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प्रोत्साहित करती है, जब स्थायी स्थापत्य कला और असके प्राचीन प्रथों के संशोधन की और दुर्लक्ष करती है । अतः अर्मज्ञ. कलाविदों को लाजिम है कि वे अिस प्रश्नको झुठा लें और अत्तजन के लिये प्रबल प्रयत्न करके बचेखुचे कलामर्म झोंको प्रोत्साहित करे । विद्यापीठों का भी यह कर्तव्य है । अॅजिनीयरींग कालेजों मे अिस विद्याको स्थान मिलना चाहिये । उसमें थीअरेटिकल और प्रेकटिकल (क्रियात्मक ) ज्ञानकी व्यवस्था होनी चाहिये ।
शिल्पि प्रशंसा भारतीय शिल्पियोंने पुराण प्रसंगोको पत्थरमें सजीव किया है। उनके टॉकेकी सर्जन शक्ति परम प्रशंसापात्र है । पाषाण शिल्पसे शौर्य और धर्मका बोध होता है । अचेतन पत्थरको वाचा देने वाले जैसे कुशल शिल्पि भी कवि हैं। सचमुच वे हमारे धन्यवाद के काबिल हैं । अलबत्ता, कला कोऔं धर्म या जाति विशेषकी पूंजी नहीं, यह तो समग्र मानव समाज की है । भारतीय शिल्पियोंने अिस कलाद्वारा स्वर्ग वैकुंठको पृथ्वीपर उतारा है। राष्ट्र जीवनको समृद्ध बनाया और प्रेरणा अर्पण की है। हमारी जैसी स्थापत्य कलाकी ओर आज राजकर्ता सरकार विरक्त हुी है । धनीवर्ग दुर्लक्ष करे जैसे संयोग है । देशका यह दुर्भाग्य है ।
जड पाषाणमें प्रेम, शौर्य', हास्य या करुण भाव दिखाना मुश्किल है । चित्रकार तो रंगरेखासे यह दिखा सकता है। किन्तु शिल्पी विना रंग पाषाणमें जिनका भावात्मक सर्जन कर सकता है यही उसकी खूबी है यहाँ पर उसकी अपूर्व शक्तिकं दर्शन होते है । भारतीय कलाने तो जगत के शिल्प स्थापत्यमें अनमोल हिस्सा दिया है ।
सार्वजनिक उद्यानों में नग्नस्वरूप बनानी हुश्री प्रतिमा अभद्र विकारोंको जगाती हैं । अपने शास्त्र अिसका निषेध करते हैं और असे शिल्पी को अपराध मानते हैं । किन्तु की आधुनिक कला विवेचक कहते हैं कि नम देह तो नैसर्गिक है। उसके उपर (कृत्रिम) बनावटी वस्त्रोंके परिधानसे कलाकी हत्या हो जाती है । उनके प्रति हमारा अक ही सवाल है कि कलाके साथ नीतिका कोी संबंध है या नहीं ?
मूर्तिविधानमें सर्व शिल्पि समान कर्तव्यशील नहीं हैं । अप्रतिम कौशल्य बिना किसीको मूर्ति घडना ही नहीं असा प्रतिबंध तो शक्य नहीं । जिससे ही भिन्न भिन्न कलाकारों से निर्मित मूर्तियों में कम या अधिक सौन्दर्य देखने में आते हैं।