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* प्रासादमञ्जरी *
शिल्पशास्त्र अनेक है- एक शास्त्र के अभ्याससे सभी गुणोंका विकास नहीं होता है । अन्य ग्रंथोके अभ्यास के बिना कार्यकी सिद्धि नहीं होती है । इस लिये प्रकारान्तर--अन्य मतमतान्तरों का विचार कर विवेक बुद्धिसे कार्य करना चाहिये । जिस प्रकार मणिके गुण जानने के लिये किंकिणी की सहायता लेनी पडती है इसी प्रकार महान गुणवान पुरुषोंको तो बहुत ग्रंथोका अभ्यास मनन करके कार्य करना चाहिये । १८६
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इस प्रकार शिल्प थोका संशोधन करके साररूप यह वास्तु मञ्जर्यान्तर्गत प्रासाद मञ्जरी की श्री क्षेत्र ( खेता ) सुत्रधार के पुत्र सूत्रधार श्री नाथजीने रचना की । १८७
इति श्री मेवाडाधिप पृथिवी पति राजमलजी राज्ये सूत्रधार क्षेत्रा (खेताका ) पुत्र विविध कला शास्त्रका सुधीर सोमपुरा ज्ञातिय भारद्वाज गोत्रमें उत्पन्न सूत्रधार नाथजीने वास्तुमञ्जरी के प्रासादाधिकारके दूसरा स्तबक का निर्माण किया ।
पादलीतपुर ( पालीताणा ) स्थपति प्रभाशंकर ओघडभाई शिल्प विशारद । सोमपुरा ज्ञातिय भारद्वाज गोत्रने इस प्रासाद मञ्जरी पर गुर्जर भाषान्तर कर सुप्रभ नाम्नी भाषा टीकाकी रचना की जिसका राष्ट्रभाषा हिन्दी में पुनः अनुवाद सोमपुरा भारतेन्दुने किया ।