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है। यह साहित्य अमूल्य था। पिछले समयमें प्रयोगाभावसे ये वैज्ञानिक अद्भुत विद्याओं पड़ी रही । दुर्भाग्यसे चौदहवीं सदी के बाद विधर्मी धर्माधि शासकोंके हाथ से स्थापत्यांचे साथ अिस अमूल्य साहित्य का भी नाश हुआ । अिसके अलावा शिल्पियों की संकुचित वृत्ति के कारण भी विद्याचोरीसे विकास रुक गया । कालक्रमसे शिल्प ग्रंथ द्रीमकोंके भोग बने । और अज्ञान विधवाओंने अिन ग्रंथोंको भिगोकर "थेपडे" (कागजसे बनाये हुओ बरतन) भी बनाये ! उनमें से जो कुछ बचाखुचा साहित्य रहा वह छिन्न भिन्न अवस्थामे हस्तलिखित प्रतोंके रूपमें प्राप्य है। पूरेपूरा संपूर्ण ग्रंथ क्यचित् हि मिलता है। देवमंदिरोंके बाँधनेवाले शिल्पियोंके पास अपने पेशेकी जरूरत के लिये पर्याप्त भाग मौजुद होता है, बाकी के ग्रंथका कोई हिस्सा अप्राप्य हैं हस्तलिखित प्रतों परसे बनी हुी नकलोंमें भी असंख्य अशुद्धियाँ होती है क्योंकि शिल्पिवर्गमें बहुधा संस्कृत पढे कम है। पिता पुत्रको सक्रिय ज्ञान दे जिससे परंपरासे विद्याका क्रियात्मक ज्ञान टिक रहा । प्रथों पर या सिद्धांतो पर लक्ष कम रहा।।
सोलहवीं सदीमें शिल्पग्रंथ जिस कालमें छिन्न भिन्न हुओ थे उसीकालमें भारद्वाज गोत्र के सोमपुरा मंडनका जन्म सूत्रधार क्षेता - खेता के घर हुआ । अिस विद्वान कुलको मेवाडके कुंभाराणाने गुजरात पादणसे बुलाया, राज्याश्रय दिया और उनके पास भव्य स्थापत्योंकी रचना करवानी । विद्वान मंडनने छिन्न भिन्न शिल्पग्रथांका उद्धार किया । अस्त व्यस्त शिल्पग्रंथोंका संशोधन किया । संक्षिप्त रूपमें वास्तुविद्याका पुनरुद्धार किया । ग्रंथोद्धार का महान कार्य किया जिसके लिये शिल्प जगत उनका अत्यंत ऋणी है। उन्होंने पूर्वाचार्य के मतानुसारराजबल्लभ, वास्तुसार प्रासाद मंडन, रूप मंडन, रूपोवतार. देवता मूर्ति प्रकरणम्ग्रंथांकी रचनाएं की उनके छोटे भाी नाथुजीने भी वास्तुमंजरी नामक ग्रंथ तीन स्तयक ( अध्याय) का लिखा । उस ग्रंथका मध्यका प्रकरण “प्रासाद मञ्जरी" |
सूत्रधार वीरपाल, सूत्रधारमल्ल, सत्रधार राजसिंह सूत्रधार गोविंद, सूत्रधार गणेश, सूत्रधार कौशिक, सू. सुखानंद, पंडित वासुदेव आदि विद्वानांने शिल्प पर छोटे बडे ग्रथ लिखे हैं । ये ग्रथ शिल्पियोंके ग्रंथ संग्रह और भंडारोंमें मिलते हैं । अिन विद्वानोंके स्थल और काल संबंधी निर्णय अभी तक नहीं हो सका है।
शिल्प हमारे कुल परंपराका व्यवसाय होने से नीचे के ग्रंथ संग्रहमें उपलब्ध हैं। कितने ग्रथोंकी एक, दो तीन या पाँच प्रते, जुदे जुदे कालकी थोडे बहुत प्रमाणमें मिलती हैं । ज्ञान रत्न कोश की एक प्रत चौदहवी सदीकी पड़ीमात्रा शैलीकी है । पंद्रहवीं सदीका एक ज्योतिष ग्रंथ है । अन्य कितने प्रथ तीनसौ से सौ वर्षकी अंदर के हैं ।