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शि. मुख्यक मुदि
* प्रासादमञ्जरी *
मातरपीठ नरथीठ
अधपीठ
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कीका ग्रामप
शंकर ओ. शिव्यवासी महापेठ प्रकार तीसरा
-गजथर
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महापीठ प्रकार चौथा
कहे हैं । उनमें ६० और ६२ विभागके पीठमें अश्वथरका विधान नहीं है। जाडम्बा; कणी ग्रासपट्टी गजथर और नरथरका ही विधान है। किसने पुराने मंदिरोंमें कभी अश्वथर किसीमें देखने में नहीं आता, बल्कि ६१ भागके महापीठमें गज अश्वधरके पश्चात मातृपीठ और नरथरका विधान हैं। देवीके मंदिर में मातृपीठ में रथकी आकृति करते हैं । महाशिवालय में वृषभ थर भी पीठमें कहा हैं । वृक्षार्णव अ० १६७ में शिव प्रासाद के लिये गजथर अश्वथर नहीं कहा है। किन्तु वृषपीठ एवं नरथर का विधान किया है । अल्पव्यय से महद पुण्योपार्जन करनेकी इच्छा रखने वालेके लिये जाडम्ब कर्ण छज्जी एवं ग्रासपट्टी के पीठको 'कामद पीठ' कहा है। उससे भी अल्प द्रव्यव्यय कर्ण पीठ में होता है। जिसमें जाडम्बा और कर्ण के दो ही रोका विधान है । ये कामद पीठ और "कर्ण पीठ" महा पीठ के मानसे उदयमें अल्प होता ही है यह स्वाभाविक है । इस लिये शिल्पज्ञोंने कहा है ।
अर्ध भागे त्रि भागे वा पीठं चैव नियोजयेत् ।
स्थानमानाश्रयं ज्ञात्वा तत्र दोषो न विद्यते । दोपार्णव अ. ६-२१
कहे गये पीठमान से अर्ध अथवा तीसरे मागके पीठका नियोजन स्थान मान का आश्रय जानकर करने में कोई दोष नहीं है । जहाँ कामदपीठ या कर्णपीठ