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________________ ३४ में रङ्गमण्डप को पीढ़ा देउल कहा जाता है और उनके कई प्रकार के उठान वाले पीढ या पीढाओं की संख्या उनके घण्टा और सिंह के विवरण पर विशेष ध्यान दिया जाता था । मध्यदेश के चन्देल मन्दिरों (खजुराहो) में भी रङ्गमण्डप के वितान की कल्पना अत्यन्त सुन्दर रूप में पाई जाती है । चालुक्य कालीन मन्दिरों एवं राजस्थानी मन्दिरों में भी उनके शिल्प पर विशेष ध्यान दिया गया और उनके स्तम्भों की संख्या का अधिकाधिक विस्तार किया गया । प्रासाद निर्माण में सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण स्थान अर्चा या देवप्रतिमा का है जिसकी स्थापना गर्भगृह में की जाती है। इस शास्त्र की विशेष विधि प्रतिमालक्षण नामक ग्रन्थों में पाई जाती है। प्रतिभा का प्रमाण और स्वरूप दोनों ही वर्णन के विषय है। इन्हीं के सूक्ष्म परिचय के आधार पर कुशल शिल्पी सुन्दर प्रतिमाओं का निर्माण करते हैं । प्रतिमा जितनी सुन्दर होती है उतना ही अधिक देवता का सांनिध्य उसमें माना जाता है । प्रतिमा के सौन्दर्य से दर्शक को मनः समाधि प्राप्त होती है। देवता का सान्निध्य यही प्रतिमा का साफल्य है, और उसी-की चरितार्थता के लिए प्रासाद का निर्माण किया जाता है । एक और सौंदर्यशास्त्र के अनुसार देवप्रतिमा की सुन्दरता का अस्तित्व रहता है, दूसरे और देवता की आराधन करने वाले भक्त के मन को शति या मनः समाधि-अस्तित्त्व है। दोनों के संयोग से प्रासाद में देव पूजन की सफलता सिद्ध होती है । विष्णु धर्मोत्तर पुराण में कहा है कि .प्रासाद निर्माण में अन्तर्वेदि ओर बहिर्वेदि दोनो की सिद्धी प्राम होती है। अन्तर्वेदिका तात्पर्य यज्ञ-यागादि से एवं बाहिर्वेदि इष्टपूजादि धार्मिक कार्योंने है । प्रासाद निर्माण से इन दोनोका फल प्राप्त होता है। प्रासाद निर्माणका एक प्रत्यक्ष फल वास्तु स्थापत्य, शिल्प, चित्र, नृत्य, गीतादि कलाओं की आराधना भी है एवं इन कलाओका दर्शन सर्वसाधारण के लिए सुलभ हो जाता है। अतः प्रासाद निर्माण कोई साधारण बस्तु नहीं. अपितु महान् पुण्य हैं। जिसके द्वारा समस्त लोक को देवत्व के प्रभावका अनुभव होता है। प्रासाद निर्माण के परिसमाप्ति पर सूत्रधार स्थपति का पूजन अवश्य करना चाहिए सूत्रधार की प्रतिमाही सुन्दर प्रासाद का रूप ग्रहण करती हैं सूत्रधार के आराधन ही प्रासाद निर्माण की सानंन्द समाप्ति समजनी चाहिए । (ह.) वासुदेवशरण का. हि. वि. वि. वाराणसी
SR No.008427
Book TitlePrasad Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhashankar Oghadbhai Sompura
PublisherBalwantrai Sompura
Publication Year1965
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size5 MB
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