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* Prasad Manjari * कराके इशान अग्नि आदि सृष्टिमार्ग से अष्टशिलाका स्थापन करके मध्यमें कूर्म शिलाका स्थापन करना चाहिये । इस समय मंगल गीत एवं वाद्य बजाने चाहिये । धान्य धृतं आदिका नैवेद्य एवं बलिदान कूर्मन्यास शिला स्थापन समय में देवताओंका वास्तुपूजन करके देना चाहिये-२०-२३.
___आरंभके शुभ नक्षत्रः-प्रासाद अथवा गृहके निर्माण हेतु, जमीन पर सूत्र छोडनेके लिये-तीन उत्तरा, हस्त, चित्रा, स्वाति, रोहिणी, पुष्य, मृगशीर्ष, अनुराधा, रेवती, धनिष्ठा एवं शतभिषा ये नक्षत्र शुभ जानना-(२२) शिलान्यासके शुभ नक्षत्र -रोहिणी, श्रवण, हस्तपुष्य, मृगशीर्ष, रेवती और तीनों उत्तरा, उत्तरा-पाढा उत्तराभाद्रपद ३उत्तरा फाल्गुनी ये नक्षत्र शुभ जानना (२३)
प्रासाद योग्य स्थान और पुण्यः-नदीके तीर पर; सिद्धषुरुषोंके आश्रममें, तीर्थ स्थान में शहर या ग्राममें; अथवा बाहर, पर्वतकी गुफाके आगे, बागमें, बावडी या तालाब के किनारे-इन स्थानों पर प्रासाद स्थापन करने चाहिये । देव स्थापन पूजन और दर्शनादि से पुण्यलाभ होता है और पाप क्षय होता है, धर्मकी वृद्धि होती है, द्रव्यसे कामनाएं पूर्ण होती हैं, और मोक्षप्राप्ति होती है ! (२४-२५) __ वास्तु द्रव्यानुसार पुण्य प्राप्तिः-तृण-घासका देवालय स्थापन करने से
शिलाका नाम पृथक् पृथक ग्रंथों में भिन्न भिन्न कहा है। अष्ट शिला कर्म शिलासे ३ विस्तार विस्तारसे 3 पृथुभेोटी रखनी । मध्यकी कूर्मशिला समचो. रस करनी अर्थात् मध्यका कर्मशिला सामान्य रीतसे गर्भ गृहको मध्यमें स्थापन करनेका कहा है। परंतु "दीपाव" ग्रंथोंमें अर्ध पादे त्रिभागे था शिला चघ प्रतिष्ठयेत् ॥ का प्रमाण स्पष्ट दिया है । अर्थात् गर्भगृहके अर्धभागमें (शिवलिङ्ग विषयमें) अथवा तीसरे या चौथे भागमें कर्मशिला स्थापन करनेका विधान है। इसका तात्पर्य यह है कि देव स्थापनके निम्न स्थानपर कर्मशिला स्थापन करना। तदनुसार देवके नीचे नाल और नामि अवलंब सूत्र में आ जाये। सौराष्ट्रकी कितनी ही प्रतियोंमें और अग्निपुराण और विश्वकर्म प्रकाशमें शिला स्थापनके विधानमें कहा है।
स्वस्वासु वाहनाय कैर्धातुजे स्ताष पात्रगैः
मुक्त दोष विधानाद्यन्यत्शेङ्गर्भ सुरालयोः॥ जिस देव का मंदिर हो-उसी देयका वाहन एवं आयुध शिलामें अंकित करना चाहिये। शिलाके नीचे तुका पात्र (सोना चांदी या तान) सौषधि, सप्तधान्य, शेषाल, कोडो, चणेाठी, गंगाजल, पंचरत्न आदि सहित एवं नाग तथा कच्छपके साथ पधराना चाहिये। इस प्रकारकी शिल्पी परपराकी प्रथा है। कितने ही ग्रंथोमें शिला में स्वस्तिकादि चिन अंकित करनेका विधान है।