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________________ मदिसुदओही मति, श्रुत, अवधि तहेव मणपज्ज अण्णाणं तिवियप्पं मदियाई भेददो [(मदि)-(सुद)(ओहि) 1/1] अव्यय (मणपज्ज) 1/1 (अण्णाण) 1/1 (तिवियप्प) 1/1 वि [(मदि)-(याइ) 1/2] (भेद) 5/1 पंचमीअर्थक 'दो' प्रत्यय उसी प्रकार मनःपर्ययज्ञान अज्ञान तीन प्रकार का मति आदि भेद से अव्यय पादपूरक ___ अन्वय- केवलमिंदियरहियं असहायं तं सहावणाणं ति विहावणाणं दुविहं हवे सण्णाणिदरवियप्पे सण्णाणं चउभेयं मदिसुदओही मणपज्जं तहेव अण्णाणं तिवियप्पं भेददो चेव मदियाई । ___अर्थ- (चूँकि) केवलज्ञान इन्द्रियों से रहित (तथा) सहायता निरपेक्ष (होता) (है) इसलिए वह स्वभावज्ञान (असीमित ज्ञान) (है)। विभावज्ञान (असीमित ज्ञान से अलग हुआ ज्ञान) दो प्रकार का होता हैः सीमित तथा निर्दोष ज्ञान अर्थात् सम्यग्ज्ञान और उससे भिन्न सीमित तथा सदोष ज्ञान (मिथ्याज्ञान) के भेद के कारण (यह विभाव ज्ञान) (असीमित ज्ञान से अलग हुआ ज्ञान) (दो प्रकार का कहा गया है)। (सम्यग्दृष्टि की अपेक्षा) सीमित तथा निर्दोष ज्ञान अर्थात् सम्यग्ज्ञान चार प्रकार का (है): मति, श्रुत, अवधि तथा मनःपर्यय। उसी प्रकार सीमित तथा सदोष ज्ञान अर्थात् अज्ञान (मिथ्याज्ञान) तीन प्रकार का (होता है) (जो) भेद से मति आदि (कुमति, कुश्रुत और कुअवधि) (कहे जाते हैं)। नोटः संपादक द्वारा अनूदित (22) नियमसार (खण्ड-1)
SR No.002304
Book TitleNiyamsara Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2015
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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