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________________ ज्ञान की धारणा को समझाने के लिए आचार्य कुन्दकुन्द का कथन है: दो प्रकार का होता है ( 1 ) स्वभावज्ञान और (2) विभावज्ञान | स्वभावज्ञान असीमित ज्ञान है तथा विभावज्ञान असीमित ज्ञान से भिन्न हुआ सीमित ज्ञान है यह विभावज्ञान (असीमित से भिन्न ज्ञान ) दो प्रकार का होता हैः सम्यग्ज्ञान तथा मिथ्याज्ञान । सम्यग्ज्ञान आत्मा को उपादेय माननेवाला ज्ञान है जो चार प्रकार का होता है (1) मति ( 2 ) श्रुत (3) अवधि और (4) मन:पर्यय । मिथ्याज्ञान आत्मा को उपादेय स्वीकार नहीं करनेवाला ज्ञान है जो तीन प्रकार का है (1) कुमति ( 2 ) कुश्रुत और (3) कुअवधि । | सम्यक्चारित्रः A सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान की तरह आचार्य कुन्दकुन्द ने सम्यक्चारित्र को भी दो तरीके से समझाया है । (1) जो बाह्यदृष्टि या लोकदृष्टि या परदृष्टि से हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह का त्याग करता है, पाँच समिति (ईया, भाषा, एषणा, आदाननिक्षेपण और प्रतिष्ठापन) तथा तीन गुप्ति (मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति) का सूक्ष्मरूप से पालन करता है वह आत्मा की उपादेयता को समझकर बहिर्मुखी साधना में संलग्न होता है वह व्यवहार से सम्यक्चारित्र का पालन करनेवाला होता है और (2) जो आत्मा की उपादेयता को समझकर अन्तरदृष्टि या आत्मदृष्टि या स्वदृष्टि से ध्यान, सामायिक आदि के द्वारा अन्तर्मुखी होकर साधना में संलग्न होता है वह निश्चय सम्यक्चारित्र में लीन कहा जाता है । नियमसार में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र का मुख्यतया वर्णन करते हुए द्रव्यों का वर्णन भी किया गया है । जीवद्रव्यः जीव द्रव्य चेतना गुणवाला होता है और शेष द्रव्य चेतना - गुण से रहित होते हैं (37)। जीव द्रव्य रसरहित, रूपरहित, गंधरहित, शब्दरहित, स्पर्श से अप्रकट, तर्क से ग्रहण न होनेवाला तथा न कहे हुए आकार वाला होता है (47)। नियमसार (खण्ड-1) (3)
SR No.002304
Book TitleNiyamsara Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2015
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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