SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 15
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मुताविक अदार वृत्तिसे इस कामको आगे बढाया । इसवीं पूर्व पाँचवीं शताब्दि के प्राचीन भनावशेष मिलते है जिनको देखकर हम कह सकते हैं कि यह विकास राजा और धनिकों की बदौलत ही हुआ है । इस देशकी शिल्प स्थापत्य और विद्याकला कौशल्यकी समृद्धि अजोड है जिसके वर्णन प्राचीन महाकाव्यों में उपलब्ध हैं। प्राचीन स्थापत्यके कालक्रमसे हम असा अंदाजा लगा सकते हैं कि दीर्घकालकी व्यवहारू अनुभूति के बादही स्थापत्यके नियम गढ़े गये थे । भारतके अलावा. और प्रदेशों में भी अिसका असर देखने में आता है । स्थापत्यों में खास करके देवमंदिरों के विविध विभागों की रूप पद्धति का विकास पृथक्पृथक् कालमें प्रत्येक विभागमें स्वयम् होता गया । धार्मिक मान्यता, भावना और साधनके योगसे भिन्नभिन्न रूपों का अद्भव हुआ है। जिससे यह कहना कि अमुक पद्धति चौकस संप्रदायको है यह गलत है । अमुकरूपका प्रवर्तन अमुक स प्रदायने किया अिससे यह ब्राह्मणी, वैदिक, बौद्ध या जन संप्रदाय की शैली है यह कहना ठीक नहीं, मनगढंत है । देशके चौकस विभागमें प्रचलित ओक या दूसरे संप्रदायकी शैलीमें देशके अस विभागमें कालक्रमानुसार नवीं दसवीं शताब्दि पर्यंत स्थापत्यों के रूप संबंधी परिवर्तन होते ही रहे हैं, जिसके बाद ही स्थायी सिद्धांत तय हुआ होंगे जैसा मानना होता हे । पाश्चात्य विद्वानलोग भारतीय स्थापत्य कलाके सांप्रदायिक भेद बताकर रचनाकी पहचान कराते है यह बिलकुल असत्य हैं । ये तो मात्र कालभेद और प्रांत भेदसे प्रचलित शिल्प पद्धति के भेद हैं। भारतीय स्थापत्य कलाका खास लक्षण तो अिसमें बाँधकामके रूपकी सहेतुक रचना है जो वैदिक, बौद्ध या जैन किसीभी संप्रदायके मदिरमें स्पष्ट रूपसे देखने में आती है । __ कलाको प्रोत्साहन __भारतमें राजा, धर्माध्यक्ष, आचार्य और श्रीम'त वर्गने शिल्प स्थापत्य और कलाको प्रोत्साहन देकर असे जीवंत रखा है । वे असे अपना प्रधान धर्म मानते । द्रविडके बडे बडे राजाओने अपना राज्य धन देवधर्म मानकर खूब खरचा था । अिसीसे ही द्रविडके स्थापत्य बिशाल और भव्य हुआ हैं। वर्तमानमें राज्याध्यक्ष, धर्माध्यक्ष, और धनाध्यक्ष ये तीनो वर्ग अदृश्य होते जाते हैं । अिस तरह कलाका कदरदान वर्ग घिसता जाता है । अफसोसके साथ कहना पड़ता है कि वर्तमान राज्य सरकार भारतीय शिल्प स्थापत्य प्रति उदासीन है। वर्तमान सरकार नाटक, चेटक, नृत्य, संगीत जैसी क्षणिक मनोरंजक कलाको स्थान देकर
SR No.008427
Book TitlePrasad Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhashankar Oghadbhai Sompura
PublisherBalwantrai Sompura
Publication Year1965
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy