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* Prasad Manjari *
आयादि गणित:-आय, नक्षत्र, व्यय, एवं अंशकादि अंगोंका गणित देवमंदिरोंकी दीवारों के बाहरी भागसे मिलाना चाहिये; ध्वज, देवगण नक्षत्र, प्रथमव्यय, एवं अंशक मिलाने पर शुभ गणित जानना चाहिये; देवपासाद में वृष, सिंह, और गजाय ये तीनों आयभी श्रेष्ठ हैं, कार्यारंभ करने में मास नक्षत्र एवं लग्नादिका विचार पूर्वाचायोंके शास्त्रानुसार प्रमाणपूर्वक करना। १४-१५.
नागवास्तु चक्र एवं खात:-वास्तुशास्त्र में कहे हुए नाग चक्रको देखकर, जिस संक्रान्तिमें जिस कोने में "खात” निश्चित होता हो वहां खड्डा बनाकर, वास्तुपूजन करके, जबतक पत्थर या जल न आवे (अथवा रेतके अन्त तक । अथवा कच्ची मिट्टीके अन्त तक) भूमि शुद्धिकर-खोदकर कूर्मशिलाकी स्थापना करनी चाहिये । १६-१७.
. सुवर्ण अथवा चांदीके कूर्मका प्रमाण:-एक हाथके देवालयके लिये आधे अंगुलका कूम चांदी अथवा सोनेका बनवाना चाहिये। इस प्रकार पंद्रह हस्त तकके प्रासादके लिये अर्ध अर्ध अंगुलकी वृद्धि करनी । सोलहसे इकत्तीस हस्त तकके प्रासाद निर्माण में चोथाइ : अंगुलकी वृद्धि एक एक हाथमें करनी । बत्तीस से पचास हस्त तकके प्रासादके लिये एक एक दोरा अर्थात है एक अष्टमांश आंगुलकी वृद्धि करनी । चौद आंगुलकी कूर्म ५० गजके लिये करना । गणितके अनुसार आये हुए
१ सोना चांदीके कृम मान के पश्चात् पागणकी कूर्म शिलाका प्रमाण भी अन्य ग्रंथों में दिय हुआ है। मध्यकी कूर्मशिला नव विभाग-स्वानोंको आकृति घाली पर्व कीरती दिशा विदिशाकी कोणकी अष्ट शिला स्थापित करनी । नवशिलाकी प्रथा गुजरात, राजस्थान एवं सौराष्ट्र में है। "क्षोरार्णव'' ग्रंथमें नवशिला एवं “दीपाणव' ग्रंथमें नव अथवा पंचशिला। इस प्रकार दो एक प्रकारसे विसर्जित करनेका प्रमाण है-पंचशिलाए-चार होणे एवं मध्यमे स्थापन करनेका विधान " विश्वकर्म प्रकाश" प्रथमें है, उन शिलाओं में बनाने के चिह्नों के विष्यमें ग्रंथों के विभिन्न मत है, मध्यकी कर्म शिला के नौ खाने बनाकर पूर्व दिशासे क्रमसे चिह्न करने का "क्षीरार्णव" ग्रथमें धर्णन है। वीरपाल सूत्रधारने "प्रासाद तिलक" ग्रंथमें आग्नेय दिशाके क्रमसे चिह्न बनानेका विधान दिया है। मध्यको पाषाणको कम शिला पर सोने-चांदीका कम स्थापित करना । और उसपर खड्डी "नाल" पर देवस्थापनकी सीधमें ऊपर तक लेना उसे "नामी" कहते हैं। यह अग्निपुराण एवं विश्वकर्म प्रकाश थमें कहा है। यह प्रथा द्रविड स्थापत्य में भी है । कूर्म
और अष्ट शिलाओं की स्थापनाकी भूमिमें एक कलश सप्तधान्य, पंचरत्न आदि रखकर यहां धातुके नाग एवं कच्छप (कच्छा ) ताम्र अथवा साने या चांदीके बनाके उसपर शिला स्थापन करनेकी विधि शिल्पि लोग जे परंपरासे कराते आये हैं, वह उचित हैं। शिलापर वस्त्र लपेटनेमें निम्न विधि है।