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________________ भारतीय मन्दिर द्वारों का सर्वाङ्गीण अध्ययन अभीतक नहीं किया गया । द्वार के देहली भाग में निकलता हुआ अर्द्धचन्द्र और शखोद्वार अलंकरण भी रखते थे जिनका उल्लेख श्री सोमपुराजीने किया है। मध्यकालीन उपशाखाओं में और भी कई प्रकार के अलं करण बनाए जाते थे। द्वार के शीर्षदल (हिन्दी-सिरदल) या उत्तरंगे पर मध्यभाग में गर्भगृह के देवताके अनुरूप एक प्रतिमा बनाई जाती थी जिसे ललाट-बिम्ब कहा जाता था। विष्णु के मन्दिरों में वह गजलक्ष्मी की मृनि होती थी-जिसके कारण उसे लक्ष्मी-बन्ध भी कहते थे । देवगढ के दशावतार मन्दिर में कुण्डलित शेषनाग के आसन पर स्वयं विष्णु की चतुर्भुजी मूर्ति अङ्कित की गई है । उसी पृष्ठ भूमि में कालिदास ने विष्णु के लिए भोगीभोगासनासीन (ग्घु० १०-७) विशेषण का प्रयोग किया है । : प्रासाद के निर्माण में दूमरा अङ्ग शिखर है। उसके विषय में उरुशृङ्ग और शृंङ्गो को कल्पना महत्त्वपूर्ण है। जिसका अच्छा वर्णन यहां किया गया है । मध्यकालिन मन्दिरों में शिखरों का बहुमुखी विस्तार हुआ । शिखर के अङ्ग प्रत्यङ्गों का और उनकी रेखाओं का संपूर्ण अध्ययन अभी स्पष्टता से करने योग्य है। शिखर के निर्माण में अण्डक तबङ्ग और तिलक का भी उल्लेख किया गया है किन्तु उनका स्पष्टीकरण व्याख्या मापेक्ष है। शिखर की चोटी के पर आमलक शिला का भी महत्त्व पूर्णस्थान है । अवयवों का कुछ स्पष्ट उल्लेख इस ग्रन्थ में पाया जाता है । इसके अनत्तर विभिन्न प्रकार के प्रासादों का वर्णन किया गया है। (इलोक १०५-१३४) । प्रासादों के भेद मुख्यः शिखरों की विभिन्न कल्पनाओं पर निर्भर है। एवं शिखरों के भेद शृङ्ग ऊरुशृङ्ग अण्डक और तिलक आदि के भेदोपभेदों पर निर्भर करते हैं । उनका विवरण इस प्रासाद मञ्जरी ग्रंथ में तथा शिल्प के अन्य अनेक ग्रंथों में भी दिया गया है । परम्परा प्राप्त स्थपति इन्हें जानते आए है । और इन्ही के अनुसार विभिन्न प्रकार के शिखर युक्त प्रासादों का बन्धान बांधते है । प्रासाद निर्माण में मण्डपों का भी विशेष महत्त्व है । गर्भ गृह के सामने अंतराल मण्डप रङ्गमण्डप, नृ यमण्डप, मुखमण्डप, भोगमण्डप आदि कई प्रकार के मण्डपों का निर्माण किया जाता था । और उनके द्वारा ही प्रासाद का पूरा म्वरूप विकसित होता था । मध्यकालीन मन्दिरों में मण्डपों के म्यरूप का अध्यधिक विस्तार किया गया । मण्डपों के स्तम्भ, वितान, गुमट संवरण और शिखर आदि के विपय में बहुत अधिक सामग्री शिल्प ग्रंथों में पाई जाती है। उसका भी विशेष रूप से अध्यान आवश्यक है । विशेषतः उड़ीसा के मन्दिरों
SR No.008427
Book TitlePrasad Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhashankar Oghadbhai Sompura
PublisherBalwantrai Sompura
Publication Year1965
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size5 MB
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