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और सरस्वती देवीकी कृपासे ये भेद स्वयम् समजने में आते रहे और अनके पाठके प्रत्यक्ष प्रमाण मिलते रहे । जिससे मेरा मन मयूर नाच अठता । मेरे अन प्रयत्नों का प्रयोग श्री सोमनाथके भ्रमयुक्त सांधार महा प्रासादके निर्माण में सफल करनेका मौका मिला। यह आकस्मिक ही हुआ । किसी भी विद्याकी साधना किसी भी समय पर जल्द या देरी से सफल होती ही है ।
शिल्पग्रंथों के प्रकाशनकी अपनी महेच्छा मैंने दीपार्णवसे शुरू की । और पाँचेक पुस्तकों की प्रेस कापी अपने पास है - जिनको क्रमशः यथाशक्ति प्रकाशन करनेकी अपनी अिच्छा है । दीपार्णव के प्रकाशनमें खर्च ज्यादा हुआ यद्यपि राष्ट्रपतिजीने मुझे ४००० रुपयांका पारितोषिक दिया था। जिसके बाद प्रासादमञ्जरी प्रकाशित करनेका अपना और प्रयत्न है जिसे शिल्पज्ञ और कलारसिक विद्वान अपनायेगे जैसी आशा रखता हूँ ।
प्राचीन विद्याथोंका संशोधन अक बात है और संशोधनके साथ अनका अनुवाद करना यह तो जिससे ही कठिन बात है | अनुवादके साथ मर्म तो सिर्फ स कलाके परंपरागत वारिस ही समझते हैं अगर केवल अनुवाद म और रेखाचित्र विहीन हो तो असकी कीमत ही नहीं । भाषानुवाद के साथ प्रत्येक अंगकी टीका, अन्य प्रधोंके मतभेदों की नींव भी देना जरूरी है । विषयोंका मर्म समझने के लिये अनके नीचे फूटनोट देकर समझाने की कोशिश की है । कोठे, नक्शे, चित्र देकर विषयको बराबर समझानेकी भरसक कोशिश की है । क्रियात्मक ( प्रेक्टीकल ) ज्ञान के मर्म देने से ग्रंथ संपूर्ण होता है। ग्रंथ के मूल पाठों के साथ गुजराती, हिन्दी और अंग्रेजी आवृत्तियोंका प्रकाशन करके देश और विदेशमें रसज्ञ विद्वान वर्ग उसकी कदर करेंगे जैसी आशा है ।
किसी भी विषयमें मतमतांतर तो होते ही हैं । मूलपाठका अर्थ बिटाने में मतभेद हो सकता है । कभी बार मूलपाठ और क्रियामें भिन्नता होने से असा होता है । किन्तु विद्वान कभी दुराग्रह नहीं रखते । क्रियाका अलग अर्थ बिठाकर कोभी कार्य हुआ हो तो वह गलत है जैसा नहीं कहा जा सकता ।
क्षमायाचना
afrat जिह्वामें और शिल्पिके हाथमें सरस्वती का वास है । जिससे शिल्पिकी वाणी या कलममें कोओ त्रुटी या गलती हो तो जिसके प्रति दुर्लक्ष करना असी मिन्नत है । अशुद्धि की ओर उपेक्षा करके ग्रंथका मूल अर्थ - भाव ही ग्रहण करें और हंस रस वृत्तिको करें यही आशा है ।