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________________ बाद, अनके सक्रिय ज्ञान आलेखन (डॉअिंग ) भी करता । जहाँ वडिलांकी सहाय जरुरी लगती वहाँ पहुँच जाता । सबसे छोटा होने के कारण कुल परंपराकी यह विद्या चालू रहेगी अिस हिसाबसे सुनको भी संतोष होता ।। शिल्प शास्त्रके संस्कृत ग्रंथ लोक भोग्य भाषामें अनूदित हो तो सामान्य शिल्पि वर्ग असका लाभ झुठा सके औसी तमन्ना दिलमें होती थी। शिल्पका सक्रिय ज्ञान गुरुजनों द्वारा दिनको काम पर मिलता ही था और रातको अनुवाद करने की कोशिश करता । शुरू शुरू में तो यह कठिन लगा किन्तु दृढ़ संकल्प बल साथ था। कभी कभी तो रात को दो तीन बजे तक बैठता । निष्ठाके साथ जंब कामके पीछे पड़ जाते है तो कठिन विषयोंके प्रश्न आपही हल हो जाते है । विश्वकर्मा और सरस्वतीकी प्रार्थना की कि अपनी बानी बुद्धि और लेखनीमें बल सींचे ।। ई. स. १९१७ में प्रासाद मंडन ग्रंथका अनुवाद शुरू किया । कठिनाश्री तो बहुत ही । शब्दोंका भाषा और क्रियामें मेल बैठे तभी यह अपयोगी हो सकता है जैसी मानसिक मुश्किलें पैदा होती थी । अिसमें पुरखोंने किये हुआ आलेख भी कभी मददगार होते । अिस तरह अनुवादकी गाडी प्रगति करती गयी । ई. स. १९२४ से २९ के समयके वर्षों में आरासण कुभारीयाजीकी स्थिरता और शान्ति के कालमें मेरे अनुवाद कार्यमें जोश मिला । श्रीरार्णव, दीपार्णव जैसे दुष्कर ग्रंथों का संशोधन कार्य यथा शक्ति पूर्ण किया। जिसके बाद रूपमंडन, प्रासादमञ्जरी, वास्तुसार और जिनप्रासाद के अनुवाद किये । संस्कृत भाषणका अपना मर्यादित झाम होने से अिन सर्व साहित्यांकी टीप पेन्सीलसे करता । दरमियान कुटुम्बकी आर्थिक स्थिति सुधरती चली । शिल्प प्रथोंमें अनगिनत अशुद्धियाँ पायी जाती है। अमुक शब्दों के मूल, झुनकी व्याकरण शुद्धि यह काम विद्वानों के लिये भी दुष्कर है क्योंकि पारिभाषिक शब्दोकी सूझ बड़ों बड़ों के लिये भी कठिन है । ई. स. १९३० से छ सालों के मेरे कदमगिरिके वास दरम्यान अिन सर्व अनुवादेको-कि जो मैने पेनसिलसे किये थे-पक्का कितावेमें सुधारकर लिख लिये । जिसमें वृक्षार्णव जैसे अमूल्य ग्रंथकी घृद्धि हुी । तेरहवीं सदी के बाद सांधार प्रोसाद जैसे महाप्रासाद बँधाते नहीं । अिनके प्रमाण और यमनियम बिलकुल जूदा होनेसे हमारे शिल्पि वर्ग अिनको भूल गये थे । किन्तु क्षीराणव, दीपार्णव और वृक्षार्णय ग्रंथों में अिनके विशद वर्णन हैं जिससे प्रारंभमें अिनको समजने में बहुत दिक्कते' हुआ । परंतु पुरखांके पुराने नक्शे (स्केच) और जैसे क्रमांक प्रत्यक्ष अवलोकन के बाद श्री विश्वकर्मा
SR No.008427
Book TitlePrasad Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhashankar Oghadbhai Sompura
PublisherBalwantrai Sompura
Publication Year1965
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size5 MB
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