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आचार्य कुन्दकुन्द-रचित
नियमसार (खण्ड-1)
(मूलपाठ-डॉ. ए. एन. उपाध्ये) (व्याकरणिक विश्लेषण, अन्वय, व्याकरणात्मक अनुवाद)
संपादन डॉ. कमलचन्द सोगाणी
अनुवादक श्रीमती शकुन्तला जैन
पानं कामावि जनाचमनपुग्नाव।
का अरेति all
HELORE
णाणुज्जोवो जोवो जैनविद्या संस्थान श्री महावीरजी
प्रकाशक
अपभ्रंश साहित्य अकादमी
जैनविद्या संस्थान दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीरजी
राजस्थान
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आचार्य कुन्दकुन्द - रचित नियमसार
( खण्ड - 1 )
( मूलपाठ - डॉ. ए. एन. उपाध्ये)
( व्याकरणिक विश्लेषण, अन्वय, व्याकरणात्मक अनुवाद)
संपादन
डॉ.
कमलचन्द सोगाणी निदेशक
जैन विद्या संस्थान - अपभ्रंश साहित्य अकादमी
अनुवादक श्रीमती शकुन्तला जैन
सहायक निदेशक अपभ्रंश साहित्य अकादमी
|
णाणु ज्जीवो जोवो जैनविद्या संस्थान श्री महावीरजी
प्रकाशक
अपभ्रंश साहित्य अकादमी जैनविद्या संस्थान
दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीरजी
राजस्थान
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प्रकाशक अपभ्रंश साहित्य अकादमी जैनविद्या संस्थान दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीरजी श्री महावीरजी - 322 220 (राजस्थान) दूरभाष - 07469-224323 प्राप्ति-स्थान 1. साहित्य विक्रय केन्द्र, श्री महावीरजी 2. साहित्य विक्रय केन्द्र दिगम्बर जैन नसियाँ भट्टारकजी सवाई रामसिंह रोड, जयपुर - 302 004
दूरभाष - 0141-2385247 प्रथम संस्करण : मार्च, 2015 सर्वाधिकार प्रकाशकाधीन मूल्य -350 रुपये ISBN 978-81-926468-5-5 पृष्ठ संयोजन फ्रेण्ड्स कम्प्यूटर्स जौहरी बाजार, जयपुर - 302 003 दूरभाष - 0141-2562288
मुद्रक जयपुर प्रिण्टर्स प्रा. लि. एम.आई. रोड, जयपुर - 302 001
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अनुक्रमणिका
49
68
क्र.सं. विषय संख्या
प्रकाशकीय ग्रंथ एवं ग्रंथकारः सम्पादक की कलम से संकेत सूची जीव-अधिकार अजीव-अधिकार शुद्धभाव-अधिकार व्यवहारचारित्र-अधिकार मूल पाठ परिशिष्ट-1 (i) संज्ञा-कोश (ii) क्रिया-कोश (iii) कृदन्त-कोश (iv) विशेषण-कोश (v) सर्वनाम-कोश (vi) अव्यय-कोश परिशिष्ट-2
100
115
117
120
128
129
छंद
132
परिशिष्ट-3 सहायक पुस्तकें एवं कोश
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प्रकाशकीय
आचार्य कुन्दकुन्द - रचित 'नियमसार (खण्ड-1 ) ' हिन्दी - अनुवाद सहित पाठकों के हाथों में समर्पित करते हुए हमें हर्ष का अनुभव हो रहा है।
आचार्य कुन्दकुन्द का समय प्रथम शताब्दी ई. माना जाता है। वे दक्षिण के कोण्डकुन्द नगर के निवासी थे और उनका नाम कोण्डकुन्द था जो वर्तमान में कुन्दकुन्द के नाम से जाना जाता है। जैन साहित्य के इतिहास में आचार्य श्री का नाम आज भी मंगलमय माना जाता है। इनकी समयसार, प्रवचनसार, पंचास्तिकाय, नियमसार, रयणसार, अष्टपाहुड, दशभक्ति, बारस अणुवेक्खा कृतियाँ प्राप्त होती
है ।
आचार्य कुन्दकुन्द - रचित उपर्युक्त कृतियों में से 'नियमसार' जैनधर्मदर्शन को प्रस्तुत करनेवाली शौरसेनी भाषा में रचित एक रचना है । इस ग्रन्थ में कुल 187 गाथाएँ हैं जिनमें से खण्ड-1 में 1 से 76 तक की गाथाएँ ली गई हैं ।
इसमें निश्चय और व्यवहार दृष्टि से सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र का निरूपण किया गया है। इसके साथ ही जीव द्रव्य, पुद्गल द्रव्य, धर्म द्रव्य, अधर्म द्रव्यं, आकाश द्रव्य तथा काल द्रव्य का भी वर्णन किया गया है। पुद्गल द्रव्य को विशेष रूप से समझाया गया है ।
'नियमसार' का हिन्दी अनुवाद अत्यन्त सहज, सुबोध एवं नवीन शैली में किया गया है जो पाठकों के लिए अत्यन्त उपयोगी होगा। इसमें गाथाओं के शब्दों का अर्थ व अन्वय दिया गया है। इसके पश्चात संज्ञा - कोश, क्रिया
(v)
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कोश, कृदन्त-कोश, विशेषण-कोश, सर्वनाम-कोश, अव्यय-कोश दिया गया है। पाठक 'नियमसार' के माध्यम से शौरसेनी प्राकृत भाषा व जैनधर्म-दर्शन का समुचित ज्ञान प्राप्त कर सकेंगे, ऐसी आशा है।
___ प्रस्तुत कृति का खण्ड-1 प्रकाशित किया जा रहा है । जैन दार्शनिक साहित्य को आसानी से समझने और प्राकृत-अपभ्रंश की पाण्डुलिपियों के सम्पादन में नियमसार का विषय सहायक होगा। श्रीमती शकुन्तला जैन, एम.फिल. ने बड़े परिश्रम से प्राकृत-अपभ्रंश भाषा सीखने-समझने के इच्छुक अध्ययनार्थियों के लिए 'नियमसार (खण्ड-1)' का हिन्दी अनुवाद प्रस्तुत किया है । अतः वे हमारी बधाई की पात्र हैं।
पुस्तक-प्रकाशन के लिए अपभ्रंश साहित्य अकादमी के विद्वानों विशेषतया श्रीमती शकुन्तला जैन के आभारी हैं जिन्होंने 'नियमसार(खण्ड-1)'का हिन्दीअनुवाद करके जैनदर्शन व शौरसेनी प्राकृत के पठन-पाठन को सुगम बनाने का प्रयास किया है। पृष्ठ संयोजन के लिए फ्रेण्ड्स कम्प्यूटर्स एवं मुद्रण के लिए जयपुर प्रिण्टर्स धन्यवादाह है।
न्यायाधिपति नरेन्द्र मोहन कासलीवाल महेन्द्र कुमार पाटनी अध्यक्ष
मंत्री प्रबन्धकारिणी कमेटी दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीरजी
डॉ. कमलचन्द सोगाणी
संयोजक जैनविद्या संस्थान समिति
जयपुर
वीर निर्वाण संवत्-2541
09.03.2015
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ग्रन्थ एवं ग्रंथकार
संपादक की कलम से
आचार्य कुन्दकुन्द द्वारा रचित नियमसार एक अनूठी एवं अपूर्व रचना है। जो भी साधक मोक्ष - मार्ग के पथिक हैं, उनके लिए यह रचना अपरिहार्य है। मोक्ष-मार्ग पर चलने के लिए जो नियम आवश्यकरूप से पाला जाना चाहिए वह सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र - नियम कहा जाता है। यह नियम दुखों को हटानेवाला और अनन्त सुख देनेवाला होने के कारण पूर्णरूप से प्रयुक्त नियम है, इसलिए सिद्ध है, सार है ।
आचार्य दो दृष्टियों से सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की व्याख्या करते हैं
-
(1) बाह्यदृष्टि या लोकदृष्टि या परदृष्टि से यह व्यवहारदृष्टि है । (2) अन्तरदृष्टि या आत्मदृष्टि या स्वदृष्टि से यह निश्चयदृष्टि है ।
सम्यग्दर्शनः
नियमसार (खण्ड-1
1)
बाह्यदृष्टि या लोकदृष्टि या परदृष्टि या व्यवहारदृष्टि से आप्त, आगम और द्रव्यों में श्रद्धा सम्यग्दर्शन है। जिसके द्वारा समस्त दोष नष्ट कर दिये गये हैं, जो समस्त गुणों से युक्त है वह आप्त होता है (5)। जो केवलज्ञान आदि परम वैभव से युक्त होता है, वह तीर्थंकर (आप्त ) कहा जाता है (6, 7)।
आप्त के मुख से निकला हुआ वचन जो पूर्वापर दोषों से मुक्त है, वह आगम कहा गया है। उस आगम के द्वारा कहे गये द्रव्य होते हैं ( 8 ) ।
जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म आकाश और काल जो नाना प्रकार की गुणपर्यायों से युक्त हैं, वे द्रव्य कहे गये हैं (9) |
(1)
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अन्तरदृष्टि या आत्मदृष्टि या स्वदृष्टि या निश्चयदृष्टि से विभावरहित आत्मा का श्रद्धान ही सम्यक्त्व होता है (50, 51 ) । दूसरे शब्दों में क्षोभ, दोष व अदृढ़तारहित आत्मा का श्रद्धान ही सम्यक्त्व है ( 52 )। इस प्रकार के श्रद्धान की उत्पत्ति के विषय में कहा गया है कि सम्यक्त्व का (बाह्य) निमित्त जिनसूत्र होता है तथा उस जिनसूत्र को समझनेवाले मनुष्य भी बाह्य निमित्त कहे गये हैं किन्तु दर्शनमोह (दर्शनमोहनीय कर्म) का क्षय आदि अंतरंगनिमित्त कहा गया है ( 53 )।
सम्यग्ज्ञानः
सम्यग्दर्शन के समान सम्यग्ज्ञान भी दो प्रकार से समझाया गया है । बाह्यदृष्टि या लोकदृष्टि या परदृष्टि या व्यवहारदृष्टि से संशय (सन्देह), विमोह (अस्पष्टता) और विभ्रम (विपरीतग्रहण) रहित ज्ञान सम्यग्ज्ञान होता है (52)1
अन्तरदृष्टि या आत्मदृष्टि या स्वदृष्टि या निश्चयदृष्टि से हेय और उपादेय तत्त्वों का ठीक-ठीक बोध सम्यग्ज्ञान है ( 52 ) । लोक के घटक जीवादि द्रव्य हैं, जो बाह्य/पर द्रव्य है, इसलिए वे हेय कहे जाते हैं। किन्तु कर्मों के संयोग से उत्पन्न विभाव गुण- पर्यायों-रहित निज की आत्मा ही उपादेय है (38)। और भी कहा है:' परद्रव्य त्यागने योग्य है, स्वद्रव्य उपादेय है। आत्मा अंतर (स्व) द्रव्य है इसलिए अंतर स्वद्रव्य आत्मा ही उपादेय है ( 50 ) । उपादेय आत्मा का स्वरूप बताते हुए कहा गया है कि जिस तरह सिद्ध आत्माएँ हैं उसी तरह से द्रव्यदृष्टि से संसारी जीव होते हैं ( 47 ) । फिर उपादेय आत्मा मन-वचन-काय के स्पंदनरहित, विरोधी, विकल्परहित, पर से तादात्म्यरहित, शरीररहित, पराश्रयरहित, शुभ-अशुभ रागरहित, दोष (कर्ममल) / द्वेष (वैर) रहित, मूर्च्छा / अविवेकरहित और भयरहित होता है (43)। कहा गया है कि उपादेय आत्मा में विभाव पर्यायें नहीं होती । वहाँ मानअपमान की भाव दशाएँ, हर्ष की भाव दशाएँ और खेद की भाव दशाएँ नहीं होती है (39)।
(2)
नियमसार (खण्ड-1)
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ज्ञान की धारणा को समझाने के लिए आचार्य कुन्दकुन्द का कथन है: दो प्रकार का होता है ( 1 ) स्वभावज्ञान और (2) विभावज्ञान | स्वभावज्ञान असीमित ज्ञान है तथा विभावज्ञान असीमित ज्ञान से भिन्न हुआ सीमित ज्ञान है यह विभावज्ञान (असीमित से भिन्न ज्ञान ) दो प्रकार का होता हैः सम्यग्ज्ञान तथा मिथ्याज्ञान । सम्यग्ज्ञान आत्मा को उपादेय माननेवाला ज्ञान है जो चार प्रकार का होता है (1) मति ( 2 ) श्रुत (3) अवधि और (4) मन:पर्यय । मिथ्याज्ञान आत्मा को उपादेय स्वीकार नहीं करनेवाला ज्ञान है जो तीन प्रकार का है (1) कुमति ( 2 ) कुश्रुत और (3) कुअवधि ।
|
सम्यक्चारित्रः
A
सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान की तरह आचार्य कुन्दकुन्द ने सम्यक्चारित्र को भी दो तरीके से समझाया है । (1) जो बाह्यदृष्टि या लोकदृष्टि या परदृष्टि से हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह का त्याग करता है, पाँच समिति (ईया, भाषा, एषणा, आदाननिक्षेपण और प्रतिष्ठापन) तथा तीन गुप्ति (मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति) का सूक्ष्मरूप से पालन करता है वह आत्मा की उपादेयता को समझकर बहिर्मुखी साधना में संलग्न होता है वह व्यवहार से सम्यक्चारित्र का पालन करनेवाला होता है और (2) जो आत्मा की उपादेयता को समझकर अन्तरदृष्टि या आत्मदृष्टि या स्वदृष्टि से ध्यान, सामायिक आदि के द्वारा अन्तर्मुखी होकर साधना में संलग्न होता है वह निश्चय सम्यक्चारित्र में लीन कहा जाता है ।
नियमसार में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र का मुख्यतया वर्णन करते हुए द्रव्यों का वर्णन भी किया गया है ।
जीवद्रव्यः
जीव द्रव्य चेतना गुणवाला होता है और शेष द्रव्य चेतना - गुण से रहित होते हैं (37)। जीव द्रव्य रसरहित, रूपरहित, गंधरहित, शब्दरहित, स्पर्श से अप्रकट, तर्क से ग्रहण न होनेवाला तथा न कहे हुए आकार वाला होता है (47)। नियमसार (खण्ड-1)
(3)
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जिस प्रकार लोक के अग्रभाग में स्थित सिद्ध अशरीरी, अविनाशी, अतीन्द्रिय, निर्मल और विशुद्धात्मा होते हैं उसी प्रकार संसार चक्र में भ्रमण करते हुए द्रव्यदृष्टि से जीव अशरीरी, अविनाशी, अतीन्द्रिय, निर्मल और विशुद्धात्मा होते हैं (48)।
___ जीव उपयोगमय होता है । उपयोग दो प्रकार का होता हैः (1) ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग। ज्ञानोपयोग दो प्रकार का होता हैः स्वभावज्ञान (असीमित ज्ञान) और विभावज्ञान (सीमित ज्ञान) (10)। केवलज्ञान इन्द्रियों से रहित तथा सहायता निरपेक्ष होता है इसलिए वह स्वभावज्ञान (असीमित ज्ञान) कहा जाता है। विभाव ज्ञान (सीमित ज्ञान) दो प्रकार का होता हैः सम्यग्ज्ञान और मिथ्याज्ञान। सम्यग्ज्ञान चार प्रकार का होता हैः (1) मतिज्ञान (2) श्रुतज्ञान (3) अवधिज्ञान और (4) मनःपर्ययज्ञान । मिथ्याज्ञान तीन प्रकार का होता हैः (1) कुमतिज्ञान (2) कुश्रुतज्ञान और (3) कुअवधिज्ञान (11, 12)।
दर्शनोपयोग दो प्रकार का होता हैः स्वभावदर्शन और विभावदर्शन। केवलदर्शन इन्द्रियों से रहित और असहाय होता है इसलिए वह स्वभावदर्शन कहा गया है। चक्षु, अचक्षु और अवधि दर्शन; ये तीनों ही विभावदर्शन कहे गये हैं (13, 14)।
___ व्यवहारनय (लोकदृष्टि) से संसारी आत्मा पुद्गल कर्मों का कर्ता और भोक्ता होता है और निश्चयनय (आत्मदृष्टि) से आत्मा कर्म से उत्पन्न भाव के कारण रागद्वेषात्मक भावों का कर्ता और भोक्ता होता है (18)। जीवों को दो प्रकार से जाना जाता हैः द्रव्यार्थिकनय और पर्यायार्थिकनय । द्रव्यार्थिकनय से जीव विभाव पर्यायों से रहित होते हैं तथा पर्यायार्थिकनय से जीव विभाव पर्यायों से सहित होते हैं (19)। पुद्गलद्रव्यः
जो द्रव्य अपना आदि है, अपना मध्य है, अपना अन्त है, इन्द्रियों द्वारा ग्रहण करने योग्य नहीं है तथा जो अविभागी है वह पुद्गल परमाणु कहा जाता है
( 4 )
नियमसार (खण्ड-1)
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(26)। चरपरा, कड़वा, कसायला, खट्टा और मीठा - इन पाँच रसों में से एक रस, सफेद, पीला, हरा, लाल और काला- इन पाँच वर्णों में से कोई एक वर्ण, सुगंध और दुर्गंध में से कोई एक गंध तथा कड़ा-नरम, हल्का-भारी, ठंडा-गरम और रूखा-चिकना - इन आठ स्पर्शों में से अविरुद्ध दो स्पर्श होते हैं, वह पुद्गल स्वभाव गुणवाला होता है ( 27 ) । परमाणुरूप पर्याय पुद्गल की शुद्ध पर्याय है। शुद्ध पर्याय होने से वह शब्द - रहित है। इस तरह निश्चयनय (मूलदृष्टि) से परमाणु पुद्गलद्रव्य कहा जाता है और इससे भिन्न ( व्यवहार - लोकदृष्टि से) स्कंध का नाम पुद्गलद्रव्य है (29)।
पुद्गलद्रव्य दो प्रकार का होता है: (1) परमाणु और ( 2 ) स्कंध | परमाणु दो प्रकार का होता है : ( 1 ) कार्य परमाणु और (2) कारण परमाणु (20)। चार धातुओं (पृथ्वी, जल, तेज और वायु) का जो आधार होता है वह कारण परमाणु कहलाता है तथा जो स्कन्धों का अंतिम भाग होता है वह कार्य परमाणु कहलाता है ( 25 )।
स्कंध छ प्रकार के होते हैं: (1) अति स्थूलस्थूल (2) स्थूल (3) स्थूलसूक्ष्म (4) सूक्ष्मस्थूल (5) सूक्ष्म और (6) अति सूक्ष्म (20, 21)। (1) अति स्थूलस्थूल स्कंधः भूमि, पर्वत आदि। (2) स्थूल स्कन्धः घी, जल, तेल आदि ।
(3) स्थूलसूक्ष्म स्कन्धः छाया, आतप आदि ।
(4) सूक्ष्मस्थूल स्कन्धः चार इन्द्रियों (स्पर्शन, रसना, घ्राण और चक्षु) के विषय कहे गये हैं।
(5) सूक्ष्म स्कन्धः कर्मवर्गणा के योग्य स्कन्ध सूक्ष्म होते हैं।
(6) अतिसूक्ष्म स्कन्धः कर्मवर्गणा के अयोग्य स्कन्ध सूक्ष्म होते हैं (22, 23, 24)1
नियमसार (खण्ड-1)
(5)
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धर्मद्रव्यः
जीव और पुद्गलों की गति में जो निमित्त होता है वह धर्मद्रव्य कहा जाता
है (30) 1
अधर्मद्रव्यः
जीव और पुद्गलों के ठहरने में जो निमित्त होता है वह अधर्मद्रव्य कहा जाता है (30)।
आकाशद्रव्यः
जीव आदि सभी द्रव्यों के अवगाहन (स्थान देने) में जो निमित्त होता है; वह आकाशद्रव्य कहा जाता है (30)।
कालद्रव्यः
जीव आदि द्रव्यों के परिणमन में जो कारण होता है वह कालद्रव्य कहा जाता है (33)। जीव और पुद्गलद्रव्य से अनन्त गुणी समयपर्यायरूपी संपदा लोकाकाश में होती है और उसका आधार परमार्थ काल होता है ( 32 ) । जीवादि द्रव्यों में परिणमन का कारण कालद्रव्य होता है (33)।
अस्तिकायः
काल द्रव्य को छोड़कर ये पाँच (जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश) द्रव्य अस्तिकाय कहे गये हैं । बहुप्रदेशता को काय कहा गया है (34)। जीव द्रव्य के असंख्यात प्रदेश होते हैं। मूर्त (पुद्गल द्रव्य) के संख्यात, असंख्यात और अनन्त प्रदेश होते हैं। धर्म द्रव्य, अधर्म द्रव्य तथा लोकाकाश के असंख्यात प्रदेश होते हैं। अलोकाकाश के अनन्त प्रदेश होते हैं। काल द्रव्य का एक प्रदेश होता है क्योंकि काल द्रव्य के कायत्व नहीं होता है ( 35, 36 ) ।
(6)
डॉ. कमलचन्द सोगाणी पूर्व प्रोफेसर दर्शनशास्त्र, दर्शनशास्त्र विभाग सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर एवं निदेशक
जैनविद्या संस्थान / अपभ्रंश साहित्य अकादमी
नियमसार (खण्ड-1)
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नियमसार को अच्छी तरह समझने के लिए गाथा के प्रत्येक शब्द जैसेसंज्ञा, सर्वनाम, क्रिया, विशेषण, कृदन्त आदि के लिए व्याकरणिक विश्लेषण में प्रयुक्त संकेतों का ज्ञान होने से प्रत्येक शब्द का अनुवाद समझा जा सकेगा।
अ - अव्यय (इसका अर्थ = लगाकर लिखा गया है) अक - अकर्मक क्रिया अनि - अनियमित कर्म - कर्मवाच्य नपुं. - नपुंसकलिंग पु. - पुल्लिंग भवि - भविष्यत्काल भूक - भूतकालिक कृदन्त व - वर्तमानकाल वकृ - वर्तमान कृदन्त वि - विशेषण विधि - विधि विधिकृ - विधि कृदन्त संकृ - संबंधक कृदन्त सक - सकर्मक क्रिया सवि - सर्वनाम विशेषण स्त्री. - स्त्रीलिंग हेकृ - हेत्वर्थक कृदन्त नियमसार (खण्ड-1)
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• ()- इस प्रकार के कोष्ठक में मूल शब्द रखा गया है ।
•[()+()+()..... ] इस प्रकार के कोष्ठक के अन्दर + चिह्न शब्दों में संधि का द्योतक है। यहाँ अन्दर के कोष्ठकों में गाथा के शब्द ही रख दिये गये हैं । ·[()-()-()..... ] इस प्रकार के कोष्ठक के अन्दर चिह्न समास का
द्योतक है।
•{[ ()+()+().....]वि} जहाँ समस्त पद विशेषण का कार्य करता है वहाँ इस प्रकार के कोष्ठक का प्रयोग किया गया है।
• जहाँ कोष्ठक के बाहर केवल संख्या (जैसे 1 / 1, 2 / 1 आदि) ही लिखी है वहाँ उस कोष्ठक के अन्दर का शब्द 'संज्ञा' है ।
· जहाँ कर्मवाच्य, कृदन्त आदि प्राकृत के नियमानुसार नहीं बने हैं वहाँ कोष्ठक के बाहर 'अनि' भी लिखा गया है ।
क्रिया-रूप निम्नप्रकार लिखा गया है
1/1 अक या सक
1/2 अक या सक
2/1 अक या सक
2/2 अक या सक
3/1 अक या सक
3/2 अक या सक
( 8 )
-
-
·
-
-
-
उत्तम पुरुष / एकवचन
उत्तम पुरुष / बहुवचन
मध्यम पुरुष / एकवचन
मध्यम पुरुष / बहुवचन
अन्य पुरुष / एकवचन
अन्य पुरुष / बहुवचन
नियमसार (खण्ड-1)
Page #16
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विभक्तियाँ निम्नप्रकार लिखी गई हैं
1/1
प्रथमा/ एकवचन
1/2
प्रथमा / बहुवचन
2/1 - द्वितीया/ एकवचन
-
2 / 2
3/1
3/2
4/1
4/2
5/1
5/2
6/1
6/2
7/1
7/2
-
- द्वितीया / बहुवचन
तृतीया / एकवचन
-
-
-
-
-
-
तृतीया / बहुवचन
चतुर्थी / एकवचन
चतुर्थी / बहुवचन
पंचमी / एकवचन
पंचमी / बहुवचन
षष्ठी / एकवचन
षष्ठी / बहुवचन
सप्तमी / एकवचन
सप्तमी / बहुवचन
नियमसार (खण्ड-1)
(9)
Page #17
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जीव अधिकार (गाथा 1 से गाथा 19 तक)
Page #18
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1.
णमिऊण जिणं वीरं अणंतवरणाणदंसणसहावं । वोच्छामि णियमसारं केवलिसुदकेवलीभणिदं॥
संकृ
जिणं
णमिऊण
(जिण) 2/1 वीरं
(वीर) 2/1 अणंतवरणाणदसण- {[(अणंत) वि-(वर) वि- । सहावं
(णाण)-(दसण)-(सहाव)
2/1] वि} वोच्छामि (वोच्छ) भवि 1/1 सक णियमसारं (णियमसार) 2/1 केवलिसुदकेवली- [(केवलि)-(सुदकेवलिभणिदं
सुदकेवली)(भण) भूकृ 2/1]
नमस्कार करके तीर्थंकर महावीर को अनन्त और श्रेष्ठ/ . उत्तम ज्ञान-दर्शन स्वभाववाले कहूँगा नियमसार को केवलियों तथा श्रुतकेवलियों द्वारा प्रतिपादित
अन्वय- अणंतवरणाणदंसणसहावं जिणं वीरं णमिऊण केवलिसुदकेवलीभणिदं णियमसारं वोच्छामि ।
___ अर्थ- अनन्त और श्रेष्ठ/उत्तम ज्ञान-दर्शन स्वभाववाले तीर्थंकर महावीर को नमस्कार करके (मैं) केवलियों तथा श्रुतकेवलियों द्वारा प्रतिपादित नियमसार को कहूँगा।
1. 2.
प्राकृत-व्याकरणः पृष्ठ 16 (ii) छन्द की मात्रा की पूर्ति हेतु ‘सुदकेवलि' का 'सुदकेवली' हुआ है।
नियमसार (खण्ड-1)
(11)
Page #19
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2.
मग्गो मग्गफलं ति य दुविहं जिणसासणे समक्खादं। मग्गो मोक्खउवाओ तस्स फलं होइ णिव्वाणं ॥
मार्ग
मग्गो मग्गफलं ति
(मग्ग) 1/1 [(मग्गफलं)+ (इति)] मग्गफलं (मग्गफल) 1/1 इति (अ) =
मार्ग का फल वाक्यालंकार
अव्यय
और
दुविहं
(दुविह) 1/1 वि [(जिण)-(सासण) 7/1]
जिणसासणे
दो प्रकार का जिनेन्द्र भगवान के शासन में कहा गया मार्ग मोक्ष का उपाय
समक्खादं मग्गो मोक्खउवाओ तस्स फलं
(समक्खाद) भूकृ 1/1 अनि (मग्ग) 1/1 [(मोक्ख)-(उवाअ) 1/1] (त) 6/1 सवि (फल) 1/1 (हो) व 3/1 अक (णिव्वाण) 1/1
उसका
होइ
फल होता है निर्वाण
णिव्वाणं
अन्वय- जिणसासणे मग्गो य मग्गफलं ति दुविहं समक्खादं मोक्खउवाओ मग्गो तस्स फलं णिव्वाणं होई।
अर्थ- जिनेन्द्र भगवान के शासन में मार्ग और मार्ग का फल दो प्रकार का कहा गया (है)। मोक्ष का उपाय मार्ग (है) (और) उस (मार्ग) का फल निर्वाण (मोक्ष) होता है।
(12)
नियमसार (खण्ड-1)
Page #20
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3. णियमेण य जंकज्जं तं णियमं णाणदंसणचरितं ।
विवरीयपरिहरत्थं भणिदं खलु सारमिदि वयणं ॥
णियमेण
कज्जं
णियमं णाणदंसणचरित्तं
(णियमेण) 3/1
आवश्यक रूप से तृतीयार्थक अव्यय अव्यय
पादपूरक (ज) 1/1 सवि (कज्ज) विधिकृ 1/1 अनि । पालन किया जाना
चाहिए (त) 1/1 सवि
वह (णियम) 1/1
णियम [(णाण)-(दसण)
सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान (चरित्त) 1/1]
और सम्यक्चारित्र [(विवरीय)
विपरीत भाव को (परि) अ (निरर्थक प्रयोग)- हटानेवाला होने के (हरत्थं) अ]
कारण (भण) भूकृ 1/1
कहा गया अव्यय
पादपूरक [(सारं)+ (इदि)] सारं (सार) 1/1 वि पूर्णरूप से सिद्ध इदि (अ) = क्योंकि क्योंकि (वयण) 1/1
वचन
विवरीयपरिहरत्थं
भणिदं खलु सारमिदि
वयणं
अन्वय- जंणियमं णियमेण य कज्जंतं णाणदंसणचरित्तं भणिदं खलु विवरीयपरिहरत्थं सारमिदि वयणं ।
अर्थ- जो नियम आवश्यक रूप से पालन किया जाना चाहिए वह सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र कहा गया (है), क्योंकि (वह नियम) विपरीत भाव (मिथ्यादर्शन-मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र) को हटानेवाला होने के कारण पूर्णरूप से सिद्ध वचन (है)। 1. 'पाइय-सद्द-महण्णवो' कोश
नियमसार (खण्ड-1)
(13)
Page #21
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4. णियमं मोक्खउवाओ तस्स फलं हवदि परमणिव्वाणं।
एदेसिं तिण्हं पि य पत्तेयपरूवणा होइ ॥
फल
णियमं मोक्खउवाओ तस्स फलं हवदि परमणिव्वाणं एदेसिं तिण्हं पि
(णियम) 1/1
नियम [(मोक्ख)-(उवाअ) 1/1] मोक्ष का उपाय
(मोक्व)-(वाय 1111 (त) 6/1 सवि
उसका (फल) 1/1 (हव) व 3/1 अक
होता है [(परम) वि-(णिव्वाण) 1/1] परम निर्वाण (एद) 4/2 सवि [(तिण्ह)+(अपि)] तिण्हं (ति) 4/2 वि तीनों के लिए अपि (अ) = इसके अतिरिक्त इसके अतिरिक्त अव्यय [(पत्तेय) वि-(परूवणा) 1/1] प्रत्येक का प्रतिपादन (हो) व 3/1 अक विद्यमान है
और
पत्तेयपरूवणा
अन्वय-णियमं मोक्खउवाओतस्स फलं परमणिव्वाणं हवदि य एदेसिं तिण्हं पि पत्तेयपरूवणा होइ ।
__अर्थ- (पूर्व कथित) (रत्नत्रय स्वरूप) (वह) नियम (एक साथ) मोक्ष का उपाय (है) उसका फल परम निर्वाण होता है और इसके अतिरिक्त इन तीनों के लिए प्रत्येक का (भिन्न-भिन्न) प्रतिपादन विद्यमान है।
1. 2.
प्राकृत-व्याकरणः पृष्ठ 7 (i) अभिनव प्राकृत-व्याकरणः पृष्ठ 154
(14)
नियमसार (खण्ड-1)
Page #22
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________________
अत्तागमतच्चाणं सद्दहणादो हवेइ सम्मत्तं । ववगयअसेसदोसो सयलगुणप्पा हवे अत्तो॥
हवेइ
अत्तागमतच्चाणं [(अत्त)+(आगमतच्चाणं)]
[(अत्त) वि-(आगम)- आप्त, आगम और (तच्च) 6/2]
तत्त्वों के सद्दहणादो (सद्दहण) 5/1
श्रद्धान के कारण (हव) व 3/1 अक होता है सम्मत्तं
(सम्मत्त) 1/1 . सम्यक्त्व ववगयअसेसदोसो [(ववगय) भूकृ अनि- समस्त दोष नष्ट कर
(असेस) वि-(दोस) 1/1] दिये गये सयलगुणप्पा
[(सयल) वि-(गुणप्प) समस्त गुणों से युक्त 1/1वि (हव) व 3/1 अक
होता है अत्तो
(अत्त) 1/1 वि
आप्त
अन्वय- अत्तागमतच्चाणं सद्दहणादो सम्मत्तं हवेइ ववगयअसेसदोसो सयलगुणप्पा अत्तो हवे।
___ अर्थ- आप्त, आगम और तत्त्वों के श्रद्धान के कारण सम्यक्त्व होता है। (जिनके द्वारा) समस्त दोष नष्ट कर दिये गये हैं) (और) (जो) समस्त गुणों से युक्त (है) (वह) आप्त होता है। 1. कारण व्यक्त करनेवाले शब्दों में तृतीया या पंचमी होती है।
(प्राकृत-व्याकरण, पृष्ठ 42) समास के अंत में 'अप्प' शब्द का प्रयोग होने से इसका अर्थ ‘से युक्त' होता है।
नियमसार (खण्ड-1)
(15)
Page #23
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________________
6.
छुहतण्हभीरुरोसो रागो मोहो चिंता जरा रुजा मिच्चू। सेदं खेद मदो रइ विम्हिय णिद्दा जणुव्वेगो ॥
राग
मोह
जरा
रोग
मिच्चू
खेद
छुहतण्हभीरुरोसो [(छुहा-छुह) - क्षुधा, तृषा, भयभीत,
(तण्हा-तण्ह)-(भीरु) वि- रोष
(रोस) 1/1] रागो
(राग) 1/1 मोहो
(मोह) 1/1 चिंता (चिंता) 1/1
चिंता (जरा) 1/1
बुढ़ापा रुजा
(रुजा) 1/1 (मिच्चु) 1/1
मृत्यु सेदं (सेद) 1/1 .
पसीना (खेद) 1/1
खेद मदो (मद) 1/1
मद (रइ) 1/1
रति *विम्हिय
(विम्हिय) 1/1 वि चकित णिद्दा (णिद्दा) 1/1
निद्रा जणुव्वेगो
[(जण)+(उव्वेगो)]
[(जण)-(उव्वेग) 1/1] जन्म और अरति . अन्वय-छुहतण्हभीरुरोसो रागो मोहो चिंता जरा रुजामिच्चू सेदं खेद मदो रइ विम्हिय णिद्दा जणुव्वेगो।
अर्थ- क्षुधा, तृषा, भयभीत (होना), रोष, राग, मोह, चिंता, बुढ़ापा, रोग, मृत्यु, पसीना, खेद, मद, रति, चकित (होना), निद्रा, जन्म और अरति (ये अठारह दोष) (हैं)।
*
छन्द की मात्रा की पूर्ति हेतु 'छुहा' का 'छुह' तथा 'तण्हा' का 'तण्ह' किया गया है। यहाँ अनुस्वार का आगम हुआ है। (प्राकृत-व्याकरण, पृष्ठ 5, 6.1.ii) प्राकृत-व्याकरण, पृष्ठ 3, (4 क) प्राकृत में किसी भी कारक के लिए मूल संज्ञा शब्द काम में लाया जा सकता है। (पिशलः प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ 517)
(16)
नियमसार (खण्ड-1)
Page #24
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________________
7.
णिस्सेसदोसरहिओ [ ( णिस्सेस) वि- (दोस) -
( रहिअ ) भूक 1 / 1 अनि ]
केवलणाणाइपरम- [ (केवलणाण) + ( आइपरम
विभवजुदो
णिस्सेसदोसरहिओ केवलणाणाइपरमविभवजुदो । सो परमप्पा उच्चइ तव्विवरीओ ण परमप्पा ॥
सो
परमप्पा
उच्चइ
तव्विवरीओ
ण
परमप्पा
विभवजुदो )]
[(केवलणाण) - (आइ) -
(परम) वि - (विभव) - (जुद)
भूकृ 1/1 अनि]
(त) 1 / 1 सवि
( परमप्प ) 1 / 1
(उच्च) व कर्म 3 / 1 अनि
( तव्विवरीअ ) 1 / 1 वि अनि
अव्यय
( परमप्प ) 1/1
समस्त दोषों से
रहित
केवलज्ञान आदि परम
वैभव से युक्त
वह
तीर्थंकर
कहा जाता है
उसके विपरीत
नहीं
तीर्थंकर
अन्वय- णिस्सेसदोसरहिओ केवलणाणाइपरमविभवजुदो सो परमप्पा उच्चइ तव्विवरीओ परमप्पा ण ।
अर्थ - (जो ) (उपरोक्त ) समस्त दोषों से रहित (है) (और) केवलज्ञान आदि परम वैभव से युक्त (है), वह तीर्थंकर कहा जाता है। उसके विपरीत तीर्थंकर नहीं (होते हैं) ।
नियमसार (खण्ड-1)
(17)
Page #25
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________________
8.
तस्स मुहुग्गदवयणं पुव्वावरदोसविरहियं सुद्धं । आगममिदि परिकहियं तेण दु कहिया हवंति तच्चत्था ॥
सुद्धं
आगममिदि
तस्स (त) 6/1 सवि
उसके मुहुग्गदवयणं' [(मुह)+(उग्गदवयणं)]
[(मुह)-(उग्गद) भूकृ अनि- मुख से निकला हुआ (वयण) 1/1]
वचन पुव्वावरदोसविरहियं [(पुव्वावर) वि-(दोस)
सब प्रकार के (विरहिय) 1/1 वि (पूर्वापर) दोषों से मुक्त (सुद्ध) 1/1 वि
शुद्ध [(आगम)+ (इदि)]
आगमं (आगम) 1/1 आगम
इदि (अ) = अतः परिकहियं [(परि) अ (निरर्थक प्रयोग)- कहा गया
(कह) भूकृ 1/1] (त) 3/1 सवि
उसके द्वारा • अव्यय कहिया (कह) भूकृ 1/2
कहे गये हवंति
(हव) व 3/2 अक होते हैं (तच्चत्थ) 1/2
तत्त्वार्थ
अतः
तेण
तच्चत्था
अन्वय- तस्स मुहुग्गदवयणं पुव्वावरदोसविरहियं सुद्धं आगममिदि परिकहियं तेण कहिया दु तच्चत्था हवंति ।
अर्थ- उस (आप्त) के मुख से निकला हुआ वचन (जो) सब प्रकार के (पूर्वापर) दोषों से मुक्त (हैं) अतः शुद्ध (है) (इसलिये) (वह) आगम कहा गया (है) (और) उस (आगम) के द्वारा कहे गये ही तत्त्वार्थ (द्रव्य) होते हैं।
1. 2.
प्राकृत-व्याकरण, पृष्ठ 3, (4 क) 'पाइय-सद्द-महण्णवो' कोश
(18)
नियमसार (खण्ड-1)
Page #26
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________________
9.
जीवा पोग्गलकाया धम्माधम्मा य काल आयासं। तच्चत्था इदि भणिदा णाणागुणपज्जएहि संजुत्ता ॥
जीव
पुद्गलकाय
जीवा
(जीव) 1/2 पोग्गलकाया [(पोग्गल)-(काय) 1/2] धम्माधम्मा [(धम्म)+ (अधम्मा)]
[(धम्म)-(अधम्म) 1/2]
अव्यय *काल
(काल) 1/1 आयासं
(आयास) 1/1
(तच्चत्थ) 1/2 इदि .
अव्यय भणिदा (भण) भूकृ 1/2 णाणागुणपज्जएहि [(णाणा) वि-(गुण)
(पज्जअ) 3/2] (संजुत्त) भूकृ 1/2 अनि
धर्म-अधर्म
और काल आकाश
तच्चत्था
तत्त्वार्थ
पादपूरक कहे गये नाना प्रकार की गुण-पर्यायों से युक्त
संजुत्ता
अन्वय- जीवा पोग्गलकाया धम्माधम्मा आयासं य काल णाणागुणपज्जएहि संजुत्ता तच्चत्था इदि भणिदा।
अर्थ- जीव, पुद्गलकाय, धर्म, अधर्म, आकाश और काल- (ये सभी) नाना प्रकार की गुण-पर्यायों से युक्त तत्त्वार्थ (द्रव्य) कहे गये (हैं)।
छन्द की मात्रा की पूर्ति हेतु ‘पज्जएहि' के स्थान पर ‘पज्जएहि' किया गया है। यहाँ समास के आरंभ में ‘णाणा' शब्द का प्रयोग विशेषण के रूप में हुआ है। प्राकृत में किसी भी कारक के लिए मूल संज्ञा शब्द काम में लाया जा सकता है। (पिशलः प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ 517)
1.
नियमसार (खण्ड-1)
(19)
Page #27
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________________
10.
जीवो
ओगमओ
ओगो
णाणदंसणो
होइ
णाणुवओगो
जीवो उवओगमओ उवओगो णाणदंसणो होइ ।
णाणुवओगो दुविहो सहावणाणं विहावणाणं ति ।।
दुविहो
सहावणाणं
विहावा
1.
(20)
(जीव ) 1 / 1
जीव
( उवओगमअ) 1 / 1 वि
उपयोगमय
( उवओग) 1 / 1
उपयोग
[ ( णाण) - ( दंसण) 1 / 1 वि] ज्ञान और दर्शनरूप
(हो) व 3/1 अक
है
[ ( णाण) + (उवओग)]
[ ( णाण ) - ( उवओग) 1 / 1] (दुविह) 1/1 वि
[ ( सहाव ) - ( णाण) 1 / 1]
[(विहावणाणं) + (इति)]
विहावणाणं [ ( विहाव ) -
( णाण) 1 / 1 ]
इति (अ)
=
ज्ञान उपयोग दो प्रकार का
स्वभावज्ञान
अन्वय- जीवो उवओगमओ उवओगो णाणदंसणो होइ णाणुवओगो दुविहो सहावणाणं विहावणाणं ति ।
अर्थ - जीव उपयोगमय ( है ) । उपयोग ज्ञान और दर्शनरूप है। ज्ञान उपयोग दो प्रकार का ( है ) - स्वभावज्ञान (और) विभावज्ञान ।
प्राकृत - व्याकरण, पृष्ठ 3, ( 4 क)
विभावज्ञान
शब्दस्वरूपद्योतक
नियमसार (खण्ड-1)
Page #28
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________________
11.
केवलमिंदियरहियं असहायं तं सहावणाणं ति।
सण्णाणिदरवियप्पे विहावणाणं हवे दुविहं ॥ 12. सण्णाणं चउभेयं मदिसुदओही तहेव मणपज्जं ।
अण्णाणं तिवियप्पं मदियाई भेददो चेव ॥
केवलमिंदियरहियं [(केवलं) + (इंदियरहियं)]
केवलं (केवल) 1/1 केवलज्ञान
[(इंदिय)-(रहिय) 1/1 वि] इन्द्रियों से रहित असहायं (असहाय) 1/1 वि सहायता निरपेक्ष (त) 1/1 सवि
वह सहावणाणं ति [(सहावणाणं)+ (इति)]
सहावणाणं [(सहाव)- स्वभावज्ञान (णाण) 1/1] इति (अ) =
इसलिए सण्णाणिदरवियप्पे [(सण्णाण) + (इदरवियप्पे)]
[(सण्णाण)-(इदर) वि- सीमित तथा निर्दोष (वियप्प) 7/1+5/1] ज्ञान (सम्यग्ज्ञान)
(तथा) उससे भिन्न सीमित तथा सदोष ज्ञान (मिथ्याज्ञान) के
भेद के कारण विहावणाणं [(विहाव)-(णाण) 1/1] विभावज्ञान हवे
(हव) व 3/1 अक होता है (दुविह) 1/1 वि
दो प्रकार का सण्णाणं (सण्णाण) 1/1
सम्यग्ज्ञान चउभेयं (चउभेय) 1/1 वि
चार प्रकार का
दुविहं
।
1.
कभी-कभी पंचमी विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है । (हेम -प्राकृत-व्याकरणः 3-136)
नियमसार (खण्ड-1)
(21)
Page #29
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________________
मदिसुदओही
मति, श्रुत, अवधि
तहेव मणपज्ज अण्णाणं तिवियप्पं मदियाई भेददो
[(मदि)-(सुद)(ओहि) 1/1] अव्यय (मणपज्ज) 1/1 (अण्णाण) 1/1 (तिवियप्प) 1/1 वि [(मदि)-(याइ) 1/2] (भेद) 5/1 पंचमीअर्थक 'दो' प्रत्यय
उसी प्रकार मनःपर्ययज्ञान अज्ञान तीन प्रकार का मति आदि भेद से
अव्यय
पादपूरक
___ अन्वय- केवलमिंदियरहियं असहायं तं सहावणाणं ति विहावणाणं दुविहं हवे सण्णाणिदरवियप्पे सण्णाणं चउभेयं मदिसुदओही मणपज्जं तहेव अण्णाणं तिवियप्पं भेददो चेव मदियाई ।
___अर्थ- (चूँकि) केवलज्ञान इन्द्रियों से रहित (तथा) सहायता निरपेक्ष (होता) (है) इसलिए वह स्वभावज्ञान (असीमित ज्ञान) (है)। विभावज्ञान (असीमित ज्ञान से अलग हुआ ज्ञान) दो प्रकार का होता हैः सीमित तथा निर्दोष ज्ञान अर्थात् सम्यग्ज्ञान और उससे भिन्न सीमित तथा सदोष ज्ञान (मिथ्याज्ञान) के भेद के कारण (यह विभाव ज्ञान) (असीमित ज्ञान से अलग हुआ ज्ञान) (दो प्रकार का कहा गया है)। (सम्यग्दृष्टि की अपेक्षा) सीमित तथा निर्दोष ज्ञान अर्थात् सम्यग्ज्ञान चार प्रकार का (है): मति, श्रुत, अवधि तथा मनःपर्यय। उसी प्रकार सीमित तथा सदोष ज्ञान अर्थात् अज्ञान (मिथ्याज्ञान) तीन प्रकार का (होता है) (जो) भेद से मति आदि (कुमति, कुश्रुत और कुअवधि) (कहे जाते हैं)। नोटः संपादक द्वारा अनूदित
(22)
नियमसार (खण्ड-1)
Page #30
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________________
13. तह दंसणउवओगो ससहावेदरवियप्पदो दुविहो।
केवलमिंदियरहियं असहायं तं सहावमिदि भणिदं॥
तह
अव्यय
उसी प्रकार दसणउवओगो [(दंसण)-(उवओग) 1/1] दर्शन-उपयोग ससहावेदरवियप्पदो [(ससहाव) + (इदरवियप्पदो)]
[(स-सहाव) वि-(इदर) वि- स्वभावसहित और (वियप्प) 5/1]
विकल्पपूर्वक विरोधी पंचमी अर्थक 'दो' प्रत्यय (विभावसहित) दुविहो (दुविह) 1/1 वि
दो प्रकार का केवलमिंदियरहियं [(केवलं)+ (इंदियरहियं)]
केवलं (केवल) 1/1 केवलदर्शन इंदियरहियं [(इंदिय)-(रहिय) इन्द्रियों से रहित
1/1 वि] असहायं
(असहाय) 1/1 वि असहाय (त) 1/1 सवि
वह सहावमिदि [(सहावं)+ (इदि)]
सहावं (सहाव) 2/1-7/1 स्वभाव में
इदि (अ) = इसलिए इसलिए भणिदं (भण) भूकृ 1/1
कहा गया
अन्वय-तह दंसणउवओगो ससहावेदरवियप्पदो दुविहो केवलमिंदियरहियं असहायं तं सहावमिदि भणिदं ।
अर्थ- उसी प्रकार दर्शन-उपयोग स्वभावसहित और विकल्पपूर्वक विरोधी (विभावसहित) दो प्रकार का (होता है) (उनमें) केवलदर्शन इन्द्रियों से रहित (और) असहाय (है) इसलिए वह (केवलदर्शन) स्वभाव में (विद्यमान) कहा गया (है)।
1.
कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम-प्राकृत-व्याकरणः 3-137)
नियमसार (खण्ड-1)
(23)
Page #31
--------------------------------------------------------------------------
________________
14. चक्खु अचक्खू ओही तिण्णि वि भणिदं विहावदिट्टित्ति ।
पज्जाओ दुवियप्पो सपरावेक्खो य णिरवेक्खो ॥
चक्षु
*चक्खु अचक्खू ओही
अचक्षु
अवधि तीनों
तिण्णि
कहे गये
भणिदं विहावदिहि त्ति
(चक्खु) 1/1 (अचक्खु) 1/1 (ओहि) 1/1 (ति) 1/2 वि अव्यय (भण) भूक 2/1-1/2 [(विहावदिट्ठी)+(इति)] [(विहाव)-(दिट्ठि) 1/2] इति (अ) = (पज्जाअ) 1/1 (दुवियप्प) 1/1 वि (स-परावेक्ख) 1/1 वि अव्यय (णिरवेक्ख) 1/1 वि
पज्जाओ दुवियप्पो सपरावेक्खो
विभावदर्शन समाप्तिसूचक पर्याय दो प्रकार की पर की अपेक्षा-सहित.
और अपेक्षा-रहित ।
.
णिरवेक्खो
अन्वय- चक्नु अचक्खू ओही तिण्णि वि विहावदिट्टि त्ति भणिदं पज्जाओ दुवियप्पो सपरावेक्खो य णिरवेक्खो ।
___ अर्थ- चक्षु, अचक्षु (और) अवधि (ये) तीनों ही विभावदर्शन कहे गये हैं)। पर्याय दो प्रकार की (है): पर की अपेक्षा-सहित और (पर की) अपेक्षा-रहित ।
प्रथमा विभक्ति के स्थान पर कभी-कभी द्वितीया विभक्ति होती है। (हेम-प्राकृत-व्याकरणः वृत्ति 3-137) प्राकृत में किसी भी कारक के लिए मूल संज्ञा शब्द काम में लाया जा सकता है। (पिशलः प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ 517)
(24)
नियमसार (खण्ड-1)
Page #32
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________________
15. णरणारयतिरियसुरा पज्जाया ते विहावमिदि भणिदा।
कम्मोपाधिविवज्जियपज्जाया ते सहावमिदि भणिदा॥
णरणारयतिरियसुरा [(णर)-(णारय)-(तिरिय)- मनुष्य, नारकी, तिर्यंच (सुर) 1/2]
और देव पज्जाया (पज्जाय) 1/2
पर्यायें (त) 1/2 सवि
वे विहावमिदि [(विहावं)+ (इदि)]
विहावं' (विहाव) 2/1-1/2 विभाव इदि (अ) =
पादपूरक भणिदा (भण) भूकृ 1/2
कही गई कम्मोपाधिविवज्जिय-[(कम्म)+ (उपाधिविवज्जियपज्जाया
पज्जाया)] [(कम्म)-(उपाधि)- कर्मों के संयोग (विवज्जिय) वि
से रहित पर्यायें (पज्जाय) 1/2]
(त) 1/2 सवि सहावमिदि [(सहावं)+ (इदि)]
सहावं' (सहाव) 2/1-1/2 स्वभाव इदि (अ) =
पादपूरक (भण) भूकृ 1/2
कही गई
भणिदा
अन्वय- णरणारयतिरियसुरा पज्जाया ते विहावमिदि भणिदा कम्मोपाधिविवज्जियपज्जाया ते सहावमिदि भणिदा।
अर्थ- (जो) मनुष्य, नारकी, तिर्यंच और देव पर्यायें (हैं) वे विभाव (पर्यायें) कही गई हैं)। कर्मों के संयोग से रहित (जो) पर्यायें (हैं) वे स्वभाव (पर्यायें) कही गई (हैं)।
1.
प्रथमा विभक्ति के स्थान पर कभी-कभी द्वितीया विभक्ति होती है । (हेम-प्राकृत-व्याकरणः वृत्ति 3-137)
नियमसार (खण्ड-1)
(25)
Page #33
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________________
16. माणुस्सा दुवियप्पा कम्ममहीभोगभूमिसंजादा।
सत्तविहा णेरड्या णादव्वा पुढविभेदेण ॥
माणुस्सा
(माणुस्स) 1/2
मनुष्य
दुवियप्पा
(दुवियप्प) 1/2 वि
दो प्रकार के
कम्ममहीभोगभूमि- [(कम्ममही)-(भोगभूमि)
कर्मभूमि और
संजादा
(संजाद) भूकृ 1/2 अनि]
भोगभूमि में उत्पन्न
सत्तविहा
(सत्तविह) 1/2 वि
सात प्रकार के
णेरइया
(णेरइय) 1/2
नारकी
णादव्वा
(णा) विधिक 1/2
समझे जाने चाहिए .
पुढविभेदेण
[(पुढवि)-(भेद) 3/1]
पृथ्वी के भेद से
अन्वय- माणुस्सा दुवियप्पा कम्ममहीभोगभूमिसंजादा पुढविभेदेण
णेरइया सत्तविहा णादव्वा ।।
अर्थ- मनुष्य दो प्रकार के (होते हैं)- कर्मभूमि और भोगभूमि में
उत्पन्न। पृथ्वी के भेद से नारकी सात प्रकार के समझे जाने चाहिए ।
(26)
नियमसार (खण्ड-1)
Page #34
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________________
17.
चउदहभेदा
भणिदा
तेरच्छा
चउदहभेदा भणिदा तेरिच्छा सुरगणा चउब्भेदा ।
एदेसिं
वित्थारं लोयविभागेसु णादव्वं ॥
सुरगणा
चभेदा
एदेसिं
वित्थारं
लोयविभागेसु'
णादव्वं
1.
[ ( चउदह) - (भेद) 1 / 2 वि] चौदह भेदवाले
(भण) भूक 1/2
कहे गये
(तेरिच्छ) 1/2
तिर्यंच
(सुरगण) 1 / 2
देवसमूह
(चउब्भेद) 1/2 वि
चार भेदवा
(एद ) 6 / 2 सवि
इनका
(face) 1/1
विस्तार
[(लोय) - (विभाग)
लोक-विभाग
7/2-3/2]
( नामक ग्रंथों) से
( णा) विधि 1 / 1
समझा जाना चाहिए
अन्वय- तेरिच्छा चउदहभेदा सुरगणा चउब्भेदा भणिदा एदेसिं वित्थारं
लोयविभागेसु णादव्वं ।
अर्थ- तिर्यंच चौदह भेदवाले (तथा) देवसमूह चार भेदवाले कहे गये ( हैं ) । इनका विस्तार लोक - विभाग ( नामक ग्रंथों) से समझा जाना चाहिए ।
कभी-कभी तृतीया विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है । ( हेम - प्राकृत - व्याकरणः 3-135)
नेयमसार (खण्ड-1
-1)
(27)
Page #35
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________________
18. कत्ता भोत्ता आदा पोग्गलकम्मस्स होदि ववहारा ।
कम्मजभावेणादा कत्ता भोत्ता दु णिच्छयदो ॥
कत्ता भोत्ता आदा पोग्लकम्मस्स होदि ववहारा कम्मजभावेणादा
(कत्तु) 1/1 वि
कर्ता (भोत्तु) 1/1 वि
भोक्ता (आद) 1/1
आत्मा [(पोग्गल)-(कम्म) 6/1] पुद्गल कर्मों का (हो) व 3/1 अक होता है । (ववहार) 5/1
व्यवहारनय से [(कम्मजभावेण)+(आदा)] कम्मजभावेण [(कम्मज) वि- कर्म से उत्पन्न भाव (भाव) 3/1] - आदा (आद) 1/1
आत्मा (कत्तु) 1/1 वि
कर्ता (भोत्तु) 1/1 वि
भोक्ता अव्यय
और (णिच्छय) 5/1
निश्चयनय से
के कारण
कत्ता भोत्ता
णिच्छयदो
अन्वय- ववहारा आदा पोग्गलकम्मस्स कत्ता भोत्ता होदि दु णिच्छयदो कम्मजभावेणादा कत्ता भोत्ता ।
अर्थ- व्यवहारनय (लोक (बाह्य) दृष्टि) से (संसारी) आत्मा पुद्गल कर्मों का कर्ता (और) भोक्ता होता है और निश्चयनय (आत्म (अंतरंग) दृष्टि) से (संसारी) (आत्मा) कर्म से उत्पन्न भाव के कारण (रागद्वेषात्मक भावों का) कर्ता (और) भोक्ता (होता है)।
1.
कारण व्यक्त करनेवाले शब्दों में तृतीया होती है। (प्राकृत-व्याकरणः पृष्ठ 36) छन्द की मात्रा की पूर्ति हेतु 'णिच्छयादो' का 'णिच्छयदो' किया गया है। संपादक द्वारा अनूदित
2. नोटः
(28)
नियमसार (खण्ड-1)
Page #36
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________________
19. दव्वत्थिएण जीवा वदिरित्ता पुव्वभणिदपज्जाया।
पज्जयणएण जीवा संजुत्ता होंति दुविहेहिं ॥
दव्वत्थिएण (दव्वत्थिअ) 3/1 द्रव्यार्थिकनय से जीवा (जीव) 1/2
जीव वदिरित्ता (वदिरित्त) भूकृ 1/2 अनि रहित पुव्वभणिदपज्जाया [(पुव्व) वि-(भणिद) भूकृ- पूर्व में कही गई पर्यायों
(पज्जाय) 5/1] पज्जयणएण (पज्जयणअ) 3/1 पर्यायार्थिकनय से जीवा (जीव) 1/2
जीव संजुत्ता (संजुत्त) भूकृ 1/2 अनि संयुक्त
(हो) व 3/2 अक होते हैं दुविहेहिं (दुविह) 3/2 वि दो प्रकारों से
होंति
अन्वय-दव्वत्थिएण जीवा पुव्वभणिदपज्जाया वदिरित्ता पज्जयणएण जीवा संजुत्ता होंति दुविहेहिं ।
अर्थ- द्रव्यार्थिकनय से जीव पूर्व में कही गई पर्यायों से रहित (होते हैं)। पर्यायार्थिकनय से जीव (पूर्व में कही गई पर्यायों से) संयुक्त होते हैं। (इस प्रकार) (जीवों को) दो प्रकारों (द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नयों) से (जानो)।
नियमसार (खण्ड-1)
(29)
Page #37
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अजीव अधिकार (गाथा 20 से गाथा 37 तक)
Page #38
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________________
20.
अणुखंधवियप्पेण दु पोग्गलदव्वं हवेदि दुवियप्पं । खंधा हु छप्पयारा परमाणू चेव दुवियप्पो ॥
अणुखंधवियप्पेण' [(अणु)-(खंध)
(वियप्प) 3/1]
अव्यय पोग्गलदव्वं [(पोग्गल)-(दव्व) 1/1] हवेदि
(हव) व 3/1 अक दुवियप्पं (दुवियप्प) 1/1 वि
(खंध) 1/2
अव्यय छप्पयारा (छ-प्पयार) 1/2 वि परमाणू (परमाणु) 1/1 चेव
अव्यय दुवियप्पो (दुवियप्प) 1/1 वि
परमाणु और स्कंध भेद के कारण पादपूरक पुद्गलद्रव्य होता है दो प्रकार का स्कन्ध पादपूरक छ भेदवाले
खंधा
परमाणु और
दो भेदवाला
अन्वय- अणुखंधवियप्पेण दु पोग्गलदव्वं दुवियप्पं हवेदि खंधा हु छप्पयारा चेव परमाणू दुवियप्पो।।
अर्थ- परमाणु और स्कंध भेद के कारण पुद्गलद्रव्य दो प्रकार का होता है। स्कंध छ भेदवाले (होते हैं) और परमाणु दो भेदवाला (होता है) (कार्य परमाणु और कारण परमाणु)।
कारण व्यक्त करनेवाले शब्दों में तृतीया या पंचमी होती है। (प्राकृत-व्याकरणः पृष्ठ 36) कभी-कभी समूह अर्थ में द्विगु समास पुल्लिंग एकवचन में भी होता है। (प्राकृत-व्याकरणः पृष्ठ 18)
नियमसार (खण्ड-1)
(31)
Page #39
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________________
21.
अइथूलथूल थूलं थूलसुहुमं च सुहुमथूलं च । सुहुमं अइसुहुमं इदि धरादियं होदि छन्भेयं ॥
*अइथूलथूल थूलं थूलसुहुमं
और
सुहुमथूलं
सुहुमं अइसुहुमं
[(अइ) अ (थूलथूल)1/1 वि] अति स्थूलस्थूल (थूल) 1/1 वि
स्थूल (थूलसुहुम) 1/1 वि स्थूलसूक्ष्म अव्यय (सुहुमथूल) 1/1 वि सूक्ष्मस्थूल अव्यय
और (सुहुम) 1/1 वि
सूक्ष्म [(अइ) अ (सुहुम) 1/1 वि] अतिसूक्ष्म अव्यय
वाक्यार्थद्योतक [(धरा)+(आदियं)] [(धरा)-(आदिय) 1/1] पृथ्वी आदि 'य' स्वार्थिक (हो) व 3/1 अक (छ-ब्भेय) 1/1 वि छ भेदरूप
इदि
धरादियं
होदि छब्भेयं
होता है
अन्वय- अइथूलथूल थूलं थूलसुहुमं च सुहुमथूलं सुहुम च अइसुहुमं इदि धरादियं छब्भेदं होदि ।
अर्थ- (स्कन्ध) अति स्थूलस्थूल, स्थूल, स्थूलसूक्ष्म और सूक्ष्मस्थूल, सूक्ष्म और अति सूक्ष्म (होते हैं)। (इस प्रकार) पृथ्वी आदि (स्कन्ध) छ भेदरूप होता है।
नोटः
प्राकृत में किसी भी कारक के लिए मूल संज्ञा शब्द काम में लाया जा सकता है। (पिशलः प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ 517) इस गाथा में समाहार द्वन्द्व समास तथा समाहार द्विगु समास के नियम का प्रयोग किया गया है इसलिए सभी जगह नपुंसकलिंग एकवचन रखा गया है। संपादक द्वारा अनूदित
नोटः
(32)
नियमसार (खण्ड-1)
Page #40
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________________
इदि
22. भूपव्वदमादीया भणिदा अइथूलथूलमिदि खंधा।
थूला इदि विण्णेया सप्पीजलतेल्लमादीया ॥ भूपव्वदमादीया [(भूपव्वदं)+(आदीया)]
भूपव्वदं [(भू)-(पव्वद) भूमि, पर्वत 2/1-1/2] आदीया (आदिय) 1/2 आदि
'य' स्वार्थिक भणिदा (भण) भूकृ 1/2
कहे गये अइथूलथूलमिदि [(अइथूलथूलं)+ (इदि)]
अइथूलथूलं [(अइ) अ- अति स्थूलस्थूल (थूलथूल) 2/1-1/2 वि] इदि (अ)=
शब्दस्वरूपद्योतक खंधा (खंध) 1/2
स्कन्ध थला (थूल) 1/2 वि
स्थूल अव्यय
शब्दस्वरूपद्योतक विण्णेया (विण्णेय) विधिकृ 1/2 अनि समझे जाने चाहिये सप्पीजलतेल्लमादीया[(सप्पीजलतल्लं)+(आदीया)]
सप्पीजलतेल्लं [(सप्पि)- घी, जल, तेल (जल)-(तेल्ल)'2/1-1/2]
आदीया' (आदिय) 1/2 आदि
'य' स्वार्थिक अन्वय- भूपव्वदमादीया अइथूलथूलमिदि खंधा भणिदा सप्पीजलतेल्लमादीया थूला इदि विण्णेया।
अर्थ- भूमि, पर्वत आदि अति स्थूलस्थूल स्कंध कहे गये (हैं)। घी, जल, तेल आदि स्थूल (स्कंध) समझे जाने चाहिए।
प्रथमा विभक्ति के स्थान पर कभी-कभी द्वितीया विभक्ति होती है। . . (हेम-प्राकृत-व्याकरणः 3-137 वृत्ति )
छन्द की पूर्ति हेतु 'आदिय' का ‘आदीय' किया गया है। 3. यहाँ छन्द की मात्रा की पूर्ति हेतु 'सप्पि' के स्थान पर 'सप्पी' किया गया है।
22 और 23 गाथाओं में इतरेतर द्वन्दसमास के नियम का प्रयोग किया गया है। अतः बहुवचन का प्रयोग हुआ है तथा उत्तरपद के लिंग के अनुसार प्रथमा बहुवचन का प्रयोग
हुआ है। नोटः संपादक द्वारा अनूदित
नियमसार (खण्ड-1)
(33)
Page #41
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________________
23. छायातवमादीया थूलेदरखंधमिदि वियाणाहि।
सुहमथूलेदि भणिया खंधा चउरक्खविसया य॥ छायातवमादीया [(छायातवं)+(आदीया)]
छायातवं [(छाया)-(आतव) छाया, आतप 2/1-1/2] आदीया (आदिय) 1/2 आदि
'य' स्वार्थिक थूलेदरखंधमिदि [(थूल)+ (इदरखंध)+ (इदि)]
थूलेदरखंध[(थूल)वि-(इदर)वि-स्थूलसूक्ष्म स्कन्ध (खंध)12/1-1/2] इदि (अ) =
शब्दस्वरूपद्योतक वियाणाहि (वियाण) विधि 2/1 सक जानो सुहुमथूलेदि [(सुहुमथूला)+ (इदि)] सुहुमथूला (सुहुमथूल)
सूक्ष्मस्थूल 1/2 वि इदि (अ) =
शब्दस्वरूपद्योतक भणिया (भण) भूक 1/2
कहे गये खंधा (खंध) 1/2
स्कन्ध चउरक्खविसया [(चउर)+(अक्खविसया)]
[(चउर) वि-(अक्ख)- चार इन्द्रियों के विषयः (विसय) 1/2]
अव्यय अन्वय- छायातवमादीया थूलेदरखंधमिदि य सुहुमथूलेदि खंधा चउरक्खविसया भणिया वियाणाहि ।
अर्थ-छाया, आतप (धूप) आदि स्थूलसूक्ष्म स्कंध तथा (जो) सूक्ष्मस्थूल स्कन्ध (हैं) (वे) चार इन्द्रियों (स्पशन, रसना, घ्राण, चक्षु) के विषय कहे गये (हैं)। (तुम) जानो। 1. . प्रथमा विभक्ति के स्थान पर कभी-कभी द्वितीया विभक्ति होती है।
(हेम-प्राकृत-व्याकरणः 3-157 वृत्ति) 2. छन्द की पूर्ति हेतु 'आदिय का ‘आदीय' किया गया है। 3. विधिआज्ञा के प्रत्ययों के होने पर कभी-कभी अन्त्यस्थ 'अ' के स्थान पर 'आ' हो जाता
है। (हेम-प्राकृत-व्याकरणः 3-158 वृत्ति)
तथा
(34)
नियमसार (खण्ड-1)
Page #42
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________________
24. सुहुमा हवंति खंधा पाओग्गा कम्मवग्गणस्स पुणो।
तव्विवरीया खंधा अइसुहुमा इदि परूवेंति॥
सुहुमा हवंति
होते हैं
खंधा
पाओग्गा
योग्य
कम्मवग्गणस्स
पुणो
(सुहुम) 1/2 वि सूक्ष्म (हव) व 3/2 अक (खंध) 1/2
स्कन्ध (पाओग्ग) 1/2 वि [(कम्म)-(वग्गण) 6/1] कर्मवर्गणा के अव्यय
और (तव्विवरीय) 1/2 वि अनि उनके विपरीत (खंध) 1/2
स्कन्ध [(अइ) अ-(सुहुम) 1/2 वि] अति सूक्ष्म अव्यय
इस प्रकार (परूव) व 3/2 सक
कहते हैं
तव्विवरीया खंधा अइसुहुमा
इदि
परूवेंति
अन्वय- कम्मवग्गणस्स पाओग्गाखंधा सुहुमा हवंति पुणो तग्विवरीया खंधा अइसुहुमा इदि परूवेंति ।
__ अर्थ- कर्मवर्गणा के योग्य स्कन्ध सूक्ष्म होते हैं और उनके विपरीत (कर्मवर्गणा के अयोग्य) स्कन्ध अति सूक्ष्म (होते हैं)। इस प्रकार (आचार्य) कहते हैं।
1.
अभिनव-प्राकृत-व्याकरणः पृष्ठ 154
नियमसार (खण्ड-1)
(35)
Page #43
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________________
25.
धाउचउक्कस्स
पुणो जं
of 4.
हेऊ
करणं
तं यो खंधणं अवसाणं
णादव्वो
कज्जपरमाणु *
2.
धाउचउक्कस्स पुणो जं हेऊ कारणं ति तं णेयो । खंधाणं अवसाणं णादव्वो कज्जपरमाणु ॥
1.
नोट:
(36)
[ ( धाउ ) - ( चउक्क ) 6 / 1]
अव्यय
(ज) 1 / 1 सवि (हेउ) 1/1
[ ( कारणं) + (इति)]
कारणं (कारण) 1/1
इति (अ)
=
अव्यय
(य) विधि 1 / 1 अनि
(खंध) 6/2
चार धातुओं का
फिर
जो
कारण
आधार
शब्दस्वरूपद्योतक
ही
समझा जाना चाहिए स्कन्धों का
अंतिम भाग
अन्वय
अवसाणं कज्जपरमाणु णादव्वो ।
अर्थ - फिर चार धातुओं (पृथ्वी, जल, तेज और वायु) का जो आधार ( है ) ( वह) ही कारण (परमाणु) समझा जाना चाहिए (और) (जो) स्कन्धों का अंतिम भाग (है) (वह) कार्यपरमाणु ज्ञातव्य (है)।
(अवसाण) 2/11/1
ज्ञातव्य
(णा) विधि 1/1 [(कज्ज) - (परमाणु) 1/1] कार्यपरमाणु
पुणो धाउचउक्कस्स जं कारणं ति तं हेऊ णेयो खंधाणं
प्रथमा विभक्ति के स्थान पर कभी-कभी द्वितीया विभक्ति होती है । ( हेम-प्राकृत - व्याकरणः 3 - 137 वृत्ति )
यहाँ ‘अवसाण' शब्द पुल्लिंग की तरह प्रयुक्त हुआ है।
प्राकृत
में किसी भी कारक के लिए मूल संज्ञा शब्द काम में लाया जा सकता है ।
(पिशलः प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ 517 )
संपादक द्वारा अनूदित
नियमसार (खण्ड-1)
Page #44
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________________
26.
अत्तादि
अत्तमज्झं
अत्तंतं
णेव इंदियज्झं
अविभागी
जं
दव्वं
परमाणू तं वियाणाहि '
2.
अत्तादि अत्तमज्झं अत्तंतं णेव इंदियग्गेज्झं । अविभागी जं दव्वं परमाणू तं वियाणाहि ॥
*
1.
[ (अत्त) + (आदि)]
[ ( अत्त) वि - (आदि ) * 1/1] अपना आदि [ ( अत्त) वि (मज्झ ) 1 / 1] [(अत्त) + (अंतं)]
अपना मध्य
[(अत्त) वि- (अंत) 1 / 1]
अव्यय
[(इंदिय) - (ग्गेज्झ )
विधि 1 / 1 अनि ] ( अविभागि) 1 / 1 वि अनि
(ज) 1/1 सव
(दव्व) 1 / 1 (परमाणु) 1/1
(त) 2 / 1 सवि
(वियाण) विधि 2 / 1 सक
तं वियाणाहि परमाणू ।
अर्थ- जो द्रव्य अपना आदि (है), अपना मध्य (है), अपना अन्त (हैं), इन्द्रियों द्वारा ग्रहण करने योग्य नहीं ( है ) (तथा) (जो) अविभागी ( है ) उसको जानो (कि) (वह) परमाणु ( है ) ।
अपना अन्त
नहीं
इन्द्रियों द्वारा
ग्रहण करने योग्य
अविभागी
जो
द्रव्य
परमाणु
उसको
जानो
अन्वय- जं दव्वं अत्तादि अत्तमज्झं अत्तंतं इंदियग्गेज्झं णेव अविभागी
नियमसार (खण्ड-1)
प्राकृत में किसी भी कारक के लिए मूल संज्ञा शब्द काम में लाया जा सकता है । (पिशलः प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ 517 )
विधिआज्ञा के प्रत्ययों के होने पर कभी-कभी अन्त्यस्थ 'अ' के स्थान पर 'आ' हो जाता है । (हेम-प्राकृत-व्याकरणः 3 - 158 वृत्ति )
1
(37)
Page #45
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________________
27. एयरसरूवगंधं दोफासं तं हवे सहावगुणं । विहावगुणमिदि भणिदं जिणसमये सव्वपयडत्तं ॥
एयरसरूवगंधं
दोफासं
तं
हवे
सहावगुणं विहावगुणमिदि
भणिदं
जिणसमये
सव्वपयडत्तं
[(एय) वि - (रस) - (रूव) -
(गंध) 1 / 1 ]
(दो - फास) 1 / 1
(a) 1/1
सवि
( हव) व 3 / 1 अक
[ ( सहाव ) - ( गुण) 1 / 1] [(विहावगुणं) + (इदि)]
विहावगुणं [(विहाव ) -
(38)
( गुण) 1 / 1 ]
इदि (अ) = ही
(भण) भूकृ 1 / 1
[ ( जिण) - (समय) 7 / 1]
[ ( सव्व) सवि
( पयडत्त ) 1 / 1 ]
एक रस, एक रूप
और एक गंध
दो स्पर्श
वह
होता है
स्वभावगुण
विभावपर्याय
ही
कही गई
जिनशासन में
प्रत्येक प्रकार की
प्रकटता
अन्वय- - एयरसरूवगंधं दोफासं तं सहावगुणं हवे सव्वपयडत्तं जिणसमये विहावगुणमिदि भणिदं ।
अर्थ - (परमाणु में) एक रस, एक रूप, एक गंध (और) दो स्पर्श (होते हैं) वह (पुद्गल का) स्वभावगुण होता है ( किन्तु ) प्रत्येक प्रकार की (स्कंधरूप) प्रकटता जिनशासन में (पुद्गल की ) विभावपर्याय ही कही गई ( है ) ।
नियमसार (खण्ड-1)
Page #46
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________________
28.
अण्णणिरावेक्खो जो परिणामो सो सहावपज्जाओ ।
खंधसरूवेण पुणो परिणामो सो विहावपज्जाओ ॥
अण्णणिरावेक्खो
जो
परिणामो
सो
सहावपज्जाओ
खंधसरूवेण
पुण
परिणामो
सो
विहावपज्जाओ
[ ( अण्ण) वि - (णिरावेक्ख) पर की अपेक्षा - रहित
1/1 fa]
(ज) 1 / 1 सवि
(परिणाम) 1 / 1
(त) 1 / 1 सवि
[ ( सहाव ) - (पज्जाअ) 1 / 1 ]
[ ( खंध ) - (सरूव) 3 / 1 वि]
अव्यय
नियमसार (खण्ड
जो
परिणमन
-1)
वह
स्वभाव - पर्याय
स्कंध - स्वरूप से
और
परिणमन
अन्वय- अण्णणिरावेक्खो जो परिणामो सो सहावपज्जाओ पुणो
(परिणाम) 1 / 1
(त) 1/1 सवि
वह
[(विहाव ) - (पज्जाअ) 1 / 1] विभाव- पर्याय
खंधसरूवेण परिणामो सो विहावपज्जाओ।
अर्थ - पर की अपेक्षा - रहित जो परिणमन ( है ) वह स्वभाव - पर्याय (है) और स्कंध - स्वरूप से (जो ) परिणमन है वह विभाव - पर्याय ( है )।
(39)
Page #47
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________________
29. पोग्गलदव्वं उच्चइ परमाणू णिच्छएण इदरेण।
पोग्गलदव्वो त्ति पुणो ववदेसो होदि खंधस्स ॥
पोग्गलदव्वं
उच्चइ परमाणू णिच्छएण इदरेण
[(पोग्गल)-(दव्व) 1/1] (उच्चइ) व कर्म 3/1 अनि (परमाणु) 1/1 (णिच्छय) 3/1 (इदर) 3/1 वि
पुद्गलद्रव्य कहा जाता है परमाणु निश्चयनय से इससे भिन्न (व्यवहारनय) से
पोग्गलदव्वो त्ति
पुद्गलद्रव्य
पादपूरक
[(पोग्गलदव्वो)+ (इति)] पोग्गलदव्वो [(पोग्गल)(दव्व) 1/1] इति (अ) = अव्यय (ववदेस) 1/1 (हो) व 3/1 अक (खंध) 6/1
और
पुणो ववदेसो
नाम
होदि
खंधस्स
स्कंध का
अन्वय- णिच्छएण परमाणू पोग्गलदव्वं उच्चइ पुणो इदरेण खंधस्स ववदेसो पोग्गलदव्वो त्ति होदि ।
अर्थ- निश्चयनय (मूलदृष्टि) से परमाणु पुद्गलद्रव्य कहा जाता है और इससे भिन्न (व्यवहारनय-लोकदृष्टि) से स्कन्ध का नाम पुद्गलद्रव्य है।
(40)
नियमसार (खण्ड-1)
Page #48
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________________
30. गमणणिमित्तं धम्ममधम्मं ठिदि जीवपोग्गलाणंच।
अवगहणं आयासं जीवादीसव्वदव्वाणं ॥
गमणणिमित्तं धम्ममधम्म
गति में निमित्त
धर्म
[(गमण)-(णिमित्त) 1/1] [(धम्म)+(अधम्म)] धम्म (धम्म) 1/1 अधम्म (अधम्म) 1/1 (ठिदि) 7/1 [(जीव)-(पोग्गल) 6/2]
*ठिदि जीवपोग्गलाणं
अधर्म ठहरने में जीव और पुद्गलद्रव्यों
की
और अवगाहन में आकाश
अव्यय अवगहणं (अवगहण) 2/1+7/1 आयासं
(आयास) 1/1 जीवादीसव्वदव्वाणं [(जीव)+(आदीसव्व
दव्वाणं)] [(जीव)-(आदी-आदि)- (सव्व) सवि-(दव्व) 6/2]
जीव आदि सभी द्रव्यों के
अन्वय- जीवपोग्गलाणं गमणणिमित्तं धम्मं च ठिदि अधम्म जीवादीसव्वदव्वाणं अवगहणं आयासं ।
अर्थ- जीव और पुद्गलद्रव्यों की गति में (जो) निमित्त (है) (वह) धर्म (द्रव्य) और ठहरने में (जो) (निमित्त) (है) (वह) अधर्म (द्रव्य) (है)। जीव आदि सभी द्रव्यों के अवगाहन (स्थान देने) में (जो निमित्त) (है) (वह) आकाश (द्रव्य) (है)।
प्राकृत में किसी भी कारक के लिए मूल संज्ञा शब्द काम में लाया जा सकता है। (पिशलः प्राकृत भाषाओंका व्याकरण, पृष्ठ 517) कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम-प्राकृत-व्याकरणः 3-137)
1.
नियमसार (खण्ड-1)
(41)
Page #49
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________________
31.
समयावलिभेदेण
समयावलिभेदेण दु दुवियप्पं अहव होइ तिवियप्पं । संखेज्जावलिहदसंठाणप्पमाणं
दो
तु ॥
दु दुवियपं
अहव
होइ
तिवियप्पं
दो
संखेज्जावलिहद
ठाण
g
[(समय) + (आवलिभेदेण) ]
[(समय) - (आवलि) -
(भेद ) 3 / 1 ]
अव्यय
(दुवियप्प) 1/1 वि
अव्यय
(हो) व 3/1 अक (तिवियप्प ) 1 / 1 वि
(42)
(तीद) 1/1 वि
[ ( संखेज्ज) + (आवलिहद
संठाणप्पमाणं ) ]
[(संखेज्ज) वि - (आवलि) - संख्यात आवलि से
गणित संस्थान प्रमाण
किन्तु
अन्वय- समयावलिभेदेण दु दुवियप्पं होइ अहव तिवियप्पं तु तीदो संखेज्जावलिहदसंठाणप्पमाणं ।
अर्थ- समय और आवलि के भेद से तो ( कालद्रव्य की पर्याय) दो प्रकार की होती है अथवा (वर्तमान, भूत और भविष्यत्काल के भेद से) तीन प्रकार की भी होती है) किन्तु भूतकाल संख्यात आवलि से गुणित संस्थान प्रमाण (होता
है) ।
(हद) वि- (संठाण) 1
-
( प्माण) 1 / 1 ]
अव्यय
1. विस्तार के लिए देखें: गोम्मटसार जीवकाण्ड |
समय और आवलि
के भेद से
तो
दो प्रकार की
अथवा
होती है
तीन प्रकार की
भूतकाल
नियमसार (खण्ड-1)
Page #50
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________________
32. जीवादु पोग्गलादो णंतगुणा चावि संपदा समया ।
लोयायासे संति य परमट्ठो सो हवे कालो ॥
जीवादु' पोग्गलादो णंतगुणा चावि संपदा
जीवद्रव्य से पुद्गलद्रव्य से अनन्त गुणी और
संपदा
समया लोयायासे
(जीव) 5/1 (पोग्गल) 5/1 (णंतगुण) 1/2 वि अव्यय (संपदा) 1/2 (समय) 1/2 वि (लोयायास) 7/1 (संति) व 3/2 अक अनि अव्यय (परमट्ठ) 1/1 वि (त) 1/1 सवि (हव) व 3/1 अक (काल) 1/1
समयपर्यायरूपी लोकाकाश में होती हैं
और परमार्थ (द्रव्य) वह
परमट्ठो
काल
अन्वय- जीवादु चावि पोग्गलादो णंतगुणा समया संपदा लोयायासे संति य सो परमट्ठो कालो हवे।
अर्थ- जीवद्रव्य और पुद्गलद्रव्य से अनन्त गुणी समयपर्यायरूपी संपदा लोकाकाश में होती हैं और (उसका आधार) वह (समूहरूप में) परमार्थ (द्रव्य) काल है (उससे ही समयपर्यायरूपी संपदा उत्पन्न होती है)।
1.
तुलना अर्थ में पंचमी विभक्ति का प्रयोग होता है। (प्राकृत-व्याकरण, पृष्ठ 44)
नियमसार (खण्ड-1)
(43)
Page #51
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________________
33. जीवादीदव्वाणं परिवणकारणं हवे कालो।
धम्मादिचउण्हं णं सहावगुणपज्जया होंति ॥
जीवादीदव्वाणं
परिवट्टणकारणं
हवे
कालो धम्मादिचउण्हं
[(जीव)+(आदीदव्वाणं)] [(जीव)-(आदी आदि)- जीवादि (दव्व) 6/2]
द्रव्यों के [(परिवट्टण)-(कारण) 1/1] परिणमन में कारण (हव) व 3/1 अक होता है (काल) 1/1
काल [(धम्म)+(आदिचउण्ह)] [(धम्म)-(आदि)- धर्म आदि चार (चउ) 6/2-7/2 वि] (द्रव्यों) में अव्यय
निश्चय ही [(सहाव)-(गुण)- स्वभाव गुण पर्यायें (पज्जय) 1/2] (हो) व 3/2 अक होती हैं
सहावगुणपज्जया
होंति
अन्वय- जीवादी दव्वाणं परिवहणकारणं हवे कालो धम्मादिचउण्हं णं सहावगुणपज्जया होति ।
अर्थ- जीवादि द्रव्यों के परिणमन में (जो) कारण होता है (वह) काल (द्रव्य है)। (परिणमन के फलस्वरूप) धर्म आदि चार (द्रव्यों) में निश्चय ही स्वभाव गुण पर्यायें होती हैं।
1.
कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम -प्राकृत-व्याकरणः 3-134)
(44)
नियमसार (खण्ड-1)
Page #52
--------------------------------------------------------------------------
________________
.
34. एदे छद्दव्वाणि य कालं मोत्तूण अस्थिकाय त्ति ।
णिट्ठिा जिणसमये काया हु बहुप्पदेसत्तं ॥
A
छद्दव्वाणि
छ द्रव्य
कालं मोत्तूण अस्थिकाय त्ति
(एद) 1/2 सवि [(छ)-(द्दव्व) 1/2] अव्यय (काल) 2/1 (मोत्तूण) संकृ अनि [(अस्थिकाया)+ (इति)] अस्थिकाया (अत्थिकाय)
पादपूरक काल को छोड़कर
अस्तिकायवाले
1/2 वि
णिद्दिट्ठा जिणसमये
इति (अ) =
शब्दस्वरूपद्योतक (णिद्दिट्ठ) भूकृ 1/2 अनि कहे गये (जिणसमय) 7/1
जिनशासन में (काय) 1/2
काय अव्यय
पादपूरक [(बहु) वि-(प्पदेसत्त) 1/1] बहुप्रदेशता
काया
बहुप्पदेसत्तं
अन्वय- छद्दव्वाणि य कालं मोत्तूण एदे जिणसमये अत्थिकाय त्ति हु णिद्दिट्ठा बहुप्पदेसत्तं काया।
अर्थ- (लोक में) (पूर्व कथित) छ द्रव्य (हैं)। काल (द्रव्य) को छोड़कर ये (पाँच द्रव्य) जिनशासन में अस्तिकायवाले कहे गये (हैं)। बहुप्रदेशता काय (कही गई है)।
नियमसार (खण्ड-1)
(45)
Page #53
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________________
35. संखेज्जासंखेज्जाणंतपदेसा हवंति मुत्तस्स ।
धम्माधम्मस्स पुणो जीवस्स असंखदेसा हु॥
संखेज्जासंखेज्जा- [(संखेज्ज)+(असंखेज्ज)+ णंतपदेसा (अणंतपदेसा)]
[(संखेज्ज)वि-(असंखेज्ज)वि- संख्यात, असंख्यात
(अणंत) वि (पदेस) 1/2] और अनन्त प्रदेश हवंति
(हव) व 3/2 अक होते हैं मुत्तस्स (मुत्त) 6/1 वि मूर्त (पुद्गलद्रव्य) के
[(धम्म)+(अधम्मस्स)] [(धम्म)-(अधम्म) 6/1] धर्म और अधर्म
(द्रव्य) के पुणो अव्यय
तथा जीवस्स (जीव) 6/1
जीव के असंखदेसा [(असंख)-(देस) 1/2] असंख्यात प्रदेश अव्यय
पादपूरक
धम्माधम्मस्स
60/
अन्वय- मुत्तस्स संखेज्जासंखेज्जाणंतपदेसा हवंति धम्माधम्मस्स पुणो जीवस्स असंखदेसा हु।
अर्थ- मूर्त (पुद्गलद्रव्य) के संख्यात, असंख्यात और अनन्त प्रदेश होते हैं। धर्म (द्रव्य), अधर्म (द्रव्य) तथा जीव (द्रव्य) के असंख्यात प्रदेश (होते हैं)।
(46)
नियमसार (खण्ड-1)
Page #54
--------------------------------------------------------------------------
________________
36. लोयायासे तावं इदरस्स अणंतयं हवे देसा । कालस्स ण कायत्तं एयपदेसो हवे जम्हा ॥
लोयायासे
तावं
इदरस्स
अणंतयं'
हवे
देसा
कालस्स
ण
कायत्तं
एयपदेसो
हवे
जम्हा
(लोयायास) 7/1
(ताव ) 2 /11 / 2
( इदर) 6/1 वि
(अनंतय) 2 /11 / 2 वि
'य' स्वार्थिक
(हव) व 3 / 2 अक
(देस) 1/2
(काल) 6/1
अव्यय
नियमसार (खण्ड-1)
( काय ) 1 / 1
[(एय) वि (पदेस) 1 / 1]
-
(हव) व 3/1 अक
अव्यय
लोकाकाश में
उतने
इससे भिन्न
अनन्त
होते हैं
प्रदेश
काल (द्रव्य) का
नहीं
कायत्व
एक प्रदेश
होता है
क्योंकि
अन्वय- लोयायासे तावं इदरस्स अणंतयं देसा हवे कालस्स एयपदेसो हवे जम्हा कायत्तं ण ।
अर्थ- लोकाकाश में उतने (ही) (असंख्यात) (प्रदेश होते हैं) इससे भिन्न (अलोकाकाश) के अनन्त प्रदेश होते हैं। काल (द्रव्य) का एक प्रदेश होता है क्योंकि (कालद्रव्य के) कायत्व नहीं (है) ।
1. प्रथमा विभक्ति के स्थान पर कभी-कभी द्वितीया विभक्ति होती है । (हेम-प्राकृत-व्याकरणः 3 - 137 वृत्ति)
(47)
Page #55
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________________
37. पोग्गलदव्वं मुत्तं मुत्तिविरहिया हवंति सेसाणि ।
चेदणभावो जीवो चेदणगुणवज्जिया सेसा ॥
पोग्गलदव्वं [(पोग्गल)-(दव्व) 1/1] पुद्गलद्रव्य मुत्तं
(मुत्त) 1/1 वि . मूर्त मुत्तिविरहिया [(मुत्ति) वि-(विरहिय) मूर्तिरहित
1/2 वि हवंति (हव) व 3/2 अक होते हैं सेसाणि (सेस) 1/2
शेष चेदणभावो [(चेदण)-(भाव) 1/1 वि] चेतन-स्वभाववाला (जीव) 1/1
जीव चेदणगुणवज्जिया [(चेदण)-(गुण)- चेतना-गुण से रहित
(वज्जिय) 1/2 वि सेसा (सेस) 1/2 वि
शेष
जीवो
अन्वय- पोग्गलदव्वं मुत्तं सेसाणि मुत्तिविरहिया हवंति जीवो चेदणभावो सेसा चेदणगुणवज्जिया।
अर्थ- पुद्गलद्रव्य मूर्त (इन्द्रिय ग्राह्य) (होता है) (और) शेष (द्रव्य) मूर्तिरहित (इन्द्रिय अग्राह्य) होते हैं। जीव (द्रव्य) चेतन-स्वभाववाला (होता है) (और) शेष (द्रव्य) चेतना-गुण से रहित (होते हैं)।
(48)
.
नियमसार (खण्ड-1)
Page #56
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________________
शुद्धभाव अधिकार
( गाथा 38 से गाथा 55 तक)
Page #57
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________________
38. जीवादिबहित्तच्चं हेयमुवादेयमप्पणो अप्पा।
कम्मोपाधिसमुब्भवगुणपज्जाएहिं वदिरित्तो॥
जीवादिबहित्तच्चं [(जीव)+(आदिबहित्तच्चं)]
[(जीव)-(आदि)-(बहित्तच्च) जीवादि बाह्य/पर 1/1]
द्रव्य हेयमुवादेयमप्पणो [(हेयं)+(उवादेयं) + (अप्पणो)]
हेयं (हेय) 1/1 वि हेय उवादेयं (उवादेय) 1/1 वि उपादेय अप्पणो (अप्प) 6/1 निज की
(अप्प) 1/1 कम्मोपाधिसमुब्भव- [(कम्म)+(उपाधिसमुब्भवगुणपज्जाएहिं गुणपज्जाएहिं)]
[(कम्म)-(उपाधि)- कर्मों के संयोग से (समुब्भव) वि-(गुण)- उत्पन्न (विभाव) (पज्जाअ) 3/2]
गुणपर्यायों से वदिरित्तो (वदिरित्त) 1/1 वि रहित
अप्पा
आत्मा
अन्वय- जीवादिबहित्तच्चं हेयं कम्मोपाधिसमुब्भवगुणपज्जाएहिं वदिरित्तो अप्पणो अप्पा उवादेयं ।
अर्थ- (लोक के घटक) जीवादि (द्रव्य हैं) (जो) बाह्य/पर द्रव्य (हैं)। (इसलिए आध्यात्मिक साधक के लिए) (वे) हेय (कहे जाते हैं) (किन्तु) (साधना के इच्छुक मनुष्यों के लिए) कर्मों के संयोग से उत्पन्न (विभाव) गुणपर्यायों से रहित निज की आत्मा (ही) उपादेय (है)।
1. नोटः
छन्द की मात्रा की पूर्ति के लिए ‘पज्जाएहिं' के स्थान पर ‘पज्जाएहि' होना चाहिए। संपादक द्वारा अनूदित इसका अर्थ परम्परा से भिन्न किया गया है।
(50)
नियमसार (खण्ड-1)
Page #58
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________________
39. णो खलु सहावठाणा णो माणवमाणभावठाणा वा।
णो हरिसभावठाणा णो जीवस्साहरिस्सठाणा वा ॥
नहीं
और
अव्यय खलु अव्यय
वाक्यालंकार सहावठाणा [(सहाव)-(ठाण) 1/2] स्वभाव से (उत्पन्न)
पर्यायें णो अव्यय
नहीं माणवमाणभावठाणा [(माण)+ (अवमाणभावठाणा)]
[(माण)-(अवमाण)- मान-अपमान की (भाव)-(ठाण) 1/2] भाव दशाएँ अव्यय अव्यय
नहीं हरिसभावठाणा [(हरिस)-(भाव) हर्ष की भाव दशाएँ
(ठाण) 1/2] अव्यय
नहीं जीवस्साहरिस्सठाणा [(जीवस्स)+ (अहरिस्सठाणा)]
जीवस्स (जीव) 6/1-7/1 जीव में अहरिस्सठाणा [(अहरिस्स)- खेद की भाव दशाएँ (ठाण) 1/2] अव्यय
भी
वा
अन्वय- जीवस्स सहावठाणा णो खलु माणवमाणभावठाणा णो हरिसभावठाणा णो वा अहरिस्सठाणा वा णो ।
अर्थ- जीव में (परम आत्मा में) (अनेक विभाव पर्यायों की तरह) स्वभाव से (उत्पन्न) (अनेक) पर्यायें नहीं (होती) । (वहाँ) मान-अपमान की भाव दशाएँ नहीं (होती है)। हर्ष की भाव दशाएँ नहीं (है) और खेद की भाव दशाएँ भी नहीं (होती है)।
1.
कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम -प्राकृत-व्याकरणः 3-134)
नियमसार (खण्ड-1)
(51)
Page #59
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________________
40. णो ठिदिबंधट्ठाणा पयडिट्ठाणा पदेसठाणा वा।
णो अणुभागट्ठाणा जीवस्स ण उदयठाणा वा ॥
ठिदिबंधट्टाणा
पयडिट्ठाणा पदेसठाणा
अव्यय
नहीं [(ठिदि)-(बंध)-(ट्ठाण) 1/2] स्थितिबंध की
भावदशा [(पयडि)-(ट्ठाण) 1/2] प्रकृतिबंध.की भावदशा [(पदेस)-(ठाण) 1/2] प्रदेशों में परस्पर प्रवेश
की स्थिति/अवसर अव्यय अव्यय [(अणुभाग)-(ट्ठाण) 1/2]
अनुभागबंध की
अवस्था (जीव) 6/1-7/1 जीव में अव्यय
नहीं [(उदय)-(ठाण) 1/2] उदय का कारण अव्यय
नहीं
अणुभागट्ठाणा
जीवस्स
ण
उदयठाणा
वा
अन्वय- जीवस्स ठिदिबंधट्ठाणा णो पयडिट्ठाणा पदेसठाणा वा णो अणुभागट्ठाणा वा ण उदयठाणा ।
___अर्थ- जीव (परम आत्मा) में (कर्मों के) स्थितिबंध की भावदशा नहीं (है), (कर्म) प्रकृतिबंध की (भी) भावदशा (नहीं है)। (कर्मपुद्गलों का आत्मा के) प्रदेशों में परस्पर प्रवेश की स्थिति/अवसर भी नहीं (है) । अनुभागबंध (कर्मफल शक्ति) की अवस्था भी नहीं (है) (तथा) (परम आत्मा में) (कर्म के) उदय का कारण (ही) (नहीं है)।
1.
कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम -प्राकृत-व्याकरणः 3-134)
(52)
नियमसार (खण्ड-1)
Page #60
--------------------------------------------------------------------------
________________
41.
.
णो खइयभावठाणा णो खयउवसमसहावठाणा वा। ओदइयभावठाणा णो उवसमणे सहावठाणा वा ॥
नहीं
ठाणा
अव्यय खइयभावठाणा [(खइय)-(भाव)-(ठाण) क्षय की भावदशा
1/2] अव्यय
नहीं खयउवसमसहाव- [(खय)-(उवसम)-(सहाव)- क्षयोपशम से उत्पन्न (ठाण) 1/2]
स्वभावदशा वा अव्यय
तथा ओदइयभावठाणा [(ओदइय) वि-(भाव)- उदय से उत्पन्न (ठाण) 1/2]
भाव दशा अव्यय
नहीं उवसमणे (उवसमण) 7/1+3/1 उपशम से सहावठाणा [(सहाव)-(ठाण) 1/2] स्वभाव दशा
अव्यय
णो
वा
भी
अन्वय-खइयभावठाणाणोखयउवसमसहावठाणोणो ओदइयभावठाणा णो वा उवसमणे सहावठाणा वा ।
___ अर्थ- (परम आत्मा में) (कर्मों के अल्पकालिक) क्षय की भावदशा नहीं (है), (कर्मों के) क्षयोपशम से उत्पन्न स्वभावदशा नहीं (है)। (कर्मों के) उदय से उत्पन्न भाव दशा नहीं (है) तथा (कर्मों के ) उपशम से (उत्पन्न) स्वभाव दशा भी (नहीं है)।
1.
कभी-कभी तृतीया विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम -प्राकृत-व्याकरणः 3-135)
नियमसार (खण्ड-1)
(53)
Page #61
--------------------------------------------------------------------------
________________
42.. चउगइभवसंभमणं जाइजरामरणरोगसोगा य।
कुलजोणिजीवमग्गणठाणा जीवस्स णो संति॥
चउगइभवसंभमणं [(चउ) वि-(गइ)-(भव)- चारगतिरूप संसार में
(संभमण) 1/1] | परिभ्रमण जाइजरामरणरोग- [(जाइ)-(जरा)-(मरण)- जन्म, बुढ़ापा, मृत्यु, सोगा (रोग)-(सोग) 1/2] व्याधि, खेद य
अव्यय कुलजोणिजीवमग्गण-[(कुल)-(जोणि)-(जीव)- वंश, उत्पत्ति स्थान
(मग्गण)-(ठाण) 1/2] जीवस्थान, मार्गणा
और
ठाणा
स्थान
जीवस्स
(जीव) 4/1
जीव के लिये
अव्यय
नहीं
संति
(संति) व 3/2 अक अनि
होते हैं
अन्वय- जीवस्स चउगइभवसंभमणं जाइजरामरणरोगसोगा कुलजोणिजीवमग्गणठाणा य णो संति।
अर्थ- जीव (परम-आत्मा) के लिये चारगतिरूप संसार में परिभ्रमण, जन्म, बुढ़ापा, मृत्यु, व्याधि, खेद, वंश, उत्पत्ति स्थान, जीवस्थान और मार्गणास्थान नहीं होते हैं।
नोटः विस्तार के लिए टीका देखें।
(54)
नियमसार (खण्ड-1)
Page #62
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________________
43. णिइंडो णिबंदो णिम्ममो णिक्कलो णिरालंबो।
णीरागो णिदोसो णिम्मूढो णिब्भयो अप्पा ॥
णिइंडो .
(णिइंड) 1/1 वि
णिबंदो णिम्ममो णिक्कलो णिरालंबो णीरागो णिद्दोसो णिम्मूढो णिब्भयो
(णिबंद) 1/1 वि (णिम्मम) 1/1 वि (णिक्कल) 1/1 वि (णिरालंब) 1/1 वि (णीराग) 1/1 वि (णिद्दोस) 1/1 वि (णिम्मूढ) 1/1 वि (णिब्भय) 1/1 वि (अप्प) 1/1
मन-वचन-काय के स्पंदनरहित विरोधी विकल्परहित पर से तादात्म्यरहित शरीररहित पराश्रयरहित शुभ-अशुभ रागरहित दोष/द्वेष रहित मूर्छा/अविवेकरहित भयरहित (परम) आत्मा
अप्पा
अन्वय- अप्पा णिइंडो णिबंदो णिम्ममो णिक्कलो णिरालंबो णीरागो णिदोसो णिम्मूढो णिन्भयो। .
अर्थ- (परम) आत्मा मन-वचन-काय के स्पंदनरहित, विरोधी (जैसेसुख-दुख, मान-अपमान आदि) विकल्परहित, पर से तादात्म्यरहित, (पाँच) शरीररहित, पराश्रयरहित, शुभ-अशुभ रागरहित, दोष (कर्ममल)/द्वेष (वैर) रहित, मूर्छा/अविवेकरहित (और) (सात) भयरहित (होता है)।
1. 2.
पाँच शरीर- (1) औदारिक (2) वैक्रियिक (3) आहारक (4) तैजस (5) कार्मण । सात भय- (1) इहलोक (2) परलोक (3) अत्राण (4) अगुप्ति (5) मरण (6) वेदना
(7) आकस्मिक ।
नियमसार (खण्ड-1)
(55)
Page #63
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________________
44. णिग्गंथो णीरागो णिस्सल्लो सयलदोसणिम्मुक्को।
णिक्कामो णिक्कोहो णिम्माणो णिम्मदो अप्पा ॥
णिग्गंथो (णिगंथ) 1/1 वि परिग्रहरहित णीरागो (णीराग) 1/1 वि आसक्तिरहित णिस्सल्लो (णिस्सल्ल) 1/1 वि शल्यरहित सयलदोसणिम्मुक्को [(सयल) वि-(दोस)- समस्त दोषों से
(णिम्मुक्क) भूक 1/1 अनि] रहित णिक्कामो (णिक्काम) 1/1 वि वासनारहित णिक्कोहो (णिक्कोह) 1/1 वि क्रोधरहित णिम्माणो (णिम्माण) 1/1 वि अहंकाररहित णिम्मदो (णिम्मद) 1/1 वि मदरहित अप्पा (अप्प) 1/1
(परम) आत्मा
अन्वय- अप्पा णिग्गंथो णीरागो णिस्सल्लो सयलदोसणिम्मुक्को णिक्कामो णिक्कोहो णिम्माणो णिम्मदो ।
अर्थ- (परम) आत्मा परिग्रहरहित, आसक्तिरहित, (तीन) शल्य' रहित, समस्त दोषों से रहित, वासनारहित, क्रोधरहित, अहंकाररहित (और) (आठ) मदरहित (होता है)।
1.
तीन शल्य- (1) माया शल्य- कपट (2) मिथ्या शल्य- आत्मा में अश्रद्वान (3) निदान शल्य- भोगों की लालसा । आठ मद- (1) ज्ञान-मद (2) पूजा-मद (3) कुल-मद (4) जाति-मद (5) बल-मद (6) रूप-मद (7) तप-मद (8) ऋद्धि-मद ।
(56)
नियमसार (खण्ड-1)
Page #64
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________________
45.
वण्णरसगंधफासा
थीपुंसणउंसयादि
पज्जाया
वण्णरसगंधफासा थीपुंसणउंसयादिपज्जाया । संठाणा संहणणा सव्वे जीवस्स णो संति ॥
संठाणा
संहणणा
सव्वे
जीवस
संति
[ ( वण्ण) - (रस) - (गंध) -
(फास) 1/2 ]
[(थीपुंसणउंसय) +
(आदिपज्जाया)]
[(थी) - (पुंस) - (णउंसय) -
(आदि) - (पज्जा ) 1/2]
( संठाण) 1/2
(संहणण) 1 / 2
(सव्व) 1/2 सवि
(जीव) 4/1
अव्यय
(संति) व 3 / 2 अक अनि
वर्ण, रस, गंध और
स्पर्श
स्त्री, पुरुष, नपुंसक
आदि पर्यायें
संठाण
संहनन
सभी
जीव के लिये
नहीं
होते हैं
अन्वय- वण्णरसगंधफासा श्रीपुंसणउंसयादिपज्जाया संठाणा संहणणा
सव्वे जीवस्स णो संति ।
अर्थ- वर्ण, रस, गंध, स्पर्श (गुण), स्त्री, पुरुष, नपुंसक आदि पर्यायें, संठाण (शरीर आकार), संहनन (शरीर की हड्डियाँ आदि) - (ये) सभी जीव (परम आत्मा) के लिये नहीं होते हैं ।
नियमसार (खण्ड-1)
(57)
Page #65
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________________
46.
अरसमरूवमगंधं अव्वत्तं चेदणागुणमसदं। जाण अलिंगग्गहणं जीवमणिद्दिट्ठसंठाणं ॥
अव्वत्तं
अरसमरूवमगंधं [(अरसं)+(अरूवं)+(अगंध)]
अरसं (अरस) 2/1 वि रसरहित अरूवं (अरूव) 2/1 वि रूपरहित अगंधं (अगंध) 2/1 वि गंधरहित (अव्वत्त) 2/1 वि
अप्रकट चेदणागुणमसइं [(चेदणागुणं)+(असई)]
चेदणागुणं (चेदणगुण) 2/1 वि चेतना गुणवाला
असई (असद्द) 2/1 वि शब्दरहित जाण
(जाण) विधि 2/1 सक जानो अलिंगग्गहणं (अलिंगग्गहण) 2/1 वि तर्क से ग्रहण न
होनेवाला जीवमणिद्दिठ्ठसंठाणं [(जीवं)+(अणिद्दिठ्ठसंठाणं)]
जीवं (जीव) 2/1 जीव को [(अणिद्दिट्ठ) भूकृ अनि- न कहे हुए (संठाण) 2/1 वि] आकारवाला
अन्वय- जीवं अरसं अरूवं अगंधं अव्वत्तं चेदणागुणं असई अलिंगग्गहणं अणिहिट्ठसंठाणं जाण ।
अर्थ- (तुम) जीव को रसरहित, रूपरहित, गंधरहित, (स्पर्श से भी) अप्रकट, चेतना गुणवाला, शब्दरहित, तर्क से ग्रहण न होनेवाला (तथा) न कहे हुए आकारवाला जानो। (विभिन्न जीवों द्वारा विभिन्न शरीराकार ग्रहण किया हुआ होने के कारण कोई एक आकार नियत नहीं किया जा सकता है)।
नोटः
संपादक द्वारा अनूदित
(58)
नियमसार (खण्ड-1)
Page #66
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________________
47. जारिसिया सिद्धप्पा भवमल्लिय जीव तारिसा होंति ।
अट्ठगुणालंकिया
जेण
जरमरणजम्ममुक्का
॥
जिस तरह से
सिद्ध आत्माएँ
संसार में
प्रवेश किये जीव
उसी तरह से
जारिसिया'
सिद्धप्पा भवमल्लिय
(जारिसिय) 1/2 वि 'इय' स्वार्थिक (सिद्धप्प ) 1/2 [(भवं) + (अल्लिय)] भवं (भव) 2/17/1 अल्लिय (अल्लि ) भूक 1/2 (जीव) 1 / 2 (तारिस) 1/2 वि (हो) व 3 / 2 अक
जरमरणजम्ममुक्का [( जरा-जर ) 3 वि - (मरण ) -
अगुणालंकिया
( जम्म) - (मुक्क) भूक 1/2 अनि] [(अट्टगुण) + (अलंकिया)] [(अट्ठ) - (गुण) - (अलंकिय) भूकृ 1/2 अनि ]
अव्यय
* जीव
तारसा
होंति
जेण
1. अभिनव प्राकृत व्याकरण, पृ. 424 (37)
2.
अन्वय- जारिसिया सिद्धप्पा तारिसा भवमल्लिय जीव होंति जेण जरमरणजम्ममुक्का अट्ठगुणालंकिया ।
अर्थ - जिस तरह से सिद्ध आत्माएँ ( हैं ) उसी तरह से संसार में प्रवेश किये हुए जीव होते हैं। चूँकि (सिद्ध) जन्म, जरा और मरण से मुक्त ( हैं ) (और) आठ गुणों से विभूषित (हैं) (इसलिये) (संसारी जीव भी) (अव्यक्त रूप से / द्रव्य दृष्टि से) (जन्म, जरा और मरण से मुक्त ) ( हैं ) ।
3.
नोट:
हुए
होते हैं जन्म, जरा और मरण से मुक्त
आठ गुणों से विभूषित
चूँकि
नियमसार (खण्ड-1)
कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है । ( हेम-प्राकृत - व्याकरणः 3 - 137 )
समास में अधिकतर प्रथम शब्द का अंतिम स्वर ह्रस्व हो तो दीर्घ हो जाता है और दीर्घ हो तो ह्रस्व हो जाता है ।
( प्राकृत - व्याकरण, पृष्ठ 21 )
प्राकृत में किसी भी कारक के लिए मूल संज्ञा शब्द काम में लाया जा सकता है।
(पिशलः प्राकृत भाषाओंका व्याकरण, पृष्ठ 517 )
संपादक द्वारा अनूदित
(59)
Page #67
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________________
48. असरीरा अविणासा अणिंदिया णिम्मला विसुद्धप्पा।
जह लोयग्गे सिद्धा तह जीवा संसिदी णेया ॥
असरीरा अविणासा अणिंदिया णिम्मला विसुद्धप्पा
जह
(असरीर) 1/2 वि (अविणास) 1/2 वि (अणिंदिय) 1/2 वि (णिम्मल) 1/2 वि (विसुद्धप्प) 1/2 वि अव्यय (लोयग्ग) 7/1 (सिद्ध) 1/2 अव्यय (जीव) 1/2 (संसिदि) 2/2→7/2 (णेय) विधिकृ 1/2 अनि
अशरीरी अविनाशी अतीन्द्रिय निर्मल विशुद्धात्मा जिस प्रकार लोक के अग्रभाग में सिद्ध उसी प्रकार जीव संसार चक्र में समझे जाने चाहिये
लोयग्गे सिद्धा तह जीवा संसिदी
णेया
अन्वय- जह लोयग्गे सिद्धा असरीरा अविणासा अणिंदिया णिम्मला विसुद्धप्पा तह संसिदी जीवा णेया ।
अर्थ- जिस प्रकार लोक के अग्रभाग में (स्थित) सिद्ध अशरीरी, अविनाशी, अतीन्द्रिय, निर्मल (और) विशुद्धात्मा (होते हैं) उसी प्रकार संसार चक्र में (भ्रमण करते हुए) (द्रव्य दृष्टि से) जीव समझे जाने चाहिये।
1.
कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम-प्राकृत-व्याकरणः 3-137)
(60)
नियमसार (खण्ड-1)
Page #68
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________________
49. एदे सव्वे भावा ववहारणयं पडुच्च भणिदा हु।
सव्वे सिद्धसहावा सुद्धणया संसिदी जीवा॥
ये
सभी
भावा ववहारणयं पडुच्च
भणिदा
(एद) 1/2 सविः (सव्व) 1/2 सवि (भाव) 1/2
भाव (ववहारणय) 2/1
व्यवहार नय को (पडुच्च) संकृ अनि आश्रय करके (भण) भूक 1/2 कहे गये अव्यय
निश्चय ही (सव्व) 1/2 सवि सभी [(सिद्ध)-(सहाव) 1/2 वि] सिद्ध स्वभाववाले (सुद्धणय) 5/1 शुद्धनय से (संसिदि) 2/2+7/2 संसार चक्र में (जीव) 1/2
सेद्धसहावा सुद्धणया संसिदी
जीवा
जीव
अन्वय- एदे सव्वे भावा हु ववहारणयं पडुच्च भणिदा संसिदी सुद्धणया सव्वे जीवा सिद्धसहावा । ____ अर्थ- ये सभी भाव (विभाव पर्यायें) निश्चय ही व्यवहारनय (लौकिक दृष्टि) को आश्रय करके कहे गये हैं। संसार चक्र में शुद्धनय (शुद्ध आत्मिक दृष्टि) से सभी जीव सिद्ध स्वभाववाले (कहे गये हैं)।
1.
कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम-प्राकृत-व्याकरणः 3-137)
नियमसार (खण्ड-1)
(61)
Page #69
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________________
50. पुव्वुत्तसयलभावा परदव्वं परसहावमिदि हेयं ।
सगदव्वमुवादेयं अंतरतच्चं हवे · अप्पा ॥
पुव्वुत्तसयलभावा
परदव्वं परसहावमिदि
[(पुव्व)+ (उत्तसयलभावा)] [(पुव्व) वि-(उत्त) भूकृ अनि- पूर्व कथित सभी (सयल) वि-(भाव) 1/2] भाव (विभाव पर्यायें) (परदव्व) 1/1
परद्रव्य . [(परसहावं)+ (इदि)] परसहावं (परसहाव) 1/1 परस्वभाव इदि (अ) = इसलिए इसलिए (हेय) 1/1 वि त्यागने योग्य [(सगदव्वं)+(उवादेयं)] सगदव्वं (सगदव्व) 1/1 स्वद्रव्य उवादेयं (उवादेय) 1/1 वि उपादेय [(अंतर)-(तच्च) 1/1] अंतर (स्व) द्रव्य (हव) व 3/1 अक (अप्प) 1/1
आत्मा
सगदव्वमुवादेयं
अंतरतच्चं हवे अप्पा
अन्वय-परदव्वं परसहावमिदि हेयं पुव्वुत्तसयलभावा सगदव्वमुवादेयं अप्पा अंतरतच्चं हवे ।
अर्थ- (आगम के अनुसार) परद्रव्य (और) परस्वभाव त्यागने योग्य (हैं)। (चूँकि) पूर्व कथित सभी भाव (विभाव पर्यायें हैं) इसलिए (त्यागी जानी चाहिये) । स्व द्रव्य उपादेय (है)। आत्मा अंतर (स्व) द्रव्य है । (इसलिए अंतर (स्व) द्रव्य आत्मा ही उपादेय है)।
नोटः
संपादक द्वारा अनूदित
(62)
नियमसार (खण्ड-1)
Page #70
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________________
51. विवरीयाभिणिवेसविवज्जियसद्दहणमेव सम्मत्तं । संसयविमोहविब्भमविवज्जियं होदि सण्णाणं ॥
52. चलमलिणमगाढत्तविवज्जियसद्दहणमेव सम्मत्तं ।
अधिगमभावो णाणं
हेयोवादेयतच्चाणं ||
विवरीयाभिणिवेस - [ (विवरीय) + (अभिणिवेसविवज्जियसद्दहणमेव विवज्जियसद्दहणं) + (एव) ]
सम्मत्तं
( सम्मत्त ) 1 / 1
संसयविमोहविब्भम- [(संसय) - (विमोह) वि
[(विवरीय) वि- (अभिणिवेस) - अशुद्ध अभिप्रायरहित
(विवज्जिय) वि - (सद्दहण) 1 / 1 ] श्रद्धान
एव (अ) = ही
ही
विवज्जियं
होदि
सणा
(विब्भम)-(विवज्जिय)1/1 वि] विभ्रमरहित
(हो) व 3 / 1 अक
होता है
( सण्णाण ) 1 / 1
सम्यग्ज्ञान
चलमलिणमगाढत्त- [(चलमलिणं)+(अगाढत्तविवज्जियसद्दहणमेव विवज्जियसद्दहणं ) + (एव) ]
नियमसार (खण्ड-1)
सम्यक्त्व
संशय, विमोह और
चलमलिणं [(चल) -
(मलिण) 1 / 1 ] अगाढत्तविवज्जियसद्दहणं
क्षोभ और
दोष
(63)
Page #71
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________________
अदृढ़ता-रहित श्रद्धान
सम्मत्तं
अधिगमभावो णाणं हेयोवादेयतच्चाणं
[(अगाढत्त)-(विवज्जिय)- (सद्दहण) 1/1] एव (अ)= ही (सम्मत्त) 1/1 (अधिगमभाव) 1/1 . (णाण) 1/1 [(हेय)+(उवादेयतच्चाणं)] [(हेय)-(उवादेय)(तच्च) 6/2]
सम्यक्त्व ठीक-ठीक बोध होना सम्यग्ज्ञान
हेय और उपादेय तत्त्वों का
अन्वय-विवरीयाभिणिवेसविवज्जियसद्दहणमेव सम्मत्तं संसयविमोहविब्भमविवज्जियं सण्णाणं होदि चलमलिणमगाढत्तविवज्जियसदहणमेव सम्मत्तं हेयोवादेयतच्चाणं अधिगमभावो णाणं।
___ अर्थ- (पूर्व कथित गाथा के अनुसार चूँकि आत्मा उपादेय है) (इसलिए) अशुद्ध अभिप्रायरहित अर्थात् विभावरहित (आत्मा का) श्रद्धान ही सम्यक्त्व (सम्यग्दर्शन) (है) (तथा) संशय (संदेह), विमोह (अस्पष्टता) और विभ्रम (विपरीत ग्रहण) रहित (ज्ञान) सम्यग्ज्ञान होता है। (आत्मा का) क्षोभ, दोष' और अदृढ़ता-रहित श्रद्धान ही सम्यक्त्व (है) (तथा) हेय और उपादेय तत्त्वों का ठीक-ठीक बोध होना सम्यगज्ञान (है)।
. 1.
सम्यग्दर्शन के आठ दोषः (1) शंका (2) कांक्षा (3) विचिकित्सा (4) मूढदृष्टि (5) अनुपगूहन (6) अस्थितिकरण (7) अवात्सल्य (8) अप्रभावना । संपादक द्वारा अनूदित
नोटः
(64)
नियमसार (खण्ड-1)
Page #72
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________________
53. सम्मत्तस्स णिमित्तं जिणसुत्तं तस्स जाणया पुरिसा।
अंतरहेऊ भणिदा दंसणमोहस्स खयपहुदी ॥
सम्मत्तस्स
सम्यक्त्व का निमित्त
णिमित्तं
जिणसुत्तं
जिनसूत्र उसके
तस्स
जाणया पुरिसा अंतरहेऊ भणिदा दसणमोहस्स . खयपहुदी
(सम्मत्त) 6/1 (णिमित्त) 1/1 (जिणसुत्त) 1/1 (त) 6/1 सवि (जाणय) 1/2 वि (पुरिस) 1/2 [(अंतर) वि-(हेउ) 1/2] (भण) भूकृ 1/2 [(दंसण)-(मोह) 6/1] (खय)-(पहुदि) 1/2 वि]
समझानेवाले मनुष्य अंतरंग निमित्त कहे गये दर्शनमोह के क्षय आदि
अन्वय- सम्मत्तस्स णिमित्तं जिणसुत्तं तस्स जाणया पुरिसा अंतरहेऊ दसणमोहस्स खयपहुदी भणिदा ।
अर्थ- सम्यक्त्व का (बाह्य) निमित्त जिनसूत्र (होता है) (तथा) उस (जिनसूत्र) के समझानेवाले मनुष्य (भी) (बाह्य निमित्त) (कहे गये हैं) (किन्तु) अंतरंग निमित्त दर्शनमोह के क्षय आदि कहे गये (हैं)।
नोटः
सपादक द्वारा अनूदित अर्थ परम्परा से भिन्न किया गया है।
नियमसार (खण्ड-1)
(65)
Page #73
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________________
54. सम्मत्तं सण्णाणं विज्जदि मोक्खस्स होदि सुण चरणं ।
ववहारणिच्छएण दु तम्हा चरणं पवक्खामि ॥
सम्यक्त्व
सम्मत्तं (सम्मत्त) 1/1 सण्णाणं (सण्णाण) 1/1
सम्यग्ज्ञान विज्जदि (विज्ज) व 3/1 अक होता है मोक्खस्स (मोक्ख) 6/1
मोक्ष का (हो) व 3/1 अक सुण
(सुण) विधि 2/1 सक सुनो चरणं (चरण) 1/1
सम्यक्चारित्र ववहारणिच्छएण [(ववहार)-(णिच्छय) 3/1] व्यवहार और निश्चय
होदि
होता है
अव्यय
तम्हा चरणं पवक्खामि
अव्यय (चरण) 2/1 (पवक्ख) भवि 1/1 सक
तथा इसलिए सम्यक्चारित्र को कहूँगा
अन्वय- मोक्खस्स सम्मत्तं सण्णाणं विज्जदि दु चरणं होदि तम्हा ववहारणिच्छएण चरणं पवक्खामि सुण ।
__ अर्थ- मोक्ष का (कारण) सम्यक्त्व (सम्यग्दर्शन) और सम्यग्ज्ञान होता है तथा सम्यक्चारित्र (भी) होता है। इसलिए (मैं) व्यवहार (लोक दृष्टि) और निश्चय (आत्मिक दृष्टि) से सम्यक्चारित्र को कहूँगा। (तुम) सुनो।
नोटः
अर्थ परम्परा से भिन्न किया गया है।
(66)
नियमसार (खण्ड-1)
Page #74
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________________
55. ववहारणयचरित्ते ववहारणयस्स होदि तवचरणं।
णिच्छयणयचारित्ते तवचरणं होदि णिच्छयदो॥
व्यवहारनय के चारित्र
व्यवहारनय से
ववहारणयचरित्ते [(ववहारणय)
(चरित्त) 7/1] ववहारणयस्स [(ववहारणय)
6/1-5/1] होदि (हो) व 3/1 अक तवचरणं
[(तव)-(चरण) 1/1] णिच्छयणयचारित्ते [(णिच्छयणय)
(चारित्त) 7/1] तवचरणं
[(तव)-(चरण) 1/1]
(हो) व 3/1 अक णिच्छयदो (णिच्छय) 5/1
होता है तप का आचरण निश्चयनय के चारित्र
होदि
तप का आचरण होता है निश्चयनय से
अन्वय- ववहारणयचरित्ते ववहारणयस्स तवचरणं होदि णिच्छयणयचारित्ते णिच्छयदो तवचरणं होदि ।
अर्थ- व्यवहारनय के चारित्र में व्यवहारनय (लोकदृष्टि) से तप का आचरण होता है (और) निश्चयनय के चारित्र में निश्चयनय (आत्मदृष्टि) से तप का आचरण होता है।
1.
कभी-कभी पंचमी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम -प्राकृत-व्याकरणः 3-134) यहाँ छन्द की मात्रा की पूर्ति हेतु 'णिच्छयादो' के स्थान पर 'णिच्छयदो' किया गया है।
2.
नियमसार (खण्ड-1)
(67)
Page #75
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________________
व्यवहारचारित्र अधिकार (गाथा 56 से गाथा 76 तक)
Page #76
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________________
56. कुलजोणिजीवमग्गणठाणाइसु जाणिऊण जीवाणं।
तस्सारंभणियत्तणपरिणामो होइ पढमवदं ॥
कुलजोणिजीवमग्गण-[(कुलजोणिजीवमग्गणठाण)+ ठाणाइसु
(आइसु)] [(कुल)-(जोणि)-(जीव)- कुल, योनि, (मग्गणठाण)-(आइ) जीवस्थान और 7/2]
मार्गणास्थान आदि में जाणिऊण (जाण) संकृ
जानकर जीवाणं (जीव) 6/2-2/2 जीवों को तस्सारंभणियत्तण- [(तस्स)+ (आरंभणियत्तणपरिणामो परिणामो)]
तस्स (त) 6/1 सवि उसका आरंभणियत्तणपरिणामो [(आरंभ)-हिंसा-त्यागने का (णियत्तण)-(परिणाम) 1/1] भाव
(हो) व 3/1 अक होता है पढमवदं [(पढम) वि-(वद) 1/1] पहला व्रत
अन्वय-कुलजोणिजीवमग्गणठाणाइसुजीवाणं जाणिऊण तस्सारंभणियत्तणपरिणामो पढमवदं होइ ।
अर्थ- कुल, योनि, जीवस्थान और मार्गणास्थान आदि में (एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक) जीवों को जानकर (जो साधु इस लोक में हिंसा को त्यागते हैं) उस (साधु) का हिंसा-त्यागने का भाव पहला (अहिंसा) व्रत होता है।
1.
कभी-कभी द्वितीया विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम -प्राकृत-व्याकरणः 3-134) विस्तार के लिए देखें, गोम्मटसार टीका संपादक द्वारा अनूदित
नोटः
नियमसार (खण्ड-1)
(69)
Page #77
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________________
57.
रागेण
व
दोसेण
व
मोहेण
व
मोसभासपरिणामं
जो
जहदि
* साहु
सया
विदियवदं
होइ
तस्सेव
रागेण व दोसेण व मोहेण व मोसभासपरिणामं । जो पजहदि साहु सया विदियवदं होइ तस्सेव ॥
1.
*
(70)
(राग) 3 / 1
अव्यय
(दोस) 3 / 1
अव्यय
(मोह) 3 / 1
अव्यय
[ (मोस ) - ( भासा भास ) -
-
(परिणाम) 2 / 1 ] (ज) 1 / 1 सवि
राग से अथवा
द्वेष से
[(तस्स) + (एव)] तस्स (त) 6/1 सवि एव (अ) = ही
अथवा
मोह से
पुनरावृत्ति भाषा की पद्धति
असत्य भाषा के
भाव को
जो
छोड़ता है
(पजह) व 3 / 1 सक
(साहु) 1 / 1
साधु
अव्यय
सदा
[ ( विदिय) वि - ( वद ) 1 / 1] दूसरा व्रत
(हो) व 3/1 अक
होता है
अन्वय- रागेण व दोसेण व मोहेण व मोसभासपरिणामं जो 'साहु सया पजहदि तस्सेव विदियवदं होइ ।
अर्थ - राग से अथवा द्वेष से अथवा मोह से ( उत्पन्न) असत्य भाषा के भाव को जो साधु सदा छोड़ता है उस (साधु) के ही दूसरा (सत्य) व्रत होता है।
उसके
ही
छन्द की मात्रा की पूर्ति हेतु 'भासा' का 'भास' किया गया है ।
प्राकृत
में किसी भी कारक के लिए मूल संज्ञा शब्द काम में लाया जा सकता है । (पिशलः प्राकृत भाषाओंका व्याकरण, पृष्ठ 517)
नियमसार (खण्ड-1 -1)
Page #78
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58. गामे वा णयरे वाऽरण्णे वा पेच्छिऊण परमत्थं ।
जो मुयदि गहणभावं तिदियवदं होदि तस्सेव ॥
(गाम) 7/1 अव्यय (णयर) 7/1 अव्यय (रण्ण) 7/1 अव्यय
गाँव में अथवा नगर में अथवा वन में पुनरावृत्ति भाषा की पद्धति
의 결,
देखकर
पेच्छिऊण परमत्थं
मुयदि
(पेच्छ) संकृ [(परं)+ (अत्थं)] परं (पर) 2/1 वि अत्थं (अत्थ) 2/1 (ज) 1/1 सवि (मुय) व 3/1 सक [(गहण)-(भाव) 2/1] [(तिदिय)-(वद) 1/1] (हो) व 3/1 अक [(तस्स)+(एव)] तस्स (त) 6/1 सवि एव (अ)= ही
उत्कृष्ट वस्तु को जो छोड़ता है ले लेने के भाव को तीसरा व्रत होता है
गहणभावं तिदियवदं होदि तस्सेव
उसके
अन्वय- गामे वा णयरे वाऽरण्णे वा जो परमत्थं पेच्छिऊण गहणभावं मुयदि तस्सेव तिदियवदं होदि ।
अर्थ- ग्राम में अथवा नगर में अथवा वन में उत्कृष्ट वस्तु को देखकर जो (साधु) (उसके) ले लेने (ग्रहण करने) के भाव को छोड़ता है उस (साधु) के ही तीसरा (अचौर्य) व्रत होता है ।
1.
'5' यह लोप का चिह्न है।
नियमसार (खण्ड-1)
(71)
Page #79
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________________
59.
दहूण
इत्थिरूवं
वांछाभावं
णियत्तदे
तासु
परिणामो
अहव
तुरीयवदं
(णियत्त) व 3 / 1 अक (ता) 7 / 2 सवि
मेहुणसण्णविवज्जिय- [(मेहुण) - ( सण्णा सण्ण) - (विवज्जिय) वि - (परिणाम) 1 / 1] भाव
1.
2.
दहूण इत्थिरूवं वांछाभावं णियत्तदे तासु । मेहुणसण्णविवज्जियपरिणामो अहव तुरीयवदं ॥
3.
नोट:
(दहूण) संकृ अनि
देखकर
[ ( इत्थी -- इत्थि ) - (रूव) 2/1] स्त्रियों के रूप को
[( वांछा) 2 - (भाव) 3
चाह-भाव
2/1-1/1]
(72)
-
अन्वय- इत्थिरूवं दहूण वांछाभावं णिअत्तदे अहव तासु मेहुणसण्णविवज्जियपरिणामो तुरीयवदं ।
अर्थ- स्त्रियों के रूप को देखकर (जिस साधु का ) ( कामातुर) चाहभाव (स्वाभाविक रूप से) रुकता है अर्थात् उत्पन्न नहीं होता है अथवा (जिस साधु का) उनके प्रति मैथुन संज्ञा (भोगासक्ति) रहित भाव (संदैव बना रहता है) (तो) ( उस साधु के) चौथा (ब्रह्मचर्य व्रत (होता है) ।
अव्यय
[ ( तुरीय) वि - ( वद ) 1 / 1]
रुकता है
उनके प्रति
मैथुन संज्ञारहि
( हेम-प्राकृत - व्याकरणः 3-137 वृत्ति)
संपादक द्वारा अनूदित
अथवा
चौथा व्रत
यहाँ छन्द की मात्रा की पूर्ति के लिए 'तुरीयवदं' के स्थान पर 'तुरियवदं' होना चाहिए।
यहाँ पर संस्कृत शब्द वांछा का प्रयोग किया गया है। प्राकृत रूप वंछा है ।
प्रथमा विभक्ति के स्थान पर कभी-कभी द्वितीया विभक्ति होती है ।
नियमसार (खण्ड-1)
Page #80
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________________
60. सव्वेसिं गंथाणंचागो णिरवेक्खभावणापुव्वं ।
पंचमवदमिदि भणिदं चारित्तभरं वहंतस्स ॥
से युक्त
सव्वेसिं
(सव्व) 6/2 सवि समस्त गंथाणं (गंथ) 6/2
परिग्रहों का चागो (चाग) 1/1
त्याग णिरवेक्खभावणापुव्वं [(णिरवेक्ख) वि-(भावणा)- अपेक्षारहित चिंतन
(पुव्व) 1/1 वि] पंचमवदमिदि [(पंचमवदं)+(इदि)]
पंचमवदं [(पंचम) वि- पाँचवा व्रत (वद) 1/1] इदि (अ)
पादपूरक भणिदं (भण) भूकृ 1/1
कहा गया चारित्तभरं [(चारित्त)-(भर) 2/1] चारित्र के अतिशय को वहंतस्स (वह) वकृ 4/1 धारण करते हुए के
लिए
अन्वय- चारित्तभरं वहंतस्स सव्वेसिं गंथाणं णिरवेक्खभावणापुव्वं चागो पंचमवदमिदि भणिदं ।
अर्थ- (किसी भी प्रकार के) चारित्र के अतिशय को धारण करते हुए (साधु) के लिए समस्त परिग्रहों का अपेक्षारहित चिंतन से युक्त त्याग पाँचवा (अपरिग्रह) व्रत कहा गया (है)।
नियमसार (खण्ड-1)
(73)
Page #81
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________________
61. पासुगमग्गेण दिवा अवलोगंतो जुगप्पमाणं हि ।
गच्छइ पुरदो समणो इरियासमिदी हवे तस्स ॥
पासुगमग्गेण
दिवा अवलोगंतो जुगप्पमाणं
[(पासुग) वि-(मग्ग) प्रासुक मार्ग पर 3/1] अव्यय
दिन में (अवलोग) वकृ 1/1 देखता हुआ [(जुग)-(प्पमाण) 2/1] चार हाथ परिमाण को अव्यय
निश्चय ही (गच्छ) व 3/1 सक गमन करता है अव्यय
आगे (समण) 1/1 [(इरिया)-(समिदि) 1/1] ईर्या समिति (हव) व 3/1 अक होती है (त) 6/1 सवि
उसके
गच्छइ
पुरदो
श्रमण
समणो इरियासमिदी
हवे
तस्स
अन्वय- पासुगमग्गेण दिवा जुगप्पमाणं पुरदो अवलोगंतो समणो गच्छइ तस्स हि इरियासमिदी हवे।
अर्थ- प्रासुक (जन्तुरहित) मार्ग पर दिन में चार हाथ परिमाण को आगे देखता हुआ (जो) श्रमण गमन करता है उस (श्रमण) के निश्चय ही ईर्या समिति होती है। 1. मार्गवाचक शब्दों में तृतीया होती है।
(प्राकृत-व्याकरणः पृ 36)
(74)
नियमसार (खण्ड-1)
Page #82
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62. पेसुण्णहासकक्कसपरणिंदप्पप्पसंसियं वयणं ।
परिचत्ता सपरहिदं भासासमिदी वदंतस्स ॥
पेसुण्णहासकक्कस- [(पेसुण्णहासकक्कसपरणिंद)+ परणिंदप्पप्पसंसियं (अप्पप्पसंसियं)]
[(पेसुण्ण)-(हास) वि- पैशुन्य (चुगली), (कक्कस) वि-(पर) वि- मजाक/मखौल, (णिंदा-णिंद)-(अप्प)- कटुवचन, परनिंदा (प्पसंस) भूक 2/1] और अपनी प्रशंसा
किये गये वयणं (वयण) 2/1
वचन को परिचत्ता (परिचत्ता) संकृ अनि छोड़कर
[(स-पर) वि-(हिद) स्व-पर हितकारी
भूक 2/1 अनि भासासमिदी [(भासा)-(समिदि) 1/1] भाषासमिति वदंतस्स (वद) वकृ 6/1 बोलते हुए के
सपरहिदं
बोलो
अन्वय- पेसुण्णहासकक्कसपरणिंदप्पप्पसंसियं वयणं परिचत्ता सपरहिदं वदंतस्स भासासमिदी ।
. अर्थ- पैशुन्य (चुगली), मजाक/मखौल, कटुवचन, परनिन्दा (और) अपनी प्रशंसा किये गये वचन को छोड़कर स्व-पर हितकारी (वचन को) बोलते हुए (साधु) के भाषासमिति (होती है)।
नियमसार (खण्ड-1)
(75)
Page #83
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63. कदकारिदाणुमोदणरहिदं तह पासुगं पसत्थं च ।
दिण्णं परेण भत्तं समभुत्ती एसणासमिदी॥
तह
कदकारिदाणुमोदण- [(कदकारिद)+ रहिदं (अणुमोदणरहियं)]
[(कद) भूकृ अनि- कृत (कर(प्रे.)-कार-कारिद)भूकृ-कारित और (अणुमोदण)-(रहिद) अनुमोदना के बिना भूकृ 1/1 अनि] अव्यय
तथा पासुगं
(पासुग) 1/1 वि (पसत्थ) 1/1 वि अव्यय
और दिण्णं
(दिण्ण) भूकृ 1/1 अनि दिया गया (पर) 3/1 वि
दसरे के द्वारा भत्तं (भत्त) 1/1
आहार समभुत्ती [(सम) वि-(भुत्ति ) 1/1] समभाव से आहार एषणासमिदी [(एषणा)-(समिदि) 1/1] एषणासमिति
प्रासुक
पसत्थं
प्रशस्त
परेण
अन्वय- कदकारिदाणुमोदणरहिदं भत्तं पासुगंच पसत्थं तह परेण दिण्णं समभुत्ती एसणासमिदी।
अर्थ- (साधु का आहार) कृत (स्वयं द्वारा निर्मित/उत्पादित), कारित (दूसरे के द्वारा बनवाया हुआ) तथा अनुमोदना (स्वयं की सहमति) के बिना (होता है)। (वह) आहार प्रासुक और प्रशस्त तथा दूसरे के द्वारा दिया गया (होता है)। (इस तरह साधु द्वारा) समभाव से आहार (ग्रहण करना) एषणासमिति (कही जाती है)।
1.
समास के अन्त में रहित का अर्थ के बिना' होता है।
(76)
नियमसार (खण्ड-1)
Page #84
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________________
64. पोत्थइकमंडलाइंगहणविसग्गेसु पयतपरिणामो।
आदावणणिक्खेवणसमिदी होदि ति णिद्दिट्ठा ॥
पोत्थइकमंडलाइं
पुस्तक, कमंडल आदि
[(पोत्थइकमंडल)+(आई)] [(पोत्थइ)-(कमंडल)- (आइ) 2/1] [(गहण)-(विसग्ग) 7/2]
गहणविसग्गेसु
ले लेने और छोड़ने
पयतपरिणामो [(पयत) वि-(परिणाम) 1/1] बड़ी सावधानी का
भाव आदावणणिक्खेवण- [(आदावणणिक्खेवण)- आदाननिक्षेपणसमिति समिदी (समिदि) 1/1] होदि त्ति [(होदि) + (इति)]
होदि (हो) व 3/1 अक होता है
इति (अ) = पादपूरक पादपूरक णिद्दिवा (णिद्दिट्ठा) भूक 1/1 अनि कही गई
अन्वय- पोत्थइकमंडलाइं गहणविसग्गेसु पयतपरिणामो होदि त्ति आदावणणिक्खेवणसमिदी णिहिट्ठा ।
अर्थ- (साधु) पुस्तक, कमंडल आदि को (रखता है)। (उन वस्तुओं को) ले लेने (ग्रहण करने) और छोड़ने (धरने) में (उस साधु के) बड़ी सावधानी का भाव होता है । (इसलिए)(उस साधु के) आदाननिक्षेपणसमिति कही गई (है)।
नियमसार (खण्ड-1)
(77)
Page #85
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________________
65. पासुगभूमिपदेसे गूढे रहिए परोपरोहेण ।
उच्चारादिच्चागो पइट्ठासमिदी हवे तस्स ॥
प्रासुक भूमिप्रदेश में प्रच्छन्न
रहिए
रहित
पर के लिए बाधा से
पासुगभूमिपदेसे [(पासुग) वि-(भूमि)
(पदेस) 7/1] गूढे
(गूढ) 7/1 वि
(रहिअ) 7/1 वि परोपरोहेण . [(पर)+ (उपरोहण)]
[(पर) वि-(उपरोह) 3/1] उच्चारादिच्चागो [(उच्चार)+ (आदिच्चागो)]
[(उच्चार)-(आदि)-
(च्चाग) 1/1] पइट्ठासमिदी [(पइट्ठा)-(समिदि) 1/1]
(हव) व 3/1 अक तस्स
(त) 6/1 सवि .
मलोत्सर्ग आदि का
त्याग
हवे
प्रतिष्ठापनसमिति । होती है उसके
अन्वय- परोपरोहेण रहिए गूढे पासुगभूमिपदेसे उच्चारादिच्चागो तस्स पइट्ठासमिदी हवे ।
'अर्थ- (जिस साधु का) पर के लिए बाधा से रहित, प्रच्छन्न (तथा) प्रासुक भूमिप्रदेश में मलोत्सर्ग (मल-मूत्र) आदि का त्याग (होता है) उस (साधु) के प्रतिष्ठापनसमिति होती है।
(78)
नियमसार (खण्ड-1)
Page #86
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66. कालुस्समोहसण्णारागद्दोसाइअसुहभावाणं।
परिहारो मणुगुत्ती ववहारणयेण परिकहियं ॥
कालुस्समोहसण्णा- [(कालुस्समोहसण्णारागद्दोसाइअसुह- रागद्दोस)+(आइअसुहभावाणं भावाणं)]
[(कालुस्स)-(मोह)-(सण्णा)- कलुषता, मोह, संज्ञा, (राग)-(दोस)-(आइ)- राग, द्वेष आदि
(असुह)-(भाव) 6/2] अशुभ भावों का परिहारो (परिहार) 1/1
परिहार मणुगुत्ती (मणुगुत्ति) 1/1 मनोगुप्ति ववहारणयेण (ववहारणय) 3/1 व्यवहार नय से परिकहियं (परिकह) भूकृ 1/1 कहा गया
अन्वय- कालुस्समोहसण्णारागहोसाइअसुहभावाणं परिहारो मणुगुत्ती ववहारणयेण परिकहियं ।
अर्थ- कलुषता, मोह, संज्ञा, राग, द्वेष आदि अशुभ भावों का परिहार मनोगुप्ति (है)। व्यवहार नय से (यह) कहा गया (है)।
नियमसार (खण्ड-1)
(79)
Page #87
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________________
67.
थीराजचोरभत्त
कहादिवयणस्स
पावहेउस्स'
परिहारो
वयगुत्ती
अलियादिणियत्ति
वयणं
वा
थीराजचोरभत्तकहादिवयणस्स
पावहेउस्स ।
परिहारो वयगुत्ती अलियादिणियत्तिवयणं वा ॥
1.
(80)
[(थी) - (राज) - (चोर) -
(भत्त) - ( कहा) - (आदि) -
( वयण ) 6 / 1 ]
[(पाव) - (हेउ) 6/1]
(परिहार) 1 / 1
(auryfa) 1/1
[ (अलिय) + (आदिणियत्ति
वयण)]
[(अलिय) - (आदि)(णियत्ति ) - ( वयण) 1 / 1]
अव्यय
स्त्रीकथा, राजकथा,
चोरकथा, भोजनकथा
आदि के कहने की
क्रिया का
पाप के कारण का
त्याग
वचनगुप्ति
अलियादिणियत्तिवयणं वा ।
1
अर्थ - (जो) पाप का कारण ( है ) (उस) स्त्रीकथा, राजकथा, चोरकथा, भोजनकथा आदि के कहने की क्रिया का त्याग वचनगुप्ति (है) (तथा) असत्य आदि के त्यागवाले वचन भी ( वचनगुप्ति है ) |
'कारण' अर्थ में 'हेउ' षष्ठी में रखा जाता है ।
( प्राकृत - व्याकरणः पृष्ठ 46 )
असत्य आदि के त्यागवाले वचन
| अन्वय - पावहेउस्स थीराजचोरभत्तकहादिवयणस्स परिहारो वयगुत्ती
नियमसार (खण्ड-1
Page #88
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68. बंधणछेदणमारणआकुंचण तह पसारणादीया । कायकिरियाणियत्ती णिद्दिट्ठा कायत्ति त्ति ॥
बंधणछेदणमारण- [ ( बंधण) - (छेदण) - (मारण) - बंधन, छेदन, मारण
आकुंचन
( आकुंचण ) 1 / 1 ]
संकोचन
तह
अव्यय
[(पसारण) - (आदिय
आदीय) 1/2 ]
पसारणादीया
'य' स्वार्थिक
. कायकिरियाणियत्ती [ (काय) - (किरिया) -
(forufa) 1/1]
( णिद्दिट्ठा) भूक 1 / 1 अनि
[(कायगुत्ती) + (इति)]
काय (कायत्ति) 1/1
इति (अ) = पादपूरक
णिद्दिट्ठा
कात्ति
-
नियमसार (खण्ड-1)
तथा
प्रसारण आदि
शरीर की क्रियाओं का
त्याग
कही गई
कायगुप्त
पादपूरक
अन्वय- बंधणछेदणमारणआकुंचण तह पसारणादीया कायकिरिया -
यत्ती कायत्ति ति णिद्दिट्ठा ।
अर्थ - (पर) - बंधन, छेदन, मारण (तथा) (समुद्घात में) संकोचन तथा प्रसारण आदि शरीर की क्रियाओं का त्याग कायगुप्ति कही गई ( है ) ।
(81)
Page #89
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________________
69. जा रायादिणियत्ती मणस्स जाणीहि तं मणोगुत्ती ।
अलियादिणियत्तिं वा मोणं वा होइ वइगुत्ती ॥
जा
रायादिणियत्ती
राग आदि का त्याग
.
मणस्स जाणीहि
मन से जानो
उसको
मनोगुप्ति
मणोगुत्ती अलियादिणियत्तिं
(जा) 1/1 सवि [(राय)-(आदि)(णियत्ति) 1/1] (मण) 6/1-5/1 (जाण) विधि 2/1 सक (ता) 2/1 सवि (मणोगुत्ति) 1/1 [(अलिय)+ (आदिणियत्ति)] [(अलिय)-(आदि)(णियत्ति) 2/1] अव्यय (मोण) 2/1
अव्यय (हो) व 3/1 अक [(वइ)-(गुत्ति) 1/1]
असत्य आदि के त्याग को अथवा वाणी के संयम को
वा
मोणं
होइ
वइगुत्ती
वचनगुप्ति
अन्वय- मणस्स जा रायादिणियत्ती तं जाणीहि मणो गुत्ती अलियादिणियत्तिं वा मोणं वा वइगुत्ती होइ।
अर्थ- मन से जो रागादि का त्याग (है) उसको (तुम) जानो (कि) (वह) मनोगुप्ति (है)। असत्यादि का त्याग अथवा वाणी के संयमको भी (तुम जानो) (कि) (वह) वचनगुप्ति है। 1. कभी-कभी पंचमी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है।
(हेम-प्राकृत-व्याकरणः 3-134) 2. प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पिशल, पृष्ठ-691
(82)
नियमसार (खण्ड-1)
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70. कायकिरियाणियत्ती काउस्सग्गो सरीरगे गुत्ती।
हिंसाइणियत्ती वा सरीरगुत्ति त्ति णिहिट्ठा ॥
काय की क्रियाओं का त्याग कायोत्सर्ग काय में
संयम
कायकिरियाणियत्ती [(काय)-(किरिया)
(णियत्ति) 1/1] काउस्सगो
(काउस्सग) 1/1 सरीरगे
(सरीरग) 7/1
'ग' स्वार्थिक गत्ती
(गुत्ति) 1/1 हिंसाइणियत्ती [(हिंसा)+(आइणियत्ती)]
[(हिंसा)-(आइ)
(णियत्ति) 1/1] वा
अव्यय सरीरगुत्ति त्ति [(सरीरगुत्ती)+ (इति)]
सरीरगुत्ती (सरीरगुत्ति) 1/1
इति (अ) = पादपूरक णिहिट्ठा (णिद्दिट्टा) भूक 1/1 अनि
हिंसा आदि का त्याग
अथवा
कायगुप्ति पादपूरक कही गई
अन्वय- कायकिरियाणियत्ती काउस्सग्गो सरीरगे गुत्ती वा हिंसाइणियत्ती सरीरगुत्ति त्ति णिहिट्ठा ।
अर्थ- काय की क्रियाओं का त्याग कायोत्सर्ग (है) (यह) काय में संयम (कहा जाता है) अर्थात् कायगुप्ति है अथवा हिंसा आदि का त्याग (भी) कायगुप्ति कही गई (है)।
नियमसार (खण्ड-1)
(83)
Page #91
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71. घणघाइकम्मरहिया केवलणाणाइपरमगुणसहिया । चोत्तिसअदिसयजुत्ता अरिहंता एरिसा होंति ॥
घणघाइकम्मरहिया [(घण) वि- (घाइकम्म) - ( रहिय) 1 / 2 वि]
केवलणाणाइपरम- [ (केवलणाण) +
गुणसहिया
(आइपरमगुणसहिया)]
[(केवलणाण) - (आइ) - (परम) वि- (गुण) 2 -
(सहिय) 1/2 वि ]
चोत्तिस अदिसयजुत्ता [ ( चोत्तिस) - (अदिसय) -
अरिहंता
एरिसा
हों
1.
2.
3.
(जुत्त) 1/2 वि]
( अरिहंत) 1 / 2
(एरिस) 1/2 वि
(हो) व 3/2 अक
(84)
प्रगाढ़ घातिया कर्मों से रहित
केवलज्ञान आदि सर्वोत्तम गुणों से युक्त
चौंतीस अतिशयसहित
अन्वय- अरिहंता एरिसा होंति घणघाइकम्मरहिया केवलणाणा - परमगुणसहिया चोत्तिस अदिसयजुत्ता ।
=
अर्थ - अरहंत ऐसे होते हैं: (जो) (चार) प्रगाढ़ घातिया कर्मों से रहित, केवलज्ञान आदि सर्वोत्तम - गुणों से युक्त तथा चौंतीस अतिशयसहित ।
अरहंत
ऐसे
होते हैं
घातिया-कर्मः (1) ज्ञानावरणीय ( 2 ) दर्शनावरणीय (3) अन्तराय (4) मोहनीय | सर्वोत्तम-गुणः (1) केवलज्ञान (2) केवलदर्शन (3) केवलसुख (4) केवलशक्ति । अतिशयः (1) जन्म के दस अतिशय (2) केवलज्ञान के दस अतिशय (3) देवकृत चौदह अतिशय ।
विस्तार के लिए देखें: तिलोयपण्णतिः 4 / 896-914
नियमसार (खण्ड-1)
Page #92
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72. णट्ठट्टकम्मबंधा अट्टमहागुणसमण्णिया परमा।
लोयग्गठिदा णिच्चा सिद्धा ते एरिसा होंति ॥
ष्ट
णट्ठठ्ठकम्मबंधा [(गट्ठ) भूकृ अनि-(अट्ठ)
(कम्मबंध) 1/2] कर दिये गये अट्टमहागुणसमण्णिया [(अट्ठ)-(महागुण)- आठ महागुणों से
(समण्णिय) भूकृ 1/2 अनि] समन्वित/युक्त परमा
(परम) 1/2 वि सर्वोपरि लोयग्गठिदा [(लोयग्ग)-(ठिद) भूकृ 1/2] लोक के अग्रभाग में
स्थित णिच्चा (णिच्च) 1/2 वि
शाश्वत (सिद्ध) 1/2 (त) 1/2 सवि
(एरिस) 1/2 वि होंति
(हो) व 3/2 अक होते हैं
सिद्धा
सिद्ध
10
एरिसा
अन्वय- ते सिद्धा एरिसा होंति अट्ठमहागुणसमण्णिया परमा लोयग्गठिदा णिच्चा णट्ठकम्मबंधा ।
अर्थ- वे सिद्ध ऐसे होते हैं: आठ महागुणों से समन्वित/युक्त, सर्वोपरि लोक के अग्रभाग में स्थित, शाश्वत (तथा) (जिनके द्वारा) आठ कर्मबंध नष्ट कर दिये गये हैं)।
1.
सिद्धों के आठ गुणः (1) अनंतज्ञान (2) अनंतदर्शन (3) अनंतसुख (4) अनंतवीर्य (5) सूक्ष्मत्व गुण (6) अवगाहनत्व (7) अगुरुलघुत्व (8) अव्याबाधत्व ।
नियमसार (खण्ड-1)
(85)
Page #93
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73. पंचाचारसमग्गा पंचिंदियदंतिदप्पणिद्दलणा।
धीरा गुणगंभीरा आयरिया एरिसा होंति ॥
पचाचारसमग्गा
[(पंच) वि-(आचार) पाँच आचारों से
(समग्ग) 1/2 वि] युक्त पंचिंदियदंतिदप्प- [(पंच)+ (इंदियदंतिदप्पणिद्दलणा णिद्दलणा)]
[(पंच) वि-(इंदिय)-(दंति)- पाँच इन्द्रियोंरूपी हाथी (दप्प)-(णिद्दलण) 1/2 वि] के मद का मर्दन
करनेवाले (धीर) 1/2 वि धैर्यवान गुणगंभीरा [(गुण)-(गंभीर) 1/2 वि] गुणों में गंभीर आयरिया (आयरिय) 1/2 आचार्य एरिसा (एरिस) 1/2 वि ऐसे होति (हो) व 3/2 अक होते हैं
धीरा
अन्वय- आयरिया एरिसा होंति पंचाचारसमग्गा पंचिंदियदंतिदप्पणिद्दलणा धीरा गुणगंभीरा ।।
अर्थ- आचार्य ऐसे होते हैं: पाँच आचारों से युक्त, पाँच इन्द्रियोंरूपी हाथी के मद का मर्दन करनेवाले, धैर्यवान (और) गुणों में गंभीर । 1. पाँच आचारः (1) ज्ञानाचार (2) दर्शनाचार (3) चारित्राचार (4) तपाचार (5) वीर्याचार।
(86)
नियमसार (खण्ड-1)
Page #94
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74. रयणत्तयसंजुत्ता जिणकहियपयत्थदेसया सूरा । णिक्कंखभावसहिया उवज्झाया एरिसा होंति ॥
रयणत्तयसंजुत्ता [ ( रयणत्तय) - ( संजुत्त) 1 / 2 वि] रत्नत्रय से युक्त
जिणकहियपयत्थ- [(जिण) - (कहिय) भूक
जिनेन्द्रदेव द्वारा कहे
(पयत्थ) - (देसय) 1/2 वि ]
गये पदार्थों के
उपदेशक
वीर
देसया
सूरा
(सूर) 1/2 वि
• णिक्कंखभावसहिया [ ( णिक्कंख) - (भाव) -
(सहिय) 1/2 वि]
( उवज्झाय) 1 / 2
( एरिस ) 1 / 2 वि
(हो) व 3/2 अक
उवज्झाया
एरिसा
होंति
देसया
सूरा
इच्छा-रहित
भावों से युक्त
उपाध्याय
अन्वय-उवज्झाया एरिसा होंति रयणत्तयसंजुत्ता जिणकहियपयत्थ
णिक्कंखभावसहिया ।
अर्थ - उपाध्याय ऐसे होते हैं: रत्नत्रय से युक्त, जिनेन्द्रदेव द्वारा कहे गये
नियमसार (खण्ड-1)
ऐसे
होते हैं
पदार्थों के उपदेशक, वीर (और) इच्छा - रहित भावों से युक्त ।
(87)
Page #95
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75. वावारविप्पमुक्का चउव्विहाराहणासयारत्ता ।
णिग्गंथा णिम्मोहा साहू दे एरिसा होति ॥
व्यवसाय से छुटकारा पाए हुए
वावारविप्पमुक्का [(वावार)-(विप्पमुक्क)
भूकृ 1/2 अनि] चउब्विहाराहणा- [(चउब्विह)+(आराहणासयारत्ता
सयारत्ता)] [(चउ) वि-(व्विह)(आरहणा)-(सया) अ
(रत्त) भूकृ 1/2 अनि णिगंथा (णिग्गंथ) 1/2 वि णिम्मोहा (णिम्मोह) 1/2 वि
(साहु) 1/2 (द-त) 1/2 सवि (एरिस) 1/2 वि (हो) व 3/2 अक
चार प्रकार की आराधनाओं में सदा लगे हुए निग्रंथ मोह-रहित साधु
साहू
एरिसा
होति
होते हैं
अन्वय- दे एरिसा साहू होंति वावारविप्पमुक्का चउव्विहाराहणासयारत्ता णिग्गंथा णिम्मोहा ।
अर्थ- वे साधु ऐसे होते हैं: व्यवसाय से छुटकारा पाए हुए, चार प्रकार की (ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप) आराधनाओं में सदा लगे हुए, निग्रंथ और मोह-रहित ।
(88)
नियमसार (खण्ड-1)
Page #96
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________________
76. एरिसयभावणाए ववहारणयस्स होदि चारित्तं । णिच्छयणयस्स चरणं एत्तो उट्टं पवक्खामि ॥
एरिसयभावणाए
ववहारणयस्स
होदि
चारित्तं
णिच्छयणयस्स
चरणं
एतो'
उडुं
पवक्खामि
1.
नोटः
[(एरिसय) वि - (भावणा) 7 / 1 ] ऐसी भावना होने पर
'य' स्वार्थिक
(ववहारणय) 6/1
(हो) व 3/1 अक
(चारित) 1 / 1
( णिच्छयणय ) 6 / 1
(चरण) 2 / 1
( एत) 5 / 1 सवि
अव्यय
(पवक्ख) भवि 1 / 1 सक
णिच्छयणयस्सचरणं पवक्खामि ।
अर्थ - ऐसी (पूर्वोक्त) भावना के होने पर व्यवहारनय का चारित्र होता है (अब). (मैं) इससे (इसके) बाद में निश्चयनय के चारित्र को कहूँगा ।
नियमसार (खण्ड-1)
व्यवहारनय का
होता है
चारित्र
निश्चयनय के
चारित्र को
इससे (इसके)
बाद में
कहूँगा
अन्वय- एरिसयभावणाए ववहारणयस्स चारितं होदि एत्तो उड
'उड्ड' अव्यय के साथ अपादान का प्रयोग होता है ।
संस्कृत-हिन्दी कोशः वामन शिवराम आप्टे
'एतो उड्ड' का दूसरा अर्थ 'इससे उत्तम' भी लिया जा सकता है जो विचारणीय है।
(संपादक)
(89)
Page #97
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________________
1.
2.
3.
4.
5.
6.
7.
(90)
मूल पाठ
वीरं
णमिऊण जिणं वोच्छामि णियमसारं
अणंतवरणाणदंसणसहावं । केवलिसुदकेवलीभणिदं ॥
मग्गो मग्गफलं ति यदुविहं जिणसासणे समक्खादं । मग्गो मोक्खउवाओ तस्स फलं होइ णिव्वाणं ॥
णियमेण य जं कज्जं तं नियमं णाणदंसणचरित्तं । विवरीयपरिहरत्थं भणिदं खलु सारमिदि वयणं ॥
णियमं मोक्खउवाओ तस्स फलं हवदि परमणिव्वाणं । एदेसिं तिन्हं पि य पत्तेयपरूवणा होइ ॥
अत्तागमतच्चाणं सद्दहणादो हवेइ ववगयअसेसदोसो सयलगुणप्पा हवे
सम्मत्तं । अत्तो ॥
छुहतण्हभीरुरोसो रागो मोहो चिंता जरा रुजा मिच्चू । सेदं खेद मदो रइ विम्हिय णिद्दा जणुव्वेगो ॥
णिस्सेसदोसरहिओ केवलणाणाइपरमविभवजुदो । सो परमप्पा उच्चइ तव्विवरीओ ण परमप्पा ॥
नियमसार (खण्ड-1)
Page #98
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________________
8.
9.
तस्स मुहुग्गदवयणं पुव्वावरदोसविरहियं सुद्धं । आगममिदि परिकहियं तेण दु कहिया हवंति तच्वत्था ।।
जीवा पोग्गलकाया धम्माधम्मा य काल आयासं । तच्चत्था इदि भणिदा णाणागुणपज्जएहि संजुत्ता ॥
10. जीवो उवओगमओ उवओगो णाणदंसणो होइ । णाणुवओगो दुविहो सहावणाणं विहावणाणं ति ॥
11. केवलमिंदियरहियं असहायं तं सहावणाणं ति । सण्णाणिदरवियप्पे विहावणाणं हवे दुविहं ॥
13.
- 12. सण्णाणं चउभेयं मदिसुदओही तहेव मणपज्जं । अण्णाणं तिवियप्पं मदियाई भेददो चेव ॥
तह दंसणउवओगो ससहावेदरवियप्पदो दुविहो । केवलमिंदियरहियं असहायं तं सहावमिदि भणिदं ॥
14. चक्खु अचक्खू ओही तिण्णि वि भणिदं विहावदिट्ठि त्ति । पज्जाओ दुवियप्पो सपरावेक्खो य णिरवेक्खो ॥
15. णरणारयतिरियसुरा पज्जाया ते विहावमिदि भणिदा । कम्मोपाधिविवज्जियपज्जाया ते सहावमिदि भणिदा ॥
नियमसार (खण्ड-1)
(91)
Page #99
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________________
16. माणुस्सा दुवियप्पा कम्ममहीभोगभूमिसंजादा ।
सत्तविहा जेरइया णादव्वा . पुढविभेदेण ॥
17. चउदहभेदा भणिदा तेरिच्छा सुरगणा चउन्भेदा ।
एदेसिं वित्थारं लोयविभागेसु णादव्वं ॥
18. कत्ता भोत्ता आदा पोग्गलकम्मस्स होदि ववहारा ।
कम्मजभावेणादा कत्ता भोत्ता दु णिच्छयदो ॥
19. दव्वत्थिएण जीवा वदिरित्ता पुव्वभणिदपज्जाया।
पज्जयणएण जीवा संजुत्ता हति दुविहेहिं ॥
20. अणुखंधवियप्पेण दु पोग्गलदव्वं हवेदि दुवियप्पं ।
खंधा हु छप्पयारा परमाणू चेव दुवियप्पो॥
21. अइथूलथूल थूलं थूलसुहुमं च सुहुमथूलं च ।
सुहमं अइसुहमं इदि धरादियं होदि छन्भेयं ॥
22.
भूपव्वदमादीया भणिदा अइथूलथूलमिदि खंधा । थूला इदि विण्णेया सप्पीजलतेल्लमादीया ।
23. छायातवमादीया थूलेदरखंधमिदि वियाणाहि ।
सुहुमथूलेदि भणिया खंधा चउरक्खविसया य ॥
(92)
नियमसार (खण्ड-1
Page #100
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________________
24. सुहमा हवंति खंधा पाओग्गा कम्मवग्गणस्स पुणो ।
तविवरीया खंधा अइसुहमा इदि परूवेंति ॥
25.
धाउचउक्कस्स पुणो जं हेऊ कारणं तितं णेयो। खंधाणं अवसाणं णादव्वो कज्जपरमाणु ॥
26. अत्तादि अत्तमझं अत्तंतं णेव इंदियग्गेझं।
अविभागी जं दव्वं परमाणू तं वियाणाहि ॥
27.
एयरत
एयरसरूवगंधं दोफासं तं हवे सहावगुणं । विहावगुणमिदि भणिदं जिणसमये सव्वपयडत्तं ॥
28. अण्णणिरावेक्खो जो परिणामो सो सहावपज्जाओ।
खंधसरूवेण पुणो परिणामो सो विहावपज्जाओ।
29. पोग्गलदव्वं उच्चइ परमाणू णिच्छएण इदरेण ।
पोग्गलदव्वो त्ति पुणो ववदेसो होदि खंधस्स ॥
30. गमणणिमित्तं धम्ममधम्मं ठिदि जीवपोग्गलाणं च ।
अवगहणं आयासं जीवादीसव्वदव्वाणं ॥
31. समयावलिभेदेण दु दुवियप्पं अहव होइ तिवियप्पं ।
तीदो संखेज्जावलिहदसंठाणप्पमाणं तु ॥
नियमसार (खण्ड-1)
(93)
Page #101
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________________
32. जीवादु पोग्गलादो णंतगुणा चावि संपदा समया । लोयायासे संति य परमट्ठो सो हवे कालो ॥
33. जीवादीदव्वाणं परिवट्टणकारणं हवे कालो । धम्मादिचउन्हं णं सहावगुणपज्जया होंति ॥
34. एदे छद्दव्वाणि य कालं मोत्तूण अत्थिकाय त्ति । णिद्दिट्ठा जिणसमये काया हु बहुप्पदेसत्तं ॥
35. संखेज्जासंखेज्जाणंतपदेसा हवंति मुत्तस्स । धम्माधम्मस्स पुणो जीवस्स असंखदेसा हु ||
36. लोयायासे तावं इदरस्स अणंतयं हवे देसा । कालस्स ण कायत्तं एयपदेसो हवे जम्हा ||
37. पोग्गलदव्वं मुत्तं मुत्तिविरहिया हवंति सेसाणि । चेदणभावो जीवो चेदणगुणवज्जिया सेसा ॥
38. जीवादिबहित्तच्चं हेयमुवादेयमप्पणो कम्मोपाधिसमुब्भवगुणपज्जाएहिं
39. णो खलु सहावठाणा णो माणवमाणभावठाणा वा । णो हरिसभावठाणा णो जीवस्साहरिस्सठाणा वा ॥
(94)
अप्पा ।
वदिरित्तो ॥
नियमसार (खण्ड-1)
Page #102
--------------------------------------------------------------------------
________________
40. णो ठिदिबंधट्ठाणा पयडिट्ठाणा पदेसठाणा वा । णो अणुभागट्ठाणा जीवस्स ण उदयठाणा वा ॥
41. णो खइयभावठाणा णो खयउवसमसहावठाणा वा । ओदइयभावठाणा णो उवसमणे सहावठाणा वा ॥
42. चउगइभवसंभमणं जाइजरामरणरोगसोगा य । कुलजोणिजीवमग्गणठाणा जीवस्स णो संति ॥
43. णिद्दंडो णिद्दंद्दो णिम्ममो णिक्कलो णिरालंबो। णीरागो णिद्दोसो णिम्मूढो णिब्भयो अप्पा ॥
44. णिग्गंथो णीरागो णिस्सल्लो सयलदोसणिम्मुको । णिक्कामो णिक्कोहो णिम्माणो णिम्मदो अप्पा ॥
श्रीपुंसणउंसयादिपज्जाया ।
संठाणा संहणणा सव्वे जीवस्स णो संति ॥
45. वण्णरसगंधफासा
46. अरसमरूवमगंधं अव्वत्तं
जाण
अलिंगग्गहणं
चेदणागुणमसद्दं । जीवमणिद्दिट्ठसंठाणं ॥
47. जारिसिया सिद्धप्पा भवमल्लिय जीव तारिसा होंति ।
जरमरणजम्ममुक्का अट्ठगुणालंकिया जेण ॥
नियमसार (खण्ड-1)
(95)
Page #103
--------------------------------------------------------------------------
________________
48. असरीरा अविणासा अणिंदिया णिम्मला विसुद्धप्पा ।
जह लोयग्गे सिद्धा तह जीवा संसिदी णेया॥
49. एदे सव्वे भावा ववहारणयं पडुच्च भणिदा हु।
सव्वे सिद्धसहावा सुद्धणया संसिदी जीवा ॥
50. पुव्वुत्तसयलभावा परदव्वं परसहावमिदि हेयं ।
सगदव्वमुवादेयं अंतरतच्चं हवे अप्पा ॥
51. विवरीयाभिणिवेसविवज्जियसदहणमेव सम्मत्तं ।
संसयविमोहविन्भमविवज्जियं होदि सण्णाणं ॥
52. चलमलिणमगाढत्तविवज्जियसद्दहणमेव सम्मत्तं ।
अधिगमभावो णाणं हेयोवादेयतच्चाणं ॥
53. सम्मत्तस्स णिमित्तं जिणसुत्तं तस्स जाणया पुरिसा ।
अंतरहेऊ भणिदा दंसणमोहस्स खयपहुदी ॥
54. सम्मत्तं सण्णाणं विज्जदि मोक्खस्स होदि सुण चरणं ।
ववहारणिच्छएण दु तम्हा चरणं पवक्खामि ॥
55. ववहारणयचरित्ते ववहारणयस्स होदि तवचरणं ।
णिच्छयणयचारित्ते तवचरणं होदि णिच्छयदो॥
(96)
नियमसार (खण्ड-1)
Page #104
--------------------------------------------------------------------------
________________
56. कुलजोणिजीवमग्गणठाणाइसु जाणिऊण जीवाणं ।
तस्सारंभणियत्तणपरिणामो होइ पढमवदं ॥
57. रागेण व दोसेण व मोहेण व मोसभासपरिणामं ।
__ जो पजहदि साहु सया विदियवदं होइ तस्सेव ॥
58. गामे वा णयरे वाऽरण्णे वा पेच्छिऊण परमत्थं ।
जो मुयदि गहणभावं तिदियवदं होदि तस्सेव ॥
59. दटूण इत्थिरूवं वांछाभावं णियत्तदे तासु।
मेहुणसण्णविवज्जियपरिणामो अहव तुरीयवदं ॥
60. सव्वेसिं गंथाणं चागो णिरवेक्खभावणापुव्वं ।
पंचमवदमिदि भणिदं चारित्तभरं वहंतस्स ॥
61. पासुगमग्गेण दिवा अवलोगंतो जुगप्पमाणं हि ।
गच्छइ पुरदो समणो इरियासमिदी हवे तस्स ॥
62. पेसुण्णहासकक्कसपरणिंदप्पप्पसंसियं वयणं ।
परिचत्ता सपरहिदं भासासमिदी वदंतस्स ॥
63. कदकारिदाणुमोदणरहिदं तह पासुगं पसत्थं च ।
दिण्णं परेण भत्तं समभुत्ती एसणासमिदी ॥
नियमसार (खण्ड-1)
(97)
Page #105
--------------------------------------------------------------------------
________________
64. पोत्थइकमंडलाइं गहणविसग्गेसु पयतपरिणामो।
आदावणणिक्खेवणसमिदी होदि त्ति णिद्दिट्टा ॥
65. पासुगभूमिपदेसे गूढे रहिए परोपरोहेण ।
उच्चारादिच्चागो पइट्ठासमिदी हवे तस्स ॥
66. कालुस्समोहसण्णारागद्दोसाइअसुहभावाणं ।
परिहारो मणुगुत्ती ववहारणयेण परिकहियं ॥
67. थीराजचोरभत्तकहादिवयणस्स पावहेउस्स ।
परिहारो वयगुत्ती अलियादिणियत्तिवयणं वा ॥
68. बंधणछेदणमारणआकुंचण तह पसारणादीया ।
कायकिरियाणियत्ती णिहिट्ठा कायगुत्ति त्ति ॥
69. जा रायादिणियत्ती मणस्स जाणीहि तं मणोगुत्ती ।
अलियादिणियत्तिं वा मोणं वा होइ वइगुत्ती ॥
70. कायकिरियाणियत्ती काउस्सग्गो सरीरगे गुत्ती।
हिंसाइणियत्ती वा सरीरगुत्ति त्ति णिहिट्ठा ॥
71. घणघाइकम्मरहिया केवलणाणाइपरमगुणसहिया।
चोत्तिसअदिसयजुत्ता अरिहंता एरिसा होति ॥
(98)
नियमसार (खण्ड-1)
Page #106
--------------------------------------------------------------------------
________________
72. णट्ठट्टकम्मबंधा अट्टमहागुणसमण्णिया परमा ।
लोयग्गठिदा णिच्चा सिद्धा ते एरिसा होंति ॥
.
लायन
73. पंचाचारसमग्गा पंचिंदियदंतिदप्पणिद्दलणा ।
धीरा गुणगंभीरा आयरिया एरिसा होंति ॥
74. रयणत्तयसंजुत्ता जिणकहियपयत्थदेसया सूरा ।
णिक्कंखभावसहिया उवज्झाया एरिसा होंति ॥
75. वावारविप्पमुक्का चउव्विहाराहणासयारत्ता ।
णिग्गंथा णिम्मोहा साहू दे एरिसा होति ॥
76. एरिसयभावणाए ववहारणयस्स होदि चारित्तं ।
णिच्छयणयस्स चरणं एत्तो उर्ल्ड पवक्खामि ॥
नियमसार (खण्ड-1)
(99)
Page #107
--------------------------------------------------------------------------
________________
संज्ञा शब्द
अंत
अंतर
अक्ख
अगाढत्त
अचक्खु
अणु
अणुभाग
अणुमोदण
अण्णाण
अत्थ
अधम्म
अधिगमभाव
अप्प
अरिहंत
अलिय
अर्थ
अन्त
अन्तर
इन्द्रिय
अदृढ़ता
अचक्षु
परमाणु
अनुभाग बंध
अनुमोदना
अज्ञान
(100)
वस्तु
अधर्म
आत्मा
अपनी
अभिणिवेस अभिप्राय
अरहंत
असत्य
होना
निज
परिशिष्ट - 1
संज्ञा - कोश
अकारान्त पु.
ठीक-ठीक बोध अकारान्त पु.
लिंग
गा.सं.
अकारान्त पु.
26
अकारान्त पु.
50
अकारान्त नपुं.
23
अकारान्त नपुं.
52
उकारान्त पु., नपुं. 14
उकारान्त पु.
20
अकारान्त पु.
40
अकारान्त नपुं.
63
अकारान्त नपुं.
12
अकारान्त पु., नपुं. 58
अकारान्त पु.
अकारान्त पु.
अकारान्त पु.
अकारान्त पु.
अकारान्त पु.
अकारान्त नपुं.
9, 30, 35
71
38
38, 43, 44, 50
62
51
71
67, 69
नियमसार (खण्ड- 1.
Page #108
--------------------------------------------------------------------------
________________
अवगहण
अवमाण
अवगाहन ___अपमान
अंतिम भाग अशुभ
अवसाण
खेद
असुह अहरिस्स आइ आकुंचण आगम
आदि संकोचन आगम
आचार
आचार
आतप
आत्मा
आतव आद आदावण आदि
आदान आदि
अकारान्त नपुं. 30 अकारान्त पु. 39 अकारान्त नपुं. अकारान्त नपुं. अकारान्त पु. इकारान्त पु. 7, 56, 64, 66,70 अकारान्त नपुं. 68 अकारान्त पु. 5,8 अकारान्त पु. 73 अकारान्त पु., नपुं. 23 अकारान्त पु. 18 अकारान्त नपुं. 64 इकारान्त पु. 21, 22, 23, 26,
30, 32, 33, 38, 45, 65, 67, 68,
69, 71 अकारान्त पु. 73 अकारान्त पु., नपुं. 9, 30 अकारान्त पु. 56 आकारान्त स्त्री. 75 इकारान्त स्त्री. 31 अकारान्त पु., नपुं. 11, 13, 26, 73 ईकारान्त स्त्री. 59
आयरिय आयास आरंभ आराहणा आवलि
आचार्य आकाश हिंसा आराधना आवलि इन्द्रिय स्त्री
इंदिय
इत्थी
नियमसार (खण्ड-1)
(101)
Page #109
--------------------------------------------------------------------------
________________
ईर्या
इरिया उच्चार उदय उपरोह उपाधि उवओग उवज्झाय
मलोत्सर्ग उदय बाधा संयोग
उपयोग
उपाध्याय
उवसम
उपशम
उवसमण
उपशम
उवाअ उव्वेग एसणा ओदइय ओहि कज्ज कमंडल कम्म कम्ममही कम्मबंध
उपाय अरति एषणा उदय से उत्पन्न अवधि कार्य कमंडल
आकारान्त स्त्री. 61 अकारान्त पु. 65 अकारान्त पु. 40 अकारान्त पु. 65 इकारान्त पु., स्त्री. 15, 38 अकारान्त पु. 10, 13 . अकारान्त पु. ___74 अकारान्त पु. 41 अकारान्त पु., नपुं. 41 अकारान्त पु. 2, 4 अकारान्त पु. 6 आकारान्त स्त्री. 63 अकारान्त पु., नपुं. 41 इकारान्त पु., स्त्री. 12, 14 अकारान्त नपुं. 25 अकारान्त पु., नपुं. 64 अकारान्त पु., नपुं. 15,18,24,38, 71 ईकारान्त स्त्री. 16 अकारान्त पु. 72 आकारान्त स्त्री. 67 अकारान्त पु. 70 अकारान्त पु. 9, 34, 68, 70
68
कर्म
कर्मभूमि कर्मबंध कथा कायोत्सर्ग
कहा
काउस्सग
काय
काय
शरीर
(102)
नियमसार (खण्ड-1)
Page #110
--------------------------------------------------------------------------
________________
कायत्त
कारण
काल
कालुस्स
किरिया
कुल
केवल
केवलणाण
केवलि
खंध
खइय
खय
खेद
गंथ
गंध
गइ
गमण
गहण
कायत्व
आधार
कारण
काल
कलुषता
क्रिया
वंश
कुल
केवलज्ञान
केवलदर्शन
केवलज्ञान
केवली
स्कंध
क्षय
क्षय
खेद
परिग्रह
गंध
गति
गति
ले लेना
नियमसार (खण्ड-1)
अकारान्त नपुं.
अकारान्त नपुं.
अकारान्त पु.
अकारान्त नपुं.
आकारान्त स्त्री.
अकारान्त पु., नपुं. 42
56
11
13
7, 71
अकारान्त नपुं.
अकारान्त नपुं.
अकारान्त नपुं.
अकारान्त पु.
अकारान्त नपुं.
अकारान्त पु.
अकारान्त पु.
अकारान्त पु.
अकारान्त पु.
अकारान्त पु.
इकारान्त स्त्री.
36
25
33
9, 32, 33, 34,
36
66
68, 70
अकारान्त नपुं.
अकारान्त नपुं.
3
20, 22, 23, 24,
25, 28, 29
41
41, 53
6
60
27,45
42
30
58, 64
(103)
Page #111
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाम
गुण
गुत्ति
घाइकम्म
चक्खु
चरण
चरित
चल
चाग
चारित
चिंता
चेदण
चेदणा
चोर
च्चाग
छाया
(104)
गाँव
गुण
पर्याय
गुप्ति
संयम
घातिया कर्म
चक्षु
सम्यक् चारित्र
आचरण
चारित्र
सम्यक्चारित्र
चारित्र
क्षोभ
त्याग
चारित्र
चिंता
चेतन
चेतना
चेतना
चोर
त्याग
छाया
अकारान्त पु.
58
अकारान्त पु., नपुं. 9, 27, 33, 37, 38,
46, 47, 71, 73
27
67,68
70
अकारान्त नपुं.
71
उकारान्त पु., नपुं. 14
अकारान्त नपुं.
54
55
76
3
55
52
60
55, 60, 76
6
37
इकारान्त स्त्री.
अकारान्त नपुं.
अकारान्त पु.
अकारान्त पु.
अकारान्त नपुं.
आकारान्त स्त्री.
अकारान्त पु.
अकारान्त स्त्री.
अकारान्त पु.
अकारान्त पु.
आकारान्त स्त्री.
স্ত
37,47
46
67
65
23
नियमसार (खण्ड
-1)
Page #112
--------------------------------------------------------------------------
________________
छुहा
छेदण
क्षुधा छेदन जन्म जन्म
जण
जम्म
जरा
बुढ़ापा
आकारान्त स्त्री. 6 अकारान्त नपुं. 68 अकारान्त पु. 6 अकारान्त पु., नपुं. 47 आकारान्त स्त्री. 6, 42 आकारान्त स्त्री. 47 अकारान्त नपुं. 22 इकारान्त स्त्री. अकारान्त पु.
जरा
जल
जल जाइ जिण
जन्म तीर्थंकर जिनेन्द्र भगवान
जिन
जिणसमय जिनसुत्त जीव
जिनेन्द्र देव जिनशासन जिनसूत्र जीव
अकारान्त पु. अकारान्त नपुं. 53 अकारान्त पु., नपुं. 9, 10, 19, 30, 32,
35, 37, 38, 39, 40, 42, 45, 46,
47, 48, 49, 56 अकारान्त पु., नपुं. 42, 56 अकारान्त नपुं. 61 इकारान्त स्त्री.
जुग जोणि
जीवस्थान चार हाथ उत्पत्ति स्थान योनि
ट्ठाण
भावदशा
अवस्था
नियमसार (खण्ड-1)
(105)
Page #113
--------------------------------------------------------------------------
________________
ठाण
ठिदि
उंसय
णयर
णर
णाण
णारय
णिंदा
दशा
पर्याय
स्थिति/अवसर
सम्यग्ज्ञान
नारकी
निंदा
णिक्खेवण निक्षेपण
णिच्छय
निश्चयनय
निश्चय
निश्चयन
णियम
कारण
स्थान
ठहरना
स्थिति
नपुंसक
नगर
(106)
मनुष्य
ज्ञान
णिच्छयणय
णिहा
णिमित्त
णियत्तण त्यागना
यत्ति
निद्रा
निमित्त
त्याग
नियम
अकारान्त पु., नपुं. 39, 41
39
अकारान्त पु., नपुं 40
40
इकारान्त स्त्री.
40
अकारान्त पु., नपुं. 45
अकारान्त नपुं.
58
15
1, 10, 11
3, 52
15
62
64
18, 29, 55
54
55, 76
6
अकारान्त पु.
अकारान्त नपुं.
अकारान्त पु.
आकारान्त स्त्री.
अकारान्त नपुं.
अकारान्त पु.
42, 56
30
अकारान्त पु.
आकारान्त स्त्री.
अकारान्त नपुं.
अकारान्त नपुं.
इकारान्त स्त्री.
अकारान्त पु.
30,53
56
67, 68, 69, 70
3, 4
नियमसार ( खण्ड - 1 )
Page #114
--------------------------------------------------------------------------
________________
णियमसार णिव्वाण णेरइय तच्च
नियमसार निर्वाण नारकी
1 2, 4
अकारान्त पु. अकारान्त नपुं. अकारान्त पु. अकारान्त नपुं.
सार
तच्चत्थ
द्रव्य तत्त्व तत्त्वार्थ तृष्णा तप
तण्हा
तिर्यंच
तव तिरिय तेरिच्छ तेल थी .
52 अकारान्त पु. 8,9 आकारान्त स्त्री. 6 अकारान्त पु., नपुं. 55 अकारान्त पु. 15 अकारान्त पु. अकारान्त नपुं. 22 ईकारान्त स्त्री. 45, 67 इकारान्त पु. 73 अकारान्त पु., नपुं. 1, 10, 13, 53
तिर्यंच
तेल
स्त्री
दंति
हाथी
दसण
दर्शन सम्यग्दर्शन
दप्प
मद
दव्व
द्रव्य
दव्वत्थिअ
द्रव्यार्थिक नय
अकारान्त पु. 73 अकारान्त पु., नपुं. 20, 26, 29, 30,
____33, 34, 37 अकारान्त पु. 19. इकारान्त स्त्री. 14 अकारान्त पु. 35, 36 अकारान्त पु. 5, 7, 8, 44
दिहि
दर्शन
प्रदेश
दोस
दोष
57
नियमसार (खण्ड-1)
(107)
Page #115
--------------------------------------------------------------------------
________________
धम्म
धरा
धाउ
पइट्ठा
पज्जअ
पज्जय
पज्जयणअ
पज्जाअ
पज्जाय पदेस पयडत्त पयडि
अकारान्त पु. 66
अकारान्त पु., नपुं. 9, 30, 33, 35 पृथ्वी आकारान्त स्त्री. 21 धातु उकारान्त पु. 25 प्रतिष्ठापन आकारान्त स्त्री. 65 पर्याय
अकारान्त पु. पर्याय अकारान्त पु. पर्यायार्थिक नय अकारान्त पु. पर्याय अकारान्त पु. 14, 28, 38 पर्याय
अकारान्त पु. 15, 19, 45 प्रदेश अकारान्त पु. 35, 36, 40, 65
अकारान्त नपुं. 27 प्रकृति इकारान्त स्त्री. 40 पदार्थ अकारान्त पु. 74 परद्रव्य अकारान्त पु., नपुं. 50 तीर्थंकर अकारान्त पु. परमाणु उकारान्त पु. 20, 25, 26, 29 परस्वभाव अकारान्त पु. परिणमन अकारान्त पु. भाव
56, 57, 59, 64 परिणमन
अकारान्त नपुं. परिहार
अकारान्त पु. त्याग
प्रकटता
पयत्थ
परदव्व
परमप्प परमाणु परसहाव परिणाम
परिवण परिहार
66
(108)
नियमसार (खण्ड-1)
Page #116
--------------------------------------------------------------------------
________________
परूवणा
पव्वद
पसारण
पाव
पुंस
पुढवि
पुरिस पुव्व पेसुण्ण पोग्गल
प्रतिपादन आकारान्त स्त्री. 4 पर्वत अकारान्त पु., नपुं. 22 प्रसारण अकारान्त नपुं. 68 पाप अकारान्त पु., नपुं. 67 पुरुष अकारान्त पु. 45 पृथ्वी
इकारान्त स्त्री. 16 मनुष्य अकारान्त पु., नपुं. 53
अकारान्त पु., नपुं. 50 पैशुन्य (चुगली) अकारान्त नपुं. 62 पुद्गल अकारान्त पु., नपुं. 9, 18, 20, 29,
30, 32, 37 पुस्तक इकारान्त पु., नपुं. 64 प्रदेशता अकारान्त नपुं. 34
अकारान्त नपुं. 31 परिमाण
61 फल अकारान्त पु., नपुं. 2, 4 स्पर्श अकारान्त पु., नपुं. 27, 45
अकारान्त पु. 40 बंधन अकारान्त नपुं. 68
अकारान्त पु., नपुं. 17
अकारान्त पु., नपुं. 21 बाह्य/पर द्रव्य अकारान्त पु., नपुं. 38
पोत्थइ
प्पदेसत्त प्पमाण
प्रमाण
फल
फास
बंध
बंध
बंधण
भेद
भेद
ब्भेय बहितच्च
बाहतच्च
नियमसार (खण्ड-1)
(109)
Page #117
--------------------------------------------------------------------------
________________
भत्त
अकारान्त पु., नपुं. 63
- 67
आहार भोजन अतिशय संसार
भर
भव
अकारान्त पु., नपुं. 60 अकारान्त पु. 42, 47 अकारान्त पु. 18,39,41,49,50,
58, 59, 66, 74
भाव
भाव
स्वभाव
भावणा
चिंतन
आकारान्त स्त्री.
भावना
भासा
भाषा
भुत्ति
आहार
भूमि भेद प्रकार भोगभूमि
भेय भोगभूमि मग्ग
आकारान्त स्त्री. 57, 62 इकारान्त स्त्री. 63 उकारान्त स्त्री. 22 इकारान्त स्त्री. 65 अकारान्त पु., नपुं. 12, 16, 17, 31 अकारान्त पु. 12 इकारान्त स्त्री. 16 अकारान्त पु. 2, 61 अकारान्त पु., स्त्री. 42, 56 अकारान्त नपुं. 26 अकारान्त पु., नपुं. 69 इकारान्त स्त्री. 66 इकारान्त स्त्री. 69 अकारान्त पु. 12
मार्ग
मग्गण
मार्गणा मध्य
मज्झ
मण
मणुगुत्ति
मन मनोगुप्ति मनोगुप्ति मनःपर्यय
मोगुत्ति
मणपज्ज
(110)
नियमसार (खण्ड-1)
Page #118
--------------------------------------------------------------------------
________________
मद मदि
मरण
मलिण
दोष
माण
माणुस्स
मनुष्य
मारण मिच्चु
मुख
मैथुन
# # EEEEEEEEEEEEEEEEEEE ! # # E F REFFFFFFF# # FEEEEE :
मेहुण मोक्ख मोण
अकारान्त पु., नपुं. 6 इकारान्त स्त्री. 12
अकारान्त पु. 42 मरण
अकारान्त नपुं. 52 मान
अकारान्त पु., नपुं. 39
अकारान्त पु., नपुं. 16 मारन
अकारान्त नपुं. मृत्यु उकारान्त पु.
अकारान्त नपुं.
अकारान्त नपुं. 59 मोक्ष अकारान्त पु. 2, 4, 54 वाणी का संयम अकारान्त नपुं. 69 असत्य अकारान्त पु., नपुं. 57
अकारान्त पु. 6, 53, 57, 66 आदि इकारान्त पु. 12 रति इकारान्त स्त्री. 6 वन
अकारान्त नपुं. 58 रत्नत्रय अकारान्त नपुं. 74
अकारान्त पु., नपुं. 27, 45 अकारान्त पु. 6,57, 66 अकारान्त पु. 67 अकारान्त पु. 69
मोस
मोह
मोह याइ
रण
रयणत्तय रस राग
रस
राग
राज
राज
राय
राग
नियमसार (खण्ड-1)
(111)
Page #119
--------------------------------------------------------------------------
________________
रुजा
रूव
रोग
रोस
लोय
लोयग्ग
लोयायास
asगुत्ति
वण्ण
वद
वयगुत्ति
वग्गणा
वयण
ववदेस
ववहार
ववहार
ववहारणय
वांछा
वावार
वित्थार
विभव
विभाग
वियप्प
(112)
रोग
रूप
व्याधि
आकारान्त स्त्री. 6
अकारान्त पु., नपुं. 27, 59
अकारान्त पु.
42
रोष
अकारान्त पु.
6
लोक
अकारान्त पु.
17
लोक का अग्रभाग अकारान्त नपुं.
48, 72
लोकाकाश
32, 36
वचनगुप्ति
69
वर्ण
45
व्रत
वचनगुप्ति
वर्गणा
वचन
नाम
व्यवहार
व्यवहारनय
व्यवहारनय
चाह
व्यवसाय
विस्तार
वैभव
विभाग
भेद
विकल्प
अकारान्त पु., नपुं.
इकारान्त स्त्री.
अकारान्त पु.
अकारान्त पु., नपुं. 56,57,58,59,60
इकारान्त स्त्री.
67
आकारान्त स्त्री.
24
अकारान्त पु., नपुं. 3, 8, 62, 67
अकारान्त पु.
29
54
18
49, 55, 66, 76
59
75
17
7
17
11, 20
13
अकारान्त पु.
अकारान्त पु.
अकारान्त पु.
आकारान्त स्त्री.
अकारान्त पु.
अकारान्त पु.
अकारान्त पु.
अकारान्त पु.
अकारान्त पु.
नियमसार (खण्ड-1)
Page #120
--------------------------------------------------------------------------
________________
विषय
विभ्रम
विसय
अकारान्त पु. 23 विहाव विभाव अकारान्त पु. - 10, 11, 14, 15,
27, 28 विब्भम
अकारान्त पु. विसग्ग छोड़ना अकारान्त पु. वीर
महावीर अकारान्त पु. संठाण संस्थान अकारान्त नपुं.
संठाण
आकार संपदा संपदा आकारान्त स्त्री. 32 संभमण
परिभ्रमण अकारान्त नपुं. . 42 संसय
संशय अकारान्त पु. 51 संसिदि संसार चक्र इकारान्त स्त्री. 48, 49 संहणण
अकारान्त नपुं. 45 स्वद्रव्य अकारान्त पु., नपुं. 50
आकारान्त स्त्री. 59, 66 सीमित तथा ___ अकारान्त नपुं. 11 निर्दोष ज्ञान
सम्यग्ज्ञान अकारान्त नपुं. 12, 51, 54 सद्दहण श्रद्धान अकारान्त नपुं. 5, 51, 52 सप्पि
इकारान्त नपुं. 22 श्रमण
अकारान्त पु. समय
शासन अकारान्त पु. 27
समय नियमसार (खण्ड-1)
(113)
संहनन
सगदव्व
सण्णा
संज्ञा
सण्णाण
अका
11
समण
Page #121
--------------------------------------------------------------------------
________________
समिदि
सम्मत्त
सरीर
सरीरगुत्ति
सहाव
सासण
साहु
सिद्ध
सिद्धप्प
सुद
सुद्ध
सुकेवलि
सुर
सुरगण
सेद
सोग
हरिस
हिंसा
ap
हे
(114)
समिति
सम्यक्त्व
काय
कायगुप्ति
स्वभाव
शासन
साधु
सिद्ध
सिद्ध आत्मा
श्रुत
शुद्धनय
श्रुतकेवली
देव
देवसमूह
पसीना
खेद
हर्ष
हिंसा
कारण
निमित्त
व्यवहार
इकारान्त स्त्री.
अकारान्त नपुं.
अकारान्त पु., नपुं. 70
इकारान्त स्त्री.
70
अकारान्त पु.
अकारान्त नपुं.
उकारान्त पु.
अकारान्त पु.
अकारान्त पु.
अकारान्त नपुं.
अकारान्त पु.
इकारान्त पु.
अकारान्त पु.
अकारान्त पु.
अकारान्त पु.
अकारान्त पु.
अकारान्त पु.
आकारान्त स्त्री.
उकारान्त पु.
अकारान्त पु.
61,62,63,64,65
5, 51, 52, 53,54
1, 10, 11, 13,
15, 27, 28, 33,
39, 41, 49
2
57, 75
48, 72
47
54
49
1
15
17
6
42
39
70
25, 67
53
54
नियमसार (खण्ड-1)
Page #122
--------------------------------------------------------------------------
________________
क्रिया-कोश अकर्मक
अर्थ
गा.सं.
रुकना
क्रिया णियत्त विज्ज हव
59 54
होना
होना
4, 5, 8, 11, 20, 24, 27, 33, 35, 36, 37, 61, 65 32, 50 2, 18, 19, 21, 31, 33, 47, 51, 54, 55, 56,57, 58, 64, 71, 72, 73,74, 75, 76
विद्यमान होना
10, 29, 69
____ संति
. अनियमित क्रिया होना
32, 42, 45
नियमसार (खण्ड-1)
(115)
Page #123
--------------------------------------------------------------------------
________________
क्रिया-कोश सकर्मक
क्रिया
अर्थ
गा.सं.
गच्छ
61
जाण
गमन करना जानना छोड़ना कहना
46,69 57
पजह परूव
24
54, 76
58
पवक्ख मुय वियाण वोच्छ सुण
कहना छोड़ना जानना कहना सुनना
23, 26
अनियमित कर्मवाच्य कहा जाता है
7, 29
उच्चइ 3/1
(116)
नियमसार (खण्ड-1)
Page #124
--------------------------------------------------------------------------
________________
कृदन्त-कोश संबंधक कृदन्त
गा.सं.
56
कृदन्त शब्द जाणिऊण णमिऊण पडुच्च पेच्छिऊण मोत्तूण दह्ण परिचत्ता
अर्थ
कृदन्त जानकर संकृ नमस्कार करके संकृ आश्रय करके संकृ अनि . देखकर छोड़कर संकृ अनि देखकर छोड़कर
58
34
59
संज
46
अणिहिट्ट अलंकिय अल्लिय
47
47
भूतकालिक कृदन्त न कहा हुआ भूकृ अनि विभूषित भूकृ अनि प्रवेश किया हुआ निकला हुआ भूकृ अनि कथित भूकृ अनि
भूकृ अनि कारित कहा गया
उग्गद उत्त कद कारिद
कृत
.
कहिय
8, 74
जुद ठिद
युक्त स्थित
भूकृ अनि
भूकृ अनि
नियमसार (खण्ड-1)
(117)
Page #125
--------------------------------------------------------------------------
________________
णट्ठ
नष्ट कर दिया
भूक अनि
72
गया
भूकृ अनि
34, 64, 68, 70
णिद्दिट्ट णिम्मुक्क
दिण्ण
63
कहा गया रहित दिया हुआ कहा गया प्रशंसा किया गया प्रतिपादित कहा गया
भूकृ अनि
अनि भूक भूक
परिकहिय प्पसंसिय
भणिद
1
भूक
.
3, 9, 13, 14, 15, 17, 19, 22, 27, 49, 53, 60
23
47
भणिय मुक्क रत्त रहिअ
75
रहिद
कहा गया भूकृ मुक्त लगा हुआ रहित के बिना रहित नष्ट कर दिया भूकृ अनि गया छुटकारा पाया भूकृ अनि
वदिरित्त ववगय
विप्पमुक्क
हुआ
संजाद
उत्पन्न
भूकृ अनि
16
(118)
नियमसार (खण्ड-1)
Page #126
--------------------------------------------------------------------------
________________
संजुत्त
समक्खाद
समणिय
हिद
कज्ज
गेज्झ
णादव्व
य
विण्य
अवलोगंत
वदंत
वहंत
युक्त
संयुक्त
कहा गया
समन्वित/युक्त
हितकारी
समझा जाना
चाहिये
ज्ञातव्य
समझा जाना
चाहिये
समझा जाना
चाहिये
भूक अनि
पालन किया
जाना चाहिये
ग्रहण करने योग्य विधिक अनि
विधिकृ
देखता हुआ
बोलता हुआ
धारण करता
हुआ.
नियमसार (खण्ड-1)
भूक अनि
भूक अनि
भूक अनि
विधि कृदन्त
विधिकृ अनि
विधिक अनि
विधिक अनि
वर्तमान कृदन्त
वकृ
वकृ
वकृ
a
19
2
72
62
3
26
16, 17
57535
25
25, 48
22
61
62
60
(119)
Page #127
--------------------------------------------------------------------------
________________
शब्द
53
विशेषण-कोश अर्थ
गा.सं. अंतरंग गंधरहित अनन्त
1, 35, 36 अतीन्द्रिय
अंतर अगंध अणंत अणिंदिय
46
अण्ण
पर
अरूव
अत्त
आप्त अस्थिकाय अस्तिकाय अदिसय अतिशय अधिगम . ठीक-ठीक बोध होना । अरस
रसरहित
रूपरहित अलिंगग्गहण तर्क से ग्रहण न
होनेवाला अविणास अविनाशी अव्वत्त अप्रकट असंख असंख्यात असंखेज्ज असंख्यात असद्द शब्दरहित असरीर अशरीरी असहाय सहायता निरपेक्ष
।
असहाय
हुँ
(120)
नियमसार (खण्ड-1)
Page #128
--------------------------------------------------------------------------
________________
समस्त
असेस इदर
भिन्न
11, 23, 29, 36
13
विरोधी उत्तम उपयोगमय उपादेय ऐसा उदय से उत्पन्न कटुवचन कर्ता कर्म से उत्पन्न
76 10 38, 50, 52 71, 72, 73, 74, 75, 76
उवओगमय उवादेय एरिस
ओदइय कक्कस कत्तु कम्मज गंभीर गुणप्प
गंभीर
गुणयुक्त
प्रच्छन्न
घण
जाणय
जुत्त
णाणा
प्रगाढ़
समझनेवाले जारिस जिस तरह से
सहित णंतगुण अनन्त गुण
नाना प्रकार णिक्कल शरीररहित णिक्काम वासनारहित णिक्कोह क्रोधरहित णिक्खंक इच्छारहित नियमसार (खण्ड-1)
(121)
Page #129
--------------------------------------------------------------------------
________________
णिग्गंथ
णिच्च
णिद्दंड
णिद्दंद
णिद्दलण
णिद्दोस
णिभय
तारिस
परिग्रहरहित
निर्ग्रथ
शाश्वत
णिम्मद
णिम्मम
णिम्मल
णिम्माण
णिम्मूढ
णिम्मोह
रिवेक्ख
अपेक्षारहित
निरालंब
पराश्रयरहित
णिरावेक्ख अपेक्षारहित
णिस्सल्ल
शल्यरहित
णिस्सेस समस्त
णीराग
रागरहित
(122)
मन-वचन-काय के
स्पंदनरहित
विरोधी विकल्परहित
मर्दन करनेवाले
दोष / द्वेषरहित
भयरहित
मदरहित
पर से तादात्म्यरहित
निर्मल
अहंकाररहित
अविवेक / मूर्च्छारहित
मोहरहित
आसक्तिरहित
उसी तरह से
44
75
72
43
43
73
43
43
44
43
48
44
3 n + 1 ∞ $
43
75
14, 60
43
28
44
7
43
44
47
नियमसार (खण्ड
1 )
Page #130
--------------------------------------------------------------------------
________________
उतने
36
भूतकाल
31
ताव तीद थूल थूलथूल थूलसुहम
21, 22, 23 21, 22
21
14
देसय
धीर पत्तेय
पयत्त
64
स्थूल स्थूलस्थूल स्थूलसूक्ष्म उपदेशक धैर्यवान प्रत्येक बड़ी सावधानी उत्कृष्ट पर दूसरा परम सर्वोत्तम सर्वोपरि परमार्थ
58
selbst111:*
62, 65
परमट्ठ
पसत्थ
पहुदि पाओग्ग पासुग
प्रशस्त आदि योग्य
प्रासुक
61, 63, 65
पुव्व
पूर्व
से युक्त सब प्रकार
पुव्वावर
नियमसार (खण्ड-1)
(123)
Page #131
--------------------------------------------------------------------------
________________
34
भयभीत भोक्ता
18
35, 37 37
मुत्ति
मूर्ति रहित
रहिअ
रहित
11, 13, 71
रहिय वज्जिय
रहित
वर
श्रेष्ठ/उत्तम
वदिरित्त
रहित
विम्हिय
चकित
विमोह
विमोह विरहिय
मुक्त
रहित
15, 51, 52, 59
विवज्जिय रहित विवरीय विपरीत
अशुद्ध विसुद्धप्प विशुद्धात्मा संखेज्ज संख्यात संजुत्त
से युक्त
स्व-पर स-परावेक्ख पर की अपेक्षा सहित
समभाव
स-पर
सम
(124)
नियमसार (खण्ड-1)
Page #132
--------------------------------------------------------------------------
________________
समग्ग
समय
समुब्भव
सयल
5, 44
सरूव स-सहाव
सहिय
71, 74
सार सिद्ध सुद्ध. सुहुम सुहमथूल
युक्त समयपर्याय उत्पन्न समस्त सभी स्वरूप स्वभावसहित से युक्त पूर्ण रूप से सिद्ध सिद्ध शुद्ध सूक्ष्म सूक्ष्मस्थूल शेष वीर गुणित मजाक/मखौल
21, 23, 24
38, 52 50
त्यागने योग्य
अविभागी 1/1 तविवरीओ 1/1 तव्विवरीया 1/2 नियमसार (खण्ड-1)
अनियमित विशेषण अविभागी 26 उसके विपरीत 7 उसके विपरीत 24
(125)
Page #133
--------------------------------------------------------------------------
________________
संख्यावाची विशेषण
आठ
एक
47, 72 27, 36 17, 33, 42
चउ
चार
चउक्क
चार
चौदह
चउदह चउभेय
चार प्रकार
चार
चउव्विह चोत्तिस
चार प्रकार की । चौंतीस .
छप्पयार छन्भेय
छ भेदवाला छ भेदरूप तीन
4, 14
तीसरा
58
12, 31
तिदिय तिवियप्प तुरिय दुविह
59
2, 10, 11, 13
तीन चौथा दो प्रकार का दो प्रकार से दो प्रकार का दो भेदवाला
19
दुवियप्प
14, 16, 20, 31
पंच
पाँच
(126)
नियमसार (खण्ड-1)
Page #134
--------------------------------------------------------------------------
________________
पाँचवा पहला
पंचम पढम विदिय सत्तविह
दूसरा
सात प्रकार का
नियमसार (खण्ड-1)
(127)
Page #135
--------------------------------------------------------------------------
________________
सर्वनाम-कोश
सर्वनाम शब्द अर्थ लिंग
गा.सं.
리의되업열 육
अपना पु., नपुं. यह . पु., यह पु., नपुं.
昭昭可可丽
स्त्री.
पु., नपुं.
4, 17, 34, 49 3, 25, 26, 28, 57, 58 69 2, 3, 4, 7, 8, 11, 13, 15,26, 27, 28, 32, 53, 56, 57, 58, 61, 65, 72 59, 69
सव्व
वह स्त्री. वह पु., नपुं. प्रत्येक पु., नपुं. सभी समस्त
30, 45, 49
60
(128)
नियमसार (खण्ड-1)
Page #136
--------------------------------------------------------------------------
________________
अव्यय
अर्थ
अति
अइ अपि अहव
इति
अव्यय-कोश
गा.सं.
21, 22, 24 इसके अतिरिक्त 4 अथवा
31, 59 वाक्यालंकार
2 शब्दस्वरूपद्योतक 10, 25, 34 इसलिए समाप्तिसूचक
14 पादपूरक
29, 64, 68, 70 क्योंकि अतः पादपूरक
9, 15, 60
13, 50 वाक्यार्थद्योतक शब्दस्वरूपद्योतक
22, 23 इस प्रकार
इसलिए
21
24
बाद में
ही
51, 52, 57, 58
एव एत्तो
इससे
16
3
पादपूरक वाक्यालंकार
39
और
21, 30, 63
नियमसार (खण्ड-1)
(129)
Page #137
--------------------------------------------------------------------------
________________
चावि
और
चेव .
जम्हा
जह
पादपूरक
और क्योंकि जिस प्रकार चूँकि निश्चय ही नहीं आवश्यक रूप से
जेण
.
9
7, 36, 40
णियमेण णेव
नहीं
26
नहीं
39, 40, 41, 42, 45
25
तम्हा
तह
इसलिए उसी प्रकार तथा उसी प्रकार उतने
13, 48 63, 68
तहेव ताव
किन्तु
दिवा
दिन में
.
और पादपूरक
तथा
(130)
नियमसार (खण्ड-1)
Page #138
--------------------------------------------------------------------------
________________
निरर्थक प्रयोग और
3, 8 24, 28, 29 25 35 .
तथा
आगे
और
39
2, 4, 9, 14, 23, 32, 42 पादपूरक
3, 34, 39 पुनरावृत्ति भाषा की पद्धति 57 अथवा
57, 69, 70 पादपूरक
11, 72 और तथा
39, 40, 41, 67, 69 अथवा
58, 69, 70 पुनरावृत्ति भाषा की पद्धति 58 निश्चय ही
22, 46, 68 ही
14, 26, 52, 82 सदा
57, 75 हटानेवाला होने के कारण 3 निश्चय ही निश्चय ही पादपूरक
34, 35
18
सया
हरत्थं ।
____
नियमसार (खण्ड-1)
(131)
Page #139
--------------------------------------------------------------------------
________________
छंद के दो भेद माने गए हैं1. मात्रिक छंद 2. वर्णिक छंद
1. मात्रिक छंद - मात्राओं की संख्या पर आधारित छंदो को 'मात्रिक छंद' कहते हैं। इनमें छंद के प्रत्येक चरण की मात्राएँ निर्धारित रहती हैं। किसी वर्ण के उच्चारण में लगनेवाले समय के आधार पर दो प्रकार की मात्राएँ मानी गई हैंह्रस्व और दीर्घ। ह्रस्व (लघु) वर्ण की एक मात्रा और दीर्घ (गुरु) वर्ण की दो मात्राएँ गिनी जाती हैं
परिशिष्ट - 2
छंद'
लघु (ल) (1) (ह्रस्व)
गुरु (ग) (S) (दीर्घ)
(1) संयुक्त वर्णों से पूर्व का वर्ण यदि लघु है तो वह दीर्घ/ गुरु माना जाता है। जैसे'मुच्छिय' में 'च्छि' से पूर्व का 'मु' वर्ण गुरु माना जायेगा ।
(2) जो वर्ण दीर्घस्वर से संयुक्त होगा वह दीर्घ/ गुरु माना जायेगा। जैसे- रामे । यहाँ शब्द में 'रा' और 'मे' दीर्घ वर्ण है ।
(3) अनुस्वार - युक्त ह्रस्व वर्ण भी दीर्घ/ गुरु माने जाते हैं। जैसे- 'वंदिऊण' में 'व' ह्रस्व वर्ण है किन्तु इस पर अनुस्वार होने से यह गुरु (S) माना जायेगा। (4) चरण के अन्तवाला ह्रस्व वर्ण भी यदि आवश्यक हो तो दीर्घ/ गुरु मान लिया जाता है और यदि गुरु मानने की आवश्यकता न हो तो वह ह्रस्व या गुरु जैसा भी हो बना रहेगा ।
देखें, अपभ्रंश अभ्यास सौरभ (छंद एवं अलंकार)
1.
(132)
नियमसार (खण्ड-1)
Page #140
--------------------------------------------------------------------------
________________
2. वर्णिक छंद- जिस प्रकार मात्रिक छंदों में मात्राओं की गिनती होती है उसी प्रकार वर्णिक छंदों में वर्गों की गणना की जाती है। वर्णों की गणना के लिए गणों का विधान महत्त्वपूर्ण है। प्रत्येक गण तीन मात्राओं का समूह होता है। गण आठ हैं जिन्हें नीचे मात्राओं सहित दर्शाया गया है
यगण
ISS
मगण
SSS
तगण
ऽऽ।
रगण
515
जगण भगण नगण सगण
___ -
- - -
।। ऽ।ऽ ।।। ।।
गाहा छंद
गाहा छंद के प्रथम और तृतीय पाद में 12 मात्राएँ, द्वितीय पाद में 18 तथा चतुर्थ पाद में 15 मात्राएँ होती हैं ।
उदाहरण
।। । । । ऽ ऽ।ऽ ।।।ऽ ।ऽ।।।5 5 णमिऊण जिणं वीरं अणंतवरणाणदसणसहावं । ऽ ऽ ।।।। ऽऽऽ।।।।ऽ । ऽ।। ऽ वोच्छामि णियमसारं केवलिसुदकेवलीभणिदं॥
नियमसार (खण्ड-1)
(133)
Page #141
--------------------------------------------------------------------------
________________
ऽऽ ।। ऽ ऽ ऽ ऽ।ऽ ऽ ।ऽ। 5 55 अत्तागमतच्चाणं सद्दहणादो हवेइ सम्मत्तं । ।।। ।। ऽ । ऽ ऽ ।।।।ऽ ऽ । ऽ ऽ ऽ ववगयअसेसदोसो सयलगुणप्पा हवे अत्तो॥
उग्गाहा छंद
उग्गाहा छंद के प्रथम व तृतीय पाद में 12 मात्राएँ तथा द्वितीय व चतुर्थ पाद में 18 मात्राएँ होती हैं।
उदाहरण
ऽ। । ।।।।ऽ ऽ ऽ।।5।। ।। ऽ ऽ ऽ तस्स मुहुग्गदवयणं पुव्वावरदोसविरहियं सुद्धं । ऽ ।।। ।।।।। ऽ ऽ।।।। ऽ ।ऽ। ऽ ऽ ऽ . आगममिदि परिकहियं तेण दु कहिया हवंति तच्चत्था॥
ऽ ।।ऽ ऽ ऽ ऽ ।ऽ ऽ ऽ ।ऽ । ऽ ऽ ऽ अण्णणिरावेक्खोजो परिणामो सो सहावपज्जाओ। ऽ ।। ऽ ऽ।। ऽ । ऽ ऽ ऽ । ऽ । ऽ ऽ ऽ खंधसरूवेण पुणो परिणामो सो विहावपज्जाओ॥
(134)
नियमसार (खण्ड-1)
Page #142
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथा छंद संख्या
गाहा गाहा
गाथा छंद संख्या 41. उग्गाहा
गाथा छंद संख्या 21. गाहा 22. गाहा
गाहा गाहा
42.
गाहा
गाहा
43.
गाहा गाहा
गाहा
गाहा
44. 45.
गाहा
गाहा
गाहा
गाहा
गाहा
गाहा
गाहा गाहा गाहा
उग्गाहा उग्गाहा उग्गाहा
29.
गाहा
गाहा
उग्गाहा 29. गाहा
गाहा
गाहा 32. गाहा
गाहा गाहा
गाहा
गाहा
3.
गाहा
14.
गाहा
गाहा 12. गाहा
उग्गाहा 14. गाहा 15. उग्गाहा 16. गाहा 17. गाहा 18. गाहा 19. गाहा 20. गाहा
गाहा गाहा गाहा
गाहा गाहा
गाहा
गाहा
गाहा
गाहा
39. 40.
उग्गाहा गाहा
गाहा
नोटः
देखें नियमसार, कुन्दकुन्दभारती प्रकाशन, नई दिल्ली
नियमसार (खण्ड-1)
(135)
Page #143
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथा छंद संख्या
61.
गाहा
गाहा
गाहा
गाहा
गाहा
गाहा
गाहा
गाहा
गाहा
गाहा
गाहा
गाहा
गाहा
गाहा गाहा गाहा
(136)
नियमसार (खण्ड-1)
Page #144
--------------------------------------------------------------------------
________________
1. नियमसार
2. नियमसार
3. नियमसार
4. नियमसार
5. नियमसार
6. पाइय-सद्दमहणवो
7. कुन्दकुन्द शब्दकोश
नियमसार (खण्ड-1)
सहायक पुस्तकें एवं कोश
: हिन्दी अनुवादक
स्व. पण्डित परमेष्ठीदास न्यायतीर्थ (सत्साहित्य प्रकाशन एवं प्रचार विभाग,
श्री कुन्दकुन्द
कहान दिगम्बर जैन तीर्थ सुरक्षा ट्रस्ट, जयपुर, सप्तम
संस्करण, 1993)
: हिन्दी अनुवादक-श्री मगनलाल जैन
(श्री दिगम्बर जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट, सोनगढ़ (सौराष्ट्र), 1965)
: सम्पादक - श्री बलभद्र जैन
(कुन्दकुन्द भारती प्रकाशन, नई दिल्ली,
1987)
: हिन्दी अनुवादक
पूज्य आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी
(दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान, हस्तिनापुर (मेरठ)
उत्तर प्रदेश, 1985)
: प्रधान सम्पादक- प्रो. (डॉ.) लालचंद जैन
सम्पादन- अनुवाद -डॉ. ऋषभचन्द जैन 'फौजदार' ( प्राकृत जैनशास्त्र और अहिंसा शोध संस्थान वैशाली, बासोकुण्ड, मुजफ्फरपुर, बिहार, 2002 )
: पं. हरगोविन्ददास त्रिविक्रमचन्द्र सेठ
( प्राकृत ग्रन्थ परिषद्, वाराणसी, 1986)
: डॉ. उदयचन्द्र जैन
(श्री दिगम्बर जैन साहित्य-संस्कृति संरक्षण समिति, दिल्ली,
1989)
(137)
Page #145
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व्याकरण
8. प्राकृत-हिन्दी शब्दकोश : डॉ. उदयचन्द्र जैन
(न्यु भारतीय बुक कॉर्पोरेशन, दिल्ली,
2005) 9. संस्कृत-हिन्दी कोश : वामन शिवराम आप्टे
(कमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 1996) 10. हेमचन्द्र प्राकृत व्याकरण, : व्याख्याता श्री प्यारचन्द जी महाराज भाग 1-2
(श्री जैन दिवाकर-दिव्य ज्योति कार्यालय,
मेवाड़ी बाजार, ब्यावर, 2006) 11. प्राकृत भाषाओं का : लेखक -डॉ. आर. पिशल
हिन्दी अनुवादक - डॉ. हेमचन्द्र जोशी
(बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, पटना, 1958) 12. प्राकृत रचना सौरभ डॉ. कमलचन्द सोगाणी
(अपभ्रंश साहित्य अकादमी, जयपुर, 2003) 13. प्राकृत अभ्यास सौरभ : डॉ. कमलचन्द सोगाणी
(अपभ्रंश साहित्य अकादमी, जयपुर, 2004) 14. प्रौढ प्राकृत रचना सौरभ, : डॉ. कमलचन्द सोगाणी भाग-1
(अपभ्रंश साहित्य अकादमी, जयपुर, 1999) 15. अपभ्रंश अभ्यास सौरभ : डॉ. कमलचन्द सोगाणी
(छंद एवं अलंकार) (अपभ्रंश साहित्य अकादमी, जयपुर, 2008) 16. प्राकृत- हिन्दी-व्याकरण : लेखिका- श्रीमती शकुन्तला जैन (भाग-1, 2) संपादक- डॉ. कमलचन्द सोगाणी
(अपभ्रंश साहित्य अकादमी, जयपुर,
2012, 2013) 17. प्राकृत-व्याकरण : डॉ. कमलचन्द सोगाणी
(संधि- समास- कारक-तद्धित- (अपभ्रंश साहित्य अकादमी, जयपुर, स्त्रीप्रत्यय-अव्यय)
2008)
(138)
नियमसार (खण्ड-1)
Page #146
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