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59.
दहूण
इत्थिरूवं
वांछाभावं
णियत्तदे
तासु
परिणामो
अहव
तुरीयवदं
(णियत्त) व 3 / 1 अक (ता) 7 / 2 सवि
मेहुणसण्णविवज्जिय- [(मेहुण) - ( सण्णा सण्ण) - (विवज्जिय) वि - (परिणाम) 1 / 1] भाव
1.
2.
दहूण इत्थिरूवं वांछाभावं णियत्तदे तासु । मेहुणसण्णविवज्जियपरिणामो अहव तुरीयवदं ॥
3.
नोट:
(दहूण) संकृ अनि
देखकर
[ ( इत्थी -- इत्थि ) - (रूव) 2/1] स्त्रियों के रूप को
[( वांछा) 2 - (भाव) 3
चाह-भाव
2/1-1/1]
(72)
-
अन्वय- इत्थिरूवं दहूण वांछाभावं णिअत्तदे अहव तासु मेहुणसण्णविवज्जियपरिणामो तुरीयवदं ।
अर्थ- स्त्रियों के रूप को देखकर (जिस साधु का ) ( कामातुर) चाहभाव (स्वाभाविक रूप से) रुकता है अर्थात् उत्पन्न नहीं होता है अथवा (जिस साधु का) उनके प्रति मैथुन संज्ञा (भोगासक्ति) रहित भाव (संदैव बना रहता है) (तो) ( उस साधु के) चौथा (ब्रह्मचर्य व्रत (होता है) ।
अव्यय
[ ( तुरीय) वि - ( वद ) 1 / 1]
रुकता है
उनके प्रति
मैथुन संज्ञारहि
( हेम-प्राकृत - व्याकरणः 3-137 वृत्ति)
संपादक द्वारा अनूदित
अथवा
चौथा व्रत
यहाँ छन्द की मात्रा की पूर्ति के लिए 'तुरीयवदं' के स्थान पर 'तुरियवदं' होना चाहिए।
यहाँ पर संस्कृत शब्द वांछा का प्रयोग किया गया है। प्राकृत रूप वंछा है ।
प्रथमा विभक्ति के स्थान पर कभी-कभी द्वितीया विभक्ति होती है ।
नियमसार (खण्ड-1)