं नंद्या शुग कैलास संज्ञकः । रेखायास्तिलकं स्थाने शङ्ग पृथ्वीजयस्तदा ॥११६॥ षोडशांशे भागमाना कोणी कर्ण रथान्तरे । शेष मन्वंशवद्भद्रे निर्गमोऽशः परे समा ॥११७।। कर्णशङ्गद्वयं नंद्या तिलक' च प्रत्याङ्गाकम् । द्वय रथे त्रयं भद्रे नंदी केन्द्र तोलकः ॥११८॥
नंधा शङ्गे महानिलो रेखोवें तिलके सति ।। रेखास्तिलकै स्थाने शृङ्गा यदि सभूधरः ॥११९॥ अष्टादशांशे भदस्य पार्श्वयो नंदिका द्वयम् । शेष कलांशंवत्कणे द्वे शृङ्गे तिलकस्तथा ॥१२०॥
कर्णे नंद्या शृङ्ग तिलक प्रत्याङ्गा युग्म भागिकम्"" Vss. 121 to 123 are variously given in B. as:
नंद्या उद्वेतु तिलके प्रत्याङ्गे युग्म भागिकम् । शगं त्रयस्थेभद्रे युग्मनंद्यातु तैनके ॥ भद्र नंद्यान्यसेशन तिलकं रत्नकूटकः । रेखा तृतीय शृङ्गतु सतिवैडूर्य उच्यते ॥ अयं नंद्यातु तिलके द्वे शृङ्गे पद्मरागकः । रेखाधः स्तान पुनः शृङ्ग कारयेद्वनकस्तदा ।।
22.
Page #61
--------------------------------------------------------------------------
________________
17
* Prasad Manjari *
" मा काम हम से भाग १२०
नंद्या द्वे द्वे तिलक भद्रे युग्म रथे त्रयम् ॥१२१॥
रत्नकटस्तदा नाम शिवलिङ्गेषु कामदः । रेखायां वतीय शृङ्ग सति वैडूर्य उच्यते ॥१२२॥ रेखोर्षे तिलक रथ नये शृो द्वे पद्मरागः । रेखोर्ध्वस्तात् पुनः शृङ्ग कारयेद्वजकस्तदा ॥१२३।। नख भक्ते द्वयकणे साढे कोणोद्वय रथः । सार्द्ध नंदी भद्र नंदी भागोभद्र युगांशकः ॥१२४६
कर्णे द्वि शङ्ख तिलक रेखामन्वंश विस्तरा । नद्या शृङ्गं च तिलक प्रत्यङ्म च तदूर्ध्वतः ॥१२५।। वयं भद्रं चतुः शृग नद्या शृङ्गां च तिलक । भद्र ना तथा शृङ्ग प्रासादो मकुटोज्ज्वलः ॥१२६।।
तत्र रेखो, च शङ्गे प्रासादो गजराजकः । तथैव तिलकं कुर्यात् भद्र कर्णेतु शुङ्गकम् ॥१२७॥ राजहंसः समाख्यातः कर्तव्यो ब्रह्मम दिरे । तथैव शुग कूर्मात् भने कर्णे तु तिलकम् ॥१२८! गरुडः स समाख्यातः कर्तव्यच श्रियः पते । द्वाविंशत्यं शके नंदी भागेन भद्र पार्श्व यो ॥१२९५ जयपतिरथः कर्णो भद्रा च द्वि भागिकम् ।
कर्णे द्वि शृङ्ग तिलक भद्रे शृङ्ग चतुष्टयम् ॥१३०॥ 3. Vss. 124'--133' absent in B. 24, प्रत्यङ्गस्या धोरथे in A. 25. Vss. 127 and 128 missing in A but known in mss. fronm
Rajasthau.
Page #62
--------------------------------------------------------------------------
________________
18
* प्रासादमञ्जरी * सुङ्गाद्वयं प्रतिरथे प्रत्यङ्गानि त्रिभागतः । रथे शृङ्ग त्रयं कुर्याद द्वे द्वे उपरथे तथा ॥१३॥ गद्र नंद्या ततः शङ्ख वृषभोऽयं हरप्रियः कर्णे शृङ्ग तृतीयस्या नोरु सिद्धि प्रदायकः ॥१३२॥ सांधारा वा निरंधाराः प्रासादा पंचविंशति । पंचहस्तो भवेन्मेरु रेकोत्तर शतांऽकः ॥१३३॥ नख वृध्या शताबेंका न्येकोतर सहस्रकम् । पूर्व कर्यान्नृपोमेरवणहीन ततःपरम् ॥१३४॥ मेरुः कुर्याद् ब्रह्मविष्णु शिवार्काय नान्ये क्वचित् ।
मंडपाः
प्रासादाने मंडपस्यादेक त्रिद्वार संयुतः ॥१३५।। जिने त्रिपुरुषे द्वारि कासु त्रिमंडपाः क्रमात् । एकद्वे हस्ते प्रासादे कूर्यादग्रे चतुष्किका ॥१३६॥ त्रिकरे द्विगुण वेद हस्तांशोन द्विसंगुणम् । पंचादि दश हस्तांते प्रासादे साई मंडपः ॥१३७।।
दश हस्ता शतार्द्धते सपाई वा समंशुभम् । प्रायेण मंडपाः साी द्विगुणं प्रत्यलिङ्गाकै ॥१३८॥
जयमते
मासादस्य प्रमाणेन मंडपं कारयेत्तसमम् ।
सपादं साद्ध मंशोन द्विगुण द्विगुण हिवा ॥१३९।। Vss. 135 to 138 missing in B.
26.
Page #63
--------------------------------------------------------------------------
________________
19
* Prasad Manjari *
कक्षासनयुक्तस्तंभविभाग
विश्वांश भक्तं तूत्सेधै सपाद राजसेनकः । सपादं त्र्यंश कावेदी भागनासनपट्टकम् ॥१४०।। स्तंभ साधे सरांशोऽथ पादोन भरणं मतम् । शीर्ष सपादे तस्योर्चे कार्यः पट्टो द्विभागकः ॥१४१।। तघे अंशक छाद्यं तत्पेट पट्ट पेटके । कार्याहस्तांगुलोन मासनो मत्तवारणम् ॥१४२।।
गूढमंडपाः स्याद्दमंडपो वेदात्र सुभद्रोतिभद्रकम् । मुखभद्र युतो द्वाभ्यां त्रि वा प्ररथयुतः ॥१४३॥ कर्णोदकान्तरे वापि भद्रोदकयुतस्विभिः । कर्णतो द्विगुणं भद्र पादोनस्तु रथो भवेत् ॥१४४।। भद्रार्ध मुखभद्रही भद्रे चंद्रावलोकितः ।
चतुष्कीप्राप्रिवमंडपाः एक त्रिभेद षट् सप्त नव चतुष्कयं त्रिकाये ॥१४५।। अग्रे भद्र युते पार्थ द्वयेपााग्रतस्तथा । अग्रतस्त्रिचतुष्किभिः सालिंद पाईयोर्द्वयोः ॥१४६|| मुक्तकोणे चतुष्क्यो इतिद्वादशमंडपाः । मंडपे स्तंभ पदाया मध्यपदानुसारतः ॥१४७||
27. Iss 140 to 144 absent in B. 28. Vss 145 to 147 absent in B.
Page #64
--------------------------------------------------------------------------
________________
* प्रासादमञ्जरी * शुकनास समापंम न्यूनाश्रेष्टानतोच्छ्तिा ।
नृत्यमंडपाः नृत्यार्थ द्वादशस्तंभो द्विद्विस्तंभ विवर्धनम् ॥१४८।। यावत् स्तंभाश्चतुषष्टि सप्ताविंशति मंडपाः । नृत्यमंडप चा- भूमिमूवें वितानका ॥१४९।।
अथवलाणकः
ब्रह्मेश विष्णु चंद्रार्क जिनाग्रे स्याद् बलाणकः । प्रासादाग्रे गृहे दुर्गे राजद्वारे जलाशये ॥१५०| वामनश्च विमानश्च हर्यशालच पुष्करः । तथा चोतुङ्गा नामा च पचैते च बलाणकाः ॥१५१।। बलाणं जगती पादः व्यास पादो नितंहिवा: । एक द्वित्रि चतुः पंच रससप्त गुणान्तरे ॥१५२।३ मूलमासाद वद् द्वारं उत्तरङ्गाणा च पेटके 31 । वामन जगतो ग्रस्त विमान तु तदाश्रितम् ॥१५३३ : हर्म्यगृहे वाऽपि गोपुरे नगरानने । पुष्करं चारिमध्यस्थमग्र तथैव भूषितम् ॥१५४॥ विमानस्तुङ्गनामा च राजवेश्माग्रतः शमः । सप्तभूमं नवभूमं अतउ, न कारयेत् ॥१५५।
लक्षण तस्य वक्ष्यामि स्थानमानौं च भूमिकाम् । 29. Absent in B. 30. Absent in A. 31. तनप्रासाद च द्वारं उत्तरंगो कणं वधि in B. 32. Vss. 153 to 155 absent in B.
Page #65
--------------------------------------------------------------------------
________________
21
* Prasad Manjari
संवरणा
पंचाद्यैकोत्तरं शतं घंटा संवरणा भवेत् ॥ १५६ ॥
पंचविंशतिरित्युक्ता प्रथमा वभागका लिङ्गमान
*
34
मानन्युनाधिकं वापि स्वयंभूवाण रत्नजे ॥ १५७॥
35
घटितेषु विधातव्यमर्चा लिङ्गेषु शास्त्रतः ' जगत्यांनीचतु: पंचगुणां देवपुर त्रिधाः ॥ १५८ ॥
भिन्नदोषादि
दीर्घमानाधि
छंदभेदे जातिभेदे हीनमाने
प्रतिमा
.33
ब्रह्माविष्णु शिवार्काणां गृहभिन्नं न दोषदम् । शेषाणां दोषदं भिन्नं व्यक्ता व्यक्तगृहं शुभम् ।। १५९ ।।
वक्रेचापि सुरालये ।
तिथिशक
द्वारदैर्घ्यं तु द्वात्रिंशे उच्च आसनस्थातु मनुविश्वार्क
33. Vs. 157' absent in B. 34. मान न्यूनाधिका कार्या in A 35. Vs. 158' absent in B.
मानप्रमाण
द्वारोच्छ्रयोऽष्ट नवधा भागमे के परित्यजेत् ।
शेषsiशे द्विभागाच
महद्भयम् || १६०॥
अंशोनाद्वारतोथवाः || १६१ ॥
कलांशकै ।
भागतः || १६२ ||
चतुरस्रीकृते
क्षेत्रे
दशभाग
विभाजिते ।
भित्ति द्विभाग कर्तव्या षड्भाग गर्भ मंदिरम् || १६३ ||
२१
Page #66
--------------------------------------------------------------------------
________________
* प्रासादमञ्जरी * तृतीयांशेन गर्भस्यात् भासादे प्रतिमोत्तमा । मध्यमा स्वदशांशोना पंचाशोना कनियसी ॥१६४||
प्रतिमा द्रष्टि स्थान
आयभागे भजेद् द्वारमष्टमूर्ध्वतः त्यजेत् । सप्तमा सप्तमे द्रष्टिवषेसिंहे ध्वजे शुभा ॥१६५।। षष्ट भागस्य पंचाशे लक्ष्मीनारायणस्यदक् । शयनार्चाश लिङ्गानि द्वारान व्यतिक्रमात ॥१६६।।
देवता पद स्थापन विभाग
पट्टाधो यक्षभूताद्याः पट्टाग्रे सर्वदेवताः । तदने वैष्णव ब्रह्मा मध्ये लिङ्ग शिवस्य च ॥१६७।।
प्रतिष्ठामुहूर्त पूर्वोक्त सप्तपुण्याह प्रतिष्ठा सर्वसिदिदा । रवौ सौम्यायने कूर्याद् देवानां स्थापनादिकम् ॥१६८॥ प्रतिष्ठा चोत्तरामूल आर्द्रायां च पुनर्वसौ । पुष्ये हस्ते मृगे स्वातौ रोहिण्यां स्रतिमैत्रमे ॥१६९।। तिथि रिक्ता कुजधिष्ण्य क्रुरविद्धं विधुं तथा । दग्धां तिथिं च गण्डान्त चरभोगग्रह त्यजेत् ॥१७०॥ मुदिने सुमुहूर्ते च लग्ने सौम्येयुतेक्षिते । अभिषेकः प्रतिष्ठा च प्रवेशादिकमिष्यते ॥१७१४
36. Vss. 168 to 181 are absent in all the mss. Known from
Saurashtra: these have however, bees noticed in those fron Rajasthan.
Page #67
--------------------------------------------------------------------------
________________
23
* Prasad Manjari *
प्रतिष्ठामंडपः
पासादाने तथैशान्ये उत्तरे मंडपंशुभम् । त्रिपंच सप्तनंदैका दशविश्व करान्तरे ॥१७२॥ मंडपः स्यात् करैरष्टा दशसूर्य कलाभित्तैः । षोडश हस्ततः कुंडे वशादधिक इष्यते ॥१७३।।
स्तंभः षोडश संयुक्तं तोरणादि विराजितम् । मंडपे वेदिका मध्ये पंचाष्ट नव कुंडकम् ।।१७४॥ इस्तमात्र भवेत् कुंडं मेखलायोनिसंयुतम् । आगमैर्वेद मंत्रैश्च होमर्याद् विधानतः ॥१७५।।
अयुते हस्तमात्र हि लक्षार्धेतु द्विहस्तकम् । त्रिहस्त लक्षहोमे स्यात् दक्षलक्षे चतुष्करम् ॥१७६।। त्रिंशलक्षे पंचहस्त' कोटयर्धे षट्कर मतम् । अशीति लक्षेऽद्रिकर कोटिहोमेऽष्ट हस्तकम् ॥१७७॥
ग्रहपूजा विधानेन कुंडमेकंकर भवेत् । मेखला त्रितयं वेद रामयुग्मागुलैः क्रमात् ॥१७॥ एकद्धि त्रिकर कूर्याद वेदिको परिमंडलम् । ब्रह्मा विष्णु वीणां तु सर्वतोभद्रमिष्यते ॥१७९।।
भद्रं तु सर्वदेवानां नवनाभिस्तथा त्रयम् । लिङ्गोद्भव शिवस्यापि लत्तालिङ्गोद्भवं तथा ॥१८०॥
भद्रं गौरी तिलके च देवीनां पूजन हितम् । अर्धचंद्रं तडागेषु चापाकार तथैव च ॥१८॥
Page #68
--------------------------------------------------------------------------
________________
२१
2-1
___ + प्रासादमञ्जरी *
सूत्रधार पूजनः
इत्यनंतरतः कुर्यात् सूत्रधारस्य पूजनम् । वस्त्रालंकार भूवित्त गोमांहष्याश्व वाहनेः ॥१८२।। अन्येषां शिल्पिनां पूजा कर्तव्या कमकारिणाम् । स्वाधिकारानुसारेण वस्त्रनाम्यूल भोजनैः ॥१८३॥ पूण्य प्रासादज स्वामी प्रार्थयेत् सूत्रधारतः । सूत्रधारो वदेत् स्वा.मन् अक्षयं भवतात् तवः ॥१८४॥ लक्षलक्षणतोऽभ्यासाद् गुरुमार्गानुसारतः । प्रासाद भवनादिनां सर्वज्ञानमवाध्वते ॥१८५॥ एकेन शास्त्रेण गुणाधिकेन वनाद्वितीयेन पदार्थसिद्धिः। तस्मात् प्राकारान्तरतो विलोक्य मणिर्गुणाढयोऽपि
सहायकांक्षी ॥१८६।।
સુત્રધાર નાથજીના પિતા ખેતા-ક્ષેત્રા इय श्री क्षेत्रपुत्रेण सार मासादा सु संस्कृता । सूत्रधारेण नाथेन निर्मिता वास्तुमअरी ॥१८७।।
इति श्री मेदपाट राजमल्ल पृथिवीपति मूत्रधार क्षेत्रात्मजो विविधशास्त्र कला सुधार गोत्र भारद्वाज सूत्रधार नाथजी विरचितायां वास्तुमचर्या तर्गत प्रासादाधिकार स्तबक द्वितीय॥२॥
37.
These Ves. are like-wise absent in mmss. frona Suurashtra.
Page #69
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री गणेशाय नमः ॥ श्री विश्वकर्मणे नमः ॥ श्री सरस्वत्यै नमः ॥
सूत्रधार नाथुजी विरचित वास्तुमर्यान्तर्गत
प्रासादमञ्जरी
( स्थपति प्रभाशंकर कृते सुप्रभ टीका: हिन्दीभाषानुवाद सहित )
•
Page #70
--------------------------------------------------------------------------
________________
IDEA
UPIADS
WATER
१०..
. ..
. HARDA La
rand
TATE
.
..
.
.
A0SOMPURANC ESDAPPA
RASOMORA
LRERPA ROSPHAIRA HESAPHPश्री सरस्वती
श्री विश्वकर्मा अक्षमालां पुस्तकं च
अक्षमाला कंबासूत्रं वीणावाद्यं च पद्मकम् । .. पुस्तकं च चतुर्भुजम् ।। मयूर हंसारुढां च
हंसस्थं च त्रिनेत्रं तं वंदेऽहं तां सरस्वतीम् ।। वंदेऽहं विश्वकर्मणम् ।।
श्री गणपति गणेशाय नमः तस्मै
सर्वविघ्नविदारिणे । मूषारुढ चाद्यदेवं
वंदेऽहं तं गजाननम् ।।
Page #71
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री गणेशाय नमः । श्री विश्वकर्मणे नमः ॥ श्री सरस्वत्यै नमः । सूत्रधार नाधुजी विरचित वास्तुमजर्यातर्गत
॥ प्रासादमञ्जरी॥
हिमालय के उत्तरभागमें देवदारु वृक्षांके वनमें देवताओं, मनुष्यों असुरों आदि ने शिवजीका शिवजी प्रासादके आकार से पूजार्चन किया। जिस पर से प्रासादकी (भारतके विभाजनानुसार ) चौदह जातियां उतन्न हुई। १ नागरादि. २ द्रविडादि, ३ लतिनादि, ४ विमानादि, ५ मिश्रकादि, ६ विराटादि, ७ साधारादि, ८ भूमिजादि, ९ विमान नागरादि, १० विमान पुष्पकादि, ११ वल्लभादि, १२ फासनाकादि १३ सिंहावलोकनादि, एवं १४ रथारुहादि इसप्रकार चौदह जासियां भारतके देश भेद से समजना' (जिनमें पहली आठ श्रेष्ठ कही हैं)
देवमंदिरः-मिट्टी, काष्ट (लकडी), ईंट, पत्थर, धातु, रत्न आदि वास्तुद्रव्य के निर्माण होते हैं । परन्तु वे अपनी अपनी शक्ति के अनुसार बनवाने से मनुष्य चतुर्वर्ग-अर्थात् धर्म अर्थ काम और मोक्ष के फलकी प्राप्ति करता है। मिट्टि आदि के देवमदिरों में लक्ष्मी क्रीडा करती है । ५.
कार्यारम्भ :-कार्य का प्रारम्भ करनेके लिये शुभलग्न शुभ नक्षत्र एवं पांचग्रहांका बल चाहिये । कथित शुभ मास एवं संक्रान्ति में वत्सादि दोष तथा निषिद्ध काल त्यज कर प्रासदका समारम्भ करना चाहिये । ६.
भूमिपरीक्षा :--जो भूमि चारों ओर ढालू हो, अथवा पूर्व या उत्तर या इशान की ओर ढालू हो वह प्रासाद निर्माणार्थ उत्तम भूमि जाननी चाहिये । भूमिकी परीक्षा करके उसे जल एवं पश्चगव्य से सिंचित कर बुद्धिमान को चाहिये कि उसका पूजन प्रारम्भ करें। ७.
मणि, सुवर्ण, चांदी, परवाला या फलोंसे चौसठ या सौ पदका वास्तुचर्ण (आटा) या चावलसे रचकर पूर्व शास्त्रकारों द्वारा कथित विधिसे बलि एवं पुष्पादिसे पूजन करना चाहिये । ८-९.
इन्द्र. अमि, यम, निऋति, वरुण, वायु, कुबेर एवं ईश, इस प्रकार इन
१. अपराजित सूत्र ११२ में यह चौदह जातिके प्रामाद भारतके किप्त किस प्रदेशमें किस जातिका प्रासाद बनवाना यह बतलाया है। बल्कि "जय" मंथमें बौदह जाति के उत्पादक देव, असुर, नाग, किन्नर, इंद्र, देवियां आदिके नाम सहित उल्लेख है।
Page #72
--------------------------------------------------------------------------
________________
28
* प्रासादमञ्जरी पूर्वादि दिशाओंके आठ दिक्पालों के अनुक्रमसे तथा क्षेत्रपाल गणेश एवं चंडी की विधिवत पूजा करके कार्य का प्रारम्भ करना चाहिये । १०-११.
निषिद्ध मुहूर्त :-धन अथवा मीन राशिमे जब सूर्य का प्रवेश हो; गुरु एवं शुक्र के चद्रका अस्त काल; वैद्यति, व्यतिपात योग एव दग्धा तिथिमे कार्य का प्रारम्भ अथवा वास्तु कदापि नहीं करना चाहिये । कन्यादि तीन राशि के सूर्य में पूर्वादि द्वार वाले वास्तु नहीं करना चाहिये (अर्थात् प्रारम्भ नहीं करना) इसका कारण यह है कि सृष्टिक्रमानुसार वत्सको मुख उपरोक्त दिशाओं में रहता है। जिससे उस निषिद्ध कालमें यदि कार्यका प्रारम्भ करें, तो स्वामीका नाश होता है। १२-१३.
समचोरस क्षेत्रका देवगणादि श्रेष्ठ गणित आमना
सामना नक्षत्र | गण | चंद्र | आय सामना अंक न सामना अंक १५
नक्षत्र | गण | चंद्र | आय १.१४३.३ मृगशिर्ष देवगण पूर्व ध्वजाग ५.०४५.५ अनुराधा देवगण पश्चिमे ध्वजाय १.३४१३ | रेवती , उत्तरे ६.१३४५.१३ मृगशिर्ष " | पूर्व १.५४१.५ मृगशिर्ष , । पूर्व , .१५४५.१५/ रेवती | ,, उत्तरे १.१३-१.१३/अनुराधा , पश्चिमे , ५.१७४५.१७ मृगशिर्ष , १.२१४१.२१/ रेवती , उत्तरे ६.९४६.९ रेवती | २.५४२५ पुष्य
| " ६.१७४६.१७ पुष्य !, २.७४२.७ | पुष्य । .. ध्वजाय ६.१९४६.१९ पुष्य देवगण २.१५४२.१५ रेवती ,, | ,, ७.३४७.३ | रेवती ,, २.२३४२.२३/अनुराधा " पश्चिमे ,, ७.११४७.२१ अनुराधा , ३.७४३.७ मृगशिर्ष , | पूर्व ., ७.११४७.११ मृगशिर्ष , ३.९४३.९ | रेवती ,, उत्तरे , ७.२९४७ २९/ रेवती | . ३.११४३.१५मृगशिर्ष , ध्वजाय७ २३४७.२ मृगशिर्ष , ३.१९४३.१९ अनुराधा , |, | ८.७४८.७ अनुराधा ,,
४.३४४३ | रेवती , | , ८.१५४८.१५ रेवती ४.११४४.११/ पुष्य | "
८.२३४८.२३ पुष्य ४.१३४४.१३ पुष्य |
| ९१ ४९.१ | पुष्य | ४.२१४४.२१, रेवती ,, ,, | ९९४९९ | रेषती
९.३७४९.३७ अनुराधा , पश्चिमे
Page #73
--------------------------------------------------------------------------
________________
29
* Prasad Manjari *
आयादि गणित:-आय, नक्षत्र, व्यय, एवं अंशकादि अंगोंका गणित देवमंदिरोंकी दीवारों के बाहरी भागसे मिलाना चाहिये; ध्वज, देवगण नक्षत्र, प्रथमव्यय, एवं अंशक मिलाने पर शुभ गणित जानना चाहिये; देवपासाद में वृष, सिंह, और गजाय ये तीनों आयभी श्रेष्ठ हैं, कार्यारंभ करने में मास नक्षत्र एवं लग्नादिका विचार पूर्वाचायोंके शास्त्रानुसार प्रमाणपूर्वक करना। १४-१५.
नागवास्तु चक्र एवं खात:-वास्तुशास्त्र में कहे हुए नाग चक्रको देखकर, जिस संक्रान्तिमें जिस कोने में "खात” निश्चित होता हो वहां खड्डा बनाकर, वास्तुपूजन करके, जबतक पत्थर या जल न आवे (अथवा रेतके अन्त तक । अथवा कच्ची मिट्टीके अन्त तक) भूमि शुद्धिकर-खोदकर कूर्मशिलाकी स्थापना करनी चाहिये । १६-१७.
. सुवर्ण अथवा चांदीके कूर्मका प्रमाण:-एक हाथके देवालयके लिये आधे अंगुलका कूम चांदी अथवा सोनेका बनवाना चाहिये। इस प्रकार पंद्रह हस्त तकके प्रासादके लिये अर्ध अर्ध अंगुलकी वृद्धि करनी । सोलहसे इकत्तीस हस्त तकके प्रासाद निर्माण में चोथाइ : अंगुलकी वृद्धि एक एक हाथमें करनी । बत्तीस से पचास हस्त तकके प्रासादके लिये एक एक दोरा अर्थात है एक अष्टमांश आंगुलकी वृद्धि करनी । चौद आंगुलकी कूर्म ५० गजके लिये करना । गणितके अनुसार आये हुए
१ सोना चांदीके कृम मान के पश्चात् पागणकी कूर्म शिलाका प्रमाण भी अन्य ग्रंथों में दिय हुआ है। मध्यकी कूर्मशिला नव विभाग-स्वानोंको आकृति घाली पर्व कीरती दिशा विदिशाकी कोणकी अष्ट शिला स्थापित करनी । नवशिलाकी प्रथा गुजरात, राजस्थान एवं सौराष्ट्र में है। "क्षोरार्णव'' ग्रंथमें नवशिला एवं “दीपाणव' ग्रंथमें नव अथवा पंचशिला। इस प्रकार दो एक प्रकारसे विसर्जित करनेका प्रमाण है-पंचशिलाए-चार होणे एवं मध्यमे स्थापन करनेका विधान " विश्वकर्म प्रकाश" प्रथमें है, उन शिलाओं में बनाने के चिह्नों के विष्यमें ग्रंथों के विभिन्न मत है, मध्यकी कर्म शिला के नौ खाने बनाकर पूर्व दिशासे क्रमसे चिह्न करने का "क्षीरार्णव" ग्रथमें धर्णन है। वीरपाल सूत्रधारने "प्रासाद तिलक" ग्रंथमें आग्नेय दिशाके क्रमसे चिह्न बनानेका विधान दिया है। मध्यको पाषाणको कम शिला पर सोने-चांदीका कम स्थापित करना । और उसपर खड्डी "नाल" पर देवस्थापनकी सीधमें ऊपर तक लेना उसे "नामी" कहते हैं। यह अग्निपुराण एवं विश्वकर्म प्रकाश थमें कहा है। यह प्रथा द्रविड स्थापत्य में भी है । कूर्म
और अष्ट शिलाओं की स्थापनाकी भूमिमें एक कलश सप्तधान्य, पंचरत्न आदि रखकर यहां धातुके नाग एवं कच्छप (कच्छा ) ताम्र अथवा साने या चांदीके बनाके उसपर शिला स्थापन करनेकी विधि शिल्पि लोग जे परंपरासे कराते आये हैं, वह उचित हैं। शिलापर वस्त्र लपेटनेमें निम्न विधि है।
Page #74
--------------------------------------------------------------------------
________________
* प्रासादमञ्जरी *
30 मध्यमान में है (चतुथांश) भाग जोडने से ज्येष्ठ मान और है घटाने से कनिष्ठ मान जानना चाहिये।
-
मा
अपार
अनिता in
पधिया
वत्र
दिवसा आसमानीवा
/वायची
الحجيجيم
Sunitamnnel
।
जथा श्यामपन -दक्षिण
Addena
सर शुक्ता रिसर्ण
+ 53
मध्यपशिला का
भद्रा
-पूर्वभको पीतवर्ण
सौभागिनी शाय
प्रमाकरी . शिNAAND
कूर्मशिला या अष्टशिला शिलारोपण विधि :-सुवर्ण या चांदीके कूर्म (तथा शिला)को पंचामृत से स्नान दिशा शिलाका अष्टशिलामे | शिलाका || दिशा | शिलाका अष्ट शिलाशिलाका विदिशा| नाम | चिह्न वस्त्र वर्ण | विदिशा नाम | चिह्न वन वर्ण पूर्व | नंदा , वज्र | पीत पश्चिम | अजिता | पाश | पांड आग्नि | भद्रा ! सरवा | रक्त वायव्य अपखजीता ध्वजा प्रवेत दक्षिण | जया | दंड श्यामजेसे ।। उत्तर | शुक्ला , गदा हालीला नेरुत्य | रिक्त | खड्ग | आसमानी | | इशान | सौभागिनो त्रिशूल | श्वेत
मध्यकी शिला-धरणी नाम नवचित-रक्त वर्ण वस्त्रका.
Page #75
--------------------------------------------------------------------------
________________
* Prasad Manjari * कराके इशान अग्नि आदि सृष्टिमार्ग से अष्टशिलाका स्थापन करके मध्यमें कूर्म शिलाका स्थापन करना चाहिये । इस समय मंगल गीत एवं वाद्य बजाने चाहिये । धान्य धृतं आदिका नैवेद्य एवं बलिदान कूर्मन्यास शिला स्थापन समय में देवताओंका वास्तुपूजन करके देना चाहिये-२०-२३.
___आरंभके शुभ नक्षत्रः-प्रासाद अथवा गृहके निर्माण हेतु, जमीन पर सूत्र छोडनेके लिये-तीन उत्तरा, हस्त, चित्रा, स्वाति, रोहिणी, पुष्य, मृगशीर्ष, अनुराधा, रेवती, धनिष्ठा एवं शतभिषा ये नक्षत्र शुभ जानना-(२२) शिलान्यासके शुभ नक्षत्र -रोहिणी, श्रवण, हस्तपुष्य, मृगशीर्ष, रेवती और तीनों उत्तरा, उत्तरा-पाढा उत्तराभाद्रपद ३उत्तरा फाल्गुनी ये नक्षत्र शुभ जानना (२३)
प्रासाद योग्य स्थान और पुण्यः-नदीके तीर पर; सिद्धषुरुषोंके आश्रममें, तीर्थ स्थान में शहर या ग्राममें; अथवा बाहर, पर्वतकी गुफाके आगे, बागमें, बावडी या तालाब के किनारे-इन स्थानों पर प्रासाद स्थापन करने चाहिये । देव स्थापन पूजन और दर्शनादि से पुण्यलाभ होता है और पाप क्षय होता है, धर्मकी वृद्धि होती है, द्रव्यसे कामनाएं पूर्ण होती हैं, और मोक्षप्राप्ति होती है ! (२४-२५) __ वास्तु द्रव्यानुसार पुण्य प्राप्तिः-तृण-घासका देवालय स्थापन करने से
शिलाका नाम पृथक् पृथक ग्रंथों में भिन्न भिन्न कहा है। अष्ट शिला कर्म शिलासे ३ विस्तार विस्तारसे 3 पृथुभेोटी रखनी । मध्यकी कूर्मशिला समचो. रस करनी अर्थात् मध्यका कर्मशिला सामान्य रीतसे गर्भ गृहको मध्यमें स्थापन करनेका कहा है। परंतु "दीपाव" ग्रंथोंमें अर्ध पादे त्रिभागे था शिला चघ प्रतिष्ठयेत् ॥ का प्रमाण स्पष्ट दिया है । अर्थात् गर्भगृहके अर्धभागमें (शिवलिङ्ग विषयमें) अथवा तीसरे या चौथे भागमें कर्मशिला स्थापन करनेका विधान है। इसका तात्पर्य यह है कि देव स्थापनके निम्न स्थानपर कर्मशिला स्थापन करना। तदनुसार देवके नीचे नाल और नामि अवलंब सूत्र में आ जाये। सौराष्ट्रकी कितनी ही प्रतियोंमें और अग्निपुराण और विश्वकर्म प्रकाशमें शिला स्थापनके विधानमें कहा है।
स्वस्वासु वाहनाय कैर्धातुजे स्ताष पात्रगैः
मुक्त दोष विधानाद्यन्यत्शेङ्गर्भ सुरालयोः॥ जिस देव का मंदिर हो-उसी देयका वाहन एवं आयुध शिलामें अंकित करना चाहिये। शिलाके नीचे तुका पात्र (सोना चांदी या तान) सौषधि, सप्तधान्य, शेषाल, कोडो, चणेाठी, गंगाजल, पंचरत्न आदि सहित एवं नाग तथा कच्छपके साथ पधराना चाहिये। इस प्रकारकी शिल्पी परपराकी प्रथा है। कितने ही ग्रंथोमें शिला में स्वस्तिकादि चिन अंकित करनेका विधान है।
Page #76
--------------------------------------------------------------------------
________________
* प्रासादमञ्जरी *
32
कोटिगुना पुण्य मिलता है। मिट्टिका बांधने से उससे दशगुना, इंटका निर्माण करनेसे सौकरोडगुना और पाषाण का देवालय बांधने से तो अनंत गुना फल प्राप्त होता है। २६
___ वास्तु पूजन के सात मुहूर्तः–१ कर्मशिला स्थापन काल, २ द्वार स्थापन काल, ३ पद्मशिला स्थापन काल, ४ सुवर्ण पुरुप पधराने के समय, ५ आमल सारा स्थापन काल, ६ ध्वजारोहण काल, ७ देव प्रतिष्ठा समय। ये सात पुण्य कार्य करते समय वास्तु पूजन अवश्य करना चाहिये-२७
वास्तु शान्तिके चौदह मुहूर्तः–१ भूमिका आरंभ, खनन समय २ कर्मशिला स्थापन काल ३ (भूमि तल होने बाद) सूत्र छोडते समय ४ खुरा चिपकाते, ५ द्वार स्थापने ६ स्तंभारोपण काले ७ पाट भारोट स्थापन काले ८ गुम्बजकी पद्मशिला स्थापने ५ शिखरके शुकनाश स्थापन समये, १० सुवर्णका प्रासाद पुरुष पधराते ११ आमलसारा स्थापने १२ कलश स्थापने १३ ध्वजा रोहण काले १४ देव स्थापन
भ्रमयुक्त सांधार महाप्रामादका तलदर्शन
FRILHER HAN
लिस
is
निरंधार प्रासादका तलदर्शन
Page #77
--------------------------------------------------------------------------
________________
MOVE
CHC
याचा
SHEE
प
Eramin
व
Lawww GURURA SSCIE N OVATilava
EASEARNE तनातनवान
पात
URLAHE
कमर
4m
निमय निकम
की मएए
प
THA
CAMERIERREALITY मा अक्षिा
HINKING
इयमण्डप
निरंधार प्रासाद, गर्भगृह, गुढ मंडप, निक मंडप, नृत्यमंडप याने श्रृंगार धोकी सा
Page #78
--------------------------------------------------------------------------
________________
el.twit
"
-.-.-.-.-ऐचहा
Watc
ना
-
-
MIRE
TAIN
A
TOPPER
Pre
H
ainik
ANNA
-
--1
1
:41::
11--
--
JU..
Marathi RULE
- -
-
MAIL. ...... AIRMI. MANCE
.DO
-
-
--
----
-
-
-
-
AMARJASkinsouvi
ननस
-
-
-
-
-
:
-
- ANTED
RAMANANEWS
LATEMENT
. ..
GARLS
i
.
को
-
PHAVA
पर ... - .
जमगरविकार
AKESTRA
मम कामासा
1
N
AMAAREE
.
MARA
KAREENAL
MAN
LATE.AWNo
मन .
.... .
--
...
.
...
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-Ndman
-
- ma
परपीठ--
-
-
गुढ़ मण्डया
र.
Jai
प्रभारी, ओमार तेरा
स्वी
मंडप, नृत्यमंडप याने भंगार चोकी साथेका प्रासादका संपूर्ण अंग युक्त यक्ष दर्शन.
Page #79
--------------------------------------------------------------------------
________________
S
杯
श्री तारंगा (भ्रमयुक्त) सांधार प्रासाद, तलदर्शन या मंडोवर स्तंभोदय
श्रीजैन महासम
गर्भगृह
शुटमण्डप.
१०८.०
301
नार
સ્ટાર શટલર વિજય –
अमर ओ. स्ययति
wheneve
------
ww
३१
Page #80
--------------------------------------------------------------------------
________________
-AVen
0
-90-4.-
-
-
-
.
-
--
-
.
"
.
-
.
.
--
-..."
-.---
---SAINA
---------..
.
-
Prastam
-
--
समण्डम.
-
-.-..-
---
IA
धुमली मदायी भूप शुभ प्रसाद (स मे घुमली-नवलखा (भ्रमयुक्त) सांधार प्रासाद (बरडा-सौराष्ट्र) तलदर्शन या मंडावर स्तंमोदय
.
1
मारकर के पनि
E
रा
.
न
.
-
-
.
*- -- -
-अधि
A Mstist---
TIPS
C
Page #81
--------------------------------------------------------------------------
________________
* Prasad Manjari
३३.
( प्रतिष्ठा ) समय इन चौदह मुहूर्ती में वास्तु शान्ति अवश्य करनी चाहिये । २८-२९
प्रासादका प्रमाण कहाँसे लेना ? एक हाथ हस्त (चोविश आंगुल) पचास
हाथ (गज ) तक का प्रासाद का प्रमाण दीवार
के बाहर रेखासे कुंभाकी बीच के अंतर के
अनुसार लेनेको कहा है। दश हाथसे ऊपरके प्रासादके लिये भ्रम (परिक्रमा) करना चाहिये । जो ३६ हाथ गज तक के प्रासादके लिये (एक दो तीन अथवा चार भ्रम होते हैं ) भ्रम करनेका विधान है। ऐसे भ्रम वाले प्रासाद “सांधार" प्रासाद कहते हैं, और भ्रम रहित प्रासादको निरंधार प्रासाद कहते हैं । ३०-३१
33
HAY DISH
ad સુ
गर्भगृह (-युक्त)
गर्भगृह
(सुभ्युक्त)
गर्भगृह
(HANE EYE)
प्रासादना गर्भ गृह - (१) अंतर उपांग- प्रतिभद्र, सुभद्र, भद्र, चतुरख २ बाह्य-समदल, भागवा, हस्तांगुल, आर्चा.
पांच हाथसे पचास हाथ (गज ) तक का मेरु प्रासाद होता है । प्रासाद के कुंभादि थरोंके निर्गम-निकाले समसूत्र में अवलंब - ओलम्बाके अनुसार रखने चाहिये। किंतु उनकी पढ़ छज्जा थोडा बाहर निकलता रखना चाहिये । प्रासादके अङ्ग विभागसे तीन, पांच सात या नव फालना (भद्ररथ प्रतिरथादि) रखना चाहिये, अंगोकी संख्या उनके मध्य स्थित पानीवार से भिन्न होती हैं फालना रेखा - कर्मसे दुगुना भद्र " विस्तार ( सामान्यतया) होता है । ३२ ३३ ३४. समदल हस्तांगुल फालना विधि :- रथ
नदी प्रतिरथादि फालनो का निर्गम-निकाला की विधि साधारण तथा दो प्रकार की कही
गई है। जितने अङ्ग फालना रथ नंदी प्रतिविभाग हों, उतना उनको निकाला
रथादिके
रखना चाहिये वह "समदल" कहा जाता है ! और जितने हाथका प्रासाद हो उतने अंगुल प्रमाण अंग फालना (रथ प्रतिरथादि) के निर्गम
निकाला रखना। यह
हरतांगुल " विधि
जाननी ३५
66
उ प्रासादके अंग प्रत्यंगके निकाल चार
Page #82
--------------------------------------------------------------------------
________________
* प्रासादम अरी * प्रासादके अंगों चारसे लेकर ११२ तक के भाग कहते है। एक तलका प्रासाद (अट्ठाई दशाई बाराई चौदाई) के ऊपर शिखर अनेक प्रकारके चडते हैं किन्तु उनके ऊपर के शिखर अंङ्क की संख्या एवं आकारसे प्रासादकी जाति एवं नाम ज्ञात होता है। ३६-६७.
अथ जगती चोरस, लम्बचोरस, अष्ठांश गोल और लम्बगोल। यह पांच प्रकारकी और जैसा प्रासादका आकार हो वैसा जगती के तलके स्वरुप जानना । ३७ प्रासादसे तिगुनी चारगुनी या पांचगुनी इस प्रकार तीन विधि जगतीके विस्तार मानसे (ज्येष्ठ मध्यम एव कनिष्ठ मानके क्रमसे) एक दो या तीन भ्रमयुक्त। जगतीकी योजना होती है, प्रासादसे छगुनी सातगुनी और तीन भ्रमयुक्त जगती जिनेंद्र प्रासाद एवं द्वारका के विष्णु, शिव तथा ब्रह्मा के प्रासादकी जगती रखनी लंबाई में सवायी डयोढी. या दुगुनी। इस प्रकार मंडपके क्रमसे जगती करनी चाहिये। ३७-३९
जगतीकी उंचाई एक हाथसे बारह हाथ तकके प्रासादके लिये गजमें आधे गजकी रखनी । तेरहसे बाइस हाथ (गज-हस्त) तक प्रासादके लिये गजसे एक तिहाई अर्थात आठ आठ आंगुलकी वृद्धि करते जाना। तेइस से बत्तीश हाथ (गज) के प्रासाद के प्रत्येक गज-छ छ आंगुलकी वृद्धि करते जाना । तैंतीससे पचास हाथ गज के प्रासाद के लिये प्रत्येक गज गजका पांचवाँ भाग अर्थात् ४॥ आंगुलकी वृद्धि अगतीकी उंचाईमें करते जाना। जगती में कोणों पर दिग्पालों के स्वरुप सृष्टिमार्ग से बनाना चाहिये। प्रासादके प्राकार (किल्ला)के आगे द्वार मंडप बनाना प्रकारसे रखनेकी प्रथा शिल्पिामे पर परासे है। १ समदल २ हस्तांगुल ३ भागवा ४ आर्या ये चार प्रकारसे फालनाके निर्गम रखे जाते हैं भागवा अर्थात प्रासादका विभक्ति के जितने विभाग कहे गये हों उनमें से एक भाग का निकाला-निर्गम रखना वह भागवा कहलाता है।
उणङ्गों में “आर्चा" प्रनारके (निगम) निकाला अंगुल दो अंगुल जितने अल्पही होते हैं परंतु इस प्रकारके निकाला संवरणा (शामग्ण) युक्त प्रासादके ही होते हैं। भागवा एवं हस्ताङ्गल विधिके उपाङ्गोका निकाला छोटे होते हैं। जिमसे उनके ऊपर शिखर बनानेके कार्य में शिल्पिके बुद्धि चातुर्यको कसोटी रुप होता है। जब कि "समदल" निकाले को विधि में बहुत छूटछाट रहती है।
४ जगती के उदय पीठ खरा कुंभा कलशा अन्तराल और उनके सबके ऊपर पुष्पकट (गीलता) के घाट करनेका विधान है।
Page #83
--------------------------------------------------------------------------
________________
M ......-..-जगती उद्यभाश३८........कर्मधील । -
--१२+--३
3-1-2
7 Team
SARA
वरा ॥
पीठ
एलो
ARMER
"CASE--
.sings स्थिपनि प्रभाकर मोबभार लामभरापमा
भयपति. माकन ओबासोमयुरा.
JAL
जातीद्वार
जगती. JAGATI.
-
जगती प्रवेश चतुष्किका-महापीठ तथा कक्षासन
-
Des
AIKONKANHASAR
-
-
HAIYY
-
HIN
Sa
SAMM
-.
A
EmAvies
जगतीम
Nein Raut
RA
EKHNNN
Page #84
--------------------------------------------------------------------------
________________
* प्रासादमञ्जरी *
36
जिसे "मुख मंडप"भी कहते हैं। जगत पर चढनेकी सीढियोंकी पंक्तियाँ बनाना जिसके आगे तोरण सहित स्तम्भ बनाना, जगतीकी चारों ओर पानीकी निकासी के लिये मकरमुख प्ररनाली बनाना। ४०-४१. ____ मंडपके आगे प्रतोल्या और उनके आगे सीढियां रखनी इनके आगे तोरण बनाना, जिसके स्तम्भका अंतर प्रासादकी दीवारके गर्भसे अथवा स्थान के मानसे अथवा गर्भगृहके पद के अनुसार-विस्तारमें रखना। और वे पदके अनुसार उँचाई में पाट अनुसरण करके रखना । ४२-४३
देव वाहन स्थानकी:-चतुष्किका या मंडप प्रासादके आगे एक दो तीन चार पांच छ या सात पद दूर (पदके गुणान्तर) रखना । ४४-४५
जिन प्रासादाय रचना:--जिन प्रासादके आगे समवसरण बनाना उसके आगे (मुख के आगे) गुढ मंडप बनाना । जिन मंदिरके चारों दिशामें चोवीस जिनायतन या बावन जिनायतन अथवा बहुतर जिनायतन मूल जिनमंदिर सहित संख्यामें बनाना | मंडपके गर्भसूत्रके अनुसार दाई व बाई ओरकी दिशामें अष्टापद मंडप त्रिशाला और उसके आगे बलाणक का निर्माण करना चाहिये । ५५-५६-५७
नाभिवेधः-एक ही जो मूल प्रासादके बाई ओर अथवा दाई ओर या आगे पीछे दूसरा प्रासाद बनाना हो तो उसका नाभिवेध नहीं होने देना चाहिये यहाँ नाभिवेधका तात्पर्य आडे खडे प्रासादके गर्भमें दूसरा प्रासाद बनाने में गर्भ समालना । शिवलिङ्ग अथवा शिव प्रतिमा के मंदिरके आगे दूसरे मी देवका मंदिर सामने गर्भमें नहीं बनाना चाहिये । ब्रह्मा विष्णु शिव जिन और सूर्यके मंदिरों के सामने अपनी अपनी मूर्तियोंके प्रासादों की रचना आमने सामने करना। किन्तु शिव के आगे अन्य देवताओंकी स्थापना नहीं करना । क्योंकि इससे द्रष्टि भेद होने से महान भय उत्पन्न होता है। परंतु उन दो के बीच में किल्ला राजमार्ग अथवा दुगुना अन्तर होवे तो कोई दोष नहीं। ५८-५९
५ जगतीके आगे प्रताल्या करनेको कहा है जिसके पांच प्रकार हैं। १ उतना २ मालाधर ३ विचित्र ४ चित्ररुप एवं ५ मकर ध्वजा उसका स्वरुप दो स्तभवाले प्रताल्याको १ उतङ्गः जोडरुप दो स्तंभ वाले प्रताल्या को २ मालाधर; चार स्तमा की चौकी एवं तोरण युक्त को ३ विचित्र विचित्र प्रताल्याके यदि दोनों ओर कक्षासन हेावे तो ४ चित्ररुप; और चोकोके जुरवा स्तंमोहो तो उसे मकरध्वज नामक प्रताल्या कहते हैं। उसका स्पष्ट स्वरुप आकृती दीपार्णव पंथके तीसरे अध्याय में दीया गया है।
६ एक ही प्रासाद के विस्तार में दूसरा प्रासाद बनाते समय जो गर्भ मिलामके लिये स्थलका अभाव हो तो मंडपके गर्भको प्रासादके गर्भ से मिलान करके दूसरे प्रासादका निर्माण करना। परंतु ऐसा करते समय परस्पर मंदिरों
Page #85
--------------------------------------------------------------------------
________________
37
* Prasad Manjari *
AU
Lo
A
चोबीश जिगायतन ( तीन प्रकार )
१२ १३
38 3२ १३
३७
Page #86
--------------------------------------------------------------------------
________________
38
३८
* प्रासादमञ्जरी * प्रनाल विचार:-पूर्व एवं पश्चिम मुखी प्रासादके गर्भगृह के पानी की निकासी के लिये प्रनाल उत्तर दिशामें रखनी । उत्तर एवं दक्षिण मुखी प्रासाद के लिये
२०२२
७२२६
सली जोक.
य२
SiF52
नायिLITIT.
६२
IA
M
के स्तंभी एवं कोणांका रुख किसी द्वार अथवा पदमें नहीं पहना चाहिये इन दोशदि का विचार करके कार्यारम्भ करना चाहिये ।।
Page #87
--------------------------------------------------------------------------
________________
39
* Prasad Manjari *
३३. |३५|३५
३०/३८
|
७२
पादार
-
L
-
A
॥
|६३२
10
बहोतेर जिनायतन
Page #88
--------------------------------------------------------------------------
________________
* प्रासाद मजरी *
40
पूर्व में प्रनाल रखनी । अर्थात् देवमंदिर गर्भगृहकी प्रनाल पूर्व या उत्तर इन दो दिशाओं में ही रखनी चाहिये मंडपके बाई - दाईं ओर प्रनाल रखनी । जगती के चारों ओर प्रनाल रखनी । मयऋषि कहेते हैं कि पूर्वाभिमुख लिङ्गकी नाल वाम भागमें रखनी । ५०-५१
४०
अथायतन:- ये प्रासाद मंजरी ग्रंथ में दीया हुआ पाठ अपूर्ण एवं अशुद्ध होने से अन्य ग्रंथका प्रमाण लिया हुआ है। देवों का जो क्रम लिया है वो अग्नि, नैरुत्य, वायव्य एवं इशान कोणकी स्थापना का क्रम समजना ५२, ५३, ५४
१ सूर्यायतनमें: - अग्नि कोणके क्रमसे गणेश विष्णु चंडी एवं शंभुकी स्थापना करनी और सूर्य मंदिरमें आदित्य नव ग्रहो गणादिकी मूर्तियाँ बनवानी । २ गणेशाय नमः --- कोणके क्रमसे चंडी, शिव, विष्णु एवं सूर्यकी स्थापना करनी | गणेश मंदिर में अपने हितवान्छुको बत्रीश प्रकारके गणेश स्वरुप और बारह गणकी मूर्तियाँ बनवाना ।
३ विष्णु आयतनमें कोणके क्रमसे गणेश, सूर्य, अंबिका एवं शिवकी स्थापना करना । विष्णु मंदिर में गोपी दशावतार, विष्णव स्वरुप द्वारका जैसी मूर्तियाँ बनवाना । ४ चंडयायतन में कोणके क्रमसे: शिव, गणेश, सूर्य एवं विष्णुकी स्थापना करना | देवी मंदिर में षोडश मातृकादि देवी स्वरुप, योगिनीयोंका स्वरुप भैरवादय मूर्तियाँ बनवाना |
1
५ शिवायतन में कोणके क्रमसे सूर्य, गणेश, चंडी, एवं विष्णुकी स्थापना करना | शिवालय में शिवजीकी द्वादश मूर्तियाँ आदि बनवाना । ७
T
इन पंचाययन स्थापनामें शिव स्थापन पर दृष्टि वेध आगे कहा ऐसा वेध नहीं होने देना । त्रिमूर्ति स्थापना - एक पंक्ति में ब्रह्मा विष्णु एवं शिवकी मूर्तिके त्रिपुरुष प्रासाद में स्थापना करनी हो तो मध्यमे रुद्रकी मूर्तिकी स्थापना करना । उनकी दाई ओर ब्रह्मा । ओर बाईं ओर विष्णुकी स्थापना करना । ( इससे विपरीत आगे पीछे
उलटा सुलटा स्थापित करने से महाभय उत्पन्न होता है ) रुद्रकी मूर्तिके मुखके तीन भाग करके एक भाग नीचा विष्णु और उससे आधे भागका ब्रह्मा जी और पार्वतीजीकी मूर्तिकी स्थापना करनी ।
१ पंचायतन मे प्राधान्य देवके प्रासादके चारों कोणों में चार देव देवीका मंदिर या देरियां बनाने की विधि है उनमें मंदिरोंकी फिरती जंघादि में मूर्तियां बनावानी पूजा विधि में पचायतन देव स्थापना करते हैं। गर्भगृहमें भी इसी प्रकार स्थापना करते है इसी प्रकार कोण प्रमाणसे आयतन का प्रयोग प्रासाद रचनामे जानना चाहिये अन्य ग्रंथोंमे सायतन विषयमे' उलट सुलट मत भी है ।
Page #89
--------------------------------------------------------------------------
________________
1111117
mumtaram
दशवीं शताब्दीका कुटछाद्य विहीन - त्रिनेत्रेश्वर प्रासाद
प्रतिकृति वडीलश्री ओबडभाई भवानजी. वि. सं. १९५७
Page #90
--------------------------------------------------------------------------
________________
दशवीं शताब्दीका कुटछाद्य विहीन कोटाय शिवप्रामाद (कच्छ)
(आच्योलोजी राजकोटका सौजन्य से)
Page #91
--------------------------------------------------------------------------
________________
, Prasad Manjari *
अथमिट्ट-जगती के ऊपरी भागमें खरशिलाके ऊपर मिट्ट बनाना। उसका प्रमाण यह है। कि एक हाथ (गज) के प्रासाद के लिये चार आङ्गलका भिट्ट उदय बनाना उसके उपरान्त दो से ५० गज तक के प्रासादके लिये प्रत्येक गजमें आधे आधे अंगुलकी वृद्धि करनी। उन मिट्टो में से एक दो-और तीन इस प्रकार उत्तरोत्तर बेड से छोटा बनाते जाना चाहिये-उसका निकाला अपनी अपनी उंचाइ के चौधे भागका रखना। ५६-५७
अथपीठ-प्रासादकी उंचाई (पीठ ऊपरसे छज्जा मथाला तक) के २१ भाग करके उसके पांच से नव भाग तक पीठका उदय रखना। इस प्रकार पीठ के पांच भेद उदय प्रमाणके कहे हैं (दूसरे भी प्रमाण अन्य ग्रथोंमें कहे हैं)।
-
HeacOP ANAANIDASTITTEReciple
area PowdedER
1
LEPATION ८ शोरार्णव एवं दीपार्णव ग्रथमें पीठ के थर के पृथक पृथक चार मान
Page #92
--------------------------------------------------------------------------
________________
४२
शि. मुख्यक मुदि
* प्रासादमञ्जरी *
मातरपीठ नरथीठ
अधपीठ
PUREsit
कीका ग्रामप
शंकर ओ. शिव्यवासी महापेठ प्रकार तीसरा
-गजथर
Chilli
42
महापीठ प्रकार चौथा
कहे हैं । उनमें ६० और ६२ विभागके पीठमें अश्वथरका विधान नहीं है। जाडम्बा; कणी ग्रासपट्टी गजथर और नरथरका ही विधान है। किसने पुराने मंदिरोंमें कभी अश्वथर किसीमें देखने में नहीं आता, बल्कि ६१ भागके महापीठमें गज अश्वधरके पश्चात मातृपीठ और नरथरका विधान हैं। देवीके मंदिर में मातृपीठ में रथकी आकृति करते हैं । महाशिवालय में वृषभ थर भी पीठमें कहा हैं । वृक्षार्णव अ० १६७ में शिव प्रासाद के लिये गजथर अश्वथर नहीं कहा है। किन्तु वृषपीठ एवं नरथर का विधान किया है । अल्पव्यय से महद पुण्योपार्जन करनेकी इच्छा रखने वालेके लिये जाडम्ब कर्ण छज्जी एवं ग्रासपट्टी के पीठको 'कामद पीठ' कहा है। उससे भी अल्प द्रव्यव्यय कर्ण पीठ में होता है। जिसमें जाडम्बा और कर्ण के दो ही रोका विधान है । ये कामद पीठ और "कर्ण पीठ" महा पीठ के मानसे उदयमें अल्प होता ही है यह स्वाभाविक है । इस लिये शिल्पज्ञोंने कहा है ।
अर्ध भागे त्रि भागे वा पीठं चैव नियोजयेत् ।
स्थानमानाश्रयं ज्ञात्वा तत्र दोषो न विद्यते । दोपार्णव अ. ६-२१
कहे गये पीठमान से अर्ध अथवा तीसरे मागके पीठका नियोजन स्थान मान का आश्रय जानकर करने में कोई दोष नहीं है । जहाँ कामदपीठ या कर्णपीठ
Page #93
--------------------------------------------------------------------------
________________
43
४३
• Prasad Manjari * पीठ प्रकार-पहेले
पीठ प्रकार-दुसरे
TTER
-...
3+रीजाबी-बी.---.1540-रया ।
. - - - - - -
k. . . . . . . . - -40 ..
बो-al-BN-TAN
भाग वृक्षार्णव अ०१७
A
।
-
-
-
-
-
अमावर.ओ. madam
-----
-
-
बाबामामा
-~~~
-कापी..
SHRA
महापीठ-वृक्षार्णव
कर्मपीठ सामान्य प्रासादों में होता है सांधार प्रासादों के महापोठ होता है। और निरंधार प्रासादके लिये प्रायः कामद पीठ एवं सामान्य प्रासाद अथवा एक पंक्ति वाले विशेष मदिर यथा बावन जिनालय सहन लिङ्गको देरियाँ और चौसठ योगिनी की पंक्तिबद्ध देरियाँ के लिये कर्ण पीठ अल्पमानका करने में कोई दोष नहीं है। उपरोक्त प्रमाणका दरिकाधीशके जगन्मदिरमें मिलता है।
Page #94
--------------------------------------------------------------------------
________________
* प्रासादमञ्जरी *
आये हुए पीठमानके उदयके ५३ भाग करने और निकाला २२ भागका रखना। थरो में नव भागका जाडम्बा, सात भागकी कणी अंतराल; सात भागका भाग निकाल छज्जी पासपट्टी, बार भागका गजथर (गजपीठ); दश
५ भागका अश्वथर; और आठ भागका नरथर। इस अनुक्रम ७ का अतराल ३॥ से थरोंका निर्माण करना: निर्गम निकाला कर्णिका अग्र ७ छज्जी पासपट्टी ॥
भाग से जाडंवा ५ भागः पास पट्टोसे कर्णिका साडातीन: १२ गजथर
गजथरसे ग्रासपट्टी साडाचार भागः अश्वथरसे गजथरका १० अश्वथर ८ नरथर २ निर्गम चार भाग; नरथर से अश्वथर तीन भागः खुरा से ६३ नीर्गम २२ नरथरका निर्गम दो भाग। कुल निकाला (उठाव) का कुल २१ भागका खर से जाडंग पट्टी तकका जानना । प्रासाद एवं राजभवन को पीठका ही आधार होता है। बिना पीठका प्रासाद आश्रयहीन जानना । पीठ बिना के प्रासाद से विनाश होता है । ५७-५८-५९-६०
____ अथ प्रासादोदयमानः--एक हाथसे पांच हाथ (गज) तक के प्रासाद कर्णे जितनी चोडाई हो उतना उसका उदय उंचाई मानना । छः से तीस हाथ (गज)
तक के प्रासादके लिये प्रत्येक गज पर बारह बारह आंगुलकी नागर मंडोषर
वृद्धि करते जाना; इकत्तिस से पचास हाथ तक के प्रासाद के २० कुंभा
लिये प्रत्येक हाथ पर नौ नौ आंगुलकी वृद्धि करते जाना; इस
प्रकार उदयमान पीठ के मथाले से छज्जाके मथाले तककी ८ कलशा २॥ अंतराल उचाई जानना ६१ ८ केवाल ९ मंचिका
अथम डोवरः-(१४४ भाग) पीठके उपरसे छज्जो तकके ३५ जंघा प्रासादके उदयके १४४ भागकरने, उनमें से पांच भागका १५ उद्म खराकाथर; कुंभा बीश भाग; कलशा आठ भाग; अन्तरालः ८ भरणी
अंधारी ढाई भाग; केवाल आठ भाग; मंचिका नौ भाग; जंधा १० शिरावटी
पेंत्तीम भागः उद्गम-दोढिया पंदरा भागः भरणी आठ भाग: ८ महाकेवाल
शिरावटी दश भागः महाकेवाल आठ भागः अंतराल ढाई भाग २॥ अंतराल
उपका छज्जा तेरा भाग उंचाः और दश भाग निर्गम-निकाला १३ छाय १४४
रखना; प्रासादके अङ्ग उपाङ्ग (फालना) स्पष्ट दिखाने के लिये क्षीरार्णव प्रथमें एक गज से प्रासादके लिये ३३ आंगुल; दो गजके ५५ आंगुल; तीन गजके ७७ आंगुलः चार गजके ६ गज १ आंगुलः पांच गजके पांच गज १ गुल; छ गजके ५ गज २१ आंगुल; सात गजके ६ गज १७ आंगुलः आठ गजके प्रासादके लिये ७ गज ९ आंगुलका उदय-उँचाई रखनी।
Page #95
--------------------------------------------------------------------------
________________
* Prasad Manjari *
२का
KKAR
Ari
U0
सामान्य पंडोपर
WHITES
RON
--
-
1362
%
NEET
JOL..
SHETREE
FRONT
MHIMALAMIEKAISH
1
VALO TK AALALA-t.
... UNProyMINEHITI
सा
HindIANE COMeani
BATTROUP
भवा
ALLAMA
पणीमा भाग
H
म
lehedNEle
-+-paare
atch
OF
लम
ROS
Entra
Rom
EAN
TIR
मेकीबर- बभूमि उपय
For Kaise
SHIRAM
MIRLSR
SERINAR
पानीतार पाडना'" । (६२ से६५)
१० एकसो चव्वालीस भागका मडावर नागर म डेोवर कहलाते है। उसी प्रकार अन्य १०८ भाग; अथवा १६९ माग अथवा २७ भाग तथा ७॥ भाग आदि भी मंडोवरकहे गये हैं: साधारण मडोवरके विषय में कहा गया है कि जिस प्रकार कामद या कर्ण पीठका निर्माण किया गया है; उसी प्रकार मडोवर बनाने में १ खरा २ कुंभा ३ कलश ४ अंतराल ५ केवाल; ६ उमपर सादी जंघा (विना
Page #96
--------------------------------------------------------------------------
________________
BR3247
Aud WO
सांधार महाप्रासादका दो जंघायुक्त मेरु मंडोवर
.
Page #97
--------------------------------------------------------------------------
________________
47
* Prasad Manjari *
दिशाके दिक्पालो
मिले
मेरु मडोषर ५ खरा २० कुंभा ८ कलश २॥ अंतराल ८ केवाल ९ मंचिका ३५ जंधा
Tue-
-
उत्तर-कुबेर
८ भरणी
११०॥ ८ मचिका २५ जंघा १३ उद्गम
८ भरणी ११ शिराषटी ८ महाकेवाल
ने २॥ अंतराल १२ छज्जा
पूर्व-इंद्र दक्षिण-यम ८७॥ रुपका) ७ भरणीः ८ महाकेवाल ७ मचिका ९ अंतराल १० छज्जा इस प्रकार १६ जंघा दश थर बनानेका विधान है। ७ भरणी मचिका उद्गम-दाढियाः एवं ४ शिराषटी शिरावटी ये तीन थर सामान्य ५ पाट मंडोवर में नहीं बनाने में दोष १२ छाद्य नहीं है, कितने मंडोवर में
शिरावटीका थर कहा नहीं है। २४९ भाग महा प्रासादः-सांधार महा म डेोवर प्रासादके लिये दो तीन भूमिका
मेरु मडोषर कहा हैः यहाँ पर १४४ भागका नागरादि मडोवर कहा है। जिसमें भरणी तक के नव थरों के ११०।। भाग जिनके उपर मचिका आठ भाग; जघा पश्चीस भाग; उद्गम दोढिया तेरा भाग; भरणी आठ शिरावटी अग्यारा भाग; महा केवाल आठ भाग; अंतराल ढाई भाग; और छज्जा छाद्य बारा भाग मिलकर ऊपरकी मंजिल को उक्त
(LOCHANA
LATIHAS
KI
स
BE
HEL
पश्चिम-वरुण
Page #98
--------------------------------------------------------------------------
________________
४८
48
* प्रासादमञ्जरी - विदिशाके दिग्पालो
781
इशानदेव अग्निदेव नैत्यदेव थायव्यदेव ८७।। भाग हुयेः नोचेके ११०|| भाग से मिलाकर १९८ भाग हुए। इनके ऊपर ५१ भाग के तीसरे मंजिलका मंडोवर छ थर का. मंचिका सात भाग, जंघा सोल भाग भरणी सात भाग; शिरावटी चार भागः पट्ट पांच भागः उपरका छज्जा बार भाग मिलके ९१ भाग मिलके १४९ भागका यह · महा मंडोवर” तीन जंघा तोन मजिला और दो छज्जा वाला अपराजित प्रथमें वर्णित है। __दो जंघा और १ छज्जा वाली दुमंजिलका १९८भागका मेरु मंडोवर कहा गया है। ऐसे मेरु मडावर, द्वारिका, आबका चोमुख एवं सोमनाथ में है। ऐसे मडोवरके आलेख एवं चित्र देखने से भीतरी स्तभो आदि भूमिके उदयमान प्रमाण एवं स्तरोंके समसूत्रका ख्याल हो सकता है. बाहरी मंडोवर के स्तर एवं भीतरी स्तंभति भूमिके उदय--थरांका समन्वय समसूत्रादि सांधार प्रासादों के लिये शिल्पग्रथों में कहे गये हैं. निरंधार प्रासाद में पृथक् रीतसे कहे गये हैं (श्लोक ६६-६७).
दो जघा के मडोवर के उद्गम दोढीया के थर पहली मंजिल के पाट समसूत्र में रखनेका कहा है। उस पाट के ऊपर भूमिकी छन भरणीके थरमें आ जानी चाहिये: ऊपरका छज्जा एवं दूसरी भूमि के पाट समसूत्र में रखना । मेरु मंडोवर एवं महामडोवर सांधार प्रासाद् के लिये बनानेका यही विधान है। दूसरे निरंधार प्रासाद के लिये (श्लोक ६६-६७ में) सामान्य प्रमाण कहा है।
Page #99
--------------------------------------------------------------------------
________________
मध्यप्रदेश - खजुराहोका कंद्वर्य महादेवका सांधार प्रासादका
त्रय जंधायुक्त मंडोवर ओर भद्र गवाक्ष
Page #100
--------------------------------------------------------------------------
________________
SHEE
ओरिस्सा ( उडीया ) प्रदेशका प्रासादका मंडोवर - पीठ.
Page #101
--------------------------------------------------------------------------
________________
49
* Prasad Manjari *
JO
__ अथमित्तिमानप्रासाद की दीवारके
ओसार (मोटाई) पृथक् पृथक् वास्तु द्रव्य के अनुसार प्रमाण कहे है। प्रासाद के बाहर रेखा कर्ण हो उनके चतुर्थांश भागकी मोटाई दीवार ईंट के प्रसादके लिये रखनी, पाषाण के प्रासाद के लिये पांचवें या साढे पांच या छटे भाग की दीवाल मोटी रखनीः काष्ठ के प्रसाद सातवें भाग और सांधार प्रसाद के लिये आठवें
मुनि-तापस भागः धातु एवं रत्नके प्रासाद के लिये १० दशवे भाग दीवारकी चौडाई रखनी; यह मूलनासिक के कुंभा से दीवारकी चौडाई का प्रमाण जानना.११ ६६-६७.
११ वृक्षार्णव-महानथमें भ्रमवाला सांधार अव निरंधार प्रासादको मित्तिमान
युग्मरुप
दशमांशे यदा भित्ति-दिशांते हि मध्यतः । त्रिविषं मितिमानं च ज्येष्टमध्यमकन्यसम् ।। १५१॥ मध्यस्तूपे प्रदातव्या भित्तिः स्यात् षोडशाधिका। पंचमांश निरंधारे मित्तिः प्रासादशैलजे ॥१५२।। वृक्षार्ण व. अ० १६७।। भ्रमवाला सांधार प्रासादका भित्तिमाग १ दशवाँ २ अग्यारहवाँ ३ बारहवाँ भाग का रखना ये ज्येष्ठ मध्यम एवं कनिष्ठ एसे त्रिविध मान भित्तिका जानना. भ्रम छोडके मध्यके स्तूपकी भित्ति सोलहवाँ भाग वृद्धि करके बनानीः विना भ्रमके निरंधार प्रासादकी प्राषाणक भित्तिका मान पांचवे या छठे भाग से रखना.
७
Page #102
--------------------------------------------------------------------------
________________
* प्रासादमञ्जरी *
50
।
WAI
र
JV
MARA
MOHAN
AL
RSE
नाटोश शिव
त्रिपुराम्तक शिव
TERRORS
त्रिपुरान्तक शिव अथ गर्भगृह-गर्भगृह भीतर से ।समचारम अथवा भद्रवाला अथवा लंबचारस आकृतीका श्रेष्ठ समजना (चोडाईसे उंडाई जास्ती हो ऐसा ल बसोरस गर्भगृह नलाङ्ग कहा जाता है ये दोपकारक है।) १२
१२ लंब चौरस गर्भगृह श्रेष्ठ माना गया है। परंतु शिल्पकी क्रियाविधिसे अज्ञात अपनेको शिल्पका ज्ञाता मानने वाले उनका अर्थ विना समजे श्रेषु कु नेष्ठ कहते हैं। चोडाईसे उडाई जास्ती होये एसा लंब चोरस गर्भगृह
M
-
अधकेश्वर
Page #103
--------------------------------------------------------------------------
________________
51
* Prasad Manjari बाहर मंडोवर और स्तंभके छोडके थरका समन्वय निरधार प्रासादमेंः कुभे के बराबर कुम्भी-स्तंभ एवं उद्गम दाढीया भरणी एवं भरणा; महाकेवाल एवं शिरा
और पाट एवं छज्जा का थर एक सूत्रमें रखना; पाटके छज्जाका तल उके निम्न के तलके बराबर रखना.१३ ६८-६९.
देवालयके गर्भगृहकी चोडाईसे (सामान्य रीतसे) सवाया अथवा डयोढी उचाई रखनी । गर्मगृहकी उंचाई पाटके तल तकके आठ भाग करनी, जिनमें से एक भाग कुंभी; साढे पांच भागका स्तंभः आधे भागका भरणा. एवं एक भागका शरा-इन आठ भाग पर देढ भागका पाट और- पाटके ऊपर अष्टांश, षोडशांश और गोल थरका निर्माण कर करोटक (कलाडिया गुम्बज) बनाना ७०-७१
...- -.... समस्त उदय-
AA
अथ द्वारमान-एक कुम्भी
हाथके प्रासादके लिये सोलह स्तभ ५॥
अंगुलका द्वार उचाईमें भरमा ॥
रखना. इसी प्रकार चार सरा
१॥ पाट
हाथ तक सोलह सोलह स अंगुलकी वृद्धि करनी,
पांच हाथसे आठ हाथ तकके प्रासादके लिये तीन तीन अंगुलकी वृद्धि करनी, नौसे पचास हाथ तकके प्रासादके लिये प्रत्येक हाथ (गज) पर दो दो अंगुलकी वृद्धि करनी. द्वारकी ऊंचाईके आये हुए मानसे आधी चौडाई द्वारकी रखनीः इसमें सोलहवां भाग चौडाईमें बढ़ानेसे गर्भगृह स्थम प्रमाण वह शोभा जनक होता है. (यह नागरादि द्वारमान कहा; अन्य जातिके प्रासादों का द्वारमान अल्प होता है।) ७२-७३ । नलाग कहा जाता है : ऐसे नलाङ्ग गर्भगृहसे यम चुल्ली नामका वेध उत्पन्न होता है।
१३ यहां निरंधार प्रासादके लिये ! स्तंभका छोड और मंडोवरका थरका समसूत्र कहा है सांधार प्रसाद में कु भीकु भी उद्गम दोढीया एवं पाट समसूत्र रखनेको कहा है।
भाग - -:...--.----
Page #104
--------------------------------------------------------------------------
________________
૯૨
* प्रासादमञ्जरी.
52
DATAL OF Down Fun CMIMAGINA
SOMINATHmmen.
|RNA
-
AND
-
-
-
--
-
-
-
---
-
-
लि
-LHAUH
DAAND
- IIयानम्
सप्तशाखा द्वार-तळ अर्ध चन्द्र और द्वारदर्शन
Page #105
--------------------------------------------------------------------------
________________
011-3
וכר
समद्दल रुपस्तंभयुक्त पंचशाखा द्वार- आबु देलवाडा
Page #106
--------------------------------------------------------------------------
________________
શ્રી કુંભારીયાજીના ઢેરાના જીનાલયની વચલી દેરીનું
रुपवाली पंचशाखा द्वार- आरासण-कुंभारियाजी.
Page #107
--------------------------------------------------------------------------
________________
33
* Prasad Manjari *
-
-
यस्ता
निसारखा
पशास्य.
गंधनाया
विस्तारभाग ११ मवशावा.
पधिनी.
विस्तारमाग६.
सावा
नाम्पनी
खल्या
शा
.
यश
गधारया
विस्तारभाग ८. भत्तशरया.
द्वार शाखाकी म.
उपशाखाओं के एक,
तीन, पांच, सात, गंधर्वशारया.
एवं नव अंग खाचे 1. क्याम
होते हैं। शाखाकी माया
पृथुता(मोटाई) अल्प खल्यशाया
रुपमा
करना नेष्ट और रुपम
अधिक करना श्रेष्ठ
फलदाता है। देवासरशारण. पत्यशामा
लयके अंग (रथ सिंहशाया.
प्रतिरथ नंदी भद्रादि) यशस्विमा. ब)
के अनुसार उसकी सयभ.
शाखा रखनी । सप्त
शाखा सर्व देवोंको किय शाखा.
और नव शाखा विष्णु
सिंहशाया. या रुद्रके प्रासादके त्रि-पंच-सप्त-नव शाखा तळ विभाग-नाम तथा प्रतिशाखो लिये बनानी; पच
शाखा सार्वभौम राजा के द्वार में और त्रिशाखा मंडलेश्वर राजा के द्वारमें बनानी।
द्वारकी शाखाओं में जिस देवका REKINNARASI
प्रासाद हो उसके प्रतिहार (द्वारपाल) के स्वरूप बनाने, बल्कि मध्यकी शाखा रूपवाली देव के परिकर स्वरूप बनानी, द्वार शाखाकी ऊंचाई के चौथे भागका द्वारपाल बनाना अथोंदुम्बरअर्धचंद्र-प्रासादके मूलरेखा-सूत्र के प्रमाण से उदुम्बरका सूत्र रखना और कुम्भीकी उंचाई के
बराबर समसूत्र में उदुम्बर द्वारशास्त्राके ठेका-प्रतिहारी-चामर छत्रधारी
( उंबरा) रखना या कुंभीके. अर्ध,
HANSH
JARATHI)
C
Page #108
--------------------------------------------------------------------------
________________
• प्रासादमरी *
या कुभी के तृतीयांशहीन या कुभी चतुर्थाश भाग उदुम्बर निम्न नीचा विठाना'४ द्वारविस्तारके तीसरे भागसे उदुम्बरके मध्य का गोल माणा चोडाई में रखना ।
SADANA
24TALACE.
-
-...-
--"-."
-.'
--
-
-
"
== पंचास्या .
PHOTanT.आगी.
Sy..
द्वारतळ-शखोद्वार और द्वारदर्शन १४ मंडोवरके कुम्भे के बराबर कुम्भी-इस प्रकार स्तभके छोड और मंडोवरके थरोंका समन्वय कहा गया है। इसी प्रकार उदुम्बरको “अर्ध भागे त्रिभागे या पाद
Page #109
--------------------------------------------------------------------------
________________
16
* Prasad Manjari *
NA
MARA
1
Mammu
IEEEEEEP
Here R old
ing
SASSA
-
-
-
--
....-.-----..--...-.... -n-marrrrr
प्रभाकर.ओ.शिल्पी
HA
MAHARSants
सिनी सोनार विस्तार भाग
TETKhab....22
सरशारया विस्तार भाग
उपन्यास
याचिका गंधराया
KRICOR
2
Fzा
HIN
INRN
-70
सप्ताखानल म्वरुप (नलकडा)-शखोद्वार अने उदुम्बग्ना तल अने दर्शन हीनोप्युदुम्बरम्” के प्रमाण से कुंभी के आधे, तीसरे. अथवा चोथाई भाग तक उंबरा नीचा करना जमाना इसी समय तलकडा एवं कुम्भी को कायम रखकर ही केवल उदुम्बर नीचा जमाने का विधान है। शिल्पी भाईओं में से कितनोंही का मत ऐसा है कि उदुम्बर जमाने (निचा) के साथ साथ ही तलकडा और कुम्भी को भी नीचे उतारनी चाहियेः इससे स्तम्भकी उंचाई बढ जाती है, क्षीराव में इसी प्रसंग में “कुम्भीस्तम्भौ च पूर्वबन' अर्थात् कुंभी और स्तम्भको पूर्ववत कहे गये विधानके अनुसार उसी प्रकार जैसे है वैसे ही रहने देनाः इस प्रकार कहा गया है यदि तलकडे के साथ कुंभीभी निम्नरखे ना मंडोवरके मुंभा को बराबर कुंभी का समसूत्र नहीं रहता है; क्षीरार्णव में कुंभी नीचे उतारने का विधान नहीं हैं। फिर भी कितने ही प्राचीन मंदिगेंमें
Page #110
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रासादमञ्जरी *
अर्धचंद्र - शंखोद्वार-द्वारकी चौडाईके समान लंबा और उससे आधा निकलता हुआ बनाना खुराका थरके मथालेके बराबर अर्धचंद्रका मथाला समसूत्र में रखना ! रङ्गमंडप ओर चोकका भूमितल पीठके मथाले के समान रखना ( गर्भगृहका भूमितल उदुम्बरके कर्णपीठके समसूत्र रखना । ७८
अथ कौली प्रमाण - १५ प्रासाद जितना रखाये हो उनके दशभाग करके उसमें से दो-तीन-चार या गर्भगृह के पदके समान अथवा पदसे आधा तृतीय अथवा चौथे भागके बराबर निकलती हुई कौली (शलिलान्तर कवली) का प्रमाण जानना । कौल पर शिखरको शुकनाश रखा जाता है । ७९
अथ शिखर- प्रासाद के छज्जे के ऊपर प्रहार ( पाल ) का स्वस्थर बनाकर उस पर शृङ्ग चढाने चाहिये, शृङ्ग पर शृङ्ग चढाने में नीचेके शृङ्गके आवे भाग से
कन्द
छल
५६
*
56
1.3.
कुंभे से कुंभी नीची हुई देखने में आती है यह देखते हुए तो इस प्रकारके वाद-विवाद में शिल्पी बंधुओं को न पडकर जो अपने मतके अनुसार वे करें, उसमें हमें कोई दोष दिखता नहीं है क्योंकि हमारा आशय किसीको अप्रमाणिक कनेका नहीं है ।
१५ शिखर युक्त प्रासादके लिये कौली परम आवश्यक हेतु शास्त्रकारों ने कहा है. मंडप और गर्भगृह के बीचका अंतर कौली - शलिलान्तरके लिये रखा है । इस अंतरको रखनेकी आवश्यकता है. इसलिये शास्त्रों में इसे शलिलान्तर कहा है । शिखरके तीन पांच उपाङ्ग होते हैं. इस लिये आगे कौली छोडने का विधान है । प्रासाद के उपाङ्गोका निर्गमके हेतुसे बुद्धिमान पूर्वाचार्यांने कौली
बनानेका विधान किया है ।
कोकिला बनानेका विधान शास्त्रकारोंने कहा है: कोकिला अर्थात् प्रासाद पुत्र रेखा - कर्शा समान कोलीके वामदक्षिण भाग में करना.
Page #111
--------------------------------------------------------------------------
________________
...
पाल
दारिका पूरित
महाप्रसाद श्रीधारिकाधिश- जगन
-
...::
.
-
!
.--
-
।'
-
.--
...
असम
arn. ... ..
सीम
पी: मा०
श्री द्वारकाधीश जगत्मदिर (संभ्रम) साधारे महापासांद तेलदर्शन या मंडोवर स्तंभोदय भूमि उदय
...-२२-११-.-.'.:.
प्रमश.ओ.पपलि.
AAHE.
1.
----- .. -
-.-- - - .. ..
. AAP - .
.
F:
..
.--
-
... -
-
-
----निवअय +-- ---
.......:२२८... -
-
म
लम
-..
. . . . . मध्य पक्ष भूमि ३१५.८३..
...
.
Page #112
--------------------------------------------------------------------------
________________
·O-D
日·日
安庭
西
日口口
四街
口口
17
山烧烧器
林口
मेरुमण्डोर २८.
J BE REGA
41.75
श्री सोमनाथजी कैलास महामेरु प्रासादभ्रमयुक्त सांधार प्रासाद तलदर्शन या मंडोवर स्तंभ
P143%
Page #113
--------------------------------------------------------------------------
________________
59
* Prasad Marjari *
ऊपरका शृङ्ग पीछे हटता हुआ चढाना; ऊपरके शृङ्गके नीचे थोडी जंघा-थाल छज्जी और दोढिया जैसी आकृतीयाँ बनानी फिर उन पर शृङ्ग चढाना ।
शृङ्ग-शिखरी अपने अपने अंग विस्तार के प्रमाण से सवाइ १३ ऊँची करनी नीचे जितवी चौडाई हो, उससे ऊपर स्कंध-बांधणे आधा (कुच्छ अधिक) चौडा रखना और उसके ऊपर आमलसारी । स्कंध विस्तार जितनी चौडी और 'उससे अर्ध ऊंची करनी । ८०-८१
शिखर की मूल रेखा-कर्ण, प्रतिरथ कौर रथादि अङ्गके ऊपर एक, दो या तीन अथवा जितने शृंग कहे गये हों, क्रमशः चढाना; चिरंधार प्रासाद में गर्भगृहकी दीवारकी अंदरकी फर्क से मूलकण रेखाकर पायचा फर्क रखना, (गर्भगृहकी अंदर पायचा जङना नहीं चाहिये । महा दोष उत्पन्न होता है) सांधार प्रासाद के लिये गर्भगृहकी प्रथम दिवारकी बहारकी फर्क से मूलरेखाका पायचा मिलाना । शिखरकी
Amate
...६
.
म
श्रृंग पर श्रृंग विधान
उरुश्रृंग विधान
Page #114
--------------------------------------------------------------------------
________________
BAOW ELEVATION OF TEMPLE PANCHASARA_PARSVANATH
PATAN
Sence
ng
MS
SAIYA
DO
sears
.३
१..
--------
be
E-LAG
E
maatirur
ARH
LEKEHR
PRESENTA U SAMPURA
ARCHITECT
शिखरकी ज्ञघा-कर्म (श्रृंग) या जरुखा
संवरणा
Page #115
--------------------------------------------------------------------------
________________
61
* Prasad Manjari * मूलरेखा अर्थात् पायचा गर्भगृहसे थोडा विस्तार चौडा रखना। गर्भगृहसे पायचा संकुचित नहीं करना चाहिये. (क्योंकि संकोचनमें दोष कहा गया है) ८२, ८३,
शिखर के भद्र पर उरुशृंग एक से नौ तक चढानेको कहा गया है। शिखरमें उपरापर ऊरशृंग चढानेमें ऊपरके पहले ऊरु,गके पायचा से उसके बांधणे स्कंध तककी ऊंचाईके तेरह (१३) भाग करके नीचेका ऊरुशृंग स्कंध तक ७ सात भाग और ऊपरके छ भाग रखने ।१७ ८४
१८शिखरकी मूलरेखा-पायचे के विस्तारके दश भाग करके उपर स्कंध
MEN
नम्बर
भाग उदय- . - ...
--
उदय
१०मामा
---
AAT)
---
(१०भाग-1
-----
भाग----
--
भाग-.--:
९भाग:- - - - -
चार गुणारे. भाचार गुणाभूत सेवा. in भूस्कृत श्या. 20.5. ___ १६ शिखरका पायचा गर्भगृहकी भीतरी दीवालके बराबर मिलाना । कितनेही शिल्पी. जहाँपर छोटे मंदिरोंका निर्माण होता है वहाँ पर, जहाँ ओसार अल्प हो, वहां गर्भगृहके पाटके फर्क से पायचा-मूलरेखा मिलान करते हैं। अपितु जिनालय सहस्रलिंङ्ग देवकुलीका एवं चोसठ योगिनी जैसी सीधी शिखरिणियोकी । पंक्तिमें जहां छोटे बडे पदकी देवकुलीकाले हों, उसके पीछे मंडोवर एवं उपरसे शिस्त्ररके लिये एकरुप प्रदशिनि करने के लिये आडा गर्भचलित करने के विषयमें वृक्षार्णव जैसे महाग्रंथ में भी कुशल शिल्पीने छुट की आज्ञा दी गई है जिसका कुरूप योग न हो एसी चेतावनी भी दी है।
१७ उपरे पर उरुश्रंग चढाने के विभाग हेतु सामान्य नियम कहा है । किंतु नीचे के उपाङ्गो के विस्तार पर उसका विशेष आधार शिखर के सूत्र छोडते समय होता हैं, उस समय ग्रह नियम संभालने के लिये बहुत बिचारनीय प्रश्न बन जाता है। यहां बुद्धिमान शिल्पिको विवेकसे काम लेना पडता है।
१८ शिखरकी मूल रेखाके पायचेका विस्तारका दश भाग करके ऊपर स्कंध
Page #116
--------------------------------------------------------------------------
________________
62
* प्रासादमअरी * बांधणे (साडापांचसे) छ भाग-सामान्यतया चौडा रखना चाहिये । शिखर मूलरेखा-पायचा के विस्तारसे सवाया सवागुने शिखरका उदय स्कंधे रखना । (पायचा विस्तारसे चारगुना सूत्र सवागुने शिखरका रखकर घृत खीचनेसे अविकसित कमल के समान शिखरकी सुंदर आकृति बन जाती है) ८५
रेखाके उदयमें अष्ट भाग करना एवं स्कंधे (बाधणे) सातभाग करके त्रासी उभी रेखा बनाके चिह्न करना (८६ ८७ अस्पष्ट अपूर्ण)
CARRIE
।
HALISRO
विस्तार २८भाग
आमलसारा
KOHARTITCH
IMPURAUTIKHITI
भाग/
७
Prit
ता
Kr
A-शिस्त्रर स्कंधे भागन शिखरका कंध विसार भाग६-अमलसाराविकारभागः
विस्तार पांचसे छ भाग के बीचका प्रमाण रखनेका विधान अन्य ग्रंथोमें वर्णित हैः किंतु साढे पांच भाग रखने से अति सुंदर दिखाता हे सवागुने उदयवाले शिखरके लिये चारगुना सूत्र रखकर वृत खींचनेसे रेखा होती है डयोढे शिखरके लिये पांच गुना वृत सूत्र खींचना । और 13 ऊदके शिखर जितना मूलरेखा-पायचे हो उससे साडा चार गुना वृत सूत्र खींचकर कला रेखा होती है। इससे शिस्त्ररकी नमन रेखा बहुत सुन्दर लगती है और स्कंध के चित्र बराबर मिलते रहते है।
Page #117
--------------------------------------------------------------------------
________________
63
* Prasad Manjari * अथ आमलसारा प्रमाण ५ शिखरके स्कंध बांधणे छभाग करके आमलसारा सात १ ग्रीव
भाग विस्तार करना चाहिए, किन्तु कलश सहित आमल१॥ आमला
सारेकी ऊंचाई सात भाग तककी होनी चाहिये । आमल0॥ चंद्रस
सारेका गला १ भाग । मध्यका गोला आमलक डेढ 0|| जांजरी भाग, चंद्रस सहित जांजरी (गोला) डेढ भाग, इस ४ चार भाग उदय
प्रकार चार भागका आमलसारे का उदय जानना ३ कलश
शेष तीन भाग ऊँचा कलश (इंडा) और कलशका विस्तार दो भाग रखना. ८८ ८९
मूल शिखरके उपाङ्ग वालंजर-मूल शिखर के पायचा विस्तारका दश भाग करना उसमेंसे दोदो भागकी दो रेखा-या कर्ण, डेढ डेढ भागके दो प्रतिरथ,
और सारा भद्र ३ तीन भागका । इस प्रकार कुल दश भाग हुए और उपर स्कंध बांधणा विस्तारका नौ भाग करना जिसमें दो दो भागकी दो रेखाये, डेढ डेढ भागके
-
MAMI - हा माग
-..-नाभाग--4 शहर
संधेबाजर३:
ESTRE)
प्रा
.
-मूल-रेखा १०भाग--
-...-पालज२२२ भाग-------
__१९ दीपार्णव ग्रंथमें आमलसारेका विस्तार विभाग २८ और ऊदय भाग १४ चौदा कहा हैं। गला तीन भाग अडक भाग पांच, चंद्रस भाग ३ तीन और ऊपरकी आमलसारी गोला भाग तीन मीलके चौदह भाग उदय । अब विस्तार भाग कहेते हैं, ऊपरका गोला आमलसारी विस्तार १३ तेरा भाग, चंद्रस विस्तार १८ अठारा और आमलसारो कुल विस्तार २८ अठ्ठावीश भाग कहा है।
Page #118
--------------------------------------------------------------------------
________________
* प्रासादमञ्जरी
64
दो प्रतिरथ, और शेष दो भागका । इस प्रकार कुल नौ भाग हुए। इसी प्रकार मूल शिखरका उपाङ्ग वालंजर समजना । ९० ९१ अथ शुकनाश-प्रमाण प्रासाद के छज्जे मथाले से शिखरके स्कंध बांधणे तक
की उंचाई के २१ भाग करना जिसमेंसे नौ, दश, ग्यारा, बारा, और तेराह भाग उदय इस प्रकार पंचविध शुकनाशके प्रमाण जाने२०। ९२
शिखरके शृंग उरुश्रृंग और प्रत्यङ्ग (चोथगराशिया) ये सब अंडककी गिनती संख्यामें ली जाती है, शेष तवज, तिलक, कर्ण या दुसरे उपाङ्गो पर चढाये जावें तो वे प्रासाद के भूषणरुप जानने । ९२
आमलसारे के विस्तारका दूसरा मान -शिखरके स्कंधका उपाङ्ग में आमना-सामना दो प्रतिरथ का कोण बराबर गोल वृत आमलसारे का विस्तार रखना (ये प्रमाण ओर छे भागके स्कंध के हिसाबसे सात भागका आमलसारा विस्तार । ये दोनों प्रमाण बराबर मीलता है। आमलसारे का विस्तार से अर्ध उदय मान जानना । ९३
INIK भुवई युक
____२० शुक नाशके प्रमाण में अन्य ग्रंथों में छज्जासे शिखर के स्कंध बांधणा तक की उंचाई का २१ भाग करके नौसे तेरह भाग तकका शुकनाश का स्थान रखने को कहा है। ये प्रासाद मंजरीकी एक प्रतिमें “ छाद्यातः स्कंधांत मेकद्विशा भक्तें दिक शिवांशकै । सूर्य विश्वांश शक्रे च छाद्योवें शुकनाशके ।। ८९
इस पाठमें परिवर्तन हो गया हो या कुछभी हो, परंतु २१ भागमें १०, ११, १२, १३, १४, भागे शुकनाशका स्थान कहा है. सूत्र. नाथुजीको यह पाठ कहां से मिला हो? शुकनासके बराबर मंडपका गुम्बज-या संवरणाकी घंटा आमलसारा समसूत्र में रखने यद्यपि मंडपका आमलसारा नीचे भी रखा जा सकता है।
Page #119
--------------------------------------------------------------------------
________________
65
* Prasad Manjari *
सुवर्णका प्रासाद पुरुष-आमलसारेके उदर भाग में घृतपात्रके साथ सुवर्ण के प्रासाद पुरुषकी मूर्ति चांदीके ढोलिये पर सुलाकर पधराना ९४ ___ध्वजाधार स्थान २२-प्रासादके शिखरके पीठेके भागमें दाहिनी ओर के पढरेमें “ ध्वजाधार "स्तंभवेध-कलाबा ध्वजादंड खडा रखनेके सहारे के लिये लुम्बी बनाना । ९५
-
TOR
wrinklin
२६ प्रासादके जीव स्थान म्वरुप सुवर्ण मय प्रासाद पुरुष । एक गजके प्रासादके प्रमाणसे आधे अंगुलका बनानेका विधान है । ५० गजके प्रासादके लिये २५ अंगुलका प्रासाद पुरुष धनाना उसकी आकृति-दाहिने हाथमें कमल एवं बांये हाथ में तीन शिखा वाली पताका ध्वजदंड सहित धारण किये हुए है (आकृति देखीये) इस सुवर्ण के प्रासाद पुरुषकी आकृति छाती पर हाथ रखे हुए होती है। आमलसारेमें घीके कलश पर चांदीके पलंग पर गद्दी व तकिये पर सुलाते हुए पधगना । इस प्रासाद पुरुषका स्वरुप पाषाण मूर्तिके रुपमें शिखाके पिछले दाहिने पढरेमें रखनेकी प्रथा लगभग १५० वर्षसे प्रचलित हुई है । ध्वजाधार कलाबाके स्थान पर इस आकृतिकी मूर्ति स्थापनेका यह प्रचलन उचित नहीं है।
२२ ध्वजाधार-स्तंभवेध (कलाबा) का स्थान शिखरकी मूल रेखाका उदय (पायचासे स्कंधतक) का चोविश भाग करके नीचेसे २१ इकीश घे भाग पर ध्वजाधार-स्तंभवेध-ध्वजादंड टेकाने का कलाबा शिखरके पीछले भागमें पढरे में बनाना ।
ध्वजादंडकी बाजुमें मजबुत आधार रुप काष्ठकी स्तंमिका आमलसारेकी बराबर उदयमें रग्बनी । ध्वजादंड के साथ स्तंभिका वनबंधो
शिखरके ध्वजा दड
Page #120
--------------------------------------------------------------------------
________________
* प्रासादमञ्जरी *
66
-
अथ कलशमान विभाग-प्रासाद कर्णे रेखाये विस्तारमें हों उनके आठवें भागका कलश (इंडक) का विस्तार जानना । कहे गये मान में से १६ सोलहवां भाग बढाने से ज्येष्ठमान और १६ सोलहवा भाग घटाने से कनीष्ठमान जानना । कलशका विस्तार से डयोढी ऊचाई करनी | ऊंचाई के नौ भाग करना जिनमें गला एक भाग, अंडक-पडधा तीन भाग, छ जी एक भाग, कणी एक भाग, और
11
-
-
-
स
1
कालकरा -
1
CEOयमा
IN
STARD
S
-
-Tamire
1
पवणा
1 - -
मला मान
।
13
114
।
STT
.
प्रभाकर.ओ.यानि
डोडला बीजोह तीन भाग इस प्रकार नौ मोग उदयका जानना । अब कलशकी चोडाई के भाग कहते हैं। डोडला-बीजोरका अग्र भाग एक, उसके नीचे मूलमें दो भाग, कणी विस्तार तीन भाग, छज्जी विस्तार चार भाग, अंडक पडधा छ भाग विस्तारमें; नीचे गला दो भाग: नीचे पीठ गर्भसे दो (कुल चार) भाग जानने । इस प्रकार कलशके विस्तार के छ भाग जानना । ९६ से ९८ __ अथ ध्वजदंडमान-प्रासाद जितने कम-रेखाओंसे विस्तार हो इतना ध्वज दंड
तांबेके पट्टासे मजबुत बाँधना । स्तंभिका के उपर कलश बनाना। कितने ही प्राचीन मंदिरेमें यह स्तंभिका देखने में आइ नहीं है । परंतु शास्त्रोंका पाठ यही है । लगभग २०० दो सो वर्षो से आमलसारे में ध्वजादंड स्थापन करते हैं। यह दंड बहुत ऊंचा लगता है। ध्वजादंडका साल (नीचला भाग आमलसारे में प्रविष्ट होता हे वे) प्रमाणसे अधिक रखनेकी प्रथा है। वो उचित नहीं है।
Page #121
--------------------------------------------------------------------------
________________
* Prasad Manjari *
लम्बा करना । उसमें से दशवाँ भाग हीन करने से मध्यमान होता है ओर पांचवा भाग हीन करने से कनिष्ठ ध्वजदंडका जानना । २३ दंडका पृथुमान (एक गज हस्त) के प्रासादके लिये पौन अंगुलका ध्वजदंड मोढा बनाना । दो से पचास हाथ सकके प्रासादके लिये प्रत्येक हाथ पर आधे आधे अंगुलकी वृद्धि करते जानर । ध्वजदंड गोल (या अष्टांश बनाना )
ध्वजादंडके सम (बेकी २.४, ६.) कंकणी-ग्रंथी ओर२४ गाला पर्व विषम (एकी १. ३. ५. करना ध्वजादंड के काष्ठ सीसम, बांस, खेर महुआ, चंदन अथवा अगर तगर का ऐसा बनाना चाहिये। काष्टमें छिद्र तुट फाट ग्रंथी (गांठ) आदि दोष नहीं किन्तु अच्छा काष्ठका सुशोभित ध्वजदंड बनाना । ९९ से १०१ ।।
वजादंडकी उपरकी पट्टिका (पाढली मर्कटी) दंडकी लंबाईसे छट्ठा भाग की लंबी करनी । लंबाइसे अर्ध चौडी बनाना । और चोडाइके तीसरे भाग पृथु मोटी बनाना चाहिये । पट्टिाके फिरती चारों ओर कंगूरी बनाना और नीचे अर्व चंद्राकृतिकी आकृति (शंखोद्वारजेसी) करनी । ६जदंडके उपर मस्तके कलश और
२३ ध्वजदंडके पृथक पृथक मान दीपार्णव अंथमें दिये हुए हैं । (१) प्रासादकी जंघा-कटि विस्तार मानका दंड "विजय" (२) चोकीके पदके दो स्तंभके विस्तारके समान दंड “शक्तिरुप” (३) गर्भगृहके विस्तार के समान दंड “सुप्रभ" (४) प्रासाद कर्णे विस्तार के समान दंडका “जयवह" और शिखरके पाबचे-मूलकर्ण के विस्तार के समान दंडका " विश्वरुप” नाम विश्वकर्माने कहा है । यह पंचविध प्रमाण ध्वजदंडके दीर्घ नाम सहित कहा । क्षीराणवमें कहा है कि शिखरके कलश से नीचे खुरा तककी उंचाईके तीसरे भागके ध्वजदंड समान लंबा जेष्ठमानका छटा प्रमाग कहा है । सातवा मानप्रमाण पृथक् कहा है। एक हाथसे सात हाथ तक के प्रासादके लिये कोण रेखा विस्तार बराबर ध्वजदंड लंबा करना । आठसे पचिश हाथ तक के पासाद का ध्वजदंड गर्भगृहके विस्तारमानः और छब्बीशसे पचास हाथके प्रासाद के लिये शिखरके पायचा मूल रेखाके मानसे ध्वजदंड लंबा रखनेका विधान है।
२४ ध्वजादंड में सामान्यतया सम कंकणी-ग्रंथी और विषम पर्व-गाला रखनेका विधान है। किन्तु शिव एवं शक्तिके प्रासादके लिये उससे विपरित करनेका विधान “ क्षीरार्णव' ग्रंथमें है ।
महारज्ञ याग के उत्सव पर ध्वजा रोपण करनेका शास्त्र विधान है । एक चयुतरे पर ध्वजदंड पंदरा विश हाथका ऊँचा खडा करते हैं।
Page #122
--------------------------------------------------------------------------
________________
६८
* प्रासादमञ्जरी - पट्टिका (मर्कटि) पर भी कलश बनानो पट्टिका (मर्कटि) के नीचे घंटिकाओ लटकती रखना । १०२
२५ ध्वजादंडकी लंबाइ समान पताका ध्वजा लंबी रखनी । और पताका-ध्वजाको लंबाई आठवे भाग ३ चौडी पताका चौडी रखनी (यह पताका तीन या पांच शिखाग्र वाली बनाने के लिये विधान है) १०३
तैयार किया हुआ शिस्त्रर अधिक समय तक ध्वजा हीन नहीं दिखना चाहिये । ऐसे ध्वज हीन मंदिरोमें असुर लोग निवास करने की इच्छा करते हैं। (अर्थात् देव प्रतिष्ठा तुरन्त करनी चाहिये) १०४
अथ प्रासादः---वैराज्यादि प्रासाद चोरस चार द्वारवाले और उनके आगे चोकी (चतुष्किका) का निर्माण करना । वैराज्यादि दूसरे प्रासाद के चार भाग करके उनमें से एक एक भागकी रेखा-कर्ण और सारा भद्र दो भागका चौडा और अर्ध भागका भद्रका निर्गम निकाला रखना भद्र मुख भद्र युक्त करना । कर्ण पर एक एक शृङ्ग और भद्र पर दो दो उरुशृङ्ग चढाने से वह “ नंदन" नामका वैराज्यादि दूसरा प्रासाद जानना । १०५ सांधार जातिके भ्रम युक्त प्रासाद में दश, नौ और आठ
. भागकी भ्रम की भित्ति दीवारकी मोटाईका प्रमाण जानना । १०६ । MAN
--
----
---
--...-.
२५ ध्वजा पताका में देवका वाहन अथवा आयुधका चिन्ह करने की प्रथा उत्तर भारतमें है । अपितु कलश अथवा ध्वजादंडके उपर भी ऐसे आयुधका चिन्ह करते हैं । शिवका प्रासाद हो तो डमरु । देवीशक्तिके प्रासाद हो तो त्रिशूल । विष्णुके प्रासाद हो तो चक्रका चिन्ह और रामचंद्रजीके प्रासादकी ध्वजा पर हनूमान की आकृति करते हैं।
पताका-ध्वजाकी आकृतिके बारे में क्रियाकांडी ब्राह्मण विवाद करते है कि ध्वजा त्रिकोण होनी चाहिये । इस विषयके बारेमें उन विद्वानोके साथ चर्चा की है। यज्ञादि कर्मका ग्रंथ बताके ब्राह्मण विद्वान प्रमाण बताते हैं, परंतु ये प्रमाण यज्ञ मंडपकी प्रासंगिक ध्वजाके वर्णनमें है । कोइ स्थाइ कार्य या प्रासादले विषयका ध्वजा त्रिकोण करनेका विधान अभी तक मैनें नहीं देखा । अविधिसर के छोटा शिवालय ओर हनुमानजी या अन्य मंदिरोमें कभी त्रिकोण ध्वजा अविधिसरकी
Page #123
--------------------------------------------------------------------------
________________
दशवीं- शताब्दीका कूटछाद्य विहिन शिवप्रसाद. केशकोटा ( कच्छ )
(आच्ोलोजी. राजकोटका सौजन्यसे )
Page #124
--------------------------------------------------------------------------
________________
उदयपुर (मालवा) उदयेश्वर प्रासादका कलामय शिखरका सुकनाश.
Page #125
--------------------------------------------------------------------------
________________
69
COM
* Prasad Manjari * शरमां आधना कमेनी समज,
अथ सांधार केशरादि प्रासाद६ सअनुसमे श्रीवादि अब
विभक्ति ।।१।। प्रासाद क्षेत्रके सिकन्याकूट
आठ भाग करके दो भागकी कर्णरेखा और सारा भद्र चार भाग चोडा करना । भद्रका निर्गम आधे भागका रखना । (चारो कर्ण पर एकैक अंडक और मूल एक मिलके) पांच अंडकके केसरी जानना । केसरी से चार चार अंडक की वृद्धि करते हुए एकसो एक अंडक तक का मेरु प्रासाद होता है । १०८
इति केसरी प्रासाद १ तुल भाग ८ शृङ्ग ५ ॥
विभक्ति ।।२।। प्रासादके क्षेत्र के दश भाग करके उसमें से दो दो भाग को कर्ण-रेखा, डेढ भागका प्रतिरथ (पढरा) और डेढ भागका
आधा भद्र बनाना । रेखा पर एक एक श्री वत्स (श्रृङ्ग) और भद्र पर एक एक उरुश्रृङ्ग चढाने से “सर्वतोभद्र" नामक नौ अंडक
का प्रासाद दूसरा जानना । १०९ करते ये प्रमाण नहीं माना जाता । पताका ओर ध्वजाका दोनो का भेद पाडते हैं । जो कोइ विद्वान त्रिकोण धजा के बारे में शास्त्रोक्त प्रमाण प्रासाद विषयमें बतायगा तो हम सहर्ष स्विकार करेंगे ।
२६ यहां दिये हुए केशरादि पचीश प्रासाद सूत्र संतान अपराजित सूत्र १५९ के अनुरुप है । अपराजित में सविस्तर वर्णन है । यहाँ पर बहुत ही संक्षिप्त में बताया है। उससे कितने ही स्थान पर अध्याहृत रहना पाया जाता है। उसकी पूर्ति करने के लिये अनुवाद में हमे स्पष्ट करना पडा है । सावंधारादि केशरी पचिश प्रासाद के स्वरुप अन्यग्रंथो में जो दिये गये हैं। उनमें से अंग चढाने की रीति भी भिन्न है । उसी प्रकार तलच्छंद में भी आगे पीछे है। श्रृङ्गकी कुल क्रम संख्या तो मिलती रहती है।
Page #126
--------------------------------------------------------------------------
________________
७
* प्रासादमञ्जरी *
70
-
-
-
.
-
T
-
T
Ham.
PCS
Acc
FA
।
.
2011
S
- मान.
TRam
KON
DRON
म
LE
साली (यह प्रासाद दूसरे प्रकार से भी कहा गया है । रेखा कर्ण उपरे उपरापर दो श्रृङ्ग
ओर स्थ-भद्र पर उद्गमदोढिया चढाने से वह सर्वतोभद्र नामक नौ अंडकका प्रासाद जानना । इतिसर्वतोभद्र प्रासाद २ । तुल भाग १० अंग ९ ___ तृतिय प्रासादः-- दशाई तलके उपर दूसरा भेद कहते है। भद्रके ऊपर एक ऊरुश्रृङ्ग चढाने से “दन"
नामका तेरह अंडकका तीसरा प्रासाद जानना । ११०
चौथा प्रासादः---उसी प्रकार दशाइ तल पर तीसरा भेद कहते हैं। रेखा कर्ण पर दो श्रङ्ग हैं, सो एक रखके प्रतिरथ पर श्रङ्ग चढाने से चोथा “नंदशाल" नामक प्रासाद सत्रह अंडकका जानना । इति नंदशाल ११०
ITTER
Page #127
--------------------------------------------------------------------------
________________
71
सांधार
भाग विभा
* Prasad Manjari
3ri ju
साधार सर्व आर
तलभूत विमानमार
ए
इ
विभक्ति
किस
43
क
म
७१
You
"सर
२८
निदिधाराराष्ट्र
पांचमा प्रासाद - दशाई तल पर चौथा भेद कहते हैं । नंदशाल प्रासाद के स्थान पर कर्ण - रेखा पर एक श्रृङ्ग है वहां दो दो श्रृङ्ग चढाने से पांचवा "नंदिश” नामक २१ अंडक का प्रासाद जानना । इति नंदिश ।
विभक्ति ||३|| प्रासादके क्षेत्रके १२ भाग करके कर्ण-रेखा प्रतिरथ और भद्रार्ध दो दो भागके करके कर्ण पर दो और भद्र पर दो दो ऊरुङ्ग एवं प्रतिरथ पढरे पर एक श्रृङ्ग चढाने से छठ्ठा "मंदर" प्रासाद २५ अंडक तुल भाग १२ का जानना । इति मंदर । १११-११२
विभक्ति ||४|| प्रासाद के क्षेत्रके १४ चौदह भाग करके रेखा, कर्ण, प्रतिरथ और भद्रार्ध दो दो भाग के रखने तथा भद्रकी दोनों ओर ( पक्ष में) एक एक भागकी नंदी करनी कुल चौदहाई तल हुआः कर्ण-रेखा पर दो दो, प्रतिरथ पढरे पर एक एक और उन पर एक एक तिलक चढाना, नंदी पर एक तिलक और भद्रके उपर तीन ऊरुश्रृंग चढाने से सातवा "श्री वृक्ष" प्रासाद तुल भाग १४ अंडक उनतीम जानना । इति श्री वृक्ष ।
आठवा प्रासाद — श्रीवृक्ष प्रासादके शिखर पर रेखा -कर्ण के उपर दो के स्थान
Page #128
--------------------------------------------------------------------------
________________
ફર
फोडी
रोज
Fre
3240
मेल
सार
-
* प्रासादमञ्जरी *
साधन भाग
परि 10 आसार २५
भ
आधार मामाद भार
विभावते आसारा
99
M
122
72
- NAUG
श्रीभार
म
विमा प्रसार
पर तीन श्रृङ्ग चढाने से आठवां " अमृतोत्र " प्रासाद तुल भाग १४ अंडक ३३
इति अमृतोद्भव |
एक
नवमां प्रासाद - अमृतोद्भवके स्थान पर भद्र पर तीन ऊरुङ्ग के स्थान ऊरुश्रृङ्ग छोडकर प्रतिरथ--पढरे पर एकके स्थान दो दो श्रृङ्ग चढाने और कर्ण-रेखा पर तो तीन श्रृङ्ग है ही । ऐसा नवाँ " हिमवान " प्रा० होवे ११३ इति हिमवान ।
तुल भाग १४ अंडक ३७
,,
दशवा प्रासाद - हिमवानके स्थान पर भद्रके उपर दो ऊरुङ्ग हैं | वहां तीन तीन ऊरुङ्ग चढाने से दशवा " हेमकूट प्रा० तुल भाग १४ अंडक ४५ होवे ११५ हेमकूट ।
ग्यारहवा प्रासाद - हेमकूट के स्थान पर कर्ण - रेखा पर से एक श्रृङ्ग छोडकर नंदीके उपर एक एक श्रृङ्ग चढ़ाने से और रेखा - कर्ण पर एक तिलक चढ़ाने से ग्यारहवा कैलास " प्रा० तुल भाग १४ | अंडक ४५ होवे इति कैलास ।
66
चढाने से बारहवf “पृथ्वीजय ११६ इति पृथ्वीजय ।
बारहवा प्रासाद-कैलास के स्थान पर कर्ण - रेखा पर दो के स्थानपर तीन श्रृङ्ग प्रा० तुल भाग १४ अंडक उनपचास जानना
Page #129
--------------------------------------------------------------------------
________________
73
* Prasad Manjari * विभक्ति ॥५॥ प्रासाद के क्षेत्र के १६ भाग करके कर्ण रेखा पढरा-प्रतिरथ और भद्रार्ध दो दो भागके रखने-कर्ण एवं प्रतिरथके बीच एक भाग कोणी तथा भद्रके पास में एक भागकी नन्दी करनी । भद्रका निकाला एक भागका रखना । रेखा--कर्ण पर दो उसके पास कोणी के उपर एक एक तिलक चढाकर प्रत्यक्ष चढाना 1 प्रतिरथ पढरे पर दो दो शंङ्ग और भद्रके उपर तीन तीन उरुशृङ्ग चढाने
और भद्र नन्दी पर एक एक शृङ्ग चढाने से तेरहवां " इन्द्रनील" प्रा० तुल भाग २६ अंडक ५३ जानना । ११७-११८ इति इन्द्रनील । ___ चौदहवाँ प्रामाद- इन्द्रनील के स्थान पर कर्ण रेखा के उपरका एक शृङ्ग छोडकर वहाँ तिलक चढाना और रेखाके पासकी कोणी के उपर तिलक छोडकर यहां शङ्ग चढाने से पौदहवाँ "महानील" प्रा. तल भाग १६ अंडक ५७ जानना । ५१९ इति महानील। . पंद्रहवां प्रासाद-महानील के स्थान पर रेखा कर्ण परका तिलक तजकर शङ्ग चढाने से पंद्रहवां “भूधर" प्रा० तल भाग १६ अंडक ६१ जानना १२० इति भूधर ।
विभक्ति ।।६।। प्रासादके क्षेत्रके १८ भाग करके उनमें उपरोक्त सोलाइ तलके भद्रकी ओर एकके स्थान दो दो नन्दी करनी। शेष सोलाइ तलके समान तल भाग जानने। कर्ण के उपर दो शङ्ग और एक तिलक चढाना । रेखा-कर्ण के पास वाली कोणी पर एक शङ्ग ओर उस पर तिलक चढाकर उस पर प्रत्याङ्ग दो दो भागके करने । शेषकी दो नन्दी पर दो दो तिलक चढाने । भद्रके उपर चार ऊरशङ्ग और प्रतिरथ-पढरे पर सीन तोन शङ्ग चढाने से सोलहवां " रत्नकूट" प्रा० तलभाग १८ अंडक ६५ का शिवलिङ्ग हेतु । कामना को पूर्ण करने वाला जानना । २२१ इति रत्नकूट । __ सत्रहवां प्रासाद रत्नकूटके स्थान पर रेखा-कर्ण पर दो के स्थान पर तीन तीन शङ्ग चढाने से सत्रहवां वैडूर्य प्रा० तल भाग १८ अंडक ६९ जानना । १२२ इति वैडूर्य । ___ अठारहवां प्रासाद-वैडूर्य के स्थान पर रेखा-कर्ण के उपर के तीन शङ्ग में से एक छोडकर प्रतिरथके पासवाली नंदी पर शङ्ग चढाने से अठारहवाँ “पद्मराग" प्रा० तल भाग १८ अंक शृङ्ग ७३ जानना । इति पद्मराग।
उन्नीसवाँ प्रासाद-पद्मरामके स्थान पर कर्ण-रेखा पर जैसे कि पूर्व ही थे उसी प्रकार तीन तीन शङ्ग रखने से उन्नीसवा " वनक" प्रा० तल भाग १८ शङ्ग ७७ जानना १२३ इति वनक ।
Page #130
--------------------------------------------------------------------------
________________
७४ * प्रासादमञ्जरी *
74 विभक्ति |७|| प्रासादके क्षेत्रके बीश भाग करके दो भाग कर्ण-रेखा कोणी डेढ भाग, रथ दो भाग, नंदी डेढ भाग, भद्र नंदी एक भाग एवं सारा भद्र चार भागका बनाना । इस प्रकार कुल बीसाइ तल भाग हुआ । रेखा पर दो शङ्ग
और एक तिलक चढाना । तब शिखरका पायचा चौदह भागके विस्तारका होगा । नंदी पर एक एक शृङ्ग और तिलक चढाके उस पर प्रत्यङ्ग चढाना । प्रतिरथ पर तीन तीन शृङ्ग और भद्र पर चार चार उरुशल चढाना | नंदी पर एक एक शङ्ग
और तिलक । उसी प्रकार भद्र नंदी पर एक शङ्ग चढाने से बीसवां “ मुकुटोज्ज्वल प्रा० इक्याशी अंडकका प्रासाद जानना १२४-२५-२६ इति मुकुटोज्वल ।।
इक्कीसवाँ प्रासाद- मुकुटोज्ज्वल प्रासादके स्थान पर रेखा पर तीन शृङ्ग चढाने से इक्कीसवां "गजराज" प्रा० तल भाग २० अंडक शृङ्ग पिच्याशी १२७ इति गजराज ।
बाइसवाँ प्रासाद--गजराजके स्थान पर रेखा पर जहां तीन शङ्ग हैं उनमें से एक शृङ्ग छोडकर वहाँ तिलक रखना । और भद्र कर्ण पर एक शङ्ग चढाने से ब्रह्माजी को प्रिय ऐसा बाइसवाँ “राजहंस” प्रा० तल भाग २० निव्वाशी शृङ्गका जानना । १२८ इति राजहंस ।
तेइसवां प्रासाद-राजहंसके स्थान पर रेखा पर जैसे कि पूर्व थे, वैसे ही तीन शङ्ग चढाने से और भद्र नंदी पर तिलक चढाने से लक्ष्मीपति विष्णुको प्रिय ऐसा तेइसवां गरुड प्रा० तल भाग २० शङ्ग तिरानवेका जानना । १२९ इति गरुड ।
विभक्ति ॥८॥ प्रासादके क्षेत्रके बाईस भाग करके भद्रकी पक्ष-पडखो पर एक एक भागकी नंदी तीन प्रतिरथ और रेखा तथा आधा भद्र-ये सब दो दो भागके बनाने से कुल बाईस भागका तल हुआ; कर्ण रेखा पर दो शृङ्ग और एक सिलका भद्र पर चार चार ऊरुशृङ्ग; कर्णकी बाजूवाले प्रतिरथ घर दो दो शृङ्ग ओर उन पर तीन भागके विस्तारका प्रत्यक्ष (चोथगराशिया) चढाना; रथ पर तीन तीन शृङ्ग उपरथ पर दो दो शृङ्ग और भद्र नंदी पर एक एक शृङ्ग चढाने से हर-शिवको प्रिय ऐसा चोबीसवां "वृषभ" प्रा० तलभाग बाइस शृङ्ग सतानवेका जानना इति घृषभ. १३०-१३१
पच्चीशवा प्रासाद-वृषभके स्थान पर रेखा पर जो तृतीय शृङ्ग चढाया जावे तो सिद्धिको देने वाला ऐसा पच्चीसवा “मेरु" प्रासाद तल भाग २२ शृङ्ग एकसो एक का जानना. १३२
२७ इसी प्रकार केशरादि सांधार अथवा निरंधार प्रासादका पचीश शिखर बनाये जो सकते है इति मेरु प्रासाद.
२७ सांधार केशरादि प्रासादकी आठ विभक्तियो पर पच्चीश भेद कहें यथा
Page #131
--------------------------------------------------------------------------
________________
• Prasad Manjari
मेरु प्रसाद - पांच हाथका एक सौ एक अंडक - शृङ्गका करना; जिसमें बीस बीस अंडकी वृद्धि करते हुए पचास हाथ तकके मेरु प्रसादके लिये एक हजार एक अडक होने पर, वह " महामेरु प्रासाद" कहलाता हैं; पूर्वोक्त मेरु प्रासाद राजाओं के लिये ही बनवाने, दूसरे वर्णोंके लिये नहीं; मेरु प्रसाद ब्रह्मा, विष्णु, शिव एवं सूर्यके लिये बनवाने चाहिये, अन्य देवोंके लिये नहीं. १३३-३४
अथ मण्डप --- - प्रासादके आगे एक या तीन द्वारका मंडप बनाना: जिन ब्रह्मा, विष्णु और शिव प्रासादों के लिये गूढ स्त्रीक एवं नृत्य मंडप अनुक्रम से बनाने । एक या दो हाथी डेरीके आगे चोकी चतुष्किका बनानी । तीन हाथ के प्रासादके लिये दूना, चार हाथके लिये पोने दोगुना, पांच हाथसे दश हाथके लिये ड्योढा और दशसे पचास हाथ तक के प्रासादों के लिये सवा गुना अथवा सम. (अर्थात् जितना प्रासाद होवे उतना ) मंडप बनाना । यह शुभ जानना । प्रवेश मंडप गर्भगृह से ड्योढा या दुगुना बनाना । १३५-३६-३७-३८
जयमत- विश्वकर्मा के पुत्र जय कहते हैं कि प्रासादके प्रमाणसे मंडप सम अर्थात् प्रासादके बराबर सवागुना, डोढगुना; पोनेदोगुना अथवा दूना करना। ऐसा पंच विध प्रमाण कहा है। १३९
75
*
७५
अथ चतुष्किका प्रावि मंडप - एक पदसे अठारह पदकी चोकी चतुष्किका की रचना के प्राभिय मंडपांके बारह स्वरुप कहे हैं । २८
१ एक चोकी; २ तीन चोकी. ३ तीन चोकी और आगे एक चोकी, ४ छ चोकी; ५ छः खोकी और आगे एक चोकी; ६ नव चोकी; ७ नव चोकी के आगे एक चोकी: ८ नव चोकीके दोनों ओर एकैक चोकी: ९ नव चोकीके आगे ओर दोनों ओर एकैक चोकी मिलकर बारह पदः १० बारह पढ़के दोनों ओर एकैक चोकी: ११ बारह चोकीके दोनों ओर दो दो चोकी; १२ पंदर पद ५३ के आगे तीन चोकी; इस प्रकार बारह प्रकारके प्रावि मंडप चोकीके चार स्तंभों से २८ स्तंभ संख्या तक जानना । एक पद चोकी । १४०-१४१
मंडपका मध्य पदका अनुसरण करते हुए अन्य पदके स्तंभोका पद रखना | मंडप परकी संवरणा परकी घंटा (अथवा गुम्बजका आमलसारा) शिखर के शुकनाश अट्ठाइका एक भेद, दशाइके चार भेद, बागहाइके एक, चौदाइके छ भेद, सोलहाइके तीन भेद, अठारहाई के चार भेद, बीसाईके तल पर चार भेद और बाइसाई तल पर दो भेद कहे हैं। इस प्रकार कुल आठ विभक्तियों पर पच्चीश भेदके शिखर कहे हैं ।
२८ इन बारहके नाम और स्वरुप अपराजित सूत्र में कहे हैं एवं दीपाव ग्रंथके प्रकाशमें उसके तल दर्शन के मानचित्र भी दिये हुए हैं; चोकी चतुष्किका अर्थात चार स्तंभके पदको चौकी कहते हैं ।
Page #132
--------------------------------------------------------------------------
________________
一一一
重工
n. 15
.10
.....
......
--
-
al.. -- -
-
- ....- -
- +
+
......
.........4
0
L一一一一一
中一人一
云是以
的窝
35
上一主41
Avity
1
MerceLov
.1
es (155.ALLE开:
FnowT CHON; A# SAI SMARTH THE
北AE11115
11pm-11日,由于
-
-
be
-
4、
手
Fi + 1
; if fig fivi --
*
* -... 11: "",
"smily in -
",
/
*
共11个,
Page #133
--------------------------------------------------------------------------
________________
rand
प्रतोल्या तोरण
- वडनगर.
श्री सोमनाथजी महाप्रासादके प्रवेशभाग
Page #134
--------------------------------------------------------------------------
________________
Naga
कलामय
Auton
EXORD'S
हिंडोलक तोरण सोमनाथ
me
FOR BO
मोढेरा सूर्यमंदिरके मंडप स्तंभ - और काचलावाला तोरण
Page #135
--------------------------------------------------------------------------
________________
7
* Prasad Manjari *
पारावासिं
---9775..
सुदर्शन ----- - -----
-
-
२
-
----
13पद
द
O----0
+10------------02 मंगऽय
73 बदमा
G
:---
...
६यम ------ --- ---- प्र म - ---- -----
बराबर मिलाना । मंडपकी घंटाका आमलसारा नीचे हो यह श्रेष्ठ है परंतु ऊंचा नहीं होना चाहिये । १४२
निरंधार प्रासादके मंडपका उदय प्रासादके बराबर रखकर उसके उदय के १३ भाग करने। पीठ पर सवा भागका राजसेनक, सवा तीन भाग वेदिका एक भाग आसन पट्ट (ओसरोट); साढे पांच भागका स्तम्भ; पोने भागका भरण, सवा भागका शराः इस प्रकार तेरह भाग और उस पर दो भागके पाटः भारोट; पाट भारवट ये सब मिलकर उदयके पन्द्रह भाग हुए। पादमें एक भागका मोटा छज्जा बनाना। जो पाटके पेटमें ढालू समाविष्ट करनाः
------
-----------
घपदमा
------
--
-----
m
---
...
-
-
।११
।
O
Rोमा
आसन पट्टके उपर एक
हाथ ऊंचा ढलता हुआ
कक्षासन करना । १४३, Haland ___ अथ गूढमंडप---प्रासादोंको जोडने वाले भित्ति दिवार वाले गूढ मंडपके आठ प्रकारके स्वरुप कहे है । १ चोरस, वर्धमान, २ भद्रयुक्तः स्वस्तिक, ३ प्रतिरथ युक्त गरुड नामकः ४ भद्र और उसके साथ प्रभद्र युक्तः सुरानंद नामक; ५ कोणी युक्त सर्वतो भद्र नामक; ६ अधिक भद्र युक्त मुखभद्र युक्त कैलास नामका दो प्रतिरथ युक्त इंद्रनील नामक, तीन प्रतिरथ युक्त रत्नसंभव' नामक; इस
Page #136
--------------------------------------------------------------------------
________________
* प्रासादमञ्जरी •
78
IMAINMEROIN
HTRA
प्रव
Aline
Hetel
ভিয়ারিয়া
परिका
YMIRRihendi.byutanane विधान प्रासादमाम बसARNALIसमय मोडमा सी HERaiमाययाका माय ART. प्रकार आठ गूढ मंडप के स्वरुप जानने । (मान चित्र यहाँ दिया गया है) कर्ण रेखा से दूना भद्र और पौने भागका प्रतिरथ और भद्रसे अर्ध मुखभद्र बनामा । ये मुखभद्र कक्षासन चंद्रावलोकित करना । २८ १४६ ४७.
२९ गूढमंडप भित्ति दिवार युक्त होते इस लिये मंडपको प्रासाद जैसा पीठ एवं मंडावरका स्तर बनाना । एक या तीन द्वार करने से कामना फल प्राप्त होता है। द्वारके आगे एक या तीन या चार पदकी चोकी चतुष्किका करना ।
Page #137
--------------------------------------------------------------------------
________________
79
* Prasad Manjari *
Name वर्धमान
સોમ પ
..
स्वतिक
गुटमंडप
-प्रमाशंकर.ओ.सायहि
ग
३
कोली सुनंदन छ
पलक
अथ नृत्यमंडप-पुष्पकादि सताईस प्रकारके मंडप स्तंभ संख्याके अनुसार कहे है। प्रथमबार स्तंभो के सुभद्र नामका मंडप से दो दो स्तंभाकी वृद्धि करते
Page #138
--------------------------------------------------------------------------
________________
८०
रत्न संभव
इंद्रनील ७
* प्रासादमञ्जरी
गुद मंडप.
प्रभाशंकर.ओ. स्थपति
80
"
हुए चोसठ स्तंभों तक के पुष्पकादि सताईस मंडपों के नाम ओर स्वरुप शिल्पग्रंथो में दिये गये हैं । 30 १४८, ४९
३० दूसरे प्रकारके मी मंडप कहे हैं - देव प्रासादके आगे करने के मंडप में मेर्वादि पच्चीश मंडप एक से पांच भूमि = मंजिल तक किये गये हैं । जिनके नाम स्तंभ संख्या, स्वरूपादि दीपार्णव, क्षीरार्णव, ज्ञान रत्नकोश और अपराजित आदि बडे बडे ग्रंथ में दिये गये हैं । सांधार महा प्रासाद या महा चातुर्मुख मंडपके आगे अमुक देवके प्रासादके लिये अमुक नामका मंडप करने का कहा गया है । १ शिवनाद । २ हरिनाद । ४ रविनाद ।
६ मेघनाद ।
३ ब्रह्मनाद |
५ सिंहनाद | ये मंडप बहुत विशाल और तीन चार अथवा पांच भूमि (मंजिल) के ऊंचे होते हैं ।
मानसार में प्रयोजनार्थ कई प्रकारके मंडप कहे हैं । नगरके आगे, पुण्यक्षेत्रे, तीर्थक्षेत्रे, जलाशये, यात्रा मार्गपर, राज्यशृङ्गारार्थ नृत्यगीत, राज्याभिषेकार्थ, नृप भोजनार्थ, अग्निकार्यार्थ, आदि ।
मंडप के ऊपर वितान ( गुम्बज ) अर्थात् आकाश या उपरकी आच्छादक चंदनी या छत करनेका अनेक प्रकार शिल्पज्ञोंने कहा है । उनमें से वितानके तीन विधान प्रधान हैं ।
सर्व वितान के लक्षणोंकी उत्पत्तिः समः सरखा छतः छातियां ढकने से प्रथा
Page #139
--------------------------------------------------------------------------
________________
$1
सुभेद्र
32 स्तंभ
fem फोली
हर्षण
२२स्तंभ
N
१२
शत्रुमर्दन ३धरतम
भामेद्र
उघ स्तंभ
मानव २८स्तंभ
* Prasad Manjari
फॉलो
सिंहक
જેસંગ
पुष्य काहि मण्डपो.
३३
સુક્ષ્મણ
३६ स्तंभ
सुग्रीव રઘસ
३० नदन
३०स्तंभ
*
कौली
મ पदाधिक
३८ संभ
तेर कणिकार
२० स्तंभ
विभाज भद्र
२६ स्तंभ
११
भूजय ३२संभ
ta
विशालाक्ष
३८स्तंभ
८१
રોહર છેશે. રુચી
शुरु हुई। वितान - घुमट विचित्र प्रकारके अनेक कहे हैं। इनमें से तीन प्रमुख हैं । प्रथम क्षिप्तक्षिप्त, दुसरा समतल, तीसरा उदित इस क्रमसे मुख्य समजना |
१ क्षिप्तरक्षिप्त अर्थात् गुम्बजका थरो कोल गवालु उपर चढके नीचे उतरकर फिर वापिस उपर चढता है । इसी रीतसे गुम्बज आच्छादित होते हैं उसका नाम ' क्षिप्त-उक्षिप्त " |
८"
१९
Page #140
--------------------------------------------------------------------------
________________
* प्रासादमञ्जरी *
82
-
-
-
-
-
-
-
यसमंद
घम
-
म
--
-2
का
LOT
LION जयाबा
|
#
श्रीवल्स NOc
-
HT
पुण्यकादि मयडयो.
-
-
+---
--
-
-
H0
-/गजमद
कौशल्य
Parit/A
-
2-Am
4-4
अशोकर ओस्यकि.
२ समतल अर्थात सीधी छत-छतियासे ढकाती छत ये "समतल" यह छातीया सादा हो या पदकी आकृति जैसा उत्कीर्ण हो ।
३ उदित अर्थात् गुम्बजका कोल गवालुका थरो एक से एक संकिर्ण संकोची संक्षिप्त करके आच्छादित करके ढकनेकी रीति “ उदित " नामक कहाता है । बीचका झुमर जैसा विभाग पद्मशिला कहा जाता है ।
Page #141
--------------------------------------------------------------------------
________________
83
* Prasad Manjari *
८३
पुण्यकादि२७
सन
"मयडयो.
1
-4H
-
-
-
TH
-चा-या
२७
પુષ્પમ
६२सम
-
-
G
4
-2
अथ बलाणक-3 ब्रह्मा, विष्णु, शिव, सूर्य, चंद्र और जिनके देवालयो, जलाश्रयों राजप्रासादो, सामान्य घरों, एवं दुर्गाके आगे बलाणक बनाने चाहिये । बलाणक पांच प्रकारके कहे गये हैं। १ वामन, २ विमान ( उत्तुङ्ग ), ३ हHशाल,
वितान बनानेकी प्रथा दो सो तीनसो सालसे कम होती जाती है । निम्नः नीचे वितान उसके उपर संवरणा होती है। संवरणा भी कम होती है। उस "स्थान पर संन्यासीका मस्तक जैसा सीधा सादा गोल गुम्बज होने लगा है ।
वितानके तीनों प्रमुख प्रकारकी आकृति एवं फोटा अिस ग्रंथमे दिया हुआ है सो देखनेसे स्पष्ट समझमें आ जायेगा ।
३१ बलाणकके स्वरुप अन्य ग्रंथोमें थोडे फेरफार के साथ दिये हुए हैं। देव प्रासादके आगे और जगती में समाविष्ट हुए मंडपके लिये “वामन " दुर्ग, एवं राजभवन के आगे विमान, प्रजाजनके भवनके आगे डेहल "हर्यशाल," जलाश्रयके
Page #142
--------------------------------------------------------------------------
________________
• प्रासादमञ्जरी *
:--he art
प्रभाकर यति
मलाल
-18
LIITMIINIKY
"प्यार
TIMADIROJ THINDI
XKXxin
ЯКАКЯКЯКАКЪКАК МЕЗКАКЯНУКЯЕТСЯ
शारराजालाSRAMIKIE बालकासालारण
7KIKKKEEEREIKEIKIRTIRBERRERACKERAKTIRЕІRЕТЕККІРІК
विताना विस्तार माग६६
WKKIIN
-
CAKLIKI
-
आगे या मध्यमें मंडप होवे उसको "पुष्कर"; राजभवन के आगे पांच या सात या नौ भूमि ऊंचे बलाणक को उत्तुङ्ग” कहते हैं; उत्तुग टावर या कीर्तिस्तंभ जैसा जानना । चितोडमें उत्तुग मंदिर के आगे और एक स्वतंत्र है। जो युद्ध विजय के स्मारकमें बनाया होनेका कहते है। पाटण सहस्रलिङ्ग के बडे सरोवर के किनारे पर ऐसा उत्तुङ्ग कीर्ति स्तंभ जैसा बनाया था अब उनका अवशेष भी नहि दिखाते। साहित्यमें उसका उल्लेख है । प्रजाका भवनके आगे हर्यशाल जो मूल घरसे नीचे
Page #143
--------------------------------------------------------------------------
________________
मोढेरा सूर्यमंदिरकी जंघाका देवस्वरुप
श्री सोमनाथ - प्रतोल्या परका ईलिकाका अंश. श्री सोमनाथ - प्रतोल्यापरका तोरणका अंश.
Page #144
--------------------------------------------------------------------------
________________
वसमत शहराव
समतलानि प्रकारके वितान ( छत छोतीया )
उठ
-
HD
6152
ऊदितानी प्रकारके कलामय वितान ( गुम्बज ) रुपकोल, गजतालु - गवालु.
Page #145
--------------------------------------------------------------------------
________________
85
* Prasad Manjari *
IITHAT
hu
K
HTRA
T
५ गोपुरम् ५ पुष्कर नामक बलाणक जानना । एक दो तीन चार छ एवं सात पद दूर स्थल विस्तारके प्रमाणसे बलाणक बनाना । बलाणकके द्वार उत्तरङ्ग, पाट मूल प्रासादके अनुसार समसूत्र उदयमें रखना । १५०, ५१, ५२.
१ प्रासादकी जगतीके आगे या जगतीके बराबर देव प्रासादके आगेका बलाणक का नाम " वामन" कहा है।
२ राजप्रासादके आगेका बलाणकको “विमान" एवं उत्तुङ्ग भी कहते है। उत्तुङ्ग पांच या सात या नौ भूमि मंजिलका होता है । नव भूमि से ज्यादा उदय करना नहीं ।
३ सामान्य घरोंके भवनके आगेका बलाणक “डेहली" को "हर्म्यशाल" कहते हैं । वह मूल भवनका उदयसे नीचा रखना ।
४ नगरके द्वार-दरवाजे परका बलाणकको गोपुर नामक जानना । उसकी गोंपुर जैसी आकृति करनी । रखना। यदि ऊंचा होवे तो वेध दोष जानना । द्रविड प्रदेशमें मूल प्रासादसे द्वारपरका गोपुरम् बहुत ऊंचा करते हैं । यह प्रथा पुरानी नहि है। विजय नगर राज्यकी उन्नति कालसे चारसो पांचसो साल से द्वारपरका गोपुर ऊचा करनेका एवं परिघका दो तीन पांच किल्ला करना ।
मंडपके उपर वितान (गुम्बज) अर्थात् आकाश या उपरकी चंदनी आच्छादित
Page #146
--------------------------------------------------------------------------
________________
घण्टिका
धामका
E
७ पुष्पिका नाम संवर्धा (७) अपिटका ५८ १६.सिंह.. भागल.
· अमाशय.ओ.स्थयति.
Page #147
--------------------------------------------------------------------------
________________
87
* Prasad Manjari *
८७
-
कसासम
ROS.
नाना
५ जलाशयके बीच या आगे सीढियांके पहले बनाये हुए बलाणकका नाम पुष्कर जानना ।
इसी रीतसे बलाणकका लक्षण स्थान मान देखके भूमि मंजिल करना । १५४, ५५ ___अथ संवरणा-३२प्रासादके मंडप पर विशेष करके संवरणा (शामरण) हो । उसके पचीश प्रकार कहे हैं । इनके नाम घंटा कूट आदिकी संख्याके साथ शिल्प ग्रंथोमें अलग दिये हुए हैं। वे पांच घंटा से लेकर चार चार घंटाको वृद्धि करते हुए १०१ घंटे तक पञ्चीश नाम 'संवरणा'का कहा है। प्रथम आठ भाग
तलसे शुरु होती है । १५६,५७. शिवलिङ्ग-प्रासादके मानके अनुसार पाषाणका घटित लिङ्ग-राजलिङ्ग शास्त्र में कथित विधिसे बनाना । परंतु स्वयंभूलिङ्ग बाणलिङ्ग, अथवा रत्नके लिङ्ग प्रासाद प्रमाणसे न्युनाघिक छोटा था बडा हो तो उसका दोष कहा नहीं है । प्रासादकी जगती से तीन चार एवं पंचगुणा ऐसे तीन विधिसे देवपुर प्रासाद बनाना । १५७,५८ ____ अथ भिन्नादिदोष-ब्रह्मा विष्णु शिव एवं सूर्यके प्रासादमें यदि मकडी आदिके जाले हो तो उसका भिन्नदोष लगता नहीं है। परंतु दूसरे देवो यथा गणेश, गौरी और जिनके प्रासादमें जो ऐसा हुआ तो वहां भिन्नदोष लगता है। लिङ्ग या
३२ संवरणाकी शास्त्रोक्त प्रथा लगभग दो सोक वर्षसे विस्मृत हुई हो ऐसा लगता है। संवरणा के मुख्य अङ्गो के थरो में घंटा, कूट, छायको उद्गम, उरुघंटा, मूलघंटा और सिंह उरुघंटा शिखरके ऊरुशृङ्ग रुप है। अपराजित दीपाव ज्ञानरत्नकोशमें संवरणा विषय दिये गये हैं । संवरणा के अपभ्रंश शामरण हुआ। वर्तमान में बनती संवरणा अकीला घंटाका थरोकी होती है कूट छाद्यकी या उद्गम नहीं होती।
DAMKCI
TEDIN
राजसंनका
Page #148
--------------------------------------------------------------------------
________________
* प्रासादमसरी *
४२a
॥ सय कणिक अतर को सासका काम
२ पीठिका सिंहासन उदय भाग ३०
|3/२ २
प्रभाकर और यति
३
मुखलिङ्ग के प्रासादमें भिन्नदोष लगता नहीं परंतु दोष कहा हो या न कहा हो तो भी प्रासादमें स्वच्छता रखनी चाहिये । १५९
कहे हुए मान प्रमाणसे अधिक लम्बा चौडा अल्प या वक्र टेढा जो प्रासादमें होवे छंद भेद या जातिभेद या मान हीन होवे तो यह महान दोषका
नाकाडगा उत्पादक है। १६०
K..--भाग-.. __ अथ प्रतिमामान-१ गर्भगृहके द्वारको ऊंचाईके नौ भाग करके उनमें से उपरका भाग तज कर शेष आठ भागो के तीन भाग करके दो भागोकी खडी प्रतिमा और शेष एक भागकी पीठिका (सिंहासन) बनवाना । १६१
Vaat.ओ.यल. २ प्रतिमाका दुसरा प्रमाण-देवगृहके द्वारकी ऊंचाईके ३२ भाग करके जिनमें से चौदाह पंद्राह एवं सोला भागकी खडी प्रतिमाका प्रमाण जानना । और चौदाह तेराह एवं बाराह भाग की बैठी प्रतिमा का प्रमाण जानना १६२
प्रासादके चोरस क्षेत्रके दश भाग करके दो दो भागकी दीवारोंकी मोटाई जाननी। शेष छ भागका गर्भगृह जानना ! १६३ । उस गर्भगृहके तीसरे भागकी प्रतिमा का ज्येष्ठमान जानना। दसवां भाग कम करनेसे मध्यमान और पांचया भाग हीन करनेसे कनिष्ठ मान प्रतिमाका जानना ३३ १६४ (ये प्रतिपाका तीसरा मान)
३३ प्रतिमा प्रमाणका चोथामान-प्रासादके दो कर्ण तक का मापका चौथे भागकी प्रतिमा का प्रमाण जानना । शेषशायी-सुप्त प्रतिमाका प्रमाण कहते है । गर्भगृह के सात भाग करके उनमेंसे पांच भागकी शयन प्रतिमा लम्बी करनी । प्रतिमाका पांचवाँ प्रमाण-एक से पांच हाथ तक के प्रासादके लिये प्रत्येक गज छ छ
आंगुल, छ से दश हाथ तक के प्रत्येक हस्ते तीन तीन आंगुल, ११ से ५० तक के प्रासादके लिये प्रत्येक हाथ एकक आंगुलकी वृद्धि करने से बैठी प्रतिमाका मान समजना। छठ्ठा प्रमाण खडी प्रतिमाका ११ आंगुल से एक हाथ के प्रासादके लिये ११ आंगुलकी खडी प्रतिमा चार हाथ तक प्रत्येक गज दश दश आँगुलकी वृद्धि
Page #149
--------------------------------------------------------------------------
________________
89
* Prasad Manjari - ___ अथ प्रतिमा दृष्टिमान३४-गर्भगृहके द्वारकी ऊचाईके आठ भाग करके उपरका भाग छोडकर सातवे भागके फिर आठ भाग करके उसके सातवे भाग पर देवद्रष्टि वृषाय-सिंहाय या ध्वजाय पर रखना शुभ है। १६५
उपरोक्त आठ भागो में से छटे भागके आठ भाग करके उनमें से पांचवें भाग पर लक्ष्मीनारायणकी द्रष्टि रखनीः शेषशायीन भगवान और मुखलिङ्गकी द्रष्टि द्वारके अर्धभाग पर रखनी । परंतु द्वारके नीचेका अर्ध भागका उल्लंघन करके (शिवलिङ्ग सिवाय) द्रष्टि न रखनी ।
देवता पद स्थापन- ३५गर्भगृहके पृष्ठ पाट-भारवटके नीचे यक्ष भूतादिकी करनी । ५ से १० हाथ तक के प्रासादके लिये प्रत्येक हाथ दो दो आंगुलकी वृद्धि करनी ११ से ५० हाथ तक के प्रासादके लिये प्रत्येक गज-हाथ एकैक अंगुळकी वृद्धि करनी यह उत्तम मान कहलाता है । __ ३४ देवता द्रष्टि संबंधमें विभिन्न ग्रंथोमें मत मतांतर कहे हुए हैं। यहाँ दिये हुए द्रष्टि विभाग में वृष, सिंह और ध्वज आय देनेका विधान है। ऐसा सू० मंडनका भी कथन है । इन दोनों भाईयों का मत, विश्वकर्मा प्रणीत ग्रंथो
और अन्य कोइ भी प्राचिन ग्रंथोमें आय प्रमाण विषयक नहीं दिया गया है। एक पुराने ग्रंथ में गजांश शब्दका प्रयोग कीया हे किन्तु इसका अर्थ सातवाँ भागके बदलेमें कहा है नहीं के आय के हिसाबसे । ___ शिल्पि वर्ग तो विभागसे जहां द्रष्टि सूत्र बताया हो वहीं पर बराबर चक्षुकी पुतलीका गर्भका मिलान करता है। अब कितनेक जैन विद्वान द्रष्टि सूत्रमें आय मेलका आग्रह रखते है। ___ अपराजित सूत्र, क्षीराणव, दीपार्णव, समराङ्गण सूत्रधार, ठक्करफेरु वास्तुसार आचार्य वसुनंदी कृत प्रतिष्ठासार-ये सभी ग्रंथकार द्रष्टि सूत्र में एक मत नही है। बहुत अंतर है। इसी प्रकार प्रतिमा स्थापन पद विभाग विषयमें भी यही बात है।
दृष्टि सूत्रके आये हुए मान से आयका मेल बिठाते हुए दृष्टि नीची रखनी पड़ती है। यह प्रश्न बड़ा विवादास्पद है। ऐसा हम मानते हैं। ‘देवता मूर्ति प्रकरण' और 'ज्ञान रत्नकोश' ग्रंथमें द्रष्टि विषयमें विभिन्न मत है। इस सम्बन्ध में बहुत विस्तार से दिपार्णव ग्रंथके अनुवाद प्रकाशन में कोष्टकादि से स्पष्टिकरण किया गया है।
३५ देवता पद स्थापन विभागमें भिन्न भिन्न मत है। क्षीरार्णव, दीपाव, अपराजित सूत्र, ज्ञान रत्नकोश ग्रंथोमें गर्भगृहके २८ भाग करके अमुक विभागमें अमुक देव स्थापन करनेका कहते है -देवता मूर्ति प्रकरणम् और समराङ्गण
Page #150
--------------------------------------------------------------------------
________________
* प्रासादमञ्जरी *
प्रतिमा स्थापित करनी । पाटडे-भारवटके आगे सभी देवताओंकी स्थापना करनी । उनसे भी आगे विष्णु एवं उनसे भी आगे ब्रह्माकी स्थापना करनी । गर्भगृहके मध्य में शिवलिङ्गकी स्थापना करनी । १६७
९०
90
अथ प्रतिष्ठा मुहूर्त -- पूर्वोक्त (श्लोक २७ में ) कहा हुआ सप्त पुण्याह दिन और प्रतिष्ठा करने से सर्वसिद्धि प्राप्त होती है । सूर्य उत्तरायणमें हो उस समय प्रासादकी प्रतिष्ठा करनी शुभ है । १६८
प्रतिष्ठा के शुभ नक्षत्र - तीन उत्तरा : उत्तराषाढा, उत्तरा फाल्गुनी, उत्तरा भाद्रपद, मूल, आर्द्रा, पूनर्वसु, पुष्य, हस्त, मृगशीर्ष, स्वाति, रोहिणी, श्रवण और अनुराधा इतने नक्षत्रोंको प्रतिष्ठा कार्य में शुभ जानना । १६९
वर्जनीय -- रिक्तातिथि, मंगलवार, नक्षत्रवेध नेष्टग्रह, दग्धातिथि, अपयोग, गंडात योग चर राशि और उपग्रह ये सर्व प्रतिष्ठादि शुभ कार्यमें त्याज्य हैं । १७०
शुभदिन शुभ मुहूर्त में शुभ ग्रह लग्नमें सौम्य ग्रह देखकर राज्याभिषेक देवप्रतिष्ठा और गृह प्रवेश कराना शुभ है । १७१
प्रतिष्ठामंडप -- प्रासाद के आगे या ईशान या उत्तर दिशा में प्रासादसे तीन पांच सात नौ ग्यारह या तेरह हाथकी दूरी पर प्रतिष्ठाके यज्ञमंडपका निर्माण करना । १७२ यह मंडप आठ दश बारह या सोलह हाथ तकके प्रमाणका समचतुरस करना | कुंडोकी अधिकता के कारण सोल हाथसे भी अधिक प्रमाणका सूत्रधार में ४९ विभाग गर्भगृहके कहते हैं और भी मत दिया है । सूत्रधार वीरपाल विरचित प्रासाद तिलक में और सूत्रधार राजसिंह विरचित वास्तुराज ग्रंथ ये प्रासाद मञ्जरीके नाथुजीके मतका समर्थन करते हैं । प्रासाद मंडनमें सूत्रधार मंडन भी यह मत बताते हैं । दोनों भ्रातृके एकी मत है | परंतु मंडन के अन्य ग्रंथ में भिन्न मत प्रदर्शित किया है। शिव विष्णवादि देव मंदिरोंमें विधि सहित कथित विभागो में स्थापित किये गये हैं । उनके पीठे प्रदक्षिणा मार्ग प्रथानुसार रहता है । किन्तु जैन प्रतिमाको पधरानेका विधान शास्त्रोक्त विधिसे देखने में आया नहीं है। बड़े बड़े जैन प्राचिन तीर्थोंमें भी नहीं है । बावन जिनालय या चोविस जिनालयको देवकुलिकाओं में कथित भागसे पधरानेका व्यावहारिक नहीं होता । दूसरे देवोंके लिये विभागसे स्थापन हो सकता है । जिन प्रभुके लिये तो विचारणीय है । जिन प्रभु " पट्टाधो यक्षभूताद्या " सूत्र के आधारसे स्थापना होती है । अठाइश विभाग जो कहे हैं ये अन्य देवोके लीये ठीक है । कहा हुआ विभाग प्रतिमाका कर्ण गर्भ में पादुका गर्भमें अथवा बाहु गर्भमें स्थापन करनेका शास्त्र प्रमाण है ।
Page #151
--------------------------------------------------------------------------
________________
91
• Prasad Manjari *
मंडप करना । १७३ ( यज्ञ मंडप वीस गज-हाथका बनाने का विधान तुला प्रदान के विषयमें है।) तोरणोंसे सुशोभित सोलह स्तंभोके मंडपमें चारों ओर चार द्वार रखना। मंडपके मध्यमें वेदिका और पांच आठ या नव कुंड बनाना । १७४ __ यज्ञकुंडका मान-एक हाथके यज्ञकुंडके तीन मेखलाएं और योनि बनानी । आगम एवं वेद-मंत्रसें विधिपूर्वक देवताओं को आमंत्रित करके यज्ञ होम करना । १७५ दशहजार आहुतियों के लिये एक हाथका, पचास हजार आहुतिओं के लिये दो हाथका, एक लाख आहुति के लिये तीन हाथका । दश लाखके लिये चार हाथका, त्रीश लाखके लिये पांच हाथका, पचास लाखके लिये छ हाथका, एसी लाखके लिये सात हाथका, एक करोड आहुतियों के लिये आठ हाधका यज्ञझुंड बनानेके प्रमाण है । १७६-७७ ग्रह पूजा आदि विवान के लिये एक हाथका बुंड बनाना । उसके चार तीन एवं दो अंगुलकी तीन मेखला अनुक्रम से करनी । १७८
वेदी उपर एक दो या तीन हाथका मंडल भरना । ब्रह्मा विष्णु एवं सूर्य के लिये सर्वतोभद्र मंडल भरना । १७९
सर्व देवताओंकी प्रतिष्ठामें भद्रं नामक मंडल भरना । तथा नव नाभि बाला लिङ्गोद्भव मंडल भरना । शिवप्रतिष्ठा में लिङ्गोद्भव तथा लतो लिङ्गोद्भव नामक मंडल भरना । १८० सर्व देवीओंकी पूजा प्रतिष्ठामें भद्र मंडल तथा गौरी तिलक नामका मंडल भरना । तालाब की प्रतिष्ठा में अर्धचंद्र मंडल धनुष्याकार भरना । १८१
स्थपति पूजन-विधिपूर्वक देव पतिष्ठा यज्ञयागादि करके सूत्रधार प्रमुख स्थपतिकी सन्मान पूर्वक पूजा करके भूमि, उत्तम प्रकार के वस्त्र, सुवर्ण रत्नादि के आभूषण द्रव्य, गौएँ, दास दासियां, गृह, घोडे आदि वाहन देकर संतुष्ट करना । अन्य काय कर्ता शिल्पिओं का भी योग्य रीतिसे पूजन करके अपनी अपनी योग्यता के अनुसार उन्हें वस्त्र भोजन ताम्बुल आदिसे सन्मान करना । १८२-८३ तत्पश्चात् यजमान अर्थात् गृहपतिको मुख्य स्थपति से इस प्रकार प्रार्थना करनी चाहिये कि -“हे स्थपते हमारा पुण्य प्रासाद पूर्ण हुआ।" इसके उत्तरमें स्थपति को कहना चाहिये कि-" हे स्वामिन् . आपका कार्य अक्षय हो ।” ५८४ ___ गुरु मार्ग-देव प्रासाद या राज प्रासाद वा अन्य भवनके निर्माण के लिये सर्व प्रकारका शिल्पज्ञान उसके लक्ष (ध्येय) एवं लक्षणोंका अभ्यास गुरु मार्गका अनुसरण करने से प्राप्त होता है। (गुरु शिक्षासे शिल्पके सर्व ज्ञान की प्राप्ति होती है। ) १८५
Page #152
--------------------------------------------------------------------------
________________
* प्रासादमञ्जरी *
शिल्पशास्त्र अनेक है- एक शास्त्र के अभ्याससे सभी गुणोंका विकास नहीं होता है । अन्य ग्रंथोके अभ्यास के बिना कार्यकी सिद्धि नहीं होती है । इस लिये प्रकारान्तर--अन्य मतमतान्तरों का विचार कर विवेक बुद्धिसे कार्य करना चाहिये । जिस प्रकार मणिके गुण जानने के लिये किंकिणी की सहायता लेनी पडती है इसी प्रकार महान गुणवान पुरुषोंको तो बहुत ग्रंथोका अभ्यास मनन करके कार्य करना चाहिये । १८६
92
इस प्रकार शिल्प थोका संशोधन करके साररूप यह वास्तु मञ्जर्यान्तर्गत प्रासाद मञ्जरी की श्री क्षेत्र ( खेता ) सुत्रधार के पुत्र सूत्रधार श्री नाथजीने रचना की । १८७
इति श्री मेवाडाधिप पृथिवी पति राजमलजी राज्ये सूत्रधार क्षेत्रा (खेताका ) पुत्र विविध कला शास्त्रका सुधीर सोमपुरा ज्ञातिय भारद्वाज गोत्रमें उत्पन्न सूत्रधार नाथजीने वास्तुमञ्जरी के प्रासादाधिकारके दूसरा स्तबक का निर्माण किया ।
पादलीतपुर ( पालीताणा ) स्थपति प्रभाशंकर ओघडभाई शिल्प विशारद । सोमपुरा ज्ञातिय भारद्वाज गोत्रने इस प्रासाद मञ्जरी पर गुर्जर भाषान्तर कर सुप्रभ नाम्नी भाषा टीकाकी रचना की जिसका राष्ट्रभाषा हिन्दी में पुनः अनुवाद सोमपुरा भारतेन्दुने किया ।
Page #153
--------------------------------------------------------------------------
________________
विविध ग्रंथोके मतानुसार देवद्रष्टि स्थान दर्शक कोष्टक दीपाण वास्तुविधा
प्रतिष्ठामार
वास्तुसार ठकुर क्षीरार्णव
दी. वसुनदी ३२ .
प्रासादम इन प्रासादमअरी
मनसतान-अपराजित - - - - - - - ---
६३ वैसाल
६१ भैरव
। । । ।
mmm
८९ अंडी
२९ भैरव चडिका
९ छत्र चामर
घर देवा
ब्रह्मा-विष्णु -सूर्य, जिन
२७ ब्रह्मा विष्णु रुद्र
। । । । ।
८चडिका
५७ अघोररुद्र
धमा, विष्णु, रुद्र ५३ हरसिद्धि ५१ पद्मासन त्रिमूर्ति ४९ गणेश-सरस्वती ४७ धाता (प्रया) ४५ लक्ष्मीनारायण ४३ ऋषिमुभि
२६ मानवच द्र २५ कुबेर
-----→ सातवा भागका नव विभाग -उपरका दो भाग त्याग--->
करके सातवा भागे जिनद्रष्टि
२४ सरस्वती गणेश
-जितप्रभू
-७ शासन देव - देवी यक्ष
यक्षाणि
-लक्ष्मीनारायण
४१ प्रयुग्म
।।। 1 । । । । ।
जनप्रभु
२२ ० २१ लक्ष्मी जिन २० दुर्गा ऋषिमुनि
अमयुग्म बुद्ध चित्रलेप उमा रुद्र विष्णु लक्ष्मी ब्रह्मासावित्री
३९ बुध
सातवां भागका दश भाग करके सातवां भाग जिनद्रष्टि
सार मत द्वारोदय नव विभाग सातवां भागका नौ भाग करके सातवा विभागे जिन
सूत्रसंतान अपराजित ६४ विभाग द्वारोदय
। । । । । । । । । ।
-६ चित्रलेप
प्रतिमा
छठा भाग मे माठ भाग करके पांचवा--सातवां भागका आठ विभाग करके सात भाग
भानप्रकाश दीपार्णव वास्तुविद्या द्वारोदय ३२ विभाग
३७ उमारुद्र ३२ शृंग वहार ३३ यक्ष ३१ मातर २९ गरुड २७ जलशायिन विष्णु २५ शेषनाग
४ शेषाशायी
यक्षराज
----
५ वराह
१४ मातृदेयी
ग त्याग
nit
४ लक्ष्मी
नारायम
Page #154
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूत्रस तान अपराजित ६४ विभाग द्वारोदय
४३ ऋषिमुनि
४१ ब्रह्मयुग्म
३९ बुध ३७ उमारुद्र
३५ भृंग बहार
३३ यक्ष
३१ मार
२९ गरुड
२७ अलशायिन विष्णु
२५. शेषनाग
२३ व्यक्त
२१ व्यक्ताव्यक्त
१९ अव्यक्त
१७ १५.
mr ow
-शिवलिङ्ग स्वरुप तत्त्वो
ज्ञानप्रकाश दीपार्णव वास्तुविद्या द्वारोदय ३२ विभाग
રર
२१ लक्ष्मी जिन
२० दुर्गा ऋषिमुनि ब्रह्मयुग्म १९ बुद्ध चित्रलेप
१८ उमा रुद्र विष्णु लक्ष्मी ब्रह्मा सावित्री
१७
१६ यक्षराज
१५
१४ मातृदेवी
१३
१२ शेषशायिन
૨
१०
८
177
•
D
०
O
-शिवलिङ्ग
1000000
farara सुदिप्रतिष्ठासार मत द्वारोदय नव विभाग सातवां भागका नौ भाग कर
J
20
४
m
→ सातवा भागक करके सातवा
--
-निम्न छ भाग त्याग
---------
सातवा भागका दश भाग करके सातवां भाग जिनद्रि
ठक्कुर फेर वास्तुसार मत बारोदय दस भाग
।।।।।।।
देवी यक्ष यक्षाणि
जिनप्रभु
-६ चित्रप पतिम
५ बराह
४ लक्ष्मी
नारायण
३ शेषशायी
२ शिव-शक्ति
१ शिवलिङ्ग
|-लक्ष्मीनारायण
छट्टा भाग में आठ भाग करके पांचवा - सातवा भागका आठ
प्रासाद मंडन मत द्वारोदय आठ भाग
7121 19
४ शेषाशायी
२ शिवलिङ्ग
Page #155
--------------------------------------------------------------------------
________________
गर्भ गृहाय का २८ भाग करके देवता पद स्थापन ज्ञानप्रकाश, दीपार्णव, श्रीगणव, मूत्रसतान
शिला गर्भगृहके मध्य गर्भ
३ नकुलीश १२ सर्व ४ सावित्री
ग्राम, मह्मा लक्ष्मी २ हेमगम, शालि१२ अग्नि ६ कार्तिकस्वामि ५ रुद्र अर्धनारिश्वर ण्यगर्भ मिश्रयुग्म
सरस्वती हिर७ ब्रह्मा स्माभित्री शिव,शेषाशायी ८ दशावतार उमा मारप-वराह
के उासन १० विश्वरुप, उमा ९ विष्णु पनासन १३ दुर्गा सक्षमी
वितराग १४ गणेश, लक्ष्मी
सवदेवी १६ मातृका, लक्ष्मी १७ गादेखो
१८ भैरव १९ क्षेत्रपाल
गर्भगृहाध का दश भाग करके देखना
शिव लिङ्ग मध्य गमे गर्भ गृहना
८ विष्णु
७ चडी
गर्भगृहाधका दश भाग करके देवता र
गर्भ शिवलिङ्ग गर्भगृहमा मध्य
। १ ब्रक्षा
२ हरउमा
उमादेवी
--------....-.--
..---
----
-
अग्नि पुराणके मत से गर्भ गृहका छ भाग करके पीछेका १ भाग त्याग करके बाकी (गर्भसे दो भाग) पांच भाग
आठ भाग करके पीछेका १ भाग त्याग करके बाकी सात भाग (गर्भ से तीन भाग)में सर्ट
गर्भगृहाध का पान भाग करके देवता पद स्थापन विभाग ठक्कुर फेर
गर्भ शिवलिङ्ग गर्भगृहका मध्य
४ ब्रह्मा
कार्तिकस्वामी
३ जिन कृष्ण
मध्य लिङ्ग गर्भगृहका
___ गर्म गृहाध का ४९ भाग करके देवता पद स्थापन विभाग-१६ मि. देवता मूर्ति ..।।।।।।।।।।। ।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।। नव विभाग ब्रह्मांश ब्रह्मा विष्णु स्थापन +९६ विमाग मानुशाशमे सर्व देव स्थानए→ ८.२४ विभाग पिशा
१९ विभागमें से ___गर्भगृहाधना पीडल्ला पाट बीमकी नीचे यश्न भूतादि आगे सर्व देव विष्णु ब्रह्मा
मध्ये शिवलिङ्ग
<--ब्रह्मा विष्णु-~~-
।
Page #156
--------------------------------------------------------------------------
________________
दस्थापन ज्ञानप्रकाश, दीपाव, श्रीगणत्र, सूत्रस तान अपराजित - ज्ञानरत्रकोश ग्रंथोका मत.
गर्भगृहकी पोछली दीवाल
२८
२७ भूत
२६ पिशात्र
२५ राक्षस
२४ दैत्य
२३ अघोर
२२ मृगघोर
२१ हनुमत
२० यक्ष राज
१९
क्षेत्रपाल
१८ भैरव
१७ गणदेवो
१६ मातृका, लक्ष्मी सर्व देवी
६५ ग्रह
१४ गणेश, लक्ष्मी चितराम ६३ दुर्गा लक्ष्मी
१२ सूर्य
१९ अग्नि
70
विश्वरूप, उमा,
देवता पद स्थापन विभागः पृथक पृथक ग्रंथोका मतमतांतर दर्शक कोष्टक
गर्भगृहनी
गर्भगृह की पीछली दीवाल
पीछली दीवाल
गर्भगृहाका दश भाग करके देवता पर स्थापन विभाग समराङ्गण सुत्रधार ग्रंथाधार
१ पिशाच
२ राक्षस
३ दैत्य
४ गांधर्ष
५ यक्ष
६ सुर्य
७ चंडी
८ विष्णु
९ ब्रह्मा
१०
ग्रहना
मध्य गमे शिव लिङ्ग
गर्भगृहाका दश भाग करके देवता पद स्थापन विभाग वास्तुराज, वास्तुमंजरी. ग्रंथाधार
गर्भगृहनी पीछली दीवाल
१० दानव राक्षस
मह मातृका
९ गंध यक्ष क्षेत्रपाल दानव
८ गणेश मातृ
9
५ वुद्ध
४ सुर्य
३ उमादेवी
२ हरउमा
१ ब्रह्मा
गर्भग्रहना मध्य गर्भे शिवलिङ्ग
(गर्भसे दो भाग) पांच भाग में सर्वदेवो की स्थापना करनी अथवा गर्भगृहका
बाकी त्याग करके बाकी सात भाग (गर्भ से तीन भाग) में सर्व देवोकी स्थापना करनी ।
करके
त्याग
का १ भाग
पांच भाग करके देवता पदस्थापन विभाग शक्कुर फेरु वास्तुसार, विवेकविलास बडायाप्रामादतिलक ग्रंथाधार
१ यक्ष गंधर्व क्षेत्रपाल
२ देवीओ
३ जिन कृष्ण सुर्य कार्तिकस्वामी
30
करके देवता पदस्थापन विभाग- १६ वि. देवता मूर्ति प्रकरणम तथा मयमतम् ग्रंथाधार २४ विभाग
│ །
।।।।
QONUNC
पोछली दीवाल पाट बीमकी नीचे यक्षभूना
A
भाग मानुशाश सर्व देव स्थान २४ विभाग पिशाच अंशमेमातर यक्ष गंध राक्षस भूत स्थापन ४९ विभाग से
पाट बीमकी नीचे यक्ष भूतादि आगे सर्व देव विष्णु ब्रह्मा तथा बीचमें शिवलिङ्ग प्रासाद मंडन
-सर्व देवदेवीयां
- ब्रह्मा विष्णु
Page #157
--------------------------------------------------------------------------
________________
कूर्मशिला
एक हस्तः गजसे पचास गज तकके प्रासादका कूर्मशिला, जगती भीट, पीठ, उदयमान, द्वारमान,
स्तंभमान, खडी, बेठी प्रतिमाके प्रमाणका कोष्टक जगती प्रमाण भीट्टमान पीठमान प्रासादोदय द्वारमान
प्रतिमा मान मान
olblb
दीपाव
प्रा० म.
दापाणव
स्तंभ बेटी खडी पृथुमान प्रतिमा प्रतिमा
आंगुल आंगुल हाथ आं. ग. आ. आंगुल
आं.
ग. आं. ग. आं.
ग. आं. ग. आं.
आंगुल
ग. आं.
ग. ऑ.
down 39
१ गज ॥ ओ. ४ १ गज ०-१२ ४ ४ -१२ १-० ०-१६ ०-१६ गज १ आं. ६१-१२ १- ०४॥५०-१७ २-
०१- ८१-
८ गज ॥ आं. ९२- ०१-१२ ५६ --२२ ३-
०२-
०२-० ४ गज २ आं. १२ २--१२ २-
० ५ || ७ १-३ ४-० २-१६ २-१६ २॥ आं. १२।।। ३-० २-१२ ६ ८ १-८ ५- २-२० २-१९ ६ गज ३ आं. १३॥ ३-१२ ३-
० ६ ॥ ८॥ १-१२ ५-१२ ३-० २-२२ ७ गज ३॥ आं. १४॥ ४-
० ३ -१२ ७ ९|| १-१६ ६-० ३-४ ३-१ ८ गज ४ आं. १५ ४-१२ ४-
० ७ ॥ १०॥ १-२० ६-१२ ३८ ३-४ ९ गज ४॥ आं. १५॥ ५- ० ४ -१२ ८ ११ २-० ७-
० ३ -१२ ३-६ १० गज ५ आं. १६॥ ५-१२ ५-गज ८ll. ११॥ २-४ ७-१२ ३-१६ ३-८ २० गज | आं. २२ ९-
४ ८ -१६ १३॥ १६॥ ३-१० १२-५ ४-२२ ४-४ ३० गज ११॥ आं. २५॥ १२-
० १ १-० १८॥ १९॥ ४-४ १६-१० ५-१८ ५-० ४० गज १२॥ आं. २७॥१४-१२ १३--० .२३॥ २१॥ ४-२२ २०-१४ ६-
४ ५ -२० ५० गज १४ आं. २८।। १७ गज १५-० २८॥ २४॥ ५-८ २४-२८ ६-१४ ६-१६
४ ० -
६ ७८ -१२
-१८ १२०--२४ १३॥ १-३ १५ १.६ १६॥ १-९ १८ १.-१२ १९॥ १-१५
० -११
-२१ ०-३१
--४१ १.-१७ १--२१ ५-२३ २..१ २-३
३२।। ४२
२-४ २.-१४
२--१५ ३-१
Page #158
--------------------------------------------------------------------------
________________ पंचायतन देवोकी देवकुलीका स्थान / नैऋत्य ईशान হিৰ आयतन सूर्यायतन गणेशायतन वैष्णवायतन चंड्यायतन शिवायतन अग्नि गणेश चंडी गणेश शिव वायव्य चंडी কিন্তু चंडी विष्णु शिव शिव गणेश गणेश सूर्य विष्णु विष्णु गौरी चंड्यायतन गणेश पैच आयतन शिव वि 1 . PURI विष्णु सूर्यायतन चंडी शिव गणेश विष्णु सूर्य वैष्णवायतन चंडी L शिवायतन विष्णु THE PANCHAYATAN गौरी गणेश सूर्य