________________
58. गामे वा णयरे वाऽरण्णे वा पेच्छिऊण परमत्थं ।
जो मुयदि गहणभावं तिदियवदं होदि तस्सेव ॥
(गाम) 7/1 अव्यय (णयर) 7/1 अव्यय (रण्ण) 7/1 अव्यय
गाँव में अथवा नगर में अथवा वन में पुनरावृत्ति भाषा की पद्धति
의 결,
देखकर
पेच्छिऊण परमत्थं
मुयदि
(पेच्छ) संकृ [(परं)+ (अत्थं)] परं (पर) 2/1 वि अत्थं (अत्थ) 2/1 (ज) 1/1 सवि (मुय) व 3/1 सक [(गहण)-(भाव) 2/1] [(तिदिय)-(वद) 1/1] (हो) व 3/1 अक [(तस्स)+(एव)] तस्स (त) 6/1 सवि एव (अ)= ही
उत्कृष्ट वस्तु को जो छोड़ता है ले लेने के भाव को तीसरा व्रत होता है
गहणभावं तिदियवदं होदि तस्सेव
उसके
अन्वय- गामे वा णयरे वाऽरण्णे वा जो परमत्थं पेच्छिऊण गहणभावं मुयदि तस्सेव तिदियवदं होदि ।
अर्थ- ग्राम में अथवा नगर में अथवा वन में उत्कृष्ट वस्तु को देखकर जो (साधु) (उसके) ले लेने (ग्रहण करने) के भाव को छोड़ता है उस (साधु) के ही तीसरा (अचौर्य) व्रत होता है ।
1.
'5' यह लोप का चिह्न है।
नियमसार (खण्ड-1)
(71)