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'जातियों के मन्दिर बनाकर उनमें शिवलिङ्गो की स्थापना की और भगवान् शिव की अर्चना की । यह लेखक की बुद्धिमण्डित कल्पना है जिसकी पृष्ट भूमि में उन्होंने देशभर में व्याप्त १४ जातियों के प्रासादों के नाम गिनाए हैं (श्लोक १-३३) । इसके अनन्तर कहा है कि वास्तु निर्माण में मिट्टी, काष्ट, इष्टिका, शिला, धातु और रत्नों का यथारुचि - यथाशक्ति उपयोग किया जाता है और तदनुसार ही उत्तरोत्तर अधिक फल भी प्राप्त होता है ( श्लो० ४-५ ) । फिर निर्माण कार्य आरम्भ करने के लिए शुभ मुहूत बताए गए हैं। भू परीक्षा (७) वास्तुपूजा. चास्तुपुरुष पूजन ( ८-११ ), त्याज्य या अशुभ मुहूर्त ( १२ - १३ ), आयव्यय ( १४ - १५ ) नाग वास्तु ( १६ ) कर्म ( १७ - १८ ); शिलारोपण विधि ( १९ - २१ ) गृहारम्भ शुभ नक्षत्र (२२), शिला स्थापन शुभ नक्षत्र ( २३ ), प्रासाद योग्य स्थान (२४ २५) वास्तु द्रव्यानुसार पुण्य प्राप्ति ( २६ ), वास्तु पूजन के सात विशेष अवसर (२७), वास्तु पुरुष शान्ति के १४ मुहूर्त ( २८-२९); प्रासाद प्रमाण (३०) प्रदक्षिणा पथ के साथ सांधार प्रासाद का प्रमाण ( ३१-३३ ) प्रासाद की रेखा में रथ, प्रतिरथ, कोणरथ और फालनाओं का निर्गम ( ३३-३६ ): जगती ( ३७-४० ) जगती पीठ के उदय का प्रमाण ( ४० - ४१ ) चतुरस्र आयत वृत्त अष्टास्र, वर्तुलायत ( बेसर जिसका पीछे का भाग वर्तुल और आगे का आयत होता है) प्रासाद के संमुख भाग में बने हुए सोपान के ऊपर तोरण ( ४२-४३ ) । प्रासाद के सामने कुछ हय हुआ देवता के वाहन का मण्डप (४४) जिन प्रासाद रचना ( ४५ - ४७ ), नाभिवेध ( ४७ - ५०), प्रणाल विचार ( ५०-- ५१ ); आयतन अर्थात् मूल पुरुष के प्रासाद में अन्य देवों के स्थान, (५२ - ५४ ) त्रिदेवस्थानक्रम (५५) इतने विषयों का प्रस्तावना रूप में वर्णन है । इसके अनन्तर ब्रह्मसूत्रमें प्रासाद निर्माण विधि का वर्णन करते हुए सर्वप्रथम अनगढ़ खंड शिला के अपर तीन मिट्टों की कल्पना का उल्लेख है । भिट्ट एक प्रकार से प्रासाद की नीव होते है । उनको दृढता पर प्रासाद की दृढता निर्भर करती है ( ५६-५७ ) भिट्टों के उपरु पीठका निर्माण किया जाता है उसेही अगती पीठ भी कहते है । इसी पीठ में कई प्रस्तर के घर बनाए जाते थे किन्तु उनकी कल्पना ऐच्छिक थी श्री सोमपुराजी ने नामतः उनका उल्लेख किया है । इनके अन्तर प्रासाद के उत्सेध का वर्णन किया गया है जो छज्जे के भातक लिया जाता हैं (६१-६२) इमी में मण्डोवर विभाग की कल्पना है । मण्डोवर शब्द अपना विशेष महत्त्व रखता है । प्रासाद के ऊत्सेध छन्द का मध्य भाग मण्डोवर में विशेष रूपमे से देखा जाता है । मण्डोवर शब्द की व्युत्पत्ति विशेषरूप से उल्लेखनीय है । किसी ऊचें मंच या चतरे को मण्ड कहते थे जैसे कुए की जगत मण्डु कही जाती
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