SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 12
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४ दिवारोंपर पौराणिक धार्मिक प्रसंग सुंदर मूर्तिओं के साथ नराशी गयी है । अनको देखते ही जगत भरके कला रसिकों के सर भारतीय शिल्पियोंके सामने झुक जाते हैं । महाबलिपुरम्, धारापुरी, नासिक, भज, अजंदा अिलारा बिहार अडीमाकी उदयगिरि खंडगिरि इत्यादि गुफाओं दर्शनीय हैं । जहाँ शिल्पियों ने जड पत्थरको सजीव रूप दिया, और पुराण के कालका हूबहू प्रदर्शन किया, वैसे स्थानोंको देखकर गुणज्ञ प्रेक्षक शिल्प की सर्जनशक्तिको सराहते हैं । यहाँपर टाँकी के शिल्पसे या (पीछी) तूलिका के चित्रोंसे ये शिल्प अमर कृतियाँ सिरज गये हैं । अखंड पहाडमेंसे बनायी गयी इलोराके कलामंदिरकी रचना तो शिल्पिकी अद्भुत चातुर्यकलाका अजोड नमूना है । मूर्तिपूजा और देवालयोंकी आवश्यकता भारतके प्रत्येक संप्रदाय में मूर्तिपूजा प्रधान है । असके आरंभ कालके बारेमें विद्वानोंका मतभेद है । वेदोंमें मूर्तिके विषय में उल्लेख हैं। ध्यान योगकी सिद्धिके लिये ज्ञानी महापुरुषोंने प्रतिमाकी जरूरी स्विकारी । वेदकालमें यज्ञके क्रियाकाडोंमें देवोंकी स्तुति के साथ बलि दिये जाते थे । अिन देवोंके वर्णनमें अनके आयुध, वाहन, वर्ण इत्यादिकी कल्पना परसे प्रतिमाका स्वरूप निर्माण हुआ । भक्तिमार्गमें प्रतिमा पूर्ण अवलंबनरूप होनेसे मूर्तिपूजाकी जरूरत खड़ी हुआ । अस विचारका मूल प्रारंभ निराकार लिङ्ग पूजनसे हुआ, जिसके बाद में ही साकार मूर्तियाँकी कल्पना पैदा हुआ । आर्यावर्त के सिवा पच्छमके देशों में आदम- इवाको पृथ्वीकी प्रजोत्पत्तिका आद्य मानने लगे । आर्यावर्तने सुनको शिव और शक्ति स्वरूपमें स्विकारा । बादमें वैदिक धर्ममें सर्जक, पालक और संहारक देवो ब्रह्मा विष्णु और महेशकी कल्पना प्रादुर्भूत हुआ । धार्मिक दृष्टिसे साधक, साध्य और साधन अनुक्रमसे भक्त, प्रतिमा और माक्ष, - माने जाते हैं । • प्रतिमा - मूर्ति की जरूरत स्वीकार्य होनेके बाद देवालयोंकी आवश्यकता हुआ । त्रिमूर्ति और बादमें पंचदेव-ब्रह्मा, विष्णु, शिव, गणेश, और सूर्य की पूजा भारत में स्थल स्थल पर होने लगी । विविध तीर्थ स्थानोंके माहात्म्य अनुसार देवदेवियोंके मंदिर भारतके प्रत्येक प्रांत में बंधाने लगे । शिल्प स्थापत्यकी कितनी ओक शैलियों का जन्म ही भारतीय आध्यात्मिक विचार धारा से हुआ है । पुनर्जन्म के सिद्धांत अनुसार जीव-प्राणी विकास करते करते अनेक उच्च कोटियोंमें जन्म लेते हुये आखिरको ब्रह्ममें विलीन हो जाता है।
SR No.008427
Book TitlePrasad Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhashankar Oghadbhai Sompura
PublisherBalwantrai Sompura
Publication Year1965
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy