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के महाराणा कुम्भा ने जब अपने प्रदेश में स्थापत्य और शिल्प को नवीन प्रोत्साहन देना चाहा तो उन्होंने सौराष्ट्र से शिल्पीयों को आमंत्रित किया।
राणा कुम्भा ने चित्तौड में सुप्रसिद्ध कीर्तिस्तम्भ का निर्माण कराया। उनके राज्य में कई प्रसिद्ध शिल्पी थे। उनके द्वारा राणा ने अनेक वास्तु और स्थापत्य के कार्य सम्पादित कराये। कीर्तिस्तम्भ के निर्माण का कार्य सूत्रधार 'जहता'
और उसके दो पुत्र 'नापा' और 'पूजा' ने १८८२ से १८९८ तक के समय मैं पूरा किया। इस कार्य में उसके दो अन्य पुत्र पामा और बलराज भी उसके सहायक थे। राणा कुम्मा के अन्य प्रसिद्ध राजकीय स्थपति सूत्रधार मण्डन हुए। वे संस्कृत भाषा के भी अच्छे विद्वान थे। उन्होने निम्निलिखित प्रन्थों की रचना की ।
प्रासादमण्डन, वास्तुमण्डन, ३पमण्डन, राजवल्लभमण्डन, देवतामूर्सि-प्रकरण, रूपावतार, वास्तुसार, वास्तुशास्त्र । राजवल्लभ ग्रंन्ध में उन्होंने अपने अपने संरक्षक राणाकुम्भा का गौरव के साथ उल्लेख किया है। रूपमण्डन ग्रन्थ में सूत्रधार मण्डनने अपने विषय में लिखा है :
श्री मद्येशे मेदपार्यभिधाने क्षेत्राव्योऽभूत् सूत्रधारो वरिष्ठः ।
पुत्रो ज्येष्ठो मण्डनस्तस्य तेन प्रोक्त शास्त्रं मण्डनं रूप पूर्वम् ॥ ६-४०
इससे ज्ञात होता है कि मण्डन के पिता का नाम सूत्रधार क्षेत्र था । इन्हें ही अन्य लेखों में क्षेत्राक कहा गया हे । क्षेत्राक का एक दूसरा पुत्र सूत्रधार नाथ था जिसने वास्तुमञ्जरी नामक ग्रन्थ की रचना की । इस वास्तुमञ्जरी में तीन स्तबक है, उसी का मध्य स्तबक यह प्रासाद मंजरी है ।जिसे अलग अलग करके श्री प्रभाशंकरजी ने यहां संपादित किया है और अभिप्रायसूचक अनुवाद भी प्रकाशित किया है । इस ग्रन्थ में १८७ श्लोक है । उनके वय विषय प्रायः वही है जो प्रासाद शिल्प के अन्य ग्रन्थों में पाए जाते हैं। सूत्रधार मण्डन कृत प्रासाद भण्डन एवं ठक्कुर फेक कृत वास्तुसार इसके निदर्शन हैं। फिर भी जसा ग्रन्थकर्ता सूत्रधार नाथ ने अपने ग्रन्थ के अंत में लिखा है । उन्हों ने प्रसाद या देवमन्दिर का जो उनके समकालीन या पूर्ववर्ती साहित्य था उसका सार ग्रहण करके अपने ग्रन्थ की रचना की । इसके अनेक वर्ण्य-विषय इस प्रकार जानने योग्य है :
आरम्भ में कल्पना की गई है कि हिमालय में स्थित भगवान् शिवकी पूजा के लिए देवता असुर और मनुष्य एकत्र हुए और भगवान् की पूजा कि। सर्वोत्तम प्रकार उन्हे यही प्रतीत हुआ कि उन्होंने देश-भर में व्याप्त १४