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* Prasad Manjari * शरमां आधना कमेनी समज,
अथ सांधार केशरादि प्रासाद६ सअनुसमे श्रीवादि अब
विभक्ति ।।१।। प्रासाद क्षेत्रके सिकन्याकूट
आठ भाग करके दो भागकी कर्णरेखा और सारा भद्र चार भाग चोडा करना । भद्रका निर्गम आधे भागका रखना । (चारो कर्ण पर एकैक अंडक और मूल एक मिलके) पांच अंडकके केसरी जानना । केसरी से चार चार अंडक की वृद्धि करते हुए एकसो एक अंडक तक का मेरु प्रासाद होता है । १०८
इति केसरी प्रासाद १ तुल भाग ८ शृङ्ग ५ ॥
विभक्ति ।।२।। प्रासादके क्षेत्र के दश भाग करके उसमें से दो दो भाग को कर्ण-रेखा, डेढ भागका प्रतिरथ (पढरा) और डेढ भागका
आधा भद्र बनाना । रेखा पर एक एक श्री वत्स (श्रृङ्ग) और भद्र पर एक एक उरुश्रृङ्ग चढाने से “सर्वतोभद्र" नामक नौ अंडक
का प्रासाद दूसरा जानना । १०९ करते ये प्रमाण नहीं माना जाता । पताका ओर ध्वजाका दोनो का भेद पाडते हैं । जो कोइ विद्वान त्रिकोण धजा के बारे में शास्त्रोक्त प्रमाण प्रासाद विषयमें बतायगा तो हम सहर्ष स्विकार करेंगे ।
२६ यहां दिये हुए केशरादि पचीश प्रासाद सूत्र संतान अपराजित सूत्र १५९ के अनुरुप है । अपराजित में सविस्तर वर्णन है । यहाँ पर बहुत ही संक्षिप्त में बताया है। उससे कितने ही स्थान पर अध्याहृत रहना पाया जाता है। उसकी पूर्ति करने के लिये अनुवाद में हमे स्पष्ट करना पडा है । सावंधारादि केशरी पचिश प्रासाद के स्वरुप अन्यग्रंथो में जो दिये गये हैं। उनमें से अंग चढाने की रीति भी भिन्न है । उसी प्रकार तलच्छंद में भी आगे पीछे है। श्रृङ्गकी कुल क्रम संख्या तो मिलती रहती है।