SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 76
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 56. कुलजोणिजीवमग्गणठाणाइसु जाणिऊण जीवाणं। तस्सारंभणियत्तणपरिणामो होइ पढमवदं ॥ कुलजोणिजीवमग्गण-[(कुलजोणिजीवमग्गणठाण)+ ठाणाइसु (आइसु)] [(कुल)-(जोणि)-(जीव)- कुल, योनि, (मग्गणठाण)-(आइ) जीवस्थान और 7/2] मार्गणास्थान आदि में जाणिऊण (जाण) संकृ जानकर जीवाणं (जीव) 6/2-2/2 जीवों को तस्सारंभणियत्तण- [(तस्स)+ (आरंभणियत्तणपरिणामो परिणामो)] तस्स (त) 6/1 सवि उसका आरंभणियत्तणपरिणामो [(आरंभ)-हिंसा-त्यागने का (णियत्तण)-(परिणाम) 1/1] भाव (हो) व 3/1 अक होता है पढमवदं [(पढम) वि-(वद) 1/1] पहला व्रत अन्वय-कुलजोणिजीवमग्गणठाणाइसुजीवाणं जाणिऊण तस्सारंभणियत्तणपरिणामो पढमवदं होइ । अर्थ- कुल, योनि, जीवस्थान और मार्गणास्थान आदि में (एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक) जीवों को जानकर (जो साधु इस लोक में हिंसा को त्यागते हैं) उस (साधु) का हिंसा-त्यागने का भाव पहला (अहिंसा) व्रत होता है। 1. कभी-कभी द्वितीया विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम -प्राकृत-व्याकरणः 3-134) विस्तार के लिए देखें, गोम्मटसार टीका संपादक द्वारा अनूदित नोटः नियमसार (खण्ड-1) (69)
SR No.002304
Book TitleNiyamsara Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2015
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy