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________________ जिस प्रकार लोक के अग्रभाग में स्थित सिद्ध अशरीरी, अविनाशी, अतीन्द्रिय, निर्मल और विशुद्धात्मा होते हैं उसी प्रकार संसार चक्र में भ्रमण करते हुए द्रव्यदृष्टि से जीव अशरीरी, अविनाशी, अतीन्द्रिय, निर्मल और विशुद्धात्मा होते हैं (48)। ___ जीव उपयोगमय होता है । उपयोग दो प्रकार का होता हैः (1) ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग। ज्ञानोपयोग दो प्रकार का होता हैः स्वभावज्ञान (असीमित ज्ञान) और विभावज्ञान (सीमित ज्ञान) (10)। केवलज्ञान इन्द्रियों से रहित तथा सहायता निरपेक्ष होता है इसलिए वह स्वभावज्ञान (असीमित ज्ञान) कहा जाता है। विभाव ज्ञान (सीमित ज्ञान) दो प्रकार का होता हैः सम्यग्ज्ञान और मिथ्याज्ञान। सम्यग्ज्ञान चार प्रकार का होता हैः (1) मतिज्ञान (2) श्रुतज्ञान (3) अवधिज्ञान और (4) मनःपर्ययज्ञान । मिथ्याज्ञान तीन प्रकार का होता हैः (1) कुमतिज्ञान (2) कुश्रुतज्ञान और (3) कुअवधिज्ञान (11, 12)। दर्शनोपयोग दो प्रकार का होता हैः स्वभावदर्शन और विभावदर्शन। केवलदर्शन इन्द्रियों से रहित और असहाय होता है इसलिए वह स्वभावदर्शन कहा गया है। चक्षु, अचक्षु और अवधि दर्शन; ये तीनों ही विभावदर्शन कहे गये हैं (13, 14)। ___ व्यवहारनय (लोकदृष्टि) से संसारी आत्मा पुद्गल कर्मों का कर्ता और भोक्ता होता है और निश्चयनय (आत्मदृष्टि) से आत्मा कर्म से उत्पन्न भाव के कारण रागद्वेषात्मक भावों का कर्ता और भोक्ता होता है (18)। जीवों को दो प्रकार से जाना जाता हैः द्रव्यार्थिकनय और पर्यायार्थिकनय । द्रव्यार्थिकनय से जीव विभाव पर्यायों से रहित होते हैं तथा पर्यायार्थिकनय से जीव विभाव पर्यायों से सहित होते हैं (19)। पुद्गलद्रव्यः जो द्रव्य अपना आदि है, अपना मध्य है, अपना अन्त है, इन्द्रियों द्वारा ग्रहण करने योग्य नहीं है तथा जो अविभागी है वह पुद्गल परमाणु कहा जाता है ( 4 ) नियमसार (खण्ड-1)
SR No.002304
Book TitleNiyamsara Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2015
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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