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अन्तरदृष्टि या आत्मदृष्टि या स्वदृष्टि या निश्चयदृष्टि से विभावरहित आत्मा का श्रद्धान ही सम्यक्त्व होता है (50, 51 ) । दूसरे शब्दों में क्षोभ, दोष व अदृढ़तारहित आत्मा का श्रद्धान ही सम्यक्त्व है ( 52 )। इस प्रकार के श्रद्धान की उत्पत्ति के विषय में कहा गया है कि सम्यक्त्व का (बाह्य) निमित्त जिनसूत्र होता है तथा उस जिनसूत्र को समझनेवाले मनुष्य भी बाह्य निमित्त कहे गये हैं किन्तु दर्शनमोह (दर्शनमोहनीय कर्म) का क्षय आदि अंतरंगनिमित्त कहा गया है ( 53 )।
सम्यग्ज्ञानः
सम्यग्दर्शन के समान सम्यग्ज्ञान भी दो प्रकार से समझाया गया है । बाह्यदृष्टि या लोकदृष्टि या परदृष्टि या व्यवहारदृष्टि से संशय (सन्देह), विमोह (अस्पष्टता) और विभ्रम (विपरीतग्रहण) रहित ज्ञान सम्यग्ज्ञान होता है (52)1
अन्तरदृष्टि या आत्मदृष्टि या स्वदृष्टि या निश्चयदृष्टि से हेय और उपादेय तत्त्वों का ठीक-ठीक बोध सम्यग्ज्ञान है ( 52 ) । लोक के घटक जीवादि द्रव्य हैं, जो बाह्य/पर द्रव्य है, इसलिए वे हेय कहे जाते हैं। किन्तु कर्मों के संयोग से उत्पन्न विभाव गुण- पर्यायों-रहित निज की आत्मा ही उपादेय है (38)। और भी कहा है:' परद्रव्य त्यागने योग्य है, स्वद्रव्य उपादेय है। आत्मा अंतर (स्व) द्रव्य है इसलिए अंतर स्वद्रव्य आत्मा ही उपादेय है ( 50 ) । उपादेय आत्मा का स्वरूप बताते हुए कहा गया है कि जिस तरह सिद्ध आत्माएँ हैं उसी तरह से द्रव्यदृष्टि से संसारी जीव होते हैं ( 47 ) । फिर उपादेय आत्मा मन-वचन-काय के स्पंदनरहित, विरोधी, विकल्परहित, पर से तादात्म्यरहित, शरीररहित, पराश्रयरहित, शुभ-अशुभ रागरहित, दोष (कर्ममल) / द्वेष (वैर) रहित, मूर्च्छा / अविवेकरहित और भयरहित होता है (43)। कहा गया है कि उपादेय आत्मा में विभाव पर्यायें नहीं होती । वहाँ मानअपमान की भाव दशाएँ, हर्ष की भाव दशाएँ और खेद की भाव दशाएँ नहीं होती है (39)।
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नियमसार (खण्ड-1)