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वर्णन दिया है जिनमें (१)धातुखंडके तीन वर्ग कृषि, जल और खनिजखेती करना जलबाँध बनाना और जमीनमेंसे खनिज द्रव्य खोद कर निकालना ।
(२) साधनखडमें "नौकारथाग्नियानानां कृतिः साधनमुच्यते । नौका, रथ, अग्निसे चलता वाहन (ो जिन) ये तीन वाहन पृथ्वी पर रथ, अग्नियान, और जलमें नौकायान और हवामें व्योमयान "आकाशे अग्नियानं च व्योमयानं तदेव हि" अिस तरह जलचर, भूचर और खेचर तीन प्रकारके वाहन कहे है ।
(३) वास्तुखंडमें " वेश्मप्राकारनगररचना वास्तुसंज्ञितम् ” मकान, किले, नगर, देवालय, जलाशय इत्यादि कहे हैं।
आजीविकाके साधनकी हैसियतसे जिस कलाका मनुष्यने स्विकार किया, असी व्यवसाय वर्गके समूह के अनुसार ज्ञातियां हुी विविध कला विविध क्रियाद्वारा होती है। मनुष्य जिस कलाका आश्रय लेता है असीके अनुसार असकी ज्ञाति या बिरादरीका नाम होता है । अिस तरह कलाके वर्ग अनुसार पेशेवाली ज्ञातियोंके समूह हुआ ।
वास्तुशास्त्र, शिल्प और स्थापत्यकी व्याख्या वास्तु स्थापत्य और शिल्प शब्दकी स्पष्ट व्याख्या के अभावमें उनका मिश्र स्वरूप समजकर भाषा प्रयोग हम करते हैं किन्तु वास्तुशास्त्र अिन सर्वके विस्तृत अर्थमें है । असके अंतर्गत स्थापत्य और स्थापत्य के अंतर्गत शिल्प है
वास्तुशास्त्र-स्थापत्य-शिल्प वास्तुशास्त्र-देशपथ, नगर, दुर्ग, सरोवरादि जलाशय, उद्यान, वाटिका, आरामस्थान, राजप्रासाद, देवप्रासाद, सामान्यगृह, शल्यज्ञान, सिराज्ञान, भूमि परीक्षा अिन सर्व विद्याके शास्त्र को वास्तुशास्त्र कहते हैं।
स्थापत्य नगर, दुर्ग, जलाशय, राजप्रासाद, देवप्रासाद, सामान्य गृह इत्यादिका काम स्थापत्यमें आता है।
शिल्प--दुर्गद्वार, राजभवन, देवप्रासाद, जलाशय, आदि स्थापत्यो में सुशोभन, अलंकरण, गोखा, झरोखा बगेराह को अलंकृत करना इस कलाको शिल्प कहते है।
स्थापत्य का विकास भारतीय स्थापत्यका विकास बहुधा धार्मिक भावनासे हुआ है । देवमंदिरो के बाद राजाद्वारा नगर, दुर्ग और राजभवन हुए। धनिकोंने अपनी जरूरतके