SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 13
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ यह सिद्धांत देवमंदिरके शिखग्रूप शकु आकारमें समाया हुआ है । अिसमें भारतीय शिल्प पद्धति अंडसृष्टिके सिद्धांत की विलीनताका दर्शन कराती है । शिल्प की आध्यात्मिक भावनाका यह अक स्पष्ट चिन्ह हैं । धर्मप्रवृत्तिसे ही धार्मिक स्थापत्य भारत भरमें खडे हुआ है । और अिनके द्वारा ही शिल्पि वर्गको प्रोत्साहन भी मिला है । प्राचीन कालमें शिल्पीको ब्रह्माका पुत्र मानते थे और असका पूजन होता था । अशिया खंडमें जापानमें बौद्ध धर्मका प्रचार हुआ तब अस देशकी राजमाताने बाखुशी मुनाद द्वारा अपनी अिच्छा प्रदर्शित की थी कि “अपने राज्यके नगरों या अद्यानों में शिल्पियों के टॉकों का गुंजार हमेशां सुनाता रहे"। संहिता और स्मृतिग्रंथोंमें स्थापत्य ।। असा कहा है कि चतुर्विध स्थापत्य, अष्टादश आयुर्वेद और ज्योतिष-अिन सब शास्त्रों के मूल प्रवतक ब्रह्माजी हैं । चतुर्विध स्थापत्यमें (१) पुरनिवेशादि (२) भवन निर्माणादि (३) प्रासाद वास्तुशास्त्र (४) जलाशयादि का समावेश होता है । वास्तुविद्या अथर्ववेदका अपवेद है । जिस तरह शुक्राचार्यजी कहते है अनंत विद्या और असंख्य कलाओं की गिनती नहीं हो सकती किन्तु मुख्य विद्या बत्तीस ३२ हैं और मुख्य कला चौसठ ६४ अन्होंने कही हैं । अिन विद्या और कलाओं की व्याख्या देते हुओ शुक्राचार्यजी कहते हैं यद् यत्स्याद् वाचिकं सम्यक्कम विद्याभिसंज्ञितम् । शक्तो मूकोऽपि यत्कर्तुं कलासंज्ञं तु तस्मृतम् ।। जो कार्य वाणीसे हो सके असे “विद्या" कहते हैं । और गूंगा भी जिस । कायको कर सके वह कला । शिल्प, चित्र, नृत्य आदि मूक भावसे हो सकते है । अतः अन सबको कला कहते हैं ।। ___शुक्राचार्यजीने ६४ कला कही है। जैन सूत्रों में समुद्रपालने ७२ कला गिनाी हैं । कामशास्त्रमें यशोधरने ६४ कला कही है जिन के अव्य तर भेदसे ५१२ कला दी हैं । ललित विस्तारमें ६४, कामसूत्रमें २७ और श्रीमद् भागवतमे ६४ कही है। मालाकार (माली), लोहकार (लोहार) शंखकार (शंखके आभूषण बनाने वाला ) सुवर्ण कार (सुनार), कुलिन्दर (जुलाहा), कुभकार (कुम्हार) केसकार (कसेरा), सूत्रधार और चित्रकार । अिस तरह कलाओ मे विविध हुनर का समावेश किया है। नृत्य, गीत, वादिन ये सब कलाओं हैं । महाभारतमें विश्वकर्माको हजार शिल्पिका स्रष्टा कहा है । भृगुसंहितामें महर्षि भृगुने १ धातुखंड, २ साधनखड ३ वास्तुख'ड का
SR No.008427
Book TitlePrasad Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhashankar Oghadbhai Sompura
PublisherBalwantrai Sompura
Publication Year1965
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy