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मूल ग्रंथ वास्तुमञ्जरीमें तीन स्तबकों में से प्रथम स्तबक गणित, ज्योतिष, नगर, जलाशय, सामान्य गृह, राजगृह, किल्ला वगेरे विषयका है। दूसरा स्तबक -प्रासादमञ्जरी,-प्रासाद विषयका है। तीसरा प्रकरण मूर्ति विधानका है। कुभाराणा के बाद महाराणा रायमल्लजीने विक्रम संवत १५३० से ६६ तक राज्य किया और अनके समयमें नाथजीने वास्तुमञ्जरी ग्रंथकी रचना की।
प्रासाद मंडन के कितनेक श्लोक मंडनने रचे हुओ प्रासाद मंडनसे मिलते जुलते हैं । अमुकको काट छाँट करके नयी रचना की है । मंडनने भी विश्वकर्मा प्रणीत ग्रंथों में से अपने ग्रंथमें लिया हो असा महसूस होता है । और यह म्वाभाविक भी है । पूर्वाचार्योका कहा हुआ भूतकाल के आचार्य दुहराते हैं ।
सूत्रधार खेताके दो पुत्र मंडन और नाथजी, मंडनके दो पुत्र गोविंद और अिशन । अिशनका छिता वि. सं. १५५५ । सूत्रधार गोविंदने कला निधि, अद्धार धोरणी और द्वार दीपिका ग्रंथ लिखे । अिस ग्रंथकी पाँचेक प्रतें अपने पास हैं जिनमें ओक ओळिया (टीपणा) वि. स. १८०० का है । जिसको मेरे पूर्वज श्री नरभेराम मंगलजी जब अदेपुर गये थे तब लिख आये थे अस प्रत का आधार भी लिया है। .
निजी नांध-सामान्यतः आत्मश्लाघाके भयसे मनुष्य निजी नांध देनेमें संकुचाता है । मैं भी असा ही महसूस करता हूं, फिर भी वृद्धजन, मित्र और शुभेच्छकों का यही आग्रह रहा हैं कि जिससे जैसी नांध द्वारा जिज्ञासु पाठकों को कुछ प्रेरणा या मार्ग मिले । अतः नांध लिखने प्रोत्साहित हुआ हूँ जिसे सुज्ञ वाचक क्षमा करे।
शिल्प स्थापत्यका पेशा हमारे वंशपरंपराका व्यवसाय है । बालवयमें अंग्रेजी विद्याभ्यासकी अिच्छा थी परंतु विधिने कुछ और ही निर्माण किया था । कौटुम्बिक आर्थिक स्थिति के कारण शिल्प व्यवसायमें जुटना पडा । समय मिलने पर घरमें पुराने बडे पिटारों में से शिल्पग्रंथोकी पोटलियाँ, संग्रहकी हस्तलिखित पाथियाँ. टीपणे, नांधके कागजात, पुर्वजेने किये हुआ बाँधकाम के नक्शे-अिन सर्व मैं पढ़ता । नकल करता । दिनको काम पर जाता रातको यह पढाीका काम चलता । प्रथम तो शिल्प के प्राथमिक गणितका "आयतत्व" नामक सौएक श्लोकों का ग्रंथ मुखपाठ किया । यह “दीपाव" का प्रथम अध्याय है । जिसके बाद "केशराज” और प्रासाद मडनके चार अध्याय जबानी किया । ये सब फर्राटेसे बोल जाता ।
अिन तीन ग्रंथों की समज और गणित के अटपटे अंगोको जानकारी के