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अदृढ़ता-रहित श्रद्धान
सम्मत्तं
अधिगमभावो णाणं हेयोवादेयतच्चाणं
[(अगाढत्त)-(विवज्जिय)- (सद्दहण) 1/1] एव (अ)= ही (सम्मत्त) 1/1 (अधिगमभाव) 1/1 . (णाण) 1/1 [(हेय)+(उवादेयतच्चाणं)] [(हेय)-(उवादेय)(तच्च) 6/2]
सम्यक्त्व ठीक-ठीक बोध होना सम्यग्ज्ञान
हेय और उपादेय तत्त्वों का
अन्वय-विवरीयाभिणिवेसविवज्जियसद्दहणमेव सम्मत्तं संसयविमोहविब्भमविवज्जियं सण्णाणं होदि चलमलिणमगाढत्तविवज्जियसदहणमेव सम्मत्तं हेयोवादेयतच्चाणं अधिगमभावो णाणं।
___ अर्थ- (पूर्व कथित गाथा के अनुसार चूँकि आत्मा उपादेय है) (इसलिए) अशुद्ध अभिप्रायरहित अर्थात् विभावरहित (आत्मा का) श्रद्धान ही सम्यक्त्व (सम्यग्दर्शन) (है) (तथा) संशय (संदेह), विमोह (अस्पष्टता) और विभ्रम (विपरीत ग्रहण) रहित (ज्ञान) सम्यग्ज्ञान होता है। (आत्मा का) क्षोभ, दोष' और अदृढ़ता-रहित श्रद्धान ही सम्यक्त्व (है) (तथा) हेय और उपादेय तत्त्वों का ठीक-ठीक बोध होना सम्यगज्ञान (है)।
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सम्यग्दर्शन के आठ दोषः (1) शंका (2) कांक्षा (3) विचिकित्सा (4) मूढदृष्टि (5) अनुपगूहन (6) अस्थितिकरण (7) अवात्सल्य (8) अप्रभावना । संपादक द्वारा अनूदित
नोटः
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नियमसार (खण्ड-1)