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________________ 47. जारिसिया सिद्धप्पा भवमल्लिय जीव तारिसा होंति । अट्ठगुणालंकिया जेण जरमरणजम्ममुक्का ॥ जिस तरह से सिद्ध आत्माएँ संसार में प्रवेश किये जीव उसी तरह से जारिसिया' सिद्धप्पा भवमल्लिय (जारिसिय) 1/2 वि 'इय' स्वार्थिक (सिद्धप्प ) 1/2 [(भवं) + (अल्लिय)] भवं (भव) 2/17/1 अल्लिय (अल्लि ) भूक 1/2 (जीव) 1 / 2 (तारिस) 1/2 वि (हो) व 3 / 2 अक जरमरणजम्ममुक्का [( जरा-जर ) 3 वि - (मरण ) - अगुणालंकिया ( जम्म) - (मुक्क) भूक 1/2 अनि] [(अट्टगुण) + (अलंकिया)] [(अट्ठ) - (गुण) - (अलंकिय) भूकृ 1/2 अनि ] अव्यय * जीव तारसा होंति जेण 1. अभिनव प्राकृत व्याकरण, पृ. 424 (37) 2. अन्वय- जारिसिया सिद्धप्पा तारिसा भवमल्लिय जीव होंति जेण जरमरणजम्ममुक्का अट्ठगुणालंकिया । अर्थ - जिस तरह से सिद्ध आत्माएँ ( हैं ) उसी तरह से संसार में प्रवेश किये हुए जीव होते हैं। चूँकि (सिद्ध) जन्म, जरा और मरण से मुक्त ( हैं ) (और) आठ गुणों से विभूषित (हैं) (इसलिये) (संसारी जीव भी) (अव्यक्त रूप से / द्रव्य दृष्टि से) (जन्म, जरा और मरण से मुक्त ) ( हैं ) । 3. नोट: हुए होते हैं जन्म, जरा और मरण से मुक्त आठ गुणों से विभूषित चूँकि नियमसार (खण्ड-1) कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है । ( हेम-प्राकृत - व्याकरणः 3 - 137 ) समास में अधिकतर प्रथम शब्द का अंतिम स्वर ह्रस्व हो तो दीर्घ हो जाता है और दीर्घ हो तो ह्रस्व हो जाता है । ( प्राकृत - व्याकरण, पृष्ठ 21 ) प्राकृत में किसी भी कारक के लिए मूल संज्ञा शब्द काम में लाया जा सकता है। (पिशलः प्राकृत भाषाओंका व्याकरण, पृष्ठ 517 ) संपादक द्वारा अनूदित (59)
SR No.002304
Book TitleNiyamsara Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2015
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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