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श्री गणेशाय नमः । श्री विश्वकर्मणे नमः ॥ श्री सरस्वत्यै नमः । सूत्रधार नाधुजी विरचित वास्तुमजर्यातर्गत
॥ प्रासादमञ्जरी॥
हिमालय के उत्तरभागमें देवदारु वृक्षांके वनमें देवताओं, मनुष्यों असुरों आदि ने शिवजीका शिवजी प्रासादके आकार से पूजार्चन किया। जिस पर से प्रासादकी (भारतके विभाजनानुसार ) चौदह जातियां उतन्न हुई। १ नागरादि. २ द्रविडादि, ३ लतिनादि, ४ विमानादि, ५ मिश्रकादि, ६ विराटादि, ७ साधारादि, ८ भूमिजादि, ९ विमान नागरादि, १० विमान पुष्पकादि, ११ वल्लभादि, १२ फासनाकादि १३ सिंहावलोकनादि, एवं १४ रथारुहादि इसप्रकार चौदह जासियां भारतके देश भेद से समजना' (जिनमें पहली आठ श्रेष्ठ कही हैं)
देवमंदिरः-मिट्टी, काष्ट (लकडी), ईंट, पत्थर, धातु, रत्न आदि वास्तुद्रव्य के निर्माण होते हैं । परन्तु वे अपनी अपनी शक्ति के अनुसार बनवाने से मनुष्य चतुर्वर्ग-अर्थात् धर्म अर्थ काम और मोक्ष के फलकी प्राप्ति करता है। मिट्टि आदि के देवमदिरों में लक्ष्मी क्रीडा करती है । ५.
कार्यारम्भ :-कार्य का प्रारम्भ करनेके लिये शुभलग्न शुभ नक्षत्र एवं पांचग्रहांका बल चाहिये । कथित शुभ मास एवं संक्रान्ति में वत्सादि दोष तथा निषिद्ध काल त्यज कर प्रासदका समारम्भ करना चाहिये । ६.
भूमिपरीक्षा :--जो भूमि चारों ओर ढालू हो, अथवा पूर्व या उत्तर या इशान की ओर ढालू हो वह प्रासाद निर्माणार्थ उत्तम भूमि जाननी चाहिये । भूमिकी परीक्षा करके उसे जल एवं पश्चगव्य से सिंचित कर बुद्धिमान को चाहिये कि उसका पूजन प्रारम्भ करें। ७.
मणि, सुवर्ण, चांदी, परवाला या फलोंसे चौसठ या सौ पदका वास्तुचर्ण (आटा) या चावलसे रचकर पूर्व शास्त्रकारों द्वारा कथित विधिसे बलि एवं पुष्पादिसे पूजन करना चाहिये । ८-९.
इन्द्र. अमि, यम, निऋति, वरुण, वायु, कुबेर एवं ईश, इस प्रकार इन
१. अपराजित सूत्र ११२ में यह चौदह जातिके प्रामाद भारतके किप्त किस प्रदेशमें किस जातिका प्रासाद बनवाना यह बतलाया है। बल्कि "जय" मंथमें बौदह जाति के उत्पादक देव, असुर, नाग, किन्नर, इंद्र, देवियां आदिके नाम सहित उल्लेख है।