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बाद जीवती कलाके दर्शन होते हैं । पाश्चात्यों के साथ भारतीय शिल्पियोंकी तुलना करते कहना पड़ता है कि भारतीय शिल्पिका लक्ष्य अपनी कृतिमें सिर्फ भावना अतारनेका होता है जब पाश्चात्य शिल्पि ताश्यताका निरूपण- अनुकरण करते हैं । भारतीय शिल्पियोंने अपनी कृतियोंमें पृथक्करणीय भावना अँडेलनेका कठिन कार्य किया है।
भारतीय और पाश्चात्य शिल्पियोंके मूर्ति विधानका अक ही अदाहरण पर्याप्त है । अनेक कवियोंने स्त्रीकी प्रकृति-विकृति के गान गाये है। असके सौंदर्य पान करानेवाले भवभूति-कालिदास जैसे महान कवियोंने असके रूपगुण की शाश्वत गाथा गाधी है । भारतीय शिल्पियोंने स्त्री सौंदर्य को मातृत्व भावनाले प्रदर्शित किया जब पाश्चात्य शिल्पियोंने वासनाके फल स्वरूप असको कोरा है ।
भारतीय शिल्पियोंने भारतीय जीवन दर्शन और संस्कृतिको अपना सर्वोत्तम लक्ष्य माना, राष्ट्र के पवित्र स्थानों को पसंद किया, और अपना सर्वस्व जीवन बीताकर विश्रकी शिल्पकलाके अितिहासमें अद्वितीय विशाल भवन निर्माण किये जिनको देखते हम दंग रह जाते हैं । भारतीय शिल्पियोंने पहाडोंके सफेद, मुंगिया, रक्त राता, श्याम, रेतीला और चूनेदार पत्थरोंकी दीर्घकाल शिलाओंको सोडा और भूख प्यासकी परवाह किये बिना अपने धर्मकी महत्तम भावनाको राष्ट्रके चरणोंमे अर्पित किया । जनता जनार्दन और धर्मकी संस्कृतिके प्रतीक को प्रस्थापन किया । जनताने भी शंखनादसे अपने शिल्पकारांकी अक्षय कीर्तिको फैलाया । असे शिल्पियोंकी अजब स्थापत्य कलाके कारन जगतने भी भारतको अजर अमर पद पर संस्थापित किया है । असे पुण्यवान शिल्पियोंको कोटि कोटि धन्यवाद । मासाद मजरी ग्रंथ के बारेमें
यह छोटासा ग्रंथ "प्रामाद मञ्जरी" -मूलमें वास्तु मञ्जरी नामक ग्रंथ के तीन स्तबकों में से मझला प्रकरण है । पंदरहवीं शताब्दि के प्रारंभ में जब सेवाडके राणा कुंभा के बाद अनके पुत्र रायमलजी गद्दी नशीन थे अस कालमें सुत्रधार खेताके पुत्र नाथजीने यह ग्रंथ लिखा है । सूत्रधार क्षेत्र यानी खेताके ज्येष्ठ पुत्र मडन महान स्थपति थे जिन्होंने शिल्पग्रथोका अद्धार किया और सातेक ग्रंथोंकी रचना की । अनके लघुबधु नाथजी अिस ग्रंथके कर्ता हैं । ये भारद्वाज गोत्र के थे । सोमपुरा के पूर्वज गुजरात पाटण के रहेनेवाले थे । महाराणा कुभाने अनको मेवाडमें बुलाया और चितौडगढ में बसाया ।