Book Title: Jivan Drushti
Author(s): Padmasagarsuri
Publisher: Arunoday Foundation
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जीवन दृष्टि आचार्य श्री पद्मसागरसूरीश्वरजीमहाराज For Private And Personal use only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir णमोत्थुणं समणस्स भगवओ महावीरस्स | जीवन दृष्टि - - - प्रवचनकार चारित्र चूड़ामणि, अजोड़ संयमी, प्रशांतमूर्ति पूज्यपाद आचार्य देवेश श्रीमत् कैलाससागरसूरीश्वरजी म. सा. के प्रशिष्य शासन प्रभावक, प्रखर वक्ता पूज्यपाद आचार्य श्रीपद्मसागरसूरीश्वरजी महाराज श्री अरुणोदय फाउण्डेशन, कोबा गांधीनगर - ३८२ ००९ For Private And Personal Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra पुस्तक नाम : जीवन दृष्टि प्रवचनकार संस्करण प्रतियाँ मूल्य प्रकाशक www.kobatirth.org : आचार्य श्रीपद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा. (पाली चातुर्मास, सं. २०४० में दिए गए प्रवचनों का संकलन ) : द्वितीय, वि. सं. २०५१, ई. १९९५ : १००० : २५/- ( पच्चीस रूपये) : श्री अरुणोदय फाउण्डेशन कोवा, जिला गांधीनगर, गुजरात, ३८२००९ डी. टी. पी. : आचार्य श्रीकैलाससागरसूरि ज्ञान मंदिर, कोवा, गांधीनगर ३८२००९ : हेमांग प्रीटर्स, मुंबई मुद्रक प्राप्तिस्थान : (१) प्रकाशक ( २ ) Chandrakant J. Shah "Anandghan' 113, Manekbag Society Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Ambawadi, Ahmedabad - 380015 Ph. 6613314. For Private And Personal Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मेरी ओर से.... "अर्हम् नमः" परमात्मा वीतराग भगवंत का प्रवचन एक प्रकाश है. जिसमें कहां और कैसे चलना इसका मार्ग दर्शन मिलता है. संसार को देखने की कला-दृष्टि प्राप्त होती है. वीतराग भगवंत के विचारों को आचार तक पहुंचाने की प्रेरणा भी प्रवचन के द्वारा मिलती है. इस पुस्तक में यही प्रयास किया गया है कि किस प्रकार जीवन-ज्योतिमय बनें, 'स्व' में 'सर्व' को और 'सर्व' में 'स्व' को देखने की जीवन दृष्टि प्राप्त हो. इन प्रवचनों के चिंतन-मनन द्वारा सर्व आत्माओं को स्वयं की पवित्रता - पूर्णता प्राप्त हो यही मेरी ओर से पाठकों को शुभ संदेश है. शुभेच्छु आचार्य पद्मसागरसूरि पाली (राज) For Private And Personal Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रकाशकीय... बादल जल बरसाता है और विद्वान मुनि प्रवचन. यदि बरसाये गये जल को किसी सरोवर में एकत्रे कर लिया जाय तो बाद के अन्यत्र चले जाने पर भी चिरकाल तक वह जल पिपासुओं की प्यास बुझाता रहता है. उसी प्रकार किये गये प्रवचनों का भी किसी ग्रन्थ के रूप में संकलन कर लिया जाये तो विद्वान् मुनिराज के अन्यत्र विहार कर जाने पर भी वह प्रवचन ग्रन्थ चिरकाल तक धर्म जिज्ञासुओं की जिज्ञासा शान्त करता रहता है. इसी दृष्टि से परम पूज्य प्राप्तः स्मरणीय कुशल प्रवचनकार शासन प्रभावक पूज्यपाद आचार्य श्रीमत् पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा. के प्रवचनों का संकलन इस पुस्तक में किया गया हैं! पूर्व में प्रकाशित 'जीवन-दृष्टि' अप्राप्य बनने से इसका द्वितीय संस्करण प्रकाशित करते हुए हर्षान्वित हो रहे हैं! इस पुस्तक के प्रकाशन में तवाव (राज.) निवासी श्री जुगराजजी केसरीमलजी (हाल. मद्रास) वालों का सुदर आर्थिक सहयोग प्राप्त हुआ है तदर्थ हम आपके आभारी हैं! प्रस्तुत पुस्तक से जीवन जीने की दृष्टि प्राप्त हो यही शुभकामना करते हैं! श्री अरुणोदय फाउण्डेशन के समस्त ट्रस्टी गण For Private And Personal Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समर्पण! ) महान् कारुणिक - महापंडित सिरोमणि परम गीतार्थ - महान् दार्शनिक जैनाचार्य श्रीमद् हरिभद्रसूरीश्वरजी म. सा. के चरण कमलों में सादर समर्पित; जिन के ग्रन्थों से यह ‘जीवन दृष्टि' मिली है. -पद्मसागर For Private And Personal Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir निवेदन भारतीय चिन्तन और दर्शन की प्रधानता हैं कि सभी दर्शनो का आधार-सूत्र है. सूत्र छोटे से छोटा वाक्यांश है जो अर्थ में पूर्ण स्पष्ट हो तथा फिर उसकी पुनरावृत्ति न की गई हो. सूत्रों का स्पष्ट अर्थ-वोध साधनागम्य है और वहाँ साधारण मस्तिष्क की पैठ नहीं होती है. तप और साधना के बल पर आचार्य-सन्त उन सूत्रों का एवं शास्त्रों का साक्षात्कार करते हैं. शास्त्र - साक्षात्कार की अभिव्यक्ति ही प्रवचन है. प्रवचन की आधार भूमि पूर्णानुभूति है और इसीलिए सन्त के पास उपासना और साधना की कुंजी है. उपासना का अर्थ है-गुरू का सामीप्य प्राप्त कर जीवन के रहस्य की खोज या जीवन के अर्थ की खोज. और यही अन्वेषण जीवन की सार्थकता प्रदान करता है. साधना का अर्थ है स्वयं को अनुशासित करना या मस्तिष्क के मूल केन्द्र में ध्यान केन्द्रित करना. यह उपासना और साधना ही योग है जो अपर शब्द को पर शब्द से जोड़ने का सामर्थ्य देती है, दिक्-काल वाधित जीवन में रहते हुए फल से अनासक्त हो जाना ही जीवन मुक्ति है. विश्व में रहते हुए ग्राह्य-ग्राहक भेद का मिट जाना ही अपरिग्रह है. इसे प्राप्त करने के लिए आचार्य का सामीप्य एवं आचार्य जिवा से निःसृत शब्द ही सीढियाँ है. इसीलिए सत्संग का विशेष महत्व है. ‘सतां संगो हि भेषजं' सत्संग ही औषधि है. संसार रोग है, अरिहंत रोग मुक्ति और औषधि संत-सामीप्य और संतवाणी है. संतवाणी ही सत् वाणी है. शास्त्रों के गृह्य सूत्रों को सर्वसाधारण की भाषा में वोधगम्य करना संत की विशेषता है. कवीर, नानक तथा रविदास जैसे संतों ने भाषा में वुद्धि का प्रयोग कम, अनुभूत सत्य का प्रयोग अधिक किया है. इसीलिए उनकी वाणी में शक्ति है, प्रभाव है, प्रवाह है, तट तक पहुंचाने का. वर्तमान युग में संत का चातुर्मास एक अवसर है, पर्व है. पर्व का अर्थ है संधि. संधि वंधन और मुक्ति का संयुक्तस्थल है. एक ओर बंधन तथा दूसरी ओर मुक्ति. विना संधि स्थल पर आये मुक्ति असम्भव है. चौराहे पर आदमी भ्रमित भी होता है और सही मार्ग भी प्राप्त कर लेता है. लाभ की प्राप्ति अपनी ही शक्ति सामर्थ्य पर आश्रित होती है. संत का कार्य दिशाबोध देना होता है, चलना स्वयं को होता है. आचार्य श्रीमद् पद्मसागरसूरीश्वरजी महाराज साहव शास्त्र के मूर्त रूप है. स्वार्थ मुक्त है. उनके प्रवचन में स्वार्थ नहीं, जन-परमार्थ की भावना है. शास्त्रों के जटिल सूत्रों को उनकी वाणी ने सरलता प्रदान की है. उनकी वैखरी में वह अविरल प्रवाह है जिसकी अध्यात्म गंगा में आदमी वह उठता है. उनकी जिह्वा निःसृत पुण्य सलिला पापनाशिनी एवं शांति प्रदायिनी है. यह साधक की सामर्थ्य पर निर्भर है कि वह संत की वाणी से कितना लाभ उठा पाता For Private And Personal Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org है. श्रवण विना मनन भी निष्फल हैं. आचार्य श्री की वाणी का हमारे मनन और चिन्तन का आधार वने तभी उसका समुचित लाभ हमें मिल सकेगा. भाग्यशाली हैं वे श्रावक जो इस शक्तिगर्भा वैखरी के साक्षी हैं. जिन्होंने अपने स्वयं के कानों से इस सत्य का उद्घोष सुना है, समझने का प्रयत्न किया है तथा उपासना और साधना का लाभ उठाया है. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मानव मस्तिष्क की सीमा होती है. सुने हुए का कुछ भाग ही मनन हो पाता है और मनन का कुछ अंश ही आचरण बनता है. इसलिये यह स्तुत्य प्रयत्न है कि परम पूज्य आचार्य श्री के प्रवचनों को प्रकाशित किया जाए, जिससे जिन्होंने यह प्रवचन सुना है तथा जिन्होंने नहीं सुना है, दोनों ही समान रूप से लाभान्वित हो सकें. यह प्रकाशित प्रवचन पढ़ा जाए, उस पर चिन्तन किया जाए और वह हमारे आचरण का अंग बने यही आकांक्षा है. पाली में आचार्य श्री के दिये प्रवचन सरल, सुबोध, हृदयग्राही तथा सर्वकल्याणकारी हैं. इनका प्रकाशन पुनीत संकल्प एवं प्रयास है. प्रवचन गागर में सागर हैं. अथाह परम शांत और गंभीर आशा है, श्रावक सामर्थ्यानुसार डुबकी लगाकर मोती तथा अन्य रत्न चुनने का प्रयत्न करेंगे. पुरूषार्थ सहित इस सागर मन्थन से दुर्लभ रत्नों को प्राप्त करेंगे, यही शुभेच्छा है. पर्युषण पर्व १९८४ प्राध्यापक, मैं अकिंचन प्राणी, महाराज साहव के प्रवचन पर कुछ कहने एवं लिखने का अधिकारी नहीं हूँ. मैं तो स्वयं अथाह समुद्र के किनारे बैठ कर कभी तरंगों तथा गहराइयों का मात्र अवलोकन करता हूं. " संताय वरिष्ठाय पद्मसागराय तुभ्यं नमः” For Private And Personal Use Only डॉ. माधवानन्द तिवारी जोधपुर विश्वविद्यालय जोधपुर Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तवाव (राज.) निवासी श्रेष्ठिवर्य श्रीमान् जुगराजजी केसरीमलजी (वर्तमान में मद्रास) का सुन्दर आर्थिक सहयोग प्राप्त हुआ है. तदर्थ आपके सुकृत की भूरिशः अनुमोदना... -श्री अरुणोदय फाउण्डेशन For Private And Personal Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra मेरी ओर से प्रकाशकीय आभार दर्शन निवेदन www.kobatirth.org विषय-सूची १. मंगल प्रवचन से जीवन की पूर्णता धर्म २. ३. धर्म और आधुनिक विज्ञान ४. सत्य सदाचार ५. जीवन में सदाचार ६. भक्ति की शक्ति ७. भारतीय संस्कृति में तप साधना ध्यान और साधना ८. ९. मितभाषिता : एक मौन साधना १०. जीवन व्यवहार For Private And Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Mo ३ ४ ५ 9 ८ २३ २७ ३१ ५२ ५६ ६२ ८२ १०५ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मंगल प्रवचन से जीवन की पूर्णता प्रवचन की महत्ता : अनन्त उपकारी जिनेश्वर परमात्मा ने प्रवचन के माध्यम से मोक्ष-मार्ग का परिचय दिया दीर्घकाल की साधना से स्वयं ने जो भी प्राप्त किया, उसे करुणा-भाव से और परम वात्सल्य से जगत् को अर्पण कर दिया. जिनेश्वर भगवन्त ने प्रवचन के माध्यम से परमात्मा तक पहुंचने की एक प्रक्रिया वतलाई कि किस प्रकार जीवन की साधना सत्य की भूमिका के द्वारा सफल वने? जीवन किस प्रकार से सत्य के आचरण पर प्रतिष्ठित हो ? जीवन की सम्पूर्ण धर्म-क्रिया आचरण के द्वारा अभितप्त हो और किस प्रकार यह मूर्छित आत्मा की जो वर्तमान अवस्था है, उसके अन्दर जागृति प्राप्त हो. वो सम्पूर्ण उपाय और उसका मार्गदर्शन प्रवचन के द्वारा प्रदान किया. मात्र उस प्रवचन के अन्दर से यदि थोड़े-वहुत विचारों को हृदय के अन्दर उतार लिया जाये, तो मेरे ख्याल से चित्त की पवित्रता तथा स्थिरता को व्यक्ति सहज में ही प्राप्त कर लेगा. दूध को जमाने के लिए एक जरा-से दही की जरूरत पड़ती है, चाहे वो ५ लीटर हो या १० लीटर हो. उसमें एक चम्मच दही डाल दिया जाय तो वह दूध को स्थिर कर देता है, उसका रूपान्तर कर देता है. परमात्मा के मंगल-प्रवचन का यदि चिन्तन कर लिया जाए तो यह मन की जो चंचलता है, व्यग्रता है, चित्त की अनादि-अनन्त-कालीन अस्थिरता है, उसकी स्थिरता के लिए, जीवन के रूपान्तर के लिए एक जरा-सा चम्मच यदि प्रवचन डाल दिया जाये तो उससे समग्र चित्त को स्थिरता मिल जायेगी, मन के शुद्धिकरण का कारण बन जायेगा. पानी यदि स्थिर है और उसमें यदि आप निरीक्षण करते हैं तो चेहरे का प्रतिविम्व नजर आ जायेगा, परन्तु यदि पानी में अस्थिरता है तो उसके अन्दर कभी आपका चेहरा स्पष्ट नहीं दिखेगा उसी प्रकार मन के अन्दर अगर अपवित्रता हो, मलिनता हो, विचारों की चंचलता हो, व्यग्रता हो तो मन के अन्दर कभी आत्मा की अनुभूति आप प्राप्त नहीं कर सकेंगे. आपको उसी मन का स्थिरीकरण करना है, शुद्धिकरण करना है. प्रवचन उपचार है : सेठ मफतलाल एक वार दिल्ली गये. वहाँ उन्होंने तोता बेचने वाले देखे. आजादी की लड़ाई का समय था, अतः तोता वेचने वालों ने तोते को सिखा रखा था – “आजादी, फ्रीडम, स्वतन्त्रता!" तोता यही वोलता. सेठ मफतलाल को तोता पसंद आया तो १०० रुपये देकर तोता खरीद लिया और पाली आ गये. कुछ दिन वाद, संयोग ऐसा कि संत मुनिराज का आगमन हुआ. संत महाराज सेठ मफतलाल के घर पहुंचे. तोते का स्वभाव ही ऐसा पड़ गया था कि For Private And Personal Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जीवन दृष्टि ज्यों ही कोई व्यक्ति दिखा, रटे-रटाये शब्द बोल देता – “आजादी, फ्रीडम, स्वतन्त्रता!" मुनिराज ने यह सुना तो सेठ मफतलाल से बोले – “सेठजी आप तो श्रावक हैं और अपनी भावना यही रहती है कि किसी भी आत्मा को बंधन में नहीं रखें. आत्मा को भी शरीर के बंधन से मुक्त करने की भावना रहती है और आपने तोते को पिंजरे में बंद कर रखा है. ये श्रावका का आचार नहीं है. अगर ये आजादी की अपेक्षा रखता है तो इसे आजाद कर दो." सेठ मफतलाल ने मुनिराज की आज्ञा का पालन किया और तोते को पिंजरे से आजाद कर दिया. मगर तोता आदत से मजबूर कि पुनः पिंजरे में आ घुसा. सेठ ने देखा-शायद पूर्व-जन्म के संस्कार हैं, उसे खाना दिया और सायंकाल को ले जाकर स्टेशन के पास छोड़ आये. तोता, जो बंधन को ही प्रिय मान बैठा था, भला आजाद कैसे रहता. पुनः पिंजरे में आ बैठा. सेठ ने तीन दिन तक प्रयास किया, पर तोता वहीं-का-वहीं रहा. सेठ ने सोचा ये वाहर जाने को तैयार नहीं, मात्र इसके शब्दो में ही आजादी दिखती है, आचरण में शून्य है. संयोग से कुछ दिनों बाद मुनिराज का पुनः आगमन हुआ. तोते को पिंजरे में देखा तो सेठ से बोले - “श्रावकजी, आपने मेरे आदेश का पालन नहीं किया.” सेठ ने कहा - “भगवन् मैं लाचार हूँ, आपके आदेश का कई बार मैंने पालन किया पर यह आदत से मजबूर कि बंधन को ही प्रिय समझ बैठा है. इसके शब्दों में आजादी की भावना हैं, पर आचरण में शून्य है." मुनिराज सेठ का आशय समझ गये. तो हमारी भी यही स्थिति है. आज रोज दिन में कई बार सुवह प्रतिक्रमण में, फिर प्रवचन में, फिर गुरु-वन्दन में, फिर शाम को प्रतिक्रमण में प्रार्थना करते हैं - “महाराज, मुझे मोक्ष चाहिये, बंधन से मुक्त जीवन चाहिये. संसार के बंधन से निकलना है.” । उपाश्रय में बैठे तो मन में यही भाव पैदा होते हैं. जब पुनः संसार के कार्यों में लगते हैं तो इन भावनाओं का अन्त हो जाता हैं. तोते की तरह चिल्लाते तो हो कि संसार से विरक्त होना हैं, पर जब विरक्त होने का समय आता है तो पुनः तोते की तरह अपने पिंजरे में लौट जाते हो. कहाँ तक आपका यह नाटक चलेगा? श्मशान से मिलने वाला वैराग्य श्मशान तक ही रह जाता है. किसी ने मुझ से पूछा - "महाराज, क्या मसानिया वैराग भी सार्थक हो सकता है?" मैंने कहा - "हां हो सकता है, यदि तुम श्मशान से सीधे ही उपाश्रय चले आओ." जब तक लोहा गर्म है, उस पर चोट करना आसान है, ठंडे लोहे पर हथौड़ा मारते हैं तो हथौड़ा ही टूट जायेगा, लोहे पर असर ही नहीं होगा. मैं भी यही कहता हूँ कि जब आप में मसानिया वैराग्य जगे, सीधे मेरे पास चले आइये. मैं अपने प्रवचन रूपी हथौड़े से आपके अन्दर के गर्म लोहे पर चोट कर परमात्मा की भक्ति करने का रूप प्रदान कर दूंगा. उसे एक निश्चित आकार प्रदान कर दूंगा. For Private And Personal Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra मंगल प्रवचन से जीवन की पूर्णता प्रवचन पारस पत्थर है : www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३ परमात्मा की वाणी पूर्णतया निर्दोष है, विकार रहित हैं. ३५ गुणों से युक्त जिनेश्वर भगवान की वाणी और उपदेश-लब्धि के द्वारा जन्मी वो भाषा है, जिसका श्रवण किया जाय तो जीवन सार्थक बनता है. इस वाणी को पारस पत्थर की उपमा दी, जो यदि हृदय से स्पर्श कर जाय तो यह हृदय स्वर्ग जैसा मूल्यवान बन जाये, परोपकारी बन जाये. एक व्यक्ति ने प्रश्न किया- “हे प्रभु! हम प्रतिदिन प्रवचन का श्रवण करते हैं परन्तु अभी तक तो यह जीवन स्वर्ग जैसा मूल्यवान नहीं बना. क्या कारण है?" कारण स्पष्ट है. सेठ मफतलाल पाली से निकले थे, पास में कुछ था नहीं. अचानक रास्ते में जाते समय कोई महात्मा मिल गये. बेचारे परिस्थितियों से लाचार सेठ को किसी ने कह दिया - "संन्यासी के पास पारस पत्थर है, यदि वो तुम्हे मिल जाये तो तुम्हारा सारा लोहा सोना वन जायेगा." मफतलाल प्रलोभन वश उस संन्यासी के पीछे-पीछे जाने लगे. संन्यासी ने विचार किया और कहा- “भले आदमी, तुम गृहस्थ हो, तुम्हारा परिवार है, परिवार का बन्धन है. हमारे जैसे संन्यासियों के पीछे क्यों भटक रहे हो?" मफतलाल ने कहा - “महाराज, आप तो परम दयालु हैं, कृपालु हैं. मैं घर की परिस्थिति से इतना लाचार हूँ कि मेरे लिए घर क्या है, संसार क्या और जगत क्या? सारा ममत्व मेरा चला गया है. आप से क्या कहूँ, अगर आपकी परोपकारी दृष्टि हो जाये, वो पारस पत्थर यदि आप मुझे दे दें, आपके किसी काम तो आयेगा नहीं. मैं संसारी हूँ, कम-से-कम मेरा घर बार तो सुखी हो जायेगा. " योगी पुरुष ने पारस पत्थर निकाल करके दे दिया- “भले आदमी, इसे तुम ले जाओ. " वह लेकर घर पर आया. पूर्वजों की एक बहुत बड़ी लोहे की कोठी पड़ी थी, उसमें ले जाकर डाल दिया. प्रतीक्षा में बैठा रहा, कब लोहे की कोठी सोने की कोठी में बदले घण्टे -दो घण्टे का समय निकल गया. कोई परिवर्तन नहीं आया उसमें तव मन के अंदर एक दुर्भाव उत्पन्न हुआ यह साधु संन्यासी नहीं एक शैतान था, मुझे बेवकूफ बना गया. मेरे परिवार के अन्दर मेरा फजीता करा दिया. मैं लोगों के समक्ष झूठा वना. वापस संन्यासी के पास गया और बोलाअगर नहीं देना था तो कोई जोर जबर्दस्ती थोड़े ही थी. मैंने कोई तुम्हारा हाथ थोड़े ही पकड़ा था. पर ऐसा बेवकूफ मुझे क्यों बनाया लाकर के गलत पत्थर दे दिया, पारस पत्थर के नाम से. मैंने इसका प्रयोग किया, दो घण्टे तक बैठा रहा, परन्तु उसमें कोई परिवर्तन नहीं आया तो बात क्या है ? सत्य क्या है ? बतलाओ. For Private And Personal Use Only संन्यासी ने कहा- साधु संतो का आचरण कभी असत्य नहीं होता. मैंने जो पदार्थ दिया, उस पर मेरा पूर्ण विश्वास है. तुम्हारा प्रयोग गलत है, चलो मैं तुम्हारे साथ आता हूँ. संन्यासी ने घर जाकर पूछा- वोलो ! तुमने कहाँ प्रयोग किया. मफतलाल ने कहा - इस कोठी के अन्दर. Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जीवन दृष्टि यह मेरे पूर्वजो की बनाई हुई कोठी हैं. कभी था मेरे पास परन्तु अव कुछ नहीं रहा सिर्फ यह कोठी रही तो मैंने देखा, पहले इस कोठी में ही प्रयोग किया जाये संन्यासी ने कहा - जरा लालटेन लो और झांक कर देखो, यह पत्थर कहाँ पड़ा है? मफतलाल ने लालटेन लेकर के अन्दर झांका और देखा दुनिया भर का कचरा अन्दर पड़ा हुआ है. लोहे के अन्दर न जाने कव की जंग चढी हुई है और वह पत्थर वीच में ही अटका पड़ा है कोठी से कोई स्पर्श ही नहीं. पारस पत्थर का लोहे के साथ कोई स्पर्श ही नहीं तो प्रयोग कहाँ से होगा. मफतलाल ने कहा - वह पत्थर बीच में ही अटका है, कचरे के अंदर पड़ा है. संन्यासी ने कहा - मैंने तुमसे पहले ही कह दिया था- तुम्हारा प्रयोग गलत होगा. ये तुम्हारी मूर्खता है. भूल तुम करो और सजा मुझे मिले, पहले कोठी को साफ करो. कोठी का कचरा वाहर निकालो. मफतलाल ने वैसा ही किया. सारा कचरा बाहर निकाल डाला. कोठी में चमक पैदा हुई तो संन्यासी ने कहा - अव प्रयोग करो. जैसे ही पत्थर डाला, उसका स्पर्श हुआ, तुरन्त रुपान्तर हुआ. सारी कोठी सोने की वन गई. तो मैंने भी कहा उस प्रश्न करने वाले से-मुझे परमात्मा के शब्दो में परिपूर्ण विश्वास है. परमात्मा के शब्द पारस पत्थर जैसे मूल्यवान और जीवन का परिवर्तन, रुपान्तर करने वाले हैं. ये शब्द प्रतिदिन आप तक प्रवचन के माध्यम से पहुंचाया जाता है. अन्तर इतना ही है, आपका जो पात्र है, यह जो मन की कोठी है, वह वहुत गंदी और सड़ी हुई है. न जाने कब से कितने भव का कचरा इसमें पड़ा है. कल आप भी अपने मन की इस कोठी को साफ करके आयें और जव ये मन की कोठी को आप साफ और स्वच्छ कर देंगे तथा इसमें जो जंग लगी हुई है उसे आप निकाल देंगे तो यह जीवन स्वर्ग जैसा मूल्यवान बन जायेगा, परोपकारी बन जायेगा. अनेक आत्माओं को शान्ति देने वाला ये जीवन बन जायेगा. इस जीवन का मूल्यांकन वहुत सुन्दर हो जायेगा. मंगल प्रवचन से जीवन की पूर्णता : किस प्रकार स्वयं के वर्तुल के अन्दर स्वयं की उपस्थिति प्राप्त हो, किस प्रकार विचार की भूमिका पर सुन्दर साधना की सफलता प्राप्त हो, किस प्रकार अपने जीवन के अन्दर सभ्यता का आचरण सक्रिय बने, ये सारी जानकारी उसका सम्पूर्ण मार्गदर्शन परमात्मा के मंगल प्रवचन द्वारा प्राप्त करना है. प्रवचन के द्वारा सुषुप्त चेतना को जागृत करना है. जिनेश्वर भगवन्त के उस मंगल प्रवचन द्वारा हृदय की पवित्रता, इस जीवन की पूर्णता पुनः प्राप्त कर लेनी है जो अब तक सुषुप्त अवस्था में प्राप्त नहीं की. जिनेश्वर भगवन्त ने अपने अंतिम समय में, मंगल प्रवचन के अंदर मृत्यु के माध्यम से जीवन का परिचय दिया. उन्होंने कहा-सारा ही जीवन मृत्यु के वर्तुल पर उपस्थित है. न जाने कव मेरे जीवन पर मौत का आक्रमण हो जाये. जाने से पहले मुझे अपना कार्य परिपूर्ण कर लेना For Private And Personal Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मंगल प्रवचन से जीवन की पूर्णता है और इस वर्तुल की सम्पूर्ण जानकारी प्राप्त कर लेनी है, ताकि भविष्य के अंदर फिर मृत्यु का आक्रमण मेरे जीवन पर न हो. मृत्यु का मुझे विसर्जन कर देना है, वही कामना लेकर हम प्रतिदिन परमेश्वर के पास जाते हैं कि मुझे अपने जीवन का सम्राट बनना है, मुझे अपने जीवन के अंदर मृत्यु का विसर्जन कर देना है, यही पूजा के अन्तिम समय अपनी प्रार्थना होती है कि - भगवन्, तेरे पुण्य प्रभाव से तेरे वतलाये हुए आराधना के सशक्त रास्ते से एक प्रार्थना लेकर आया हूँ. “जन्म जरा मृत्य निवारणाय” तेरी आराधना से मैं अपने जन्म का ही नाश कर डालूं क्योंकि जन्म ही मृत्यु का परित्याग है. जन्म का नाश, जरा अवस्था का नाश और सदा के लिए मृत्यु का विसर्जन हो जाय, यही मेरी कामना है, यही मेरा मोक्ष है. रेगिस्तान के अंदर बहुत तेज गर्मी पड़ती हो, और वैशाख जेठ का महिना हो, वहाँ पर २-४ किलो वर्फ को रखकर आप आ गये तो उस दोपहर की भयंकर गर्मी में उसका अस्तित्व कहाँ तक रहेगा. इसी तरह संसारी जीवन के ताप से जीवन प्रतिक्षण पिघल रहा है. एक दिन संसार में उसका अस्तित्व भी नहीं रहेगा. पानी के अंदर यदि बताशा रख दिया जाय तो कहाँ तक वह रहेगा. वह घुल जायेगा. श्रवण धर्मिता : प्रवचन आरोग्य पथ्य हैं. Devine Medicine है. इसके द्वारा गुरुजन धर्म का भाव अमृत पान कराते है. हर श्रोता की अपनी अपनी श्रवण ग्राह्यता होती है. कुछ श्रोता दिखाने के तौर पर रस्म अदायगी करने हेतु प्रवचन में आते हैं तो कुछ परम जिज्ञासु श्रोता भी होते हैं जो चाहते हैं कि जिन शब्दों में असीम आत्म वेदना का पश्चाताप हो, मुझे वे ही शब्द चाहिये. कुछ रसिक श्रोता चाहते हैं कि वाणी का व्यापार उनकी धर्म साधना का प्रतीक बन जाये. ऐसे श्रोता ही प्रवचन का सही आनन्द ले सकते हैं. वम्बई के एक ख्याति प्राप्त सोलिसीटर मिस्टर एन. आर. कांटेवाला मेरे वालकेश्वर चातुर्मास के दौरान प्रतिदिन प्रवचन श्रवण हेतु आते थे. एक दिन उन्होंने कहा - महाराज, मैं प्रतिदिन प्रवचन का लाभ लेता हूँ. किन्तु श्रवण प्यास नहीं बुझती. मैंने कहा - वकील साहव, इस वालकेश्वर क्षेत्र में बहुमंजिली इमारतें हैं और ऊपर एक ओवर हेड टैंक है जिसमें प्रतिदिन एक घण्टा पानी रिप्रेशर करके ऊपर वाले टैंक को लवालब भर दिया जाता है. यह टैंक इमारत के सभी घरों को शेष २३ घण्टे पानी देता है. इसी प्रकार मेरे एक घण्टे के प्रातःकालीन प्रवचन रूपी रिप्रेशर से सुश्रावकों का मस्तिष्क रूपी ओवर हेड टैंक धर्म भाव के जल से भर जाता है. अव यदि इन्सान रूपी इमारत की पाईप लाईन यानि कान-मुख आदि छिद्रों से लीकेज होता हो तो मस्तिष्क रुपी ओवर हेड टैंक भरेगा नहीं, इसलिए आपकी प्यास अधूरी रहती है, अतः आवश्यकता इस बात की है कि प्रवचन रूपी For Private And Personal Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जीवन दृष्टि मोटर के शुरु होने से पहले अपनी लीकेज पाईप लाईन वेल्डींग करा ले. अर्थात् ज्ञान रस पान से पहले श्रवण धर्मिता बढ़ा ले तभी प्रवचन श्रवण की सार्थकता है. प्रवचन एक डिवाइन मेडीसिन : बरसात के अन्दर दियासलाई सील जाती है. सीलन आने के बाद कितनी भी रगडे, तीली आग नहीं पकड़ेगी. उसको आप सुखा दे, सीलन हट जायेगी. फिर जरा सा घर्षण भी अग्नि उत्पन्न कर देगा. आत्मा के ऊपर हमारे कर्म की सीलन चढी हुई है. जब तक तपश्चर्या के द्वारा उसको निर्मल नहीं करा लेंगे, आत्मा की तीली से परमात्म तत्व की आग नहीं निकलेगी. प्रवचन एक डिवाइन मेडिसिन है, आत्मा को निर्मल करने का साधन है. प्रवचन के माध्यम से ज्ञान प्राप्त कर मोक्ष मार्ग का प्रवेश मिलता है, नारियल तो देखा होगा आपने. जब उसमें पानी होता है, चोट मारने पर उसके भीतर की गिरी टुकडे टुकडे हो जाती है, पानी यानि आसक्ति है और आत्मा है उसका खोल यानि शरीर. किन्तु जव आसक्ति खत्म हो जाती है, पानी सूख जाता है तो निर्लिप्त भाव से खोल से गिरी अलग. कोई मतलब नहीं खोल से. इसी तरह हमारे अन्दर भी भाव आना चाहिये इसलिये तो हरेक शुभ कार्यों में उसका प्रयोग होता हैं. वह वैराग्य का प्रतीक है. “शरीरतो भिन्नोहं,". "नैनं छिंदन्ति शस्त्राणि, नैनं दहति पावकः”. श्री कृष्ण के ये शब्द चिन्तन के प्रतीक बन जाय तो आत्मा में परमात्म दशा का भाव जागृत हो जाय. घर में खाना बनाने के सारे साधन मौजूद हैं, परन्तु आप वनाना नहीं जानते हो तो क्षुधा कैसे शान्त करेंगे, इसी तरह प्रवचन के द्वारा भी परमात्मा को प्राप्त करने की टेक्निक वतलाई जाती है. प्रवचन आत्मा की खुराक : एक ही उपदेश बार-बार दिया जाय, समझ में न आये तो उसको भिन्न भिन्न दृष्टिकोण से अलग-अलग तरीके से बार वार समझाया जाता है, वच्चा जव स्कूल जाता हैं तो एक साल भर तक उसको वर्णमाला का ज्ञान कराया जाता है, एक ही अक्षर को बार बार लिखाया जाता है तब उसके मन में वह चित्र कायम होता है. उसके अन्दर संस्कार पड़ते हैं और वह अक्षर ज्ञान कर पाता है. तो इसी तरह धर्म के लिए बार-बार शब्दों के चित्र का परिचय दिया जाय तो एक दिन में नहीं अनेक दिनों के प्रयास के बाद उसको सफलता मिलेगी. इस प्रकार एक ही चीज को अलग-अलग प्रकार से कहा जाता है. तरीका कहने का अलग-अलग होता है. कई बार लोग पूछते हैं - एक ही नाम बार-बार लेने से क्या फायदा? राम का नाम बार-बार क्यों लिया जाता हैं, इससे क्या फायदा? मैं आपसे पूछू - आपको बीमारी हो जाती है तो डॉक्टर के पास जाते है कि नहीं?... डॉक्टर आपको एक ही गोली दिन में तीन - चार वार सात या दस रोज तक लेने को कहता है. आप डॉक्टर से यह तो नहीं कहते - वार वार एक ही गोली लेने की जगह For Private And Personal Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मंगल प्रवचन से जीवन की पूर्णता ७ एक साथ ही क्यों न ले लूं..... डायाबिटीज हो जाय तो इन्सुलिन के इन्जेक्शन तीन सौ साठ दिन लेना पडता है कि नहीं. आप यह तो नहीं कहते कि एक ही बार में ले लूं. - इसी तरह यह प्रवचन आत्मा की खुराक है. ये ज्ञान के परम तत्व का भोजन है जो रोज आत्मा को मिलना जरुरी है - इसलिए धर्मविन्दु ग्रन्थ में कहा है - “भूयो भूयः उपदेशः '. बार-बार उपदेश दिया जाय ताकि अनादि कालीन विषय वासना का ज्वर जो इस आत्मा पर चढ़ा हुआ है, उसे उतारने के लिए प्रवचन को बार-बार ग्रहण किया जाता है जिससे आत्मा का ज्वर शान्त हो जाय, आत्मा की भूख निकल आये और धर्म के प्रति रूचि उत्पन्न हो जाय. For Private And Personal Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir धर्म धर्म क्या है? आचार्य हरिभद्रसूरिजी महाराज ने धर्मविन्दु ग्रन्थ के द्वारा जीवन का एक प्रशस्त मार्ग दर्शन दिया. किस प्रकार की धर्म साधना मेरे उज्ज्वल भविष्य का निर्माण कर सके या किसी प्रकार की धर्म साधना परमात्मा को स्वीकार हो सके. या मैं किस प्रकार की धर्म साधना करुं जो मेरे अन्तर आत्मा में परमात्मा को प्रतिष्ठित कर सके. उस प्रकार की धर्म व्यवस्था इस ग्रन्थ में बतलाई गई है. - सामान्यतया अलग अलग प्रकार के रुपी पदार्थों का परमाणु धर्म कहलाता है. परन्तु आत्मा का मूल स्वभाव, आत्मा की प्राप्ति का परम साधन, जिसे हम धर्म कहते है. धर्म शब्द की परिभाषा को हम यदि अच्छी तरह समझ ले तो आगे जाकर कभी क्लेश का कारण नहीं बनेगा. धर्म का जन्म कहाँ पर होता है, इस पर हम विचार करेंगे. क्योंकि आज गृहस्थ लोगों के मन में ऐसी मान्यता है कि किसे धर्म कहना, किस प्रकार के धर्म को स्वीकार करना व धर्म है क्या? बहुत से चिन्तनशील व्यक्तियों के अन्दर यह प्रश्न उपस्थित होता है. सबसे सुन्दर धर्म कौन? आइने - अकबरी में एक घटना का उल्लेख आता है, जिसे वादशाह अकबर के दरबार के नौ रत्नों में से एक प्रसिद्ध इतिहासकार अबुलफजल ने लिखा है. वादशाह अकबर के दरवार में आचार्य विजयहीरसूरिजी पधारे तो अकबर ने स्वयं आगे जाकर स्वागत किया और उचित आसन पर बिठाया. आचार्य की विद्वता से अकबर के दरबार के कई पण्डित, मौलवी घबराते थे. उन्होंने अकबर को सिखा दिया कि इनसे पूछा जाय कि संसार में सबसे सुन्दर धर्म कौन? भरे दरवार में आचार्य विजयहीरसूरिजी महाराज से यह प्रश्न पूछा गया. आप जानते है कि इस प्रश्न का उत्तर क्या स्थिति लेकर आता? यह तो आप नहीं कह सकते कि मेरा धर्म सबसे ऊंचा है. क्या करे? बहुत ही सन्तुलित उत्तर देना था. आचार्य ने उत्तर दिया - राजन सबसे सुन्दर धर्म इस विश्व का जो है, उस की परिभाषा मैं आपको बतलाता हूँ. जहाँ पर जिस आत्मा की अन्तर आत्मा निर्मल हो, पवित्र हो, वही विश्व का सबसे बड़ा धर्म व सुन्दर धर्म है. “अन्तःकरण शुद्धित्वं इति धर्मत्वम्”. अन्तःकरण की शुद्धि को ही हमारे यहाँ धर्म माना गया है. और जहाँ पर आत्मा की पवित्रता है, निर्मलता है वह धार्मिक कहलाने का अधिकारी है. आचार्य विजयहीरसूरिजी की विद्वता से अकबर बहुत ही प्रभावित हुआ और ससम्मान जगद्गुरू का विरूद प्रदान किया. इतना बड़ा धार्मिक विरूद आज तक किसी मुल्ला - मौलवी को भी नहीं दिया, तो यह बात पहले For Private And Personal Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir धर्म समझने की है. धर्म बिन्दु ग्रन्थ के अन्दर अन्तर शुद्धि के उपाय बतलाये गये हैं कि किस प्रकार अन्तर आत्मा की शुद्धि को प्राप्त करना है. मैत्री धर्म का जन्म स्थान आचार्य हरिभद्रसूरिजी ने धर्म बिन्दु ग्रन्थ में स्पष्ट कर दिया कि धर्म का जन्म कहाँ से होता है? धर्म का प्रारम्भ कहाँ से किया जा सकता हैं उन्होंने ग्रन्थ के माध्यम से वतलाया कि मैत्री ही धर्म का जन्म स्थान है. इसका दूसरा रुप होता है - प्रेम. प्रेम के माध्यम से परमात्मा तक पहुंचने के लिए वो प्रेम की गली इतनी छोटी है कि इस रास्ते में आप स्वयं तो जा सकते हैं, अपने मित्र और परिवार को साथ में नहीं ले जा सकते हैं. प्रेम का परम तत्व कैसे प्राप्त करना है. हर जगह जैन दर्शन की यही अपूर्व विशेषता है कि हर जगह मैत्री का परिचय दिया. हम जो प्रवचन की मंगल क्रिया करते है, उस क्रिया के अन्दर उसके प्राणतत्व का परिचय दिया, वो प्रतिक्रमण का सार मैत्री है. हम प्रतिदिन परमेश्वर की साक्षी में यह निवेदन करते है “मित्ती में सव्व भुऐसु, वेरं मज्जं न केणइ.” भगवन् प्राणी मात्र के साथ मेरा मैत्री सम्बन्ध है. किसी के साथ कोई वैर नहीं. यही मैत्री भाव आगे चलकर परमात्मा तक पहुंचायेगा. धर्म भावना को वही से उत्पन्न करेगा. मैत्री आत्मा के साथ होनी चाहिये. पर वो आज है कहाँ? आप रोज घर में दूध गर्म करते हैं. पानी और दूध की मैत्री को आप जानते हैं. आप दूध गर्म करते हैं तो पानी दूध के रक्षण के लिए अपना बलिदान करता है. पहले पानी का अन्त होता है और जैसे ही पानी का वियोग होता है कि दूध का हृदय उबलता है - मेरे मित्र से वियोग कराने वाला कौन? मेरे मित्र का नाश करने वाला कौन? मैं अपने मित्र के लिए अपने जीवन का नाश कर दूं, बलिदान कर दूं. दूध उफनता है, आवेश में आता है. यदि उसे नहीं संभाला जाता है तो अपना भोग देकर के उस चूल्हे को बुझा देता है. कैसी अपूर्ण मैत्री. पर जव होशियार व्यक्ति देख लेता है कि दूध गर्म हो रहा है. उवाल आने की तैयारी है और चूल्हे से उतारने का कोई साधन नहीं मिलता तो क्या करता है? जरा सा पानी लिया, लेकर जैसे ही दूध पर डाल देता है तो दूध शांत हो जाता है. मित्र की प्राप्ति में सारा गुस्सा ही ठंडा हो जाता है. उसी प्रकार धर्म के वियोग में अनन्त आत्मा की यह स्थिति होनी चाहिये. यह धर्म का वियोग आप में आज तक दर्द पैदा नहीं कर सका. कई वार मैं आप से कहूँ - पैसा गया तो रोये. संसार का किसी प्रकार का वियोग हुआ तो अपनी अन्तर आत्मा में रूदन पैदा कर दिया - दर्द पैदा हुआ. और मैं कहता हूँ आत्मा से जब धर्म का वियोग पैदा हुआ तो उस समय कोई पश्चात्ताप हुआ है? कभी अन्तर्हृदय में उसका रूदन पैदा हुआ है कि मेरी आत्मा का धर्म से वियोग हो गया? आज मेरी आत्मा की यह स्थिति कैसी हो गयी. उसका कोई दुख For Private And Personal Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १० जीवन दृष्टि या दर्द हमारे अन्दर नहीं. कहाँ से वह आत्मा उद्धार प्राप्त करेगी. मेरा भी यही कहना था कि रूदन भी एक साधना है. एक अपूर्व कला है और रोना कहाँ ? वही मैं समझा रहा हूँ. धर्म के वियोग में आत्मा में रूदन पैदा होना चाहिये. आत्मवेदना के आँसू निकलने चाहिये. आत्म पश्चाताप के आँसुओं से आत्मा का प्रक्षालन करना चाहिये. कभी भगवान के द्वार पर रूदन लेकर नहीं गये और गये होते तो आज हमारी यह स्थिति नहीं रहती. रूदन का आकर्षण बहुत बड़ा आकर्षण बनता है. रूदन अन्तर आत्मा को, हृदय को स्वच्छ करने का कारण बनता है. परन्तु संसार के लिए रूदन हुआ पर आत्मा के लिए नहीं. एक चीज मैं आपसे पूछ लूं - चातुर्मास का इतना महत्व क्यों रखा गया. कुछ इसके भी कारण हैं और इसलिए विशेष नियम चातुर्मास के लिए रखे गये हैं. सर्व प्रथम यदि कोई व्यक्ति गणित का जानकार हो, मैं उससे एक प्रश्न करूं - बारह में से चार गये पीछे शेष कितना निकलता है. यह आध्यात्मिक गणित है, आपका व्यावहारिक गणित नहीं कि झट से कह दे - बारह में से चार गये तो आठ रहा. हमारे यहाँ यह कहा जायेगा - बारह में से चार गये तो बचा शून्य. यदि चार महिनों में आपने धर्म की खेती नहीं की तो फिर आत्मा के लिए भोजन कहाँ से मिलेगा? उस आत्मा का पोषण किस प्रकार होगा? अकाल में तो मृत्यु आती है. इसी तरह से अन्दर का दुष्काल, वह अन्तर आत्मा की साधना में मृत्यु उपस्थित करेगा. इसलिए इन चार महिनों का बड़ा महत्व रखा गया है. इनको खेती बाड़ी का समय माना गया कि अन्तर-मन के अंदर ऐसी सुन्दर धर्म की खेती मैं करूं कि वह मोक्ष का फल देने वाली, आत्मा के लिए भोजन प्रदान करने वाली, अन्तर आत्मा को तृप्त करने वाली वने. कर्तव्य ही धर्म है : धर्म क्या है? किसे धर्म कहना और किसे धर्म स्वीकार करना? धर्म शब्द का अर्थ मैं आपको स्पष्ट कर दूं. धर्म शब्द का अर्थ है - व्यावहारिक दृष्टि से अपने जीवन का एक सद् व्यवहार और एक कर्तव्य. जिस माता पिता के द्वारा आपका जन्म हुआ, उनके प्रति आपका नैतिक कर्तव्य क्या होना चाहिये? जिस भूमि, जिस गांव और जिस राष्ट्र में आपका जन्म हुआ, उसके प्रति आपका नैतिक कर्तव्य क्या होना चाहिये, आपका आचरण किस प्रकार होना चाहिये? जिस समाज के अंदर आपका आगमन हुआ, उस समाज के प्रति आपका क्या कर्तव्य है? जो आपके परिवार के लोग है, उनके प्रति आपका क्या कर्तव्य है? इन सभी प्रकार के कर्तव्यों को यहाँ धर्म के रुप में स्वीकार किया गया है, क्योंकि जीवन के संपूर्ण परिचय का समावेश धर्म शब्द के अन्तर्गत किया गया है. तो धर्म की व्याख्या, यह वहुत बडी व्यापक है. मेरा सम्पूर्ण जीवन व्यवहार धर्ममय बन जाय. प्रभु महावीर की भाषा में यदि कहा जाये तो - एक शिष्य ने उनसे संसार की समस्याओं For Private And Personal Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir धर्म ११ को लेकर एक प्रश्न उपस्थित किया, और पूछा - भगवन मैं आपसे क्या प्रश्न करूं, मेरा एक नम्र निवेदन है - इस संसार की कोई ऐसी क्रिया है जिसके अंदर धर्म का बन्धन आत्मा को न हो? मेरे हर कार्य के अंदर पाप का वंध हो रहा है. मैं किस प्रकार चलूं, किस प्रकार बैलूं, किस प्रकार सोऊं, किस प्रकार वोलू और किस प्रकार भोजन करूँ कि मेरी आत्मा को पाप कर्म का वंधन न हो? भगवान महावीर ने वहुत सुन्दर रूप से एक व्यावहारिक दृष्टि से उसका परिचय दियायदि जयणा पूर्वक अपने जीवन का आचरण करें, विवेक पूर्वक वोलें, संयम पूर्वक आहार ग्रहण करें और जागृति पूर्वक शयन करें तो वह संपूर्ण व्यवहार पाप रहित बन जाता है. सद् आचरण ही धर्म है : तो जीवन के अंदर संसार का संपूर्ण कार्य जो है, मुझे धर्ममय बनाना है. भोजन करते समय भी मेरा भोजन धर्म भोजन बन जाये, मेरा शयन शरीर के विश्राम का एक साधन बन जाये, यह नहीं कि इसके द्वारा मैं प्रमाद कर सकू. शयन इस शरीर का धर्म है, उसके निवारण के लिए ताकि आगे भविष्य में और ज्यादा स्फूर्ति पूर्वक, प्रसन्नता पूर्वक मैं धर्म क्रिया या परोपकार का कार्य कर सकू, इस आशय से यदि शयन करें तो वह शयन भी धर्म बनेगा. यह समझ करके भोजन करें कि मात्र मेरे शरीर का निर्वाह करना है, क्योंकि धर्म साधना का यह एक अंग है और विना साधन के मैं कभी साधना नहीं कर सकूँगा। दर्जी कितना भी होशियार हो, सीने की बड़ी सुन्दर कला उसे आती हो परन्तु उसके पास सुई डोरा नहीं हो तो वह कैसे कार्य पूर्ण करेगा? डाक्टर बहुत ही क्वालिफाइड हो पर उसके पास स्टेथोस्कोप न हो, इंजेक्शन लगाने के साधन न हो तो वह रोगी को कैसे आरोग्य प्रदान करेगा? हर क्षेत्र के अन्दर साधन की आवश्यकता है. इसी तरह मोक्ष मार्ग की साधना में इस शरीर की आवश्यकता है और शरीर के निर्वाह के लिए मुझे भोजन करना अपरिहार्य है, आवश्यक है, इसीलिए मात्र शरीर के रक्षण के लिए मैं आहार करता हूँ. इस भावना से आहार में आसक्ति नहीं होगी, आहार स्वाद के लिए नहीं होगा. और आहार में मर्यादा रहेगी ताकि आहार का अतिरेक विकार को जन्म देने वाला न वने, आत्मा को पतन करने वाला न वने. इस प्रकार के विचार की भूमिका पर आहार ग्रहण किया जाय तो वह भोजन भी धर्म भोजन बन जाता है. मात्र आपके विचार पर आपका नियन्त्रण चाहिये. कार्य के अन्दर विवेक का दर्शन चाहिये, उन कार्यों के अन्दर उपयोगपूर्ण जागृति चाहिये. यदि जयणा पूर्वक चले, दृष्टि से देखकर चले, चलने में दृष्टि का संयम आ जाये तो वह चलना भी धर्म है. संसार की हर एक क्रिया जो पाप को जन्म देने वाली है, विचार पूर्वक रूपान्तर के कारण इन संपूर्ण क्रियाओं को धर्म का रूप दे सकते हैं. मात्र आपके विचार के अन्दर जागृति और विवेक चाहिये. यहाँ जिस प्रकार धर्म तत्व की व्याख्या दी, यह बहुत बड़ी व्याख्या है. ये सामान्य व्याख्या For Private And Personal Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जीवन दृष्टि १२ नहीं है. परन्तु इसके परिचय में सर्वप्रथम यह समझना पड़ेगा कि धर्म का आगमन उपशम भाव में होता है और उसी उपशम भाव का रक्षण करने वाला प्रेम माना गया है जिसे यहाँ शास्त्र की भाषा में मैत्री कहा गया है. सभी प्राणिमात्र के साथ यदि आत्मतुल्य व्यवहार हो जाये और स्वयं की आत्मा की दृष्टि हमें मिल जाये, तो यह देखना भी धर्ममय वन जायेगा. वह संपूर्ण व्यवहार मित्रवत् वन जायेगा. एक छोटे से बीज के अंदर में इतना विराट तत्व छिपा है जिससे एक वृक्ष वनता है, ठीक उसी प्रकार एक छोटे से सद् विचार के अंदर वीतराग छिपा है. याद रखे, यह विराट तत्व अपने अन्दर में ही छिपा है. विचार के बीज के अन्दर से इसको प्रकट करना है. प्रकट करने के लिए ही पुरुषार्थ करना है. एक बालक के अन्दर जिस प्रकार पिता का गुण छिपा होता है, वही आज का बालक कल भविष्य में पिता बनेगा. याद रखिये उस पिता में ही परमपिता अरिहन्त छुपा है. साधना पूर्वक इसे प्राप्त कर लेना है. आजीविका और धर्म : हमारे जीवन के कर्तव्य का ही दूसरा नाम है- धर्म नैतिक दृष्टि से क्या करने योग्य है, उसी को हमारे यहाँ धर्म माना गया है. आत्मा के प्रतिकूल आचरण को अधर्म माना गया है. आत्मा के वर्तुल में रहकर उसके अनुकूल कार्य करना है. जीवन के व्यवहार से अपनी आत्मा में कलंक न लगे. सम्पूर्ण जीवन को धर्ममय बनाना है, ऐसी साधना करनी है. में धर्म का प्रारम्भ कैसे हो, इसी का परिचय दिया है. गृहस्थ जीवन प्रथम तो हमारे जीवन निर्वाह के लिए हम जो अर्जन करें, जो भी हमारी आजीविका हो वह प्रामाणिक हो. हमारी आजीविका अशुद्ध प्रकार से उपार्जन की हुई न होकर शुद्ध होनी चाहिये. साध्य की प्राप्ति के लिए साधन की शुद्धता अनिवार्य है, जैसे सर्जन ऑपरेशन से पहले अपने सभी औजारों को शुद्ध करता है, उसी तरह हमारे जीवन में धर्म साधना के प्रवेश के लिए आजीविका का प्रमाणिक होना, शुद्ध होना जरूरी है. परम श्रेष्ठ हमारा धर्मज्ञान जहाँ विकार का पोषण होता है वहाँ आत्मा का शोषण होगा. आजादी मिलने के ३६ वर्षों बाद भी गरीबी नहीं गई, अगर परमात्मा के वचनों को लेकर चले होते और धर्माचरण होता तो देश की यह स्थिति नहीं होती. नैतिकता का दुष्काल हो गया है हमारे यहाँ जो देश सारे विश्व को शिक्षा देता था. जिसने सारे विश्व को ज्ञान का प्रकाश दिया, उसी देश की आज यह स्थिति है कि वह विश्व हमारा टीचर वन गया. जो देश सारी दुनिया को खिलाकर खाता था, आज देश की स्थिति यह है कि धर्मादा लेकर अपना पेट भरते हैं. ये जो पी. एल. फण्ड For Private And Personal Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १३ धर्म है, धर्मादा नहीं तो और क्या है ? यह सारा दोष-धर्म व्यवस्था की उपेक्षा का ही परिणाम है. आज अमेरिका के लोग हमारे धर्म को स्वीकार कर रहे हैं, वहाँ मन्दिर बन रहे हैं. आप आश्चर्य करेंगे कि मात्र अमेरिका में साढे चार लाख लोग जैन बने हैं. चालीस से पचास लाख लोग हिन्दू वने हैं. वे इस वात को हमारे देश का गौरव मानते हैं कि भारतीय दर्शन के अन्दर जो है, वह विश्व के किसी भी अन्य धर्म में नहीं. वे हमारी वेशभूषा को पहनते हैं, चोटी रखते हैं, तिलक लगाते हैं. बड़े गर्व से अपने को हिन्दु या जैन कहते हैं, आप पेन्ट सूट पहन कर उनकी नकल करते हैं! वे धोती दुपट्टा पहन कर बाजार में हरे राम हरे कृष्ण गाते हैं. आपसे कई गुना अधिक श्रीमंत हैं. भौतिक दृष्टिकोण से उनके पास कोई कमी नहीं है. कमी है तो विचार दर्शन की और जैसे ही उनके पास विचार पहुंचा, वे धन्य हो गयें. डॉ. रोज, पश्चिम जर्मनी के माने हुए विद्वान यहाँ आये तो मेरे पास भी रहे. वे भगवती सूत्र का अनुवाद कर रहें हैं. जर्मनी के डॉ. ब्राउन भी संस्कृत के माने हुए विद्वान हैं, वे मेरे परिचय में हैं. वे जव दिल्ली आये तो उनसे भी मिलना हुआ. उस समय मैंने पूछा- आप जर्मनी से क्या लेकर आये ? डॉ. ब्राउन ने उत्तर दिया- महाराज, हम तो आपके विचार का वैभव चुराने आये हैं. आपके पास जो संस्कृति का धन है, उसका हमारे यहाँ वड़ा दुष्काल है. आप आशीर्वाद दीजिए कि मैं यहाँ से कुछ ले जाने मैं समर्थ बनूं. ये थे उस देश के बहुत बड़े विद्वान के उद्गार. किन्तु आज देश में ठीक इसके विपरीत स्थिति है. आज का युवक पश्चिम की नकल करना चाहता है. 'देशी मुर्गी और विलायती चाल' की कहावत शत प्रतिशत हमारे यहाँ सही हो रही है. पश्चिम में हमारी संस्कृति को अपनाया जा रहा है. वहाँ की औरतें जो अर्द्धनग्न ही रहती आईं हैं- अब साड़ी पहनकर राम धुन गाती हैं. आनन्द मनाती हैं. वे लज्जा और शील को समझने लगी हैं. वहाँ हालात इतने सुधरे हैं कि जहाँ जिन गांवो में प्रचार अच्छा रहा वहाँ सिनेमा रेस्टोरेन्ट तक वन्द हो गयें. क्लबों और कैवरों को तो अव वहाँ घृणा की दृष्टि से देखा जाने लगा है. पश्चिम की छोड़ी हुई सभ्यता को हमने अपना लिया है. कैसी विडम्बना है सारे संसार को 'अध्यात्म का पाठ पढ़ाने वाला भारत ही पश्चिमी सभ्यता का दास हो गया है, धर्म स्थानों की जगह कैवरे डांस, होटल व रेस्टोरेन्ट ने ले ली है. सिनेमा के माध्यम से आपको किस संस्कृति का परिचय कराया जा रहा है ! मुझे यह कहने की आवश्यकता नहीं कि विडियो के बुखार ने हमारी संस्कृति को और अधिक नग्न कर दिया है. यह सव कैसे हुआ, क्यों हुआ ? इसका कारण क्या है ? कारण स्पष्ट है. मुनियों की यह धरती विदेशी आक्रमणों के कारण निरन्तर वेजान व गूंगी होती गई. यवन देशों से आने वाले विदेशियों ने इस पतित पावनी धरती को जैसा चाहा वैसा For Private And Personal Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जीवन दृष्टि १४ गेंदा, इतने बड़े साम्राज्य का एक छत्र शासक नहीं होने से विदेशियों ने इस धरती पर अपने पैर जमाये . हमारी संस्कृति में अपनी पाश्चात्यता का बीजारोपण किया जिसका फल यह हुआ कि हम अपनी संस्कृति से विमुख होते गये. आत्मा का धर्म : अनन्त उपकारी जिनेश्वर परमात्मा ने जगत के प्राणी मात्र के कल्याण के लिए जो मंगल प्रवचन दिया उसमें शुद्ध आत्मा का परिचय दिया. जहाँ कोई सम्प्रदाय नहीं, जहाँ कोई जाति नहीं, जहाँ कोई देश नहीं, जहाँ कोई भाषा नहीं. उन्होंने आत्मा की भाषा में ही परिचय दिया. वहाँ किसी प्रकार का कोई मतभेद नहीं क्योंकि जहाँ आत्मा है, वहाँ साम्प्रदायिकता नहीं होती. इसको छोड़कर जब धर्म की चर्चा करें तो सम्प्रदाय की बात आयेगी. सूर्य का प्रतिविंव, अगर आप हजार वर्तन रखकर देखते हैं तो भी हर वर्तन में आपको समान प्रतिबिंब नजर आयेगा. आत्मा की दृष्टि से जगत को देखे, हर आत्मा में आप स्वयं को देख पायेंगे, स्वयं के अन्दर ध्यान की एकाग्रता में देखे तो सर्व आत्माओं का परिचय सहज में ही हो जायेगा. परमात्मा महावीर ने यह नहीं कहा कि मात्र मेरा कल्याण हो, मेरे परिवार का कल्याण हो, परमात्मा की उपासना मेरे लिए मोक्ष का कारण बने. ऐसा विचार करना भी अपराध है. उन्होंने कहासाधना में भी सर्व आत्माओं को लेकर चलें. जगत के प्राणी मात्र के कल्याण की भावना से ही साधना में सफलता मिलेगी. आपका व्यवहार शुद्ध होना चाहिये ताकि अन्तशुद्धि सहज में आ जाय, परन्तु हमारी आदत ऐसी होता है कि आईने के अन्दर स्वयं का मुंह देख ले और उसमें चेहरे पर कोई दाग नजर आ जाय तो हम आईना साफ करते हैं पर इससे क्या चेहरे पर लगे दाग साफ हो जायेंगे. हमारा तरीका ही ऐसा विकृत बन गया है जिससे अन्तर की शुद्धि नहीं मिल पाती है. परमात्मा ने इसीलिए चिन्तन दिया कि - दूसरों को नहीं, पहले स्वयं को देखो. परन्तु आज का फैशन है - 'परोपदेशे पाण्डित्यं . ' किन्तु उन शब्दों में प्राण कहाँ से आयेगा. पहले अपने स्वयं की आत्मा में शुद्धि प्राप्त करें. साधना की शुद्धता से ही आपके शब्दो में प्राण आयेगा तभी श्रवण करने वाले के हृदय में निश्चित ही परिवर्तन आयेगा. चेतना में परिवर्तन हो जायेगा, रूपान्तर हो जायेगा. इतनी दिव्य शक्ति है साधना में. श्री कृष्ण की उपसिका मीरा अपने समर्पण भाव में इतनी मग्न हो गयी कि समर्पण ही उसकी आत्मा का धर्म बन गया. इतना सुन्दर समर्पण भाव कि जगत् के हर प्राणी में उसे श्री कृष्ण नजर आने लगे. उसके शरीर में ऐसा परिवर्तन आ गया कि जहर का प्याला भी अमृत बन गया. वह कोई मंत्र नहीं था, उसके समर्पण भाव ने शरीर के परमाणुओं में ऐसा परिवर्तन कर दिया कि सारा शरीर ही अमृत बन गया और वह जहर का प्याला भी अमृत तत्व में विलीन होकर अमृत बन गया. परमात्म भक्ति का यह पुण्य प्रभाव कि जो जहर भी शरीर For Private And Personal Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra धर्म के अन्दर जाकर अमृत बन गया. धर्म आत्मा का भोजन : www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १५ यह शरीर विना भोजन के कार्यशक्ति प्राप्त नहीं कर सकता है, घड़ी की कार्यशक्ति चाबी है, घड़ी को चलाने के लिए चावी देनी ही पड़ेगी. मोटर को चलाना है तो पेट्रोल चाहिये, उसी तरह आत्मा को गति देने के लिए, शक्ति प्राप्त करने के लिए उसे धर्म का भोजन चाहिये. धर्म आत्मा को पोषण देता है और उसी के द्वारा परम तत्व को प्राप्त करता है. साधना में धैर्य चाहिये. आप सोचें कि अभी साधना करें और अभी धर्म तत्व प्राप्त हो जाय तो इसके लिए तो बहुत बड़ा पुण्य वल चाहिये. मैं आपको एक किलो घी पीला दूं कि तुरन्त आपको शक्ति प्राप्त हो जाय तो ऐसा करने से शक्ति प्राप्त करने की बजाय शरीर का नुकशान ही होगा. आप नियमित थोड़ा-थोड़ा ग्रहण करेंगे. तब जाकर साल भर बाद में आपको अपने अंदर स्फूर्ति व शक्ति का अनुभव होगा. उसी तरह धर्म के क्षेत्र में साधना का रसायन आचार पथ्य से सेवन करें तो वह धीरे-धीरे आगे चलकर आत्मा को शक्ति प्रदान करने वाला बनेगा, विचारों को पुष्ट करने वाला बनेगा. ये ऐसी चीज नहीं कि आज करें, आज का आज फल प्रदान करने वाला बन जाय. . हो सकता है, यदि मन में एकाग्रता स्थिरता आ जाय तो ऐसी मुक्ति प्राप्त हो जाय कि भयंकर संकट से भी आपको मुक्ति दिला सकती है. १९४७ के अंदर आचार्य श्री विजय वल्लभसूरिजी महाराज का चातुर्मास गुजरांवाला में था. देश के विभाजन के साथ ही वह सारा प्रदेश पाकिस्तान में चला गया. आचार्यजी महाराज के साथ पचास साठ साधु साध्वियों का चातुर्मास वहाँ पर था. For Private And Personal Use Only वाहर निकलने की कोई सम्भावना नहीं थी. यहाँ के संघों ने तार देकर प्रार्थना की कि आप हवाई जहाज के द्वारा आ जाये. मोटर में आ जाये. मीलिट्री की सुरक्षा में आप आ जाये. परन्तु उन्होंने एक ही बात कही मरना यहाँ या वहाँ, मरना तो जीवन में एक बार ही होगा. मैंने परमात्मा के समक्ष प्रतिज्ञा की है, उसका परिपूर्ण पालन करना मेरा धर्म है, अगर मेरे में अहिंसा का तत्व मौजूद है तो आने वाला मेरा मित्र वन कर ही आयेगा. वहाँ के अनुयायियों ने क्या किया ? वे इतने मजबूत कि अपने घर के सदस्यों को हिन्दुस्तान भेज दिया और हर घर से एक दो आदमी वहाँ रह गये. चार पांच सौ का एक समुदाय वन गया जिनकी भावना हम लोग गुरु भगवन्त के साथ ही जीयेंगे या मरेंगे. यह दृढ़ निश्चय करके उपाश्रय में आ गये. विरोधियों को पता चला कि उपाश्रय में इतने आदमी हैं तो क्यों न वमों का उपयोग करें? आचार्य भगवन्त ने उपाश्रय पर खतरा मंडराते देखकर कुछ नहीं किया मात्र इतना कि नवकार मन्त्र का जाप और आयंविल, ताकि अगर मृत्यु आ भी जाय तो परमात्मा के स्मरण में मृत्यु मिले. मृत्यु में भी महोत्सव का आनन्द मिले. Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जीवन दृष्टि १६ द्वेष की अग्नि में जलते हुए कुछ व्यक्तियों ने उपाश्रय की ओर हैण्डग्रेनेड फेंका और वह लुढकता हुआ गुरू भगवन्त के पास आया. गुरु भगवन्त जरा भी विचलित नहीं हुए. वम लुढकता हुआ गुरु भगवन्त के पास आकर रुक गया पर फटा नहीं आश्चर्य ! घोर आश्चर्य ! देखने वाले स्तब्ध रह गयें विरोधियों ने पुनः प्रयास किया. पर वह भी निष्फल गया. वम पड़ोस की एक दीवार के पास जाकर फटा वम फिर फेंका गया. पर वह गुरू भगवन्त का कुछ नहीं बिगाड़ सका. अपने तीन प्रयासों को निष्फल जाते देखकर उन्होंने सोचा कोई नया उपाय किया जाये. उन्होंने तीन चार हजार आदमियों के साथ उपाश्रय पर हमला बोल दिया. विरोधियों ने अपने आदमियों से कह दिया सभी को जिन्दा जला दो और सामान को लूट लो पर दैवयोग इतना प्रवल कि उनका यह हमला भी निष्फल रहा. संयोग से एक सिख रेजिमेन्ट वहाँ से निकल रही थी. सिख रेजिमेन्ट ने आततायियों को उपाश्रय पर हमला करते देखा तो तुरन्त सहायता को पहुंच गई और थोड़ी देर में ही आततायियों को खदेड़ कर भगा दिया. गुरू महाराज के पास सिख रेजिमेन्ट का केप्टन आया और विनती की कि आप लोग हमारी वख्तर वंद गाडियों में बैठ जाइये. हम आपको सुरक्षित सीमा पार करा देंगे. आचार्य भगवन्त ने मना कर दिया कि हम गाड़ियों में नहीं बैठेंगे. केप्टन ने कहा- भले ही आप गाड़ियों में नहीं बैठे, ठीक है आप पैदल चलिये. हम आपके साथ रहेंगे और निरापद आपको सीमा तक पहुंचाने के बाद ही जायेंगे. कोई उपाय न देखकर गुरू महाराज ने श्रावकों के रक्षण के लिए वहाँ से विहार करना स्वीकार किया. इस प्रकार दल बनाकर केप्टन ने संपूर्ण संघ को अपने घेरे में ले लिया. चारों तरफ से सिख जवानों ने मोर्चा बंदी कर दी. बीच में गुरु महाराज आचार्य विजयवल्लभसूरिजी महाराज साधु साध्वियों और श्रावकों के साथ पैदल वहाँ से निकले. रावी तट पर पहुंचे तो उन पर आक्रमण हुआ मगर केप्टन ने संघ पर आंच नहीं आने दी और हमलावरों से सुरक्षित निकाल लिया. रावी नदी को पारकर सभी अमृतसर पहुंचे. तीस चालीस माइल का रोज पैदल विहार कर जव वे अमृतसर पहुंचे तो पाँवो में छाले पड़ चुके थे. कइयों के पैर सूज गये थे. रास्ते में आहार पानी का कोई प्रबन्ध नहीं था. घोर यंत्रणाओं को पाकर जब वे अमृतसर पहुंचे तो लाखों की संख्या में लोग उनके स्वागत के लिए इन्तजार कर रहे थे. मेरे कहने का मतलब कि ऐसी विषम परिस्थिति में भी उनमें आचार की दृढता कैसी रही ? यही हमें देखना है. आचार शून्य जीवन का कोई मूल्य नहीं. आचार प्रधान विचार का ही मूल्य होता है. वल्लभसूरिजी महाराज के आचार में इतनी विपत्तियों के बावजूद भी जरा सी भी शिथिलता नहीं आई जिसका परिणाम कि वे सकुशल भारत पहुंचने में सफल रहे. आज लोग कहते हैं, - महाराज समय बदल गया है. मैं कहता हूँ, समय नहीं वदला, आपके विचार बदल गये हैं. क्या भगवान महावीर से कुछ छुपा हुआ था ? वे सर्वज्ञ थे परन्तु उन्होंने कभी छूट नहीं दी. आज अगर हम ट्रेन या प्लेन का उपयोग शुरु कर दे तो हमने आचार For Private And Personal Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir धर्म का रक्षण कहाँ किया? जव धर्म प्रचार विदेशों में किया जायगा, तब वे हमारे धर्म के आचार के बारे में जानेंगे, साधु जीवन के आचार के बारे में जानेंगे, तव वे साधु पर श्रद्धा रख पायेंगे?... ये कैसे साधु हैं जो अपने धर्म के आचार का पालन नहीं करते. जब ये अपने परमात्मा महावीर के नहीं हुए तो दूसरों के क्या होंगे. वल्लभसूरिजी महाराज अमृतसर से चलकर बंबई पहुंचे. वहाँ पर उन्होंने महावीर विद्यालय की स्थापना कराई, अन्तिम समय तक वे प्रवचन देते रहें. ८४ वर्ष की अवस्था में बंबई में ही उनका स्वर्गवास हुआ. उस समय का वर्णन करना बड़ा मुश्किल है. दो-दो किलोमीटर लम्बी लाइन उनके दर्शन के लिए लगी. लोगों की भावनाओं को देखकर तत्कालीन बंबई राज्य के मुख्यमंत्री मोरारजीभाई देसाई को कई स्पेशल आदेश देने पडे. भायखला जैन मन्दिर के प्रांगण में अग्निसंस्कार सम्पन्न हुआ. उस समय पांच लाख व्यक्ति अग्निसंस्कार में भाग लेने आये. वाद में वहीं पर गुरु मन्दिर वना. दिल्ली के अन्दर वल्लभ स्मारक के अन्तर्गत सेनिटोरियम, हॉस्पीटल, स्कूल वगैरह का निर्माण चल रहा है. राजस्थान से भी उनका लगाव रहा है, विशेषकर पाली जिले से तो उनका घनिष्ठ संबंध ही बन गया. पाली के समुद्रसूरिजी महाराज उनके पट्टधर शिष्य रहें, जिनकी स्मृति में आज यहाँ समुद्र विहार बना हुआ है जहाँ पर साधु-साध्वी अपना स्वाध्याय करते हैं. पाली और शिवगंज के अलावा राजस्थान में और कहीं ऐसा स्थान नहीं जहाँ साधु सन्त आकर ज्ञान लाभ प्राप्त कर सकें. मैं तो कहूँगा कि स्वाध्याय केन्द्रों का और अधिक विस्तार हो ताकि अधिक से अधिक लोगों को लाभ मिले. उसी तरह पाली से हमारा भी पारिवारिक संबन्ध है. हमारे दादा गुरु आचार्य भगवन्त कैलाससागरसूरिजी महाराज के गुरु सुखसागरजी महाराज और दादागुरु नेमसागरजी महाराज दोनों पाली के ही हैं. पाली का यह अहोभाग्य है कि यहाँ ऐसे-ऐसे समर्थ विद्वान निकले हैं. मेरी यही कामना है कि अव आगे भी पाली से इसी परम्परा में और भी आचार्य मिलते रहे. इसके लिए इस संस्था - समुद्र विहार को और अधिक विकास दे, अच्छे से अच्छे साधु संत, श्रावक यहाँ से निकले हैं तो वर्तमान में भी हम इस परम्परा को बनाये रखें ताकि भविष्य में भी सुन्दर परम्परा बने. अपने आचार को वल्लभसूरिजी महाराज की तरह बनाये रखे तभी हम उन्हें सही अर्थों में श्रद्धांजलि दे सकेंगे. धर्म प्राप्ति का श्रेष्ठ साधन - दान परमात्मा ने केवल ज्ञान प्राप्ति के वाद साढ़े बारह वर्ष की घोर तपस्या के बाद जब सर्वज्ञ का पद प्राप्त किया तो सर्वप्रथम चार प्रकार से परमात्मा ने धर्म प्राप्ति का मार्ग बताया. पहला दान उसके बाद शील, तीसरा - तप और चौथा - भावना. सम्राट भोज बहुत दानेश्वरी थे. प्रतिदिन आने वाले विद्वानों का सम्मान करते और उचित For Private And Personal Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १८ जीवन दृष्टि भेंट इत्यादि देते. राजा भोज के महामंत्री ने सोचा - इस तरह से अगर राजन् देते रहें तो सारा खजाना ही खाली हो जायगा. परन्तु सम्राट के सामने जाकर निवेदन करने की हिम्मत नहीं. उसने उपाय निकाला और सम्राट के सोने के कमरे में दीवार पर लिख दिया - 'आपदर्थं धनं रक्षेत्' अर्थात आपात काल के लिए धन की रक्षा करनी चाहिये. राजा भोज रात्रि में सोने के लिए आये और दीवार पर लिखा देखकर समझ लिया कि ये कार्य महामंत्री का है. मुझे समझाने के लिए लिखा है, राजा भोज स्वयं विद्वान थे. उन्होंने लिख दिया - ‘श्रीमतां कुत आपदः'. अर्थात् भाग्यशाली व्यक्तियों के पास आपत्ति आती नहीं. महामंत्री ने जव सुबह जाकर देखा तो विचार किया - राजा ने जवाब तो वरावर दिया है. उसने लिखे वाक्यों को मिटाकर पुनः लिखा - 'कदाचित् कुपितो दैवः'. अर्थात् शायद भाग्य फिर जाये, या ऐसा ही कोई संकट आ जाय, उस समय के लिए धन संचय करना है. महाराज भोज ने रात्रि को आकर देखा और उसे मिटाकर लिख दिया - ‘संचितमपि नश्यति' अर्थात् कितना ही संग्रह करो, उसका नाश होना निश्चित है. जब भाग्य साथ नहीं देगा तो सम्पत्ति कोई काम नहीं आएगी. बम्बई के एक झवेरी से मेरी मुलाकात हुई थी. उसने अपनी करुण कथा मुझे वताई. मेरे पास रंगून के अन्दर सब कुछ था. मैं वहाँ का प्रतिष्ठित जौहरी था. आराम से दिन कट रहे थे. सेकण्ड वार का समय था कि अचानक जापान ने आक्रमण कर दिया. दो चार दिन निकल गये, परन्तु वहाँ की सरकार मुकावला न कर सकी. उसने प्रजा को सूचित कर दिया - सभी व्यक्ति अपना रक्षण स्वयं करें. मैं सोचने लगा कि इतनी वड़ी सम्पत्ति का ट्रान्सफर कैसे करूँ. भोजन कर रहा था कि सायरन बजा, आक्रमण शुरु हो गया था. तीस चालीस हवाई जहाजों ने एक साथ अटैक किया था. वम गिरने लगे. आसपास की विल्डिंगें धड़ाधड़ गिरने लगी. ऐसा भयंकर ताण्डव मचा कि लोग घबरा गये, भोजन छोड़ दिया और जान बचाकर वहाँ से भागे. तिजोरियों की ओर देखने का भी समय नहीं था. ऐसी विषम परिस्थिति में घर छोड़कर निकल भागे कि जो व्यक्ति अपने जीवन में कभी पैदल नहीं चला, आठ माइल तक लगातार नंगे पांव दौड़कर जान बचाई. परिस्थितियां सब कुछ करा देती हैं. जवानी के अन्दर हमारे अंदर वड़ा जोश होता है फिर अगर पैसा मिल जाय तो क्या पूछना. जैसे बंदर को शराव पिला दी हो इसीलिए कवि ने कहा उछल लो, कूद लो, जब तक है जोर नलियों में । याद रखना इस तन की उड़ेंगी खाक गलियों में ।। नवाब वाजिद अलीशाह जव पकड़े गये तव तक लखनऊ को अंग्रेजों ने चारों तरफ से घेर लिया था. सारे दास-दासियां, खानसामा तक भाग गये थे. अंग्रेज अधिकारी जव नवाव के पास आये तो वे बड़े आराम से बैठे थे. अंग्रेजों ने उनसे पूछा-आपके सभी आश्रित भाग गये, आप भी भाग सकते थे, फिर क्यों बैठे रहें. नवाव साहव की रईसी इतनी कि एक इत्र वेचने For Private And Personal Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १९ धर्म वाला आया तो नवाव साहब ने फरमाया - मुझे इत्र से एलर्जी है जुकाम हो जाता है. ऐसा करो घोडी की पूंछ में लगा दो. मैं बग्घी में बैठ कर घूमने जाता हूँ तो उसकी पूंछ के हिलने से मुझे खुशबू मिलती रहेगी. नवाब साहब ने अंग्रेजों को जवाब दिया-मैंने बहुत आवाज दी पर कोई नौकर नहीं आया जो आकर मेरे को जूता पहिना दे. इसी प्रतीक्षा में बैठा रहा. परिणाम स्वरूप पकड़े गये. वह झवेरी आठ माइल दौड़ने के वाद जहाँ पहुंचे वहाँ मालगाड़ी खड़ी थी. ड्राईवर के पास जाकर हाथ जोड़े पांव पकड़ा अपने जीवन की भीख मांगी. दो हजार रुपये देकर किसी तरह मालगाड़ी में बैठे और माण्डले पहुंचे. वहाँ से चालीस दिन तक पैदल चलकर भारत की सीमा पर पहुंचे. वस्त्र फट चुके थे. रास्ते में खाने को नहीं, पीने को नहीं. नाना प्रकार की बीमारियों को झेलते हुए बम्बई पहुंचे, यहाँ पर थोड़ी बहुत सहायता लेकर किसी तरह अपना जीवन व्यतीत कर रहे हैं. इसलिए सम्राट् भोज ने कहा 'संचितमपि नश्यति'. विनाश काल के आने पर कितना भी संचय किया हुआ हो, कोई काम नहीं आता. सेकण्डवार के समय में कलकत्ते में भी हमले की जब आशंका हुई तो ब्रिटेन के अंग्रेज अधिकारियों ने सारी संपत्ति राशन हथियार वगैरह को एक ऐसे स्थान पर संग्रह करने का निर्णय किया, जहाँ से उनकी सेना पूरे साउथ ईस्ट एशिया में सप्लाई कर सके. फिलीपाइन्स के जंगलों में एक टापू पर उन्होंने सारा सामान भेज दिया. लेकिन क्या हुआ? जापान के जासूसों ने पता कर लिया और समाचार अपने देश में भेज दिया. वहाँ से सवमरिन उस सामान को लूटने के लिए रवाना हो गये. अंग्रेजों को जब पता चला तो उन्होंने ऑर्डर दे दिया - सारा सामान पानी में डुवा दो ताकि जापानियों के हाथ न लगे. सारा सामान डुवा दिया गया. वह किसी के काम नहीं आया. धर्म जीवन का परम तत्व : धर्म विचार के माध्यम से पुष्ट बनता है, सत्य इसका प्रोटीन है. सत्य के आचरण से धर्म पुष्ट वनता है. कर्म दुर्वल वनता है. कर्म केन्सर या टी. वी. उत्पन्न करता है. आत्मा में या आराधना में केन्सर न हो, टी. वी. न हो, इसका हमें ख्याल रखना है. इसलिए हमें धर्म की आराधना करनी है. गलत दिशा बदल डालिये. सव कुछ प्राप्त हो जायेगा. इसके लिए हमें सोचना है कि क्या बोलना है? कैसे वोलना है? धर्म का प्रारम्भ मुख से होता है और अन्तर् अर्थात् आत्मा में उसकी पूर्णता होती है. एक वार धर्म को प्रारम्भ करो, उसके लिए प्रयास करो, उसको प्रेक्टिकल वनाओ तो आत्मा पूर्ण वनेगी. आप क्या जानते हैं? इसका कोई मूल्य नहीं आप क्या करते हो, उससे मतलव है. प्रतिक्रमण को सिर्फ धर्मस्थान तक ही जीवित नहीं रहना है, घर में, दुकान में भी जीवित रखना, यही धर्म है. आपके आचरण से ही आपका परिचय होगा. शब्द के विना भी अनुभव सहज में प्राप्त होगा. इत्र की दुकान का विज्ञापन For Private And Personal Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २० जीवन दृष्टि करने के लिए ढोल नहीं पीटना पड़ता है. विचार में और आचार में वीतरागता आये तो आप सबका प्रेम सम्पादन कर सकते हैं, तभी आपकी साधना सुगन्धमयी और प्रेम-मय बनेगी. स्व से सर्व प्राणि मात्र तक हमारी मित्रता होनी चाहिये, ‘मित्ति में सव्व भएसु, वेरं मज्जं न केणइ' - जगत् में किसी के साथ मेरा वैर नहीं है, ऐसी भावना होनी जाहिये. धर्म की वफादारी : आप अपनी पूर्ण ईमानदारी के साथ धर्म के प्रति वफादार रहें. चाहे आप किसी भी धर्म को मानने वाले हों, आखिर परम्परा में धर्म तो एक ही मिलेगा. गाय चाहे काली हो, चाहे लाल हो, चाहे पीली या चितकबरी हो, दूध तो उसका सफेद ही मिलेगा. आप पर सम्प्रदाय का कोई भी लेबल क्यों न हो परन्तु धर्म तो वही जिसमें अहिंसा, संयम और तप हो, और वह हर धर्म में मिलेगा. इन्द्रियों पर संयम और इच्छाओं पर नियन्त्रण, यह मूल तत्व हर धर्म में मिलेगा. उसी व्यक्ति को तपस्वी माना गया जो अपनी आत्मा पर विजय प्राप्त कर ले. अपने मनोविकारों का दमन कर ले. यहीं से धर्म का जन्म होता है. भले ही सम्प्रदाय कोई भी हो, पेकिंग कोई भी हो मुझे उससे मतलब नहीं. आप अपने हृदय पर हाथ रखकर कहें-क्या आप अपने धर्म के प्रति वफादार हैं? धर्म की वफादारी तो गुरू गोविन्दसिंह के दोनों युवान पुत्रों ने निभाई. वे शेर की सन्तान थी. दाढ़ी-मूछे भी नहीं आई थी. १६ वर्ष और १८ वर्ष की उम्र थी उनकी. बड़े खूबसूरत थे. राजपुत्र थे. और जब उनकों मुगलों द्वारा षडयन्त्र-पूर्वक पकड़ा गया और उनसे कहा गया-अगर तुम धर्म परिवर्तन कर लो तो तुम्हारी शादी शहजादी से करवा दी जायेगी और तुमको कश्मीर और पंजाव का राज्य दे देंगे. उन्हें साम्राज्य का प्रलोभन दिया गया पर उन शेर की सन्तानों ने क्या उत्तर दिया? सिंह पुत्रों ने थूक दिया सन्देश वाहकों पर और कह दिया - चले जाओ यहाँ से. हम इस तरह की बात सुनना भी पसन्द नहीं करते. प्रलोभन से काम नहीं बना तो भय दिखाया गया. ईनाम में सजा-ए-मौत का हुक्म दिया गया. मौत भी कैसी? कि जीवित उनको दीवारों में चुनवा दिया जाय. खड्डा करके नाक तक दीवार चुनवा दी गई उनसे फिर कहा गया-राजकुमार तुम अभी तो उगते हुए सूर्य हो, दुनिया भी नहीं देखी है. गुलाव खिलने से पहले मुरझा जाय तो वड़ा अफसोस होता है. अभी भी सोच लो अच्छी तरह से, अभी भी समय है. कहा मान लोगे तो जिन्दगी भर ऐश करोगे. उन लड़कों ने जवाब दिया - जो सोचना था, सोच लिया. तुम अपना कार्य चालू रखो. धर्म के रक्षण के लिए अपना जीवन अर्पण करना, ये हमारे लिए सौभाग्य की बात है. धर्म परिवर्तन का कोई शब्द हमें सुनना भी पसन्द नहीं. जव सिंह की सन्ताने धर्म के प्रति वफादारी से नहीं हटी तो उन्हें ईंटों की दीवार में चुनवा दिया गया. प्राण चले गये उनके धर्म के लिए, धर्म की वफादारी के लिए अपने प्राणों का For Private And Personal Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir धर्म २१ उत्सर्ग कर दिया पर अपने पंथ की वफादारी का त्याग नहीं किया. गुरू गोविन्दसिंह को जब यह समाचार मिला कि आपके दोनों पुत्रों ने इस प्रकार मृत्यु का वरण किया है तो गुरू गोविन्दसिंह जरा भी विचलित नहीं हुए. उन्होंने आदेश दे दिया- पूरे पंजाब में आज दीवाली मनायी जाये और मिठाई और प्रसाद बांटा जाये. मेरे लड़कों ने शेर की तरह मृत्यु का आलिंगन किया है. धर्म की वफादारी के लिए अपने प्राणों का उत्सर्ग कर दिया. एक दो नहीं यदि मेरे हजार लड़के भी इस उद्देश्य पर मिट जाय तो मुझे शोक नहीं होगा. धर्मो रक्षति रक्षितः, जो आत्मा अपने जीवन में धर्म का रक्षण करती है, धर्म उसका हर हालत में रक्षण करता है. जो आत्मा के साथ गद्दारी करेगा, समय आने पर कर्म का विस्फोट टाइम बम की तरह उसका सर्वनाश करके चला जायेगा. किस तरह से इन्सान धर्म के प्रति वफादार रहे. उसका यह नमूना है. पूरे पंजाब में इस वलिदान की अनुमोदना की गई. प्रसाद बांटा गया, खुशियां मनाई गईं. इसी तरह शत्रुंजय तीर्थ पर एक बार आक्रमण हुआ. वह समय था जव तीर्थ पूर्णतया अरक्षित था. जव उसके रक्षण का प्रश्न आया, कोई साधन रक्षण के लिए वहाँ पर नहीं था. बड़ी चिन्ता का विषय था. वहाँ के जो वारोट थे बह्मभट्ट, उन्होंने अपनी पंचायत में निर्णय किया - किसी भी तरह से इस आदिनाथ भगवान के तीर्थ शत्रुंजय का रक्षण करना है. श्री संघों ने हम पर विश्वास करके यह तीर्थ छोड़ रखा है तो हम भी इसका पूर्ण वफादारी से रक्षण करे. वे जैनतर बन्धु थे परन्तु निष्ठा कितनी ? उन्होंने सोचा- अगर मुकावला करेंगे तो गाजर मूली की तरह कट जायेंगे. किसी तरह का साधन तो मुकावले के लिए अपने पास है नहीं. उन्होंने मुख्य द्वार बन्द कर दिया. जव सेनापति अपनी सेना को लेकर ऊपर मुख्य द्वार तक पहुंच गया तो एक वाट वाहर निकला और हाथ जोड़कर सेनापति से वोला परमात्मा के रक्षण के लिए कुछ नहीं है हमारे पास. तुम जो चाहो करो, मेरी गर्दन तुम्हें अर्पण है. मेरे प्राण लेने के बाद ही तुम अन्दर प्रवेश कर सकोगे. वारोट की गर्दन सेनापति ने काट दी. दूसरा निकला, तीसरा निकला, इसी तरह एक-एक करके वारोट निकलते रहें, निवेदन करके प्राण विसर्जन करते रहें. छप्पन बारोट अपने प्राण दे चुके थें. वहाँ तड़पती हुई लाशों से, वह हृदय विदारक दृश्य देखकर सेनापति का हाथ रुक गया. मन में भय का प्रवेश हुआ. इन ब्रह्मभट्टों का इस तीर्थ से कोई लेना देना नहीं. जैनेतर होकर भी प्रभु के प्रति भक्ति कैसी कि आदिनाथ भगवान का नाम लेकर हंसते-हंसते बड़े प्रेम से अपने प्राणों की आहूति दे रहे हैं. सेनापति का सिर शर्म से झुक गया. उसने तलवार म्यान में डाल दी और वापस चला गया. For Private And Personal Use Only - वाद में जब श्री संघों तक समाचार पहुंचा, उनकी अनुमोदना की और निर्णय लिया कि मन्दिर का सारा चढ़ावा आज से इन वारोटों का होगा. इतिहास कदम-कदम पर साक्षी है कि धर्म की वफादारी के लिए संप्रदायों को गौण कर दिया गया और धर्म के लिए अनेकों ने अपने प्राण अर्पण कर दिये. Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २२ जीवन दृष्टि धर्म का चौकीदार : एक व्यक्ति ने बम्बई में मुझसे पूछा-महाराज, आप रोज प्रवचन देते हैं, हम रोज सुनते है. आप कहाँ तक प्रवचन देंगे. हम तो रोज सुनने के आदी हो गये. मैंने कहा - यह तो मेरी Moral Duty है. आपके घर पर रहने वाला कुत्ता जिसको आप आधी रोटी डालते हैं, वह भी आपका इतना वफादार चौकीदार कि जब भी कोई गलत व्यक्ति रात्रि में आ जाय तो कुत्ता भौंकेगा. जैसे ही घर का मालिक आ जाय तो चुप हो जायेगा. एक सामान्य पशु में भी इतना संस्कार होता हैं तो जो समाज हमारा पोषण करे, रक्षण करे, उस समाज के धर्म का रक्षण करना हमारा फर्ज होता है, साधु-संत आपके धर्म के चौकीदार है. तो मैंने भी प्रश्न करने वाले से कहा-एक घण्टा मुझे भी भौंक लेने दो. जिस दिन आपकी अन्तर आत्मा जाग्रत हो जाय, उसी दिन से भौंकना बन्द कर दूंगा. साधु अपने प्रवचन के द्वारा आपकी अन्तर आत्मा को जगाता है कि आप सावधान हो जाय. आपकी अन्तर आत्मा को कर्म रूपी चोर से खतरा पैदा हो रहा है. आप जागे या न जागे हमें (साधु को) तो भौंकना ही हैं. हमें अपनी Duty निभानी है. आपकी अन्तर आत्मा जब जग जाये तो कर्म रूपी चोर से फिर आपको क्या खतरा पैदा हो सकता हैं? आप स्वयं सावधान है तो फिर हमें फिजूल भौंकने की क्या आवश्यकता? आपकी अन्तर आत्मा को जगाने के लिए ही हमें भौंकना है. पर आप हैं कि जागते ही नहीं. For Private And Personal Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir धर्म और आधुनिक विज्ञान धर्म आत्म विज्ञान है : आधुनिक युग में धर्म की स्थिति विचित्र हो गई है. जहाँ पुरानी पीढ़ी के लोग पुराने विश्वासों और मान्यताओं से चिपके हुए हैं, वहाँ नयी पीढ़ी के लोग धर्म को अन्धविश्वास और पिछड़ेपन का चिह्न मानते हैं. पुरानी रूढ़ियां चली आ रहीं हैं किन्तु उन पर आस्था समाप्त हो गयी है. धर्म अब हमारे जीवन का वैसा प्रेरणा स्रोत नहीं रहा जैसा हजारों वर्षों पूर्व था. धर्म के प्रति जो दृष्टिकोण बदला, उसका प्रारंभ आधुनिक ज्ञान-विज्ञान के उदय के साथ हुआ. विज्ञान की खोजों के कारण धर्म की अनेक मान्यताएँ नष्ट हो गयी एवं अन्धविश्वासों का युग बीत गया. जीवन और जगत की प्रत्येक वस्तु को तर्क और परीक्षा की कसौटी पर परख कर स्वीकार करने की परंपरा चल पड़ी. वस्तुतः विज्ञान के कारण धर्म को आघात तो लगा किन्तु इस आघात से धर्म मिटा नहीं वरन् अन्धविश्वासों और मिथ्या मान्यताओं से मुक्त होकर अपने सच्चे रूप में निखर आया. अनेक उच्च कोटि के वैज्ञानिक धर्म को मानते रहे हैं. सर आर्थर एडिंग्टन, सर जेम्स जीन्स और सर अल्बर्ट आईन्स्टाइन आदि के प्रति भी विशेष आदर है. । भारत में धर्म का नवोन्मेष उक्त आध्यात्मिक साधकों और उनके द्वारा चलाये गये आन्दोलन में दीख पड़ता है, किन्तु ये आन्दोलन थोड़े लोगों को ही प्रभावित कर पा रहे हैं. पुरानी रूढ़ियाँ ज्यों-की-त्यों बनी हुई हैं, इनके कारण धर्म का मूलतत्व ही जनसाधारण की दृष्टि से ओझल है. हिन्दू धर्म संघ-बद्ध धर्म नहीं है, इसलिये धर्म के द्वारा बड़े पैमाने पर सुधार का कार्य नहीं हो पाता. यहाँ जीवन में अभाव और विषमताएँ इतनी अधिक हैं कि जीवन की मौलिक आवश्यकताएँ भी पूरी नहीं हो पाती. अतः इन दिनों सारा ध्यान अभावों और असुविधाओं को दूर करने में केन्द्रित है किन्तु उच्च चरित्र के अभाव में किसी भी प्रकार की सामूहिक चेष्टाएँ अधिक दूर तक सफल नहीं हो पाती. कार्ल मार्क्स ने धर्म को अफीम बताया. इससे उनका आशय यही प्रतीत होता है कि जिस प्रकार अफीम का नशा मनुष्य की चेतना को शिथिल कर उसे निष्क्रिय बना देता है उसी प्रकार धर्म से प्राप्त होने वाली शांति और सांत्वना मनुष्य को शांत और निष्क्रिय बनाकर उसे बहुमुखी संघर्ष से विमुख कर देती है. मार्क्स शोषण और विषमता से क्षुब्ध थे; वे समाज में शीघ्र परिवर्तन लाना चाहते थे; धर्म उन्हें इसमें बाधक प्रतीत हुआ. मार्क्स को धर्म के अवगुण दिखलाई पड़े. वस्तुतः साम्यवादी देशों में क्रमशः धर्म की ओर धर्म के पराभव का कारण विज्ञान नहीं वरन् विज्ञान से उत्पन्न हुई औद्योगिक सभ्यता है. औद्योगीकरण के द्वारा सुख-सुविधा के साधनों में अभूतपूर्व वृद्धि हुई और भोग के प्रति आत्यन्तिक प्रवृत्ति उत्पन्न हुई. अचेतन मन भोगवाद For Private And Personal Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जीवन दृष्टि २४ के द्वारा ऐसा आक्रान्त हो गया कि उसमें धर्म या उच्चतर जीवन-मूल्यों के लिये स्थान नहीं रहा. यदि औद्योगिक सभ्यता के विकास और धर्म-भावना के विलोप से मानवता की समस्याओं का समाधान हो जाता तो बहुत अच्छी बात होती, किन्तु ऐसा नहीं हुआ. यह औद्योगिक सभ्यता जहाँ अपने साथ सुख-सुविधा के सारे साधन लायी वहाँ उनके साथ-साथ व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन में अशान्ति, असंतोष, असुन्तलन, अव्यवस्था, अनैतिकता और अपराध भी लायी. पश्चिम के समृद्ध देशों में अशान्ति और अपराध बढ़े एवं औद्योगिक सभ्यता के प्रसार के साथ-साथ अन्य देशों में भी यही स्थिति हुई. सारा संसार आध्यात्मिक संकट से ग्रस्त हो गया. यह संकट उन गरीब देशों में और भी अधिक उग्र रूप से प्रकट हुआ जहाँ विषमता अधिक है, जहाँ कुछ लोगों को सुख-सुविधा के सभी साधन उपलब्ध हैं और बहुसंख्यक लोगों की न्यूनतम आवश्यकताएँ भी पूरी नहीं हो पाती. भौतिकवाद एवं औद्योगीकरण से उत्पन्न होने वाली विषमता दोनों महायुद्धों के रूप में प्रकट हुई. और इस विषमता के शल्यचिकित्सा का उपक्रम साम्यवादी दर्शन है. पश्चिमी देशों को यह अनुभव हो गया कि केवल भौतिक समृद्धि से सुख-शान्ति की प्राप्ति नहीं हो सकती; भौतिक समृद्धि के साथ-साथ आत्मोन्नति भी इतनी ही आवश्यक है. इसलिये धर्म-साधना के द्वारा आत्मोन्नति का प्रयास बढ़ा. वहाँ के बुद्धिजीवी वर्ग में हिन्दू-धर्म और बौद्ध धर्म के प्रति विशेष आग्रह उत्पन्न हुआ क्योंकि ये धर्म आत्मा की गहराइयों में अधिक दूर तक जाते हैं, तर्क एवं परीक्षा की कसौटी पर अधिक खरे उतरते हैं. सभी मतों का प्रगटीकरण एक ऐसी वस्तु है जिसका अनुभव प्रत्येक मनुष्य नहीं कर सकता, उसे केवल विश्वास पर मानना पड़ता है, जब कि उपनिषदों में प्रतिपादित आत्मा का अमरत्व एक ऐसा सत्य है जिसका अनुभव प्रत्येक मनुष्य अपने जीवन में कर सकता है, इसे महान मनोवैज्ञानिक सी. जी. जुंग ने अपनी खोजों के आधार पर प्रमाणित किया है. पश्चिमी देशों में ज्ञान के प्रति जो अदम्य पिपासा एवं गुणग्राहकता है उससे प्रेरित होकर वे भारतीय धार्मिक साहित्य एवं धार्मिक साधनाओं का अध्ययन कर अपने जीवन को उन्नत बनाने एवं भौतिकतावाद की बुराइयों को दूर करने में लगे हुए हैं. शॉपनहावर की यह भविष्यवाणी सत्य होती दिखाई देती है कि भारतीय दर्शन यूरोपीय मानस को गंभीर रूप से प्रभावित करेगा. पश्चिमी देशों में न केवल भारतीय धर्मों का अध्ययन हो रहा है बल्कि आधुनिक आध्यात्मिक साधकों- रामकृष्ण, विवेकानन्द, गांधी, अरविंद, रमण, महर्षि, शिवानंद, महेश योगी, कृष्णमूर्त्ति और गोपीकृष्ण आदि वैज्ञानिकों ने सृष्टि की व्यापकता का अध्ययन करना चाहा और वे उनकी अनन्तता और रहस्यात्मकता से अभिभूत होकर सृष्टि के प्रति नतमस्तक हुए. इसी प्रकार जुलियन हक्सले और जे. बी. एस. होल्डेन आदि वैज्ञानिकों ने जीवन या आत्मा का अध्ययन करना चाहा और वे भी इसकी गहनता का पार न पाकर परमात्मा के प्रति नतमस्तक हुए. विज्ञान के उदय-काल में लोग ऐसा समझते थे कि विज्ञान जीवन और जगत की पूरी व्याख्या कर किन्तु शीघ्र ही यह स्पष्ट हो गया कि जीवन और जगत के अनन्त रहस्यों को समझने For Private And Personal Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir धर्म और आधुनिक विज्ञान २५ के लिये विज्ञान एक सीमित और अपर्याप्त साधन है. मनोविज्ञान और परामनोविज्ञान के विकास से अचेतन मन की अनेक प्रक्रियाएँ, पुनर्जन्म और परलोक से संबंधित अनेक तथ्य और क्लेयरवॉयेन्स, क्लेपरऑडियेन्स, टेलिपैथी आदि अनेक ऐसी बातें प्रकाश में आयी जिनसे प्रकट होता है कि अनेक अगोचर रहस्यपूर्ण शक्तियां और प्रक्रियाएँ कार्य कर रही हैं. अब मनोविज्ञान का उद्देश मनुष्य को पशु समझकर उसके सारे कार्यों की मूल प्रवृत्तियों के आधार पर व्याख्या कर देना नहीं है, वरन् उसका उद्देश्य मनुष्य के अचेतन मन की गहराइयों में बैठकर उसमें परिष्कार लाना एवं दैवत्व का विकास करना है. विज्ञान के प्रभाव से अन्य मानविकी विद्याओं की भांति धर्म के अध्ययन में वैज्ञानिक पद्धति अपनायी जाने लगी और धर्म को आत्मविज्ञान का रूप देने का प्रयास हो रहा है. झुकाव बढ़ता जा रहा है क्योंकि धर्म से जो लाभ हैं वे वहाँ के लोगों को भी दिखते हैं. धर्म क्या है; धर्म क्या कर सकता है और क्या नहीं कर सकता, इसके विषय में स्पष्ट धारणा होनी आवश्यक है. धर्म आर्थिक और राजनीतिक समानता की स्थापना नहीं कर सकता, असमानता दूर नहीं कर सकता, कृषि और उद्योगों में क्रांति नहीं ला सकता. ये सारे कार्य तो हमें बहिर्मुखी संघर्ष के द्वारा करने होंगे. धर्म अन्तर्मुखी साधना है, वह आत्मा को शान्ति देता है. धर्म जीवन के शाश्वत जीवन मूल्यों की खोज है; धर्म जीवन की दिशा का बोध कराता है, उस दिशा में चलने और समाज को चलाने का कार्य-प्रयत्न सापेक्ष है. धर्म मानव के अन्तर्जगत की वस्तु है, वह आन्तरिक व्यक्तित्व का निर्माण करता है. बाह्य जगत के सारे कार्य तो बहिर्मुखी संघर्ष और चेष्टाओं के द्वारा ही संभव ह्ये सकते हैं. यह सच है कि अशान्ति और असन्तोष का कारण बहुंत दूर तक अभाव और विषमताएँ हैं, किन्तु जहाँ अभाव और विषताएँ कम हैं वहाँ भी मानसिक अशान्ति, मनोरोग, असन्तोष और अपराध कम नहीं हैं. इससे यह प्रकट होता है कि मानसिक अशान्ति और असन्तुलन का कारण केवल अभाव और विषमताएँ नहीं हैं, वरन् अचेतन मन में व्याप्त अस्थिरता, उत्तेजना और जीवन मूल्यों का अभाव है; यह स्थिति औद्योगिक सम्पन्नता के परिणाम स्वरूप एवं परम्परागत धार्मिक विरासत के अभाव में उत्पन्न हुई है. आत्मनिर्माण के महत् लक्ष्य से विमुख होकर अवांतर कार्यों में प्रवृत्त होने वाली युवाशक्ति के मूल में यही अचेतन मन की अस्थिरता एवं उत्तेजना है. हमारे अधिकांश कार्य तर्क और विवेक से प्रेरित न होकर अचेतन मन के द्वारा प्रेरित होते हैं. आर्थिक सामाजिक समानता के लिए भी मानसिक स्थिरता और सन्तुलन आवश्यक है. अचेतन मन का नियमन और परिष्कार उत्तेजक तत्त्वों से दूर रहकर उच्चतर जीवन-मूल्यों के मनन एवं क्रियान्वयन के द्वारा होता है; इस दृष्टि से धर्म का बड़ा महत्त्व होता है. मनुष्य में शक्ति, सुधार और प्रेरणात्मकता लाने के लिए मनोवैज्ञानिक शक्ति के रूप में धर्म का महत्त्व कितना अधिक है, इसे नास्तिक भी स्वीकार कर सकते हैं. राजनीति मनुष्यों का निर्माण नहीं करती, वरन् उसे जैसे मनुष्य मिलते हैं उन्हीं में वह व्यवस्था लाती है, मनुष्य जितने संयत और श्रेष्ठ होंगे, राजनीतिक व्यवस्था उतनी ही सफल होगी. अतः राजनीतिक व्यवस्था की स्थापना करना जितना महत्त्वपूर्ण कार्य है, उससे कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण कार्य For Private And Personal Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २६ जीवन दृष्टि श्रेष्ठ मानव का निर्माण करना है. भारत में नवजागरण का मूलाधार धर्म रहा है. सबसे पहले दयानन्द और विवेकानन्द ने धार्मिक सामाजिक जागरण उत्पन्न किया, तिलक ने कर्मठता का शंखनाद किया और तब सारी शक्तियों को समन्वित करने गांधी आये. गांधी की राजनीतिक-सामाजिक सफलता का एक महत्त्वपूर्ण कारण यह था कि उनके सारे कार्य धर्म से अनुप्राणित थे. अनेक मनीषियों का विचार है कि भारत में कोई भी आन्दोलन तभी सफल हो सकता है जब उसका मूल धर्म में हो. भारत धार्मिक देश है इसका अर्थ यही नहीं है, कि यहाँ धर्म के अतिरिक्त अन्य वस्तुओं का महत्त्व नहीं है। इसका अर्थ यही है कि यहाँ के सारे कार्य धर्म के द्वारा अनुप्राणित होते हैं. धर्म के क्षेत्र में भारत से दूसरे देशों ने बहुत सीखा है यह गर्व की बात हो सकती है किन्तु यह सन्तोष कर लेने योग्य बात नहीं है. यह अधिक महत्त्वपूर्ण नहीं है कि किसने किससे क्या सीखा है; बल्कि विशेष महत्त्वपूर्ण तो यह है कि सभ्यता और संस्कृति की दौड़ में कौन सबसे आगे है. प्रश्न यह है कि आधुनिक युग में धर्म का क्या स्वरूप हो? यह प्रश्न इतना गहन है कि जिन शब्दों की सीमा में इस विषय के विस्तार में जाना सम्भव नहीं है, संकेत-रूप में ही कुछ बातें कही जा सकती हैं. जहाँ तक हिन्दू धर्म का प्रश्न है, इसी धर्म का एक पक्ष तो रूढ़ियों, रीति-रिवाजों एवं पौराणिक विश्वासों का है जो आधुनिक युग के ज्ञान और तर्क की कसौटी पर पुराना पड़ चुका है. वस्तुतः यह धर्म नहीं वरन् उसका ऊपरी आवरण है. हिन्दू-धर्म का दूसरा पक्ष तत्त्वज्ञान का है जिसमें वेदांत, उपनिषद और गीता आते हैं एवं बौद्ध दर्शन भी इसी धारा का एक विशिष्ट विकास है. हिन्दू धर्म के तत्त्वावधान का यह पक्ष आधुनिक ज्ञानविज्ञान कहना अधिक समीचीन लगता है. सी. जी. जुंग ने अपने इन्टेग्रेशन ऑफ पर्सनलिटी एण्ड क्लेटिव अनकान्शस के सिद्धान्तों के माध्यम से भारतीय आत्म-विज्ञान को मनोविज्ञानक रूप में प्रस्तुत किया है और वे इसे जीवन का उद्देश्य मानते हैं. आधुनिक युग में धर्म का वही रूप समीचीन है जिसमें धर्म के आवरण को अलग कर तत्त्वज्ञान को ग्रहण किया जाये एवं सामाजिक और व्यक्तिगत जीवन में क्रियान्वित किया जाये. आज भारत में मूल समस्या यह है कि धर्म का तत्त्व जीवन से दूर जा पड़ा है, उसे जीवन में आत्मसात् करने की आवश्यकता भारत में धर्म प्रेम और देश प्रेम का स्वरूप कभी भी आक्रामक और परपीडक नहीं रहा. हम सदैव 'वसुधैव कुटुम्बकम्' के आदर्श से अनुप्राणित रहें हैं. हिन्दू धर्म के मूल्य मतवादों एवं दुराग्रहों से बंधे नहीं है वरन् वे सार्वभौमिक जीवन-मूल्य हैं. आज जब देश और काल की दूरियां कम हो गई हैं, विश्व स्तर पर एकता और बन्धुत्व की स्थापना के लिए सार्वभौमिक जीवन मूल्यों की आवश्यकता पहले की अपेक्षा कहीं अधिक है. राजनैतिक व्यवस्थाएँ बदलती रहती हैं किन्तु जीवन के विकास की दिशा नहीं बदलती. इस देश में भविष्य में कोई भी राजनीतिक व्यवस्था आये, उससे धर्म की स्थिति में अन्तर नहीं पड़ता. अपनी धार्मिक विरासत का सतत् विकास कर हम न केवल अपने देश में श्रेष्ठतर मानवता का निर्माण कर सकेंगे वरन् विश्व मानवता के निर्माण में भी अपना योगदान कर सकेंगे. For Private And Personal Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra सत्य सदाचार www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir परम सत्य का प्रकाश : इस धर्म बिन्दु ग्रन्थ में साम्प्रदायिक विकृति नहीं मिलेगी. पक्षपात नहीं होगा. दृष्टि दोष नहीं मिलेगा. परम सत्य का प्रकाश जब जीवन में आ जाता है तो वह व्यक्ति कभी गलत नहीं बोलेगा. गलत आचरण नहीं करेगा. उसके जीवन में पूर्ण परिवर्तन आ जायेगा, जैसे उपचार के बाद आरोग्यता सहज में ही आ जाती है. यदि मकान में प्रकाश हो या उसके दरवाजे खिड़कियां मजबूती से बन्द हो या चौकीदार जागता हो तो इनमें से किसी भी अवस्था के होने पर मकान में जिस तरह चोर नहीं घुसेगा, उसी तरह यदि आत्मारामभाई के मकान में ज्ञान का प्रकाश हो अथवा विवेक का चौकीदार बैठा हो अथवा इन्द्रिय का दरवाजा बन्द हो तो दुर्विचारों का चोर कभी भी आत्मा रूपी मकान में नहीं घुसेगा. सत्य और प्रामाणिकता : सत्य और प्रामाणिकता एक ही चीज है. जहाँ पर सत्य होगा, वहाँ पर प्रामाणिकता अवश्य मिलेगी और जहाँ पर प्रामाणिकता होगी वहाँ पर सत्य भी प्रतिष्ठित मिलेगा. ये एक ही चीज को समझने के लिए दो नाम है. जीवन में प्रामाणिकता लाने के लिए सदाचार का बल चाहिये. यह Human Nature है, अनादि कालीन संस्कार है. दुराचार मन में घर कर चुका है, जिसे दृढ़ संकल्प शक्ति से ही बाहर निकाला जा सकता है. 'संकल्पात् जायते सिद्धि'- मन दृढ़ संकल्प हो तभी सिद्धि मिलती है. हमें अपने चरित्र को बनाना है. 'प्राणभूत चारित्रस्य परब्रह्मैक कारकं ' हमारे यहाँ चारित्र को प्राण माना गया है. अपने चरित्र का दुराचार से रक्षण करना है, 'श्रेयम् ते मरणं भवे'- प्राण का मूल्य चुका कर भी सदाचार का रक्षण करना है. सदाचार ही जीवन का बल है चारित्र का बल है. अहमदाबाद के अन्दर हमारे एक श्रावक थे. एक मकान उन्होंने किसी कारणवश खरीदा. श्रावक ने मकान नया बनवाने का विचार किया. पुराने मकान की नींव दुबारा खुदवाई तो उस श्रावक को उसके अन्दर गड़ा धन मिला. पुराने जमाने में सेल्फ डिपोजिट था नहीं. लोग जमीन के अन्दर दबाकर सम्पत्ति को सुरक्षित रखते थे. मकान एक के बाद एक कई हाथों में बिकने के बाद श्रावक ने एक मुसलमान से खरीदा था. श्रावक का आचरण कितना प्रामाणिक कि तुरन्त सारा धन लेकर पुराने मकान मालिक के पास गया और धन स्वीकार करने के लिए उससे प्रार्थना की. उस समय के लोगों का आचरण बड़ा प्रामाणिक होता था. उस मुसलमान ने सम्पत्ति को लेने से इन्कार कर दिया- मैं पच्चीस वर्षों तक उस मकान में रहा हूँ. खुदा की इच्छा के आगे में दखल नहीं दूंगा. जब मैंने मकान बेच दिया है तो वहाँ की किसी भी वस्तु For Private And Personal Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २८ जीवन दृष्टि पर मेरा अधिकार नहीं. इसको हाथ लगाना भी मेरे लिए जहर समान है, आखिर बात नगर सेठ तक पहुंची. पंचों को निर्णय लेना पड़ा कि ये सारा धन परोपकारी कार्यों के लिए उपयोग किया जाये क्यों कि दोनों ही व्यक्ति उस सम्पत्ति को रखने के लिए तैयार नहीं थे. जिस दिन हम इतने प्रामाणिक बन जायेंगे उस दिन स्वयं ही सद्गति प्राप्त कर लेंगे. फिर आपको किसी प्रवचन की जरुरत नहीं पड़ेगी. चारित्र का प्राण सदाचार : हमारे इतिहास में चरित्र व सदाचार की प्रधानता के उदाहरण भरे पड़े हैं. स्वामी रामकृष्ण जब काली के उपासक बन गये तो उनका दृष्टिकोण भी बदल गया, हर स्त्री को मां के रूप में देखने लगे. यहाँ तक कि अपनी पत्नी को भी मां का संबोधन दिया. मां के नाम में ही ऐसी शक्ति है कि वह दुर्विचारों के सारे परमाणुओं को नष्ट कर दे. संत सूरदास को भी एक बार नेत्र विकार उत्पन्न हुआ. विकार को देखकर उनकी उपासिका ने कहा-आपके लिए मैं सब कुछ कर सकती हूँ. भोग पिपासा शांत कर सकती हूँ. चाहे इसके लिए मुझे नर्क में ही क्यों न जाना पड़े. पतन के गर्त में भी आपके लिए पहुँचना स्वीकार्य है. उसके इतना कहते ही संत को चेतना हुई, सारा विकार दूर हो गया. प्रायश्चित में उन्होंने अपनी दोनों आंखे फोड़ ली कि आज से मुझे इस जगत को देखना ही नहीं है. देखना है तो मात्र जगत्पति को अपनी मन की आंखों से देखूगा. यह चरित्र का ही बल था, ब्रह्मचर्य का ही प्रभाव था कि हनुमान लंका पहुंच गये. जब सीता के सामने हाथ जोड़ कर खड़े हुए और कहा-माता आप मेरी पीठ पर बैठ जाइये. भगवान् राम की कृपा से मैं अभी आपको ले चलता हूँ. सीता ने जवाब में कह दिया- हनुमान आज तक मैंने अपनी इच्छा से कभी भी पर-पुरुष का स्पर्श नहीं किया. यह मेरे लिए असंभव है. स्वामी विवेकानन्द को भी प्रलोभन मिला, लेक्चर के बाद एक अमेरिकन लेडी ने उनसे प्रभावित होकर विवाह का प्रस्ताव रखा. उन्होंने तुरन्त संभल कर कहा-मैं परमेश्वर से प्रार्थना करता हूँ कि अगले जन्म में मैं आपको मां के रूप में पा सकू. इस शब्द में ही इतना चमत्कार था कि उस अमेरिकन लेडी का सारा विकार दूर हो गया, आगे चलकर वही औरत उनकी परम शिष्या बनी. ब्रह्मचर्य तप का प्रभाव : आचार्य हेमचन्द्रसूरि के शिष्य गुजरात के राजा कुमारपाल पौषधव्रत में बैठे थे. मुसलमान बादशाह को मालूम पड़ा तो हमला करने के लिए सेना लेकर आ पहुंचा और पाटन को चारों ओर से घेर लिया. सम्राट् कुमारपाल ने आचार्य हेमचन्द्रसूरि से निवेदन किया- भगवन्, कहीं धर्म की निंदा न हो जाय. जिन शासन की अपभ्राजना न हो जाय. लोग कहीं ऐसा न कहे For Private And Personal Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सत्य सदाचार कि राजा बड़ा धर्मात्मा बना फिरता था. व्रत नियम लेकर पूरे गुजरात को लूटा बैठा. भगवन्, मेरी प्रतिज्ञा को लोग मेरी कमजोरी न समझ लें. कहीं इससे धर्म की मर्यादा नष्ट न हो जाये. __ आचार्य हेमचन्द्रसूरि ने कहा- तुमको नियम मैंने दिया है, अब मुझे देखना है कि मैंने जो नियम दिया, उसका पालन कैसे कराना है? प्रचण्ड शक्ति के स्वामी आचार्य हेमचन्द्रसूरि ने अर्द्ध रात्रि के समय अपनी शक्ति का स्मरण किया और उस मुसलमान सेनापति को जो पाटण के बाहर घेरा डालकर अपने पड़ाव में सो रहा था, सोये-सोये पलंग सहित उठवाकर मंगा लिया. आज भी कई ऐसे योगी पुरुष मौजूद है. कुछ मेरे परिचय में भी हैं पर वे अपनी योग शक्ति का सार्वजनिक प्रदर्शन नहीं करते. मुसलमान सेनापति को जब पलंग सहित मंगवा लिया तो प्रातः काल दर्शन करने आये कुमारपाल को आचार्य भगवन्त ने कहा-राजन्, अपने राजमहल में जाकर देखो. तुम्हारा महेमान आया हुआ है. कुमारपाल महाराज राजमहल में गये, हाथ में नंगी तलवार थी और उधर सेनापति की आंख खुली. सेनापति ने देखा-स्वयं सम्राट कुमारपाल हाथ में तलवार लेकर उसके सिर पर खड़े हैं. उसने पूछा- यह स्वप्न है कि सत्य? उत्तर मिलायह सत्य है, स्वप्न नहीं. यह मौत तेरे सिर पर खड़ी है. भयभीत सेनापति ने उसी समय अपने कुरान और खुदा की कसम खाई-अब कभी गुजरात की तरफ आंख उठा कर भी नहीं देगा. ये मेरा वचन है. कुमारपाल ने वचन लेकर उसे माफ कर दिया और कहा-जब तक हेमचन्द्रसूरि जैसे महान आचार्य जीवित है, कुमारपाल जिन्दा है तब तक गुजरात की तरफ भूल से भी आंख उठाकर मत देखना. ये गर्जना, ये शक्ति आई कहाँ से? ये सब उसी सदाचार और ब्रह्मचर्य तप का प्रभाव था. आज स्थिति यह है कि सारा दिन माला फेरते निकल जाता है. सारी उम्र निकल जाती है फिर भी कुछ उपार्जन नहीं? कारण-आपके शब्द में प्राण ही नहीं होता. शब्दों में शक्ति ही नहीं रही जो देवताओं को आमन्त्रण दे सके. याद रखना आपकी योग्यता देखकर ही देवता आमन्त्रण स्वीकार करेंगे. आपमें सदाचार का बल होगा, संयम का तप होगा, योग्यता होगी, पुण्य बल होगा तभी आपका आमन्त्रण स्वीकार होगा. नहीं तो सारी जिन्दगी निकल जाय, आपका आमन्त्रण स्वीकार नहीं होगा. सदाचार का बल : राम की रामायण हम पढ़ते हैं किन्तु आदर्श ग्रहण करने को रूचि कभी नहीं हुई. राम ने सीता हरण होने पर लक्ष्मण से रास्ते में गिरे हुए आभूषणों को देखकर पूछा कि क्या ये सीता के आभूषण हैं? तो लक्ष्मण ने क्या कहा? उसने कहा- भाई, मैं तो माता सीता की चरण वन्दना प्रतिदिन करता हूँ इसीलिए नूपुर तो पहचान सकता हूँ पर शेष शरीर की ओर मेरा ध्यान कभी नहीं गया. अतः मैं अन्य आभूषणों को नहीं पहचान सकता. कहाँ गई हमारी वह नैतीकता, कहाँ गया वह सदाचार, वह सत्यनिष्ठता, वह प्रामाणिकता? For Private And Personal Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३० जीवन दृष्टि दुनियाँ में सदाचार को ही जीवित माना गया है. दुराचारी तो सिर्फ हाड़-मांस का पुतला है, मृत है. मेरा प्रवचन भी सदाचारी आत्माओं के लिए है न कि मुर्दो के लिए. अमेरिका में स्वामी विवेकानन्द से पत्रकारों ने पूछा-हमारे लिए क्या लाये? उन्होंने एक ही जवाब दिया. - I will boost upon a society like bomb and society will follow me likeadog. मैं तुम्हारे लिए वह सत्य विचार लेकर आया हूँ जो तुम्हारे समाज पर बम की तरह फटेंगे और उस सत्य को जानकर तुम्हारा समाज मेरे पीछे पीछे कुत्ते की तरह पूँछ हिलाता हुआ आयेगा. ये एक गुलाम देश के आजाद संन्यासी की वाणी थी. उनके शब्दों में सदाचार का बल था जिसके चिन्तन ने पूरे अमेरिका को हिला दिया. आज उसी अमेरिका ने विवेकानन्द शताब्दी वर्ष मनाया. यह उस गर्जना का प्रभाव था. उनके शब्दों में सदाचार का बल था. स्वामीजी से एक प्रवचन में किसी श्रोता ने प्रश्न किया - आपने हिन्दुस्तानी टोप पहन रखा है किन्तु जूते अमेरिकन पहन रखे हैं. टोप भी अमेरिकन पहन लीजिये और पूरे अमेरिकन बन जाये तो क्या हर्ज है? स्वामीजी ने तुरन्त जवाब दिया- आप क्यों चिन्ता करते है. पांव तो मेरे नौकर हैं और सिर मेरा मालिक है. नौकर यदि कोई अमेरिकन हो जाय तो क्या आपत्ति है. मालिक तो इन्डियन ही है, इन्डियन ही रहेगा. यह ताकत, यह गर्जना स्वामीजी में आई कहाँ से? अपनी संस्कृति से, अपने धर्म के प्रेम . For Private And Personal Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जीवन में सदाचार मन की निर्मलता : प्रभु महावीर ने प्रवचनों के माध्यम से मोक्षमार्ग का परिचय दिया है. बताया है कि जीवन की पूर्णता का साधन मन की निर्मलता है. __ लालटेन की लौ से प्रकाश होता है, परन्तु चिमनी (काँच की हंडिया) यदि धुएं से काली हो चुकी हो तो लौ को आप कितनी भी तेज कर दें, वह वस्तुएं दिखाने में समर्थ नहीं होगी. इसी प्रकार आत्मा में ज्ञान की लौ है-अनन्त प्रकाश है, परन्तु मन की चिमनी पर विषय-कषाय का धुआँ है-कर्मों की कालिमा है, इसलिए वह मुक्तिमार्ग दिखाने में असमर्थ है. मन की निर्मलता के तीन साधन हैं- सत्य, सदाचार और समर्पण. सत्य धर्म का जनक है, क्योंकि उसी से हमें वास्तविकता व कर्तव्य का बोध होता है. सदाचार धर्म का पोषक है, क्योंकि सदाचारी का ही लोग अनुसरण करते हैं, कोरे उपदेशक का नहीं तीसरा साधन है- समर्पण, जो अहंकार को नष्ट करके हमें विनीत बनाता है. इन तीनों में सदाचार का महत्त्व सबसे अधिक है.आज इसी पर विशेष विचार करेंगे. आचार्य उमास्वातिने अपने सुप्रसिद्ध ग्रन्थ तत्त्वार्थ सूत्र में “सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्राणि मोक्षमार्गः।।" [सम्यग्दर्शन, सम्यग, ज्ञान और सम्यक् चारित्र- ये तीनों मोक्षमार्ग हैं.] ऐसा लिखकर चारित्र की महत्ता को प्रतिपादित किया है. वह चारित्र ही सदाचार है. जिस देश में सदाचार का अभाव होता है, वह कभी विकास नहीं कर सकता-उन्नत नहीं हो सकता-आगे नहीं बढ़ सकता. चारित्र का महत्त्व : किसी इंग्लिश विचारक ने ठीक ही लिखा है - "यदि धन गया तो कुछ नहीं गया, स्वास्थ्य गया तो कुछ गया और चरित्र गया तो सब कुछ गया! सदाचार जीवन की आधार शिला है. यदि वह कमजोर रही तो उस पर जीवन की इमारत खड़ी नहीं रह सकेगी. यदि खड़ी रही भी तो चिरस्थायी नहीं हो सकेगी. प्राचीन काल के सदाचारी मनुष्यों की तुलना में वर्तमान काल के मनुष्यों का व्यवहार देखने पर हमें बहुत निराश होना पड़ता है. वर्तमान के आधार पर ही अपना भविष्य बनता है, इसलिए वर्तमान यदि दूषित है तो भविष्य उज्ज्वल कैसे हो सकता है? व्यक्ति से ही समाज बनता है. यदि व्यक्ति दुराचारी है तो समाज कैसे सदाचारी हो सकता है? For Private And Personal Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३२ जीवन दृष्टि महात्मा गांधी देश में रामराज्य स्थापित करना चाहते थे. क्यों? इसलिए कि रामचन्द्रजी पुरुषोत्तम थे - नैतिकता के पोषक थे - सदाचार के प्रतीक थे. __ आचार्य हेमचन्द्रसूरिने लिखा है- "रामायण का ग्रन्थ घर-घर में होना चाहिये. उसका पारायण होना चाहिये." उनकी मान्यता थी कि रामायण के माध्यम से प्राप्त श्री राम के आदर्श जीवन का परिचय कभी न कभी हमारे जीवन को भी अवश्य परिवर्तित करेगा. प्राचीन काल में विश्रान्ति के समय माताएँ अपने बच्चों को रामायण के आधार पर छोटीछोटी कहानियां सुनाती थीं. उनसे बच्चों को आदर्श की, नैतिकता की, सदाचार की प्रेरणा मिलती थी. बड़े होने पर उनका जीवन संस्कारों की सुगन्ध से महक उठता था. आज वैसा नहीं है, फलस्वरूप बालक बड़े होकर अभिभावकों के लिए सिरदर्द बन जाते हैं. यह घर-घर की कहानी है, किसी एक घर की नहीं. मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम का चरित्र : पिता की आज्ञा का पालन करने के लिए राजपाट का त्याग करके श्रीराम ने वनवास स्वीकार किया. उनके मन में ऐसा विचार नहीं आया कि मैं बड़ा भाई हूँ. इसलिए परम्परा के अनुसार राज्य पर मेरा अधिकार है, यह मेरी प्रतिष्ठा का प्रश्न है, किसी भी तरह मुझे अपना अधिकार नहीं खोना चाहिये.... ___ यदि यही प्रसंग आज किसी घर में उपस्थित हो तो बेटा बापको सुप्रीम कोर्ट तक ले जायेगा. वकीलों और बैरिस्टरों की फौज खड़ी कर देगा! अपना अधिकार पाने के लिए पानी की तरह पैसा बहा देगा. दशरथ का सदाचार देखिये, श्रीराम के लिए उन्होंने प्राण त्याग दिये परन्तु वचन के लिए श्रीराम को भी त्याग दिया. आज भी यह चौपाई उनकी याद दिलाती है. "रघुकुल रीति सदा चलि आई। प्राण जाई पर वचन न जाई ।।" आज तो वचन का कोई मूल्य ही नहीं रहा. वोट पाने के लिए आम चुनाव के समय जनता को वचन पर वचन दिये जाते हैं, किन्तु कुर्सी पर बैठते ही सब भूल जाते हैं. श्रीराम का भ्रातृ प्रेम देखिये, वनवास की अवधि समाप्त होने पर वे हनुमान को अयोध्या भेजते हैं - यह जानने के लिए कि मेरे लौटने पर कहीं अधिकार छिन जाने से भाई भरत को दुख तो नहीं होगा. यदि ऐसा तनिक भी आभास हो तो मैं दुबारा वन में लौट जाऊँ. आदेशानुसार हनुमान अयोध्या जाकर लौट आते हैं और श्रीराम से कहते हैं - "आपके शुभागमन For Private And Personal Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जीवन में सदाचार ३३ का समाचार सुनकर हर्ष के आंसुओं से भरतजी के कपोल भीग गये. वे इस तरह नाचने लगें, मानों उन्हें कोई रत्नों का खजाना मिलने वाला हो?" यह सुनकर श्रीराम सन्तुष्ट हुए, उन्होंने भरतजी को प्रसन्न करने के लिए अयोध्या लौटने का निश्चय कर लिया. आज क्या दशा है? पिता की मृत्यु के बाद भाइयों में सम्पत्ति के बँटवारे का झगड़ा शुरू हो जाता है, मुकदमेबाजी शुरु हो जाती है और अड़ोसी-पड़ोसी भी उन्हें एक-दूसरे के विरुद्ध भड़काकर तमाशा देखने लगते हैं. सदाचार पथ्य है : सदाचार का पोषण करने के लिए प्राचीन काल में लोग धर्म शास्त्रों का स्वाध्याय करते थे. भजन गाते थे. प्रार्थना या स्तुति करते थे, परन्तु आजकल क्या करते हैं? सुबह उठते ही रेडियो से या टेपरेकार्डप्लेयर से फिल्मी गाने सुनते हैं, जो कानों के द्वारा मन को मीठे जहर से भिगोते हैं. फलस्वरूप जीवन सदाचारी न बन कर व्यभिचारी या बलात्कारी बन जाता है, हम जानते हैं कि पथ्य का पालन न किया जाय तो कोई भी औषध रोगी को निरोगी नहीं बनता सकती.धार्मिक क्रियाकांड औषध के समान हैं और सदाचार पथ्य के समान है. सदाचार के साथ किये गये धार्मिक क्रियाकाण्ड ही मन को स्वस्थ या निर्मल बनाते हैं. प्राचीन शास्त्र कहते हैं : “यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते । रमन्ते तत्र देवताः।" [जहाँ नारियों का समामन होता है वहाँ देवता रमण, करते हैं.] धर्मशास्त्र की यह वात आज कहाँ है? यहाँ तो पद-पद पर नारी जाति का अपमान होता है. उसे भोग सामग्री माना जाता है. उसे 'पैरों की जूती' कहा जाता है. हम राम और लक्ष्मण की चर्चा करते हैं, परन्तु चरित्र हमारा रावण से भी बुरा बन कर रह गया है. रामायण में लक्ष्मण का चरित्र : शील धर्म का आदर्श देखना हो तो लक्ष्मण के चरित्र में देखिये. अपहृत सीता के प्राप्त अलंकारों को पहचानने का आदेश पाते ही लक्ष्मण श्रीराम से कहते हैं : नाहं जानामि केयूरे, नाहं जानामि कुण्डले । नूपुरे त्वभिजानामि, नित्यं पादाभिवन्दनात् ।। भाईसाहब! मैं बाजूबन्दों को नहीं जानता (क्योंकि कभी उनके सुन्दर हाथों को-भुजाओं को For Private And Personal Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org जीवन दृष्टि ३४ देखा नहीं) उनके कुण्डलों को नहीं जानता ( क्योंकि कभी मैंने भाभीजी के मुखारविन्द को देखा ही नहीं) केवल नूपुरों को पहचानता हूँ, क्योंकि उनके चरणों में प्रतिदिन मैं प्रणाम करता रहा हूँ ! ऐसा महान् आदर्श जिसके जीवन में हो, वह मनुष्य नहीं, देव है, बल्कि देवों से भी वन्दनीय है. दशवैकालिकसूत्र में कहा गया है : “देवावि तं नमंसंति, जस्स धम्मे सया मणो । " Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ जिसका मन सदा धर्म में रहता है, उसे देव भी नमस्कार करते हैं . ] जीवन में सदाचार का स्थान : डॉक्टर रोगी की जाँच करता है और देखता है कि हार्ट बराबर काम कर रहा है तो कह देगा - " चिन्ता की कोई बात नहीं रोगी ठीक हो जायेगा.” 66 यदि उसे पता चल जाय कि हार्ट में गड़बड़ है तो कहेगा- “ इस रोगी पर विशेष ध्यान रखना है. पता नहीं, कब चल बसे. ' 77 शरीर में जो स्थान हार्ट का है, जीवन में वही स्थान सदाचार का है. वही मानसिक निर्मलता का आधार है - आत्मा की तृप्ति का साधन है. वही आन्तरिक शक्ति है. बहुत से लोग टॉकिज में या टी. वी. के सामने परिवार के साथ बैठकर नाचगान या मारधाड़ से भरी हुई फिल्में देखते हैं. क्या सीखते हैं वहाँ 'काम' का आदर्श या श्रीराम का आदर्श ? तुलसीदास ने लिखा है “ जहाँ काम तहाँ राम नहिं, जहाँ राम नहिं काम । " हमारा कामुक दृष्टि हृदय के राम को नष्ट कर देती है. वहाँ पतन ही पतन है, उत्थान नहीं.: ध्येय क्या है - उत्थान या पतन ? पुण्यस्य फलमिच्छन्ति । पुण्यं नेच्छन्ति मानवाः । । पापस्य फलं नेच्छन्ति । पापं कुर्वन्ति यत्नतः । । इस प्रश्न पर यदि जनमत संग्रह किया जाय तो पतन के पक्ष में एक भी मत नहीं पड़ेगा. शत प्रतिशत मत उत्थान के पक्ष में पड़ेंगे, क्योंकि पतन के मार्ग पर चल कर भी लोग इच्छा उत्थान की ही रखते हैं [मनुष्य पुण्य का फल (सुख) तो चाहते हैं, परन्तु पुण्य (परोपकार) करना नहीं चाहते. इससे विपरीत पाप का फल नहीं चाहते, परन्तु सावधानी पूर्वक पाप करते रहते हैं . ] For Private And Personal Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ३५ जीवन में सदाचार कैसी विचित्र बात है. जाना चाहते हैं पूर्व दिशा में, परन्तु दौड़ रहे हैं पश्चिम दिशा की ओर ! "चित्तभित्तिं न निज्झाए । नारं वा सुअलंकियं । ।” यदि आप अपनी आत्मा का उत्थान करना चाहते हैं तो उपदेश या आदेश नहीं, एक छोटीसी सलाह आपको मैं देना चाहूँगा. जो लोग पचास वर्ष की अवस्था पार कर चुके हैं, वे पापमन्दिर के अन्दर प्रवेश न करने का सुदृढ़ संकल्प कर लें. प्रभु महावीर फरमाते हैं -- Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ अच्छी तरह से अलंकृत नारी का चित्र यदि दीवाल पर भी बना हो तो उसे नहीं देखना चाहिये.] मन में जब काम विकार जन्म लेता है तब वह विचार को नष्ट कर देता है- धर्म को धूल में मिला देता है- साधना का सत्यानाश कर देता है. यदि किसी तरह ऐसे प्रसंग पर विवेक जागृत हो जाय तो उद्धार भी हो सकता है. साधना की सुरक्षा भी हो सकती है. एक युवक प्रव्रजित होकर किसी पर्वत की गुफा में ध्यान कर रहा था. उसी समय राजकुमारी जीती भी प्रव्रज्या ग्रहण करने के बाद ध्यान करने के लिए उसी गुफा में आ पहुंची. आकाश में छाये मेघों के कारण अन्धकार सा छाया हुआ था. साध्वी राजीमती ने बरसात से भीगे वस्त्र सुखाने के लिए बाहर चट्टान पर डाल दिये थे, इसलिए निर्वस्त्र देह से ही गुफा में प्रवेश किया. उसे पता नहीं था कि पहले से एक युवक साधु वहाँ उपस्थित है. साधु की नजर साध्वी के शरीर पर पड़ी. मन में विकार जागृत हुआ. उसने भोगयाचना प्रस्तुत की. साध्वी चौंक पड़ी उसने झटपट गीले वस्त्रों से ही अपना तन ढंक लिया और फिर युवक साधु को प्रतिबोध दिया धिरत्थु तेऽजसोकामी, जो तं जीविय कारणा । वं तं इच्छसि आवेउं, सेयं ते मरणं भवे ।। [तुझ अपयश के इच्छुक को धिक्कार है, जो काम जीवन की प्राप्ति के लिए वमन को चाटने की चाह करता है. इस (वमन को चाटने) की अपेक्षा तो मर जाना तेरे लिए अधिक श्रेयस्कर है.] शास्त्रकार कहते हैं कि इस कठोर बात को सुनकर युवक साधु सँभल गया : तीसे सो वयणं सोच्चा । संजयाए सुभासियं । । अंकुसे जहा नागो । धम् पडिवाइओ ।। [ उस साध्वी के उस सुभाषित वचन को सुनकर अंकुश से हाथी के समान वह साधु धर्म For Private And Personal Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३६ जीवन दृष्टि में पुनः स्थिर हुआ] साध्वी ने ठीक समय पर ठीक वचन कह कर पतन से अपनी भी रक्षा की और उस साधु की भी. इस घटना के बाद वह युवक साधु भगवान नेमिनाथ के समीप गया. वहाँ तन से नहीं, किन्तु वचन और मन से किये गये अपने पाप की आलोचना की और उचित प्रायश्चित्त लेकर अपनी आत्म-शुद्धि की. इससे विपरीत यदि कोई स्त्री युवक साधु से भोगयाचना करे तो इसे अनुकूल परिषह कहा जाता है. उस परिस्थिति में साधु को क्या करना चाहिये? इस प्रश्न के उत्तर में चौदह पूर्व भवों के ज्ञाता श्रीभद्रबाहुस्वामी ने कहाः - "पहले तो समझाना चाहिये. उससे काम न चले तो झूठ बोल कर (जैसे - “मैं नपुंसक हूँ" ऐसा कह कर) उसे विरत करना चाहिये, जब उससे भी काम न चले तो आत्महत्या करके भी अपने चरित्र की रक्षा करनी चाहिये. किन्तु वह सबसे अन्तिम उपाय है.” वरित्र की रक्षा के लिए मृत्यु का स्वागत करने की बात कही गई है, इससे आप अनुमान लगा सकते हैं कि चरित्र का जीवन में कितना महत्त्वपूर्ण स्थान है. आधुनिक युग में भी दयानन्द सरस्वती, स्वामी विवेकानन्द आदि के जीवन चरित्र से परिपूर्ण रहे हैं - सदाचार से सुगन्धित रहे हैं. चरित्र आत्मा का प्राण : आचार्य हेमचन्द्रसूरि की दृष्टि में चरित्र आत्मा का प्राण है, प्राण चले जाय, तो शरीर का कोई महत्त्व नहीं रहता, उसी प्रकार चरित्रहीन आत्मा भी महत्त्वहीन हो जाती है. चरित्र को खोकर कोई आत्मा को पा नहीं सकता. चरित्र की रक्षा के ही लिए सारे यम-नियम निर्धारित किये गये हैं. सड़े हुए कान के कुत्ते का जिस प्रकार सर्वत्र अपमान होता है, दुराचारी मनुष्य का भी सर्वत्र उसी प्रकार अपमान होता है. शहजादी का ज्ञान : दिल्ली के बादशाह अकबर की शहजादी किसी बुजुर्ग मौलवी से पढ़ती थी. पढ़ाई में लापरवाही से उदास होकर मौलवी ने एक दिन कहा - "बेटी! तुम बराबर पाठ याद नहीं करती, आज मुझे तुम्हारी शिकायत बादशाह से करनी पड़ेगी." शहजादी को शहंशाह की बेटी होने का गुरुर था. वह भला क्यों किसी के दबाव में आती? बोल पड़ी - “आप मुझे क्या पढ़ायेंगे? मैं तो पढ़ने के बहाने आपको वेतन दिलवाने का अहसान आप पर कर रही हूँ, अन्यथा मैं तो खुदा के घर से ही नौ लाख चरित्र सीख कर आई हूँ. For Private And Personal Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org जीवन में सदाचार ३७ यदि मैं चाहूँ तो आपको सूली पर चढ़वा सकती हूँ और चाहूँ तो सिंहासन पर बिठा सकती हूँ, यह सब मेरे बाएँ हाथ का खेल है." मौलवी बोले - " बड़ों के सामने इस तरह बेअदबी नहीं करते छोटे मुँह बड़ी बात नहीं करते. यदि तुम ऐसा कर सकती हो तो भी अपने मुँह मियाँ मिट्टू तुम्हें नहीं बनना चाहिये.” शहजादी को मौलवी की यह नसीहत बहुत कड़वी लगी. नीतिकार कहते हैं उपदेशो हि मूर्खाणां, प्रकोपाय न शान्तये । पयः पानं भुजंगानां केवलं विषवर्धनम् ।। Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [मूर्खों को उपदेश दिया जाय तो इससे उनका गुस्सा बढ़ता है, शान्त नहीं होता. साँपों को दूध पिलाने से केवल उनका जहर ही बढ़ता है . ] शहजादी उस समय तो कुछ नहीं बोली, परन्तु मौलवी साहब को मौका आने पर मजा चखाने का उसने मन ही मन निश्चय कर लिया. - गर्मी के दिन थे, इसलिए एक बगीचे में पढ़ाई चलती थी. एक दिन बादशाह सलामत भी घूमते हुए उसी बगीचे में तशरीफ लाये. शहजादी ने सोचा कि आज अच्छा मौका है. क्यों न आज ही मैं अपना करिश्मा बता दूँ? उसने बाल बिखेर दिये, चोली फाड़ दी और जोरों से चिल्लाहट की "हाथ मत डालियो, हाथ मत डालियो, हाथ मत डालियो !” चिल्लाहट सुनते ही बादशाह दौड़कर शहजादी के निकट पहुंचते हैं, तब तक वह बेहोश होकर गिर पड़ती है. बादशाह अपनी बेटी की दुर्दशा देखकर समझते हैं कि इस मौलवी ने ही कोई छेड़-छाड़ की होगी. आगबबूला होकर वे अपने सिपाहियों को आदेश देते हैं कि इस मौलवी को सूली पर चढ़ा दो सिपाही मौलवी को पकड़ कर ले जाते हैं. मौलवी हैरान परेशान. उन्हें कुछ समझ में नहीं आया कि यह सब क्या हो रहा है. इधर शाहजादी को होश में लाने के लिए चेहरे पर ठंडा पानी छांटा गया, वह तो होश में ही थी, बेहोशी का अभिनय कर रही थी. सुप्त को जगाना सरल है, परन्तु जागृत को जगाना बहुत कठिन है, अज्ञानी को समझाया जा सकता है, ज्ञानी को और भी जल्दी समझाया जा सकता है, परन्तु अधूरे ज्ञान का घमण्ड करने वाले को समझाना अत्यन्त कठिन होता है : अज्ञः सुखमाराध्यः सुखतरमाराध्यते विशेषज्ञः । ज्ञानलवदुर्विदग्धं, ब्रह्मापि तं नरं न रंजयति । । [ अज्ञ को आसानी से समझाया जा सकता है, विशेषज्ञ को और भी अधिक आसानी से समझाया जा सकता है; परन्तु थोड़े से ज्ञान को पाकर जो अपने को बहुत बड़ा ज्ञानी मान For Private And Personal Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३८ जीवन दृष्टि बैठता है, उसे स्वयं ब्रह्मा भी नहीं समझा सकता.] यदि कोई सचमुच ज्ञान पाना चाहता है- किसी से कुछ सीखना चाहता है तो उसे अपने मन का खाली लोटा लेकर वहाँ पहुंचना चाहिये. जो लोटा पहले से भरा है, उसे और नहीं भरा जा सकता. खाली (कोरे) कागज पर ही चित्र बनाया जा सकता है. जिस कागज पर पहले से चित्र बना हुआ है. उस चित्र पर चित्र नहीं बनाया जा सकता. यहाँ भी उस शहजादी को होश में लाने का प्रयास किया जा रहा था, जो पहले से होश में थी. जब उसने सुन लिया कि मौलवी साहब को सूली पर चढ़ाने के लिए सिपाही ले जा चुके हैं तब उसने बेहोशी से होश में आने का अभिनय किया. धीरे से वह उठ बैठी. आँखे खोलते ही उसने पूछा - "मौलवी साहब कहाँ हैं पिताजी!" बादशाह - "तुम्हारी इज्जत लूटने की कोशिश करने वाले उस नालायक को सजाए-मौत दे दी गई. आदमी उसे सूली पर चढ़ाने ले गये हैं." शाहजादी बोली-अरे पिताजी! गज़ब हो गया-बहुत गलत हो गया. मौलवी साहब तो बड़े उपकारी हैं. एक साँप मेरी ओर आ रहा था. बहुत काला और लम्बा था वह मैं तो एकदम घबराहट में पड़ गई. मौलवी साहब ने अपनी जान जोखिम में डालकर उस साँप को पकड़ लिया और बाहर फेंक दिया. जब वे पकड़ने की कोशिश कर रहे थे, तभी मैं चिल्लाई - हाथ मत डालियो! हाथ मत डालियो! परन्तु मेरी चिल्लाहट पर ध्यान न देकर उन्होंने मनमानी की और मेरी जान बचाई. वे पुरस्कार के पात्र हैं, दण्ड के नहीं." वादशाह ने तत्काल सैनिकों को भेजकर बड़े सन्मान के साथ मौलवी साहव को वापस अपने सामने बुलाया. बेइज्जती के लिए उनसे माफी मांगी और एक जागीर इनाम में दे दी और साथ ही कहा कि - आपने मेरी बच्ची की जान बचाकर मुझ पर जो एहसान किया है, उसके लिए मैं आपका जीवन भर आभारी रहूँगा. दूसरे दिन शहजादी ने मौलवी साहव से कहा - “नौ लाख चरित्रों में से एक ही आपको बताया है. कहिये तो कुछ और भी बताऊँ!" मौलवी साहब बोले - “खुदा की मेहरवानी से मैं बच गया. एक ही करिश्मा काफी है. इसी ने मुझे सावधान कर दिया है. अब और दूसरे करिश्मों को दिखाने की जरूरत नहीं." मौलवी साहब तो सावधान हो गये; हमें भी सावधान रहना है. सदाचार की चादर पर लगा हुआ एक भी दाग जीवन-भर खटकता रहता है; क्योंकि वह अमिट होता है. सदाचार के प्रति की गई जरा-सी असावधानी, थोड़ी-सी शिथिलता, तनिक-सी भूल जी का जंजाल बन जाती है- सारी प्रतिष्ठा को धूल में मिला देती है। इसीलिए प्रभु महावीर बार-बार कहते हैं : For Private And Personal Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org जीवन में सदाचार समयं गोयम ! मा पमायए ।। [ हे गौतम! तू क्षण-भर का भी प्रमाद मत कर ] सभ्यता का निमित्त: सदाचार Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्वामी विवेकानन्द की साधारण सी पोशाक देखकर अमेरिका में कुछ लोग हंसने लगे. स्वामीजी समझ गये. उन्होंने कहा - "आपके देश में सभ्यता का निर्माता दर्जी है; परन्तु मैं जिस देश से आया हूँ, वहाँ सभ्यता का निर्माता सदाचार है !” ३९ यह सुनकर हंसने वाले गंभीर हो गये. जब पत्रकारों ने उनसे पूछा कि आप हमारे लिए क्या लाये हैं, तब उन्होंने कहा- "मैं तुम्हारे समाज पर एक बम का विस्फोट करूँगा और तुम्हारा समाज कुत्तों की तरह मेरा अनुसरण करेगा.” उनके भीतर सदाचार का जो तेज था वह ज्ञान का जो प्रकाश था, उसी से वे ऐसी बात कह सके. उनकी यह बात ठीक भी निकली. देहावसान के सौ वर्ष बाद अमेरिका की सरकार ने शताब्दी मनाई उनकी. - वह एक ही संन्यासी था, जो भारतीय संस्कृति का डंका बजाकर अमेरिका से लौटा. जाने को तो और भी कई लोग यहाँ से गये कुछ हवाई जहाज में, कुछ हेलीकॉप्टर में और कुछ जलयान में; परन्तु सब ऐश्वर्य बटोरकर - भौतिक सुख भोग कर लौट आये. विवेकानन्द ही थे, जो सिंह गर्जना करके - अमेरिकनों का हृदय जीत कर उन्हें प्रभावित करके लौटे. कारण क्या था? उनका सदाचारी जीवन. सद्विचार की अपेक्षा सदाचार का अधिक प्रभाव पड़ता है. कफेलर नामक बहुत बड़ा उद्योगपति एक बार स्वामी विवेकानन्द के पास आया. स्वामीजी ने पूछा "मुझसे क्या काम है?" वह बोला - " मैं आपसे मार्गदर्शन प्राप्त करने आया हूँ !” “पहले आप कुछ त्याग करके आइये; फिर मार्गदर्शन दूंगा." स्वामीजी ने कहा. वह लौट गया . त्याग की योजना बनाई तैंतीस करोड़ डालर की निधि का दान करके “ राकफेलर फाउण्डेशन" की स्थापना की. इस फाउण्डेशन के माध्यम से निर्धन छात्र-छात्राओं के लिए अध्यापन की निःशुल्क व्यवस्था की गई. इसके अतिरिक्त छोटे-छोटे अविकसित देशों की विकास योजनाओं को पूरा करने के लिए भी आर्थिक सहायता इस फण्ड से पहुंचाइ जाने लगी. For Private And Personal Use Only यह सब करने के बाद पुनः वह स्वामीजी के पास लौट आया, उसे अपने त्याग का घमंड था. वह शब्दों से प्रकट भी हो गया, बोला : “मैंने आपकी इच्छा के अनुसार परोपकार के लिए इतना बड़ा फाउण्डेशन बनाया. इतना बड़ा त्याग किया, इसके लिए आप मुझे आशीर्वाद दीजिये और धन्यवाद भी .” Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जीवन दृष्टि स्वामीजी बोले - “मैं क्यों दूं? आप ही मुझे धन्यवाद दीजिये कि मुझसे आपको जीने का तरीका मालूम हुआ." जो निर्मोह होता है- निःस्वार्थ होता है. आत्मगौरवशाली होता है, वही ऐसा स्पष्ट उत्तर दे सकता है. एक बार एक सुन्दर महिला ने स्वामीजी से आकर कहा- “मुझे आपसे आपके ही समान एक तेजस्वी पुत्र चाहिये. क्या आप मेरी यह इच्छा पूरी नहीं कर सकते?" स्वामीजी ने तत्काल उस महिला के चरण छूकर कहा - "माँ! क्या तू मुझे ही अपना पुत्र नहीं मान सकती?" ऐसा उत्तर वही दे सकता है, जिसके जीवन में सदाचार प्रतिष्ठित हो. पहले युवक पच्चीस वर्ष की अवस्था में ब्रह्मचर्याश्रम के बाद जब गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने के लिए गुरुकुल से बाहर निकलते थे, तब त्यागी गुरुओं की ओर से उन्हें दीक्षान्त भाषण दिया जाता था. “सत्यं वद । धर्म चर । स्वाध्यायान्मा प्रमदः । मातृ-देवो भव । पितृदेवो भव । अतिथिदेवो भव...।" _ [सच बोलो. धर्म का आचरण करो. स्वाध्याय में प्रमाद मत करो. माता को, पिता को और अतिथि को देव समझो...] इन अन्तिम उपदेशों को जीवन में उतारा जाता था. उस समय देश सम्पन्न था, सुखी था, महापुरुषों को, महात्माओं को, तीर्थंकरों को जन्म देता था. यह देश, जहाँ बड़े-बड़े साहित्यकार, नाटककार, कलाकार और महाकवि उत्पन्न हुए, साधारण देश नहीं, तीर्थ भूमि है. पूरा भारतवर्ष एक मन्दिर है. __ आज हमारे पास से सब कुछ लूट चुका है, सत्य के प्राण तो कभी के चले गये, सदाचार भी अन्तिम सांसें ले रहा है, थोड़ा बहुत जिन्दा है भी तो ऑक्सीजन पर. कभी साधु सन्त आ गये, विचारों को प्रेरित कर गये. थोड़े दिन भावना शुद्ध रही. जागृत रही और फिर उसी मूर्छित अवस्था में प्रमाद में चले गये. देश की दुर्दशा देखकर, नैतिकता का पतन देखकर समाज की हालत देखकर भीतर से रोना आता है मैं क्या कहूँ? किससे कहूँ कि लोग जा कहाँ रहें हैं? रामराज्य को आदर्श मानने वाली महावीर का गुणगान करने वाली जनता जा किधर रही है? भाषावाद, प्रान्तवाद, नक्सलवाद, आंतकवाद, समाजवाद, पूंजीवाद आदि न जाने कितने वाद विवाद पैदा हो गये हैं. पहले ज्ञानियों के, धर्म गुरुओं के आशीर्वाद से ही सारे काम हो जाते थे. आशीर्वाद से देश आबाद था, आज विवादों से बर्बाद हो रहा है. रामराज्य स्थापित करने की जो भावना महात्मा गांधी में थी, वह साकार होगी. ऐसा कोई लक्षण नज़र नहीं आता. महावीर स्वामी ने समझाया था कि स्वयं का भी निरीक्षण करो और सर्व का भी. साधना For Private And Personal Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जीवन में सदाचार जब 'स्व' से 'सर्व' तक व्यापक बन जाती है, तब सिद्धि की साधिका बनती है, साध की व्याख्या विद्वानों ने इस प्रकार की है :सानोति स्वपरकार्याणीति साधुः ।। [जो अपना और दूसरों का कार्यकलाप सिद्ध करता है, वह साधु है.] आहार शुद्धि से विचारों में पवित्रता : अपना और दूसरों का कल्याण करने की भावना जिस प्रकार सदाचार का अंग है, उसी प्रकार सात्त्विक भोजन और सात्त्विक वेषभूषा भी सदाचार का अंग है. आहार शुद्धि का विचारों की पवित्रता से सम्बन्ध बताया जाता है : जैसा खाये अन्न, वैसा होवे मन ।। जैसे हम पदार्थ खायेंगे, वैसा ही हमारा मन बनेगा अर्थात् वैसे ही हमारे विचार बनेंगे. इसीलिए रात्रि भोजन के त्याग का विधान करके आहार को मर्यादित करने का प्रयास किया गया है. पुराणों में तो यहाँ तक लिखा है अस्तंगते दिवानाथे, आपो रुधिर मुच्यते । अन्नं मांस समं प्रोक्तं, मार्कण्डेयमहर्षिणा ।। [मार्कण्डेय नामक महर्षि के कथनानुसार सूर्य के अस्त होने पर पानी रुधिर कहा जाता है और अन्न मांस के समान.] वैज्ञानिक दृष्टि से देखा जाय तो समस्त बीमारियों की जड़ है - रात्रि भोजन! बम्बई के एक बहुत बड़े डॉक्टर ने इस बात की पुष्टि की थी. उनका कहना था कि रात को थक कर घर आये, फिर ९ या १० बजे भोजन किया और विश्राम के लिए लेट गये कि नींद आ गई. श्रम के अभाव में आंतों को ही भोजन पचाने का काम करना पड़ेगा. फिर भोजन के दो घण्टे बाद पेट में जल पहुंचना चाहिये, जो पाचन के लिए जरूरी है, सो नहीं पहुंच पायेगा. पानी की कमी से गेस्टिक ट्रबल हो जायगी, जो अलग-अलग प्रकार से वायु की विकृति उत्पन्न करेगी, उसी से ब्लडप्रेशर, हाइड्रोलिक एसिड, क्लोरिक एसिड आदि पैदा होते हैं, इनके अतिरिक्त सूर्यास्त के बाद अनेक खतरनाक कीटाणु वातावरण में फैल जाते हैं, जो भोजन के द्वारा पेट में पहुँच कर रोग पैदा करते हैं. इससे विपरीत सूर्यास्त से पहले भोजन करने पर कीटाणु रहित वातावरण होता है, शाकाहारी भोजन पांच घंटों में पच जाता है और मांसाहारी भोजन दस घण्टों में, शाकाहारी भोजन शाम को चार-पांच बजे कर लिया जाय तो नौ-दस बजे तक उसको पानी भी पर्याप्त मिल जाता है और पाचन भी भली भांति हो जाता है. इससे कोई बीमारी पैदा नहीं होती, थोड़े दिन इसका प्रयोग करके देखिये कि इससे आपका स्वास्थ्य कैसा रहता है. शरीर कितना हल्का-फुल्का For Private And Personal Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४२ जीवन दृष्टि रहता है. शारीरिक स्वास्थ्य के लिए बिना पैसे की दवा बताई है मैंने. धर्म शास्त्र कहते हैं अनस्तभोजनो नित्यं, तीर्थयात्राफलं लभेत् । [सूर्योदय और सूर्यास्त के बीच दिन को ही जो नित्य भोजन करता है, उसे तीर्थयात्रा का फल मिलता है.] ये रात्रौ सर्वदाहारम्, वर्जयन्ति सुमेधसः । तेषां पक्षोपवासस्य, फलं मासेन जायते । । [जो अत्यन्त बुद्धिमान व्यक्ति रात्रि भोजन का सदा त्याग करते हैं, उन्हें प्रतिमास पक्षोपवास (पन्द्रह उपवास) का फल मिलता है.] रात्रि भोजन के दुष्परिणाम : रात्रि भोजन से हानि क्या होती है? इस पर धर्म शास्त्रों में लिखा हैउलूक-काक मार्जार, गृध्र-शम्बर-शूकराः। अहि-वृश्चिक गोधाश्च, जायन्ते रात्रिभोजनात् ।। [रात्रि भोजन से जो पाप लगता है, उसके फलस्वरूप जीव परलोक में उल्लू, कौए, बिलाव, गीध, सांभर, सूअर, साँप, बिच्छू या गोह के शरीर में उत्पन्न होते हैं.] रात को भोजन करने की तो दूर, भोजन का विचार तक मन में न आने देने का उपदेश देते हुए प्रभु महावीर कहते हैं - अत्थंगयम्मि आइच्चे, पुरत्था य अणुग्गये । आहारमाइयं सव्वं, मणसावि न पत्थए ।। [सूर्यास्त के बाद सूर्योदय होने तक (रात को) आहार आदि की मन से भी इच्छा नहीं करनी चाहिये.] रात्रि भोजन के दुष्परिणाम कभी-कभी अखबारों में भी पढ़ने में आते हैं. इन्दौर का एक पुजारी रात को दूध पीने से मर गया, क्योंकि उबालते समय उसमें सांप का बच्चा गिर गया था. उत्तरप्रदेश के एक गांव में खीर खाकर सारे बराती सदा के लिए सो गये, क्योंकि खीर रात को जिस भगोने में बनाई गई थी, उसमें एक सांप गिर गया था. मुजफ्फर नगर में रात को पानी पीते समय एक आदमी मर गया, क्योंकि पानी के साथ एक जीवित बिच्छू गले में उतर गया और उसने डंक मार दिया था. गोगुंदा (उदयपुर) में रात को खाते समय एक भाई के मुँह में आम के अचार की जगह For Private And Personal Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४३ जीवन में सदाचार मरी हुई चुहिया पहुंच गई थी. रात को बनाई गई भिण्डी की सब्जी में छिपकली निकलने की तो सैंकड़ौं घटनाएँ सुनने में आई हैं. घाटकोपर (बम्बई) के एक श्रावक परिवार को सुबह पांच बजे कहीं जाना था. इसके लिए टैक्सी बुलाई गई थी, श्राविकाने गैस के चूल्हे पर केतली चढ़ा कर चाय बनाई. उसे छानकर पांच कप तैयार किये गये, श्रावक-श्राविका और तीन बच्चे, पांचो ने चाय पी. परिवार किसी तीर्थयात्रा के लिए जाने वाला था, परन्तु सब की परलोक यात्रा हो गई. टैक्सी वाला बारबार भोंपू बजाता रहा, किन्तु घर वाले बाहर नहीं आये, उसे शंका हुई वह भीतर गया, पांचों कुटुम्बियों को बेहोश देखकर उसने पुलिस थाने में रिपोर्ट की. पुलिस वालों ने आकर जांच पड़ताल की, केतली में सांप का बच्चा पाया गया. चाय के साथ वह उबल गया था, उसका जहर चाय के साथ पीने वालों के पेट में पहुंच गया था. सन् १९५८ के जोधपुर चातुर्मास की एक अविस्मरणीय घटना सुनिये. उपाश्रय के पास वाले एक घर में रात को एक आदमी सहसा जोरों से चिल्लाया. चिल्लाहट सुनकर मेरी भी नींद खुल गई. उस समय घड़ी में डेढ़ बजी थी. सुनने में आया कि कुञ्जे में कानखजूरा था, जो लोटे में आ गया था. लोटा उठाकर उस आदमी ने ऊपर से पानी मुँह में डालकर पीने का प्रयास किया था. कानखजूरा पानी के साथ गले में उतर गया था. तत्काल उसे अस्पताल में पहुंचाया गया. ऐसी दुर्घटनाएं रात्रि भोजन से होती रहती हैं, इसलिए रात्रि भोजन का सबको त्याग करना चाहिये. दीर्घायु का नुस्खा : स्वास्थ्य के लिए यह भी जरूरी है कि आप भूख से थोड़ा कम खायें. जैन शास्त्रों में इसे ऊणोदरी तप कहा गया है. हर मनुष्य दीर्घायु होना चाहता है. किसी कवि ने एक दोहे के माध्यम से दीर्घायु होने का नुस्खा बताया है. भोजन आधा खइकै, दुगना पानी पीव । तिगुना श्रम चौगुन हँसी, वर्ष सवा सौ जीव ।। जितनी भूख हो, उससे आधा ही भोजन किया जाय. इससे प्रमाद नहीं आता, जो दुराचार का प्रेरक है. आधा पेट खाने से शरीर हल्का-फुल्का रहता है. काम करने में स्फूर्ति रहती है. यह सदा याद रखना चाहिये कि भोजन जीवन के लिए है, भोजन के लिए जीवन नहीं. सदाचार की रक्षा के लिए यह जरूरी है कि हमारा आहार शुद्ध हो, सात्त्विक हो, परिमित हो. दूसरी बात है-दुगुना जल. शुद्ध छना हुआ जल आहार की अपेक्षा दुगुना लिया जाय. इससे पाचन अच्छी तरह होता है. पाचन के लिए तिगुना श्रम किया जाना भी जरूरी बताया गया For Private And Personal Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४४ जीवन दृष्टि है. श्रम से ब्लड सर्कुलेशन ठीक रहता है. दीर्घायु के लिए उक्त दोहे में चौथी बात कही गई है - चौगुनी हंसी. मानसिक सन्तोष प्रसन्नता का जनक है : अजधन गजधन वाजिधन, सबै रत्न धनखान । जब आवै सन्तोषधन, सब धन धुरी समान ।। बकरे, हाथी, घोड़े और रत्न तो हैं ही; परन्तु जव सन्तोष धन प्राप्त हो जाता है, तब सारे धन धूल के समान मालूम होने लगते हैं, प्रवचन के माध्यम से रात्रि भोजन के निषेध का प्रतिपादन करके मैं चला जाऊं और मैंने बहुत अच्छा प्रतिपादन किया-ऐसी प्रशंसा करते हुए आप अपने घर लौट जायें तो इससे न मुझे कुछ लाभ होगा और न आपको. मैंने बोलने का जो परिश्रम किया, उसका कुछ पारिश्रमिक तो मुझे मिलना ही चाहिये; अन्यथा यह तो वैसी ही दशा होगी, जैसी राजा भोज के दरबार में एक कवि की हुई. कवि ने राजा भोज की प्रशस्ति में कहा था कि आप दानवीर कर्ण के अवतार हैं. आपके समान उदार इस समय दुनिया में कोई नहीं है. भरी सभा में भोज ने इस पर कहा कि आपको कल सवा लाख स्वर्ण मुद्राएँ दे दी जायेंगी. कवि तो यह सुनकर हर्ष विभोर हो गया. वह खुशी का यह समाचार सुनाने के लिए वहाँ से सीधे अपने घर गया. उस जमाने में कोई बैंक नहीं थी. किसी व्यापारी के यहाँ रखने पर अमानत में खयामत होने की सम्भावना थी. घर में रखने पर चोरों का डर था. आखिर उसने तय किया कि रसोई घर के आंगन में गड्ढा खोदकर सारी स्वर्ण मुद्राएँ गाड़ दी जाय. मुट्ठी भर स्वर्ण मुद्राएँ बाहर रक्खी जायें, खर्च होने पर आवश्यकतानुसार निकाली जाती रहे. इस विचार को मूर्तरूप देने के लिए कवि और उसकी पत्नी दोनों मिलकर रसोईघर के कमरे में रात-भर गड्ढा खोदते रहे. प्रातःकाल स्नान करके नये वस्त्र पहिनकर कवि राजसभा में जा पहुँचा कि सिर मुंडाते ही ओले पड़े! राजा भोज ने पूछा- “आप कैसे आये?" कवि - “आपके बुलाने पर ही मैं आया हूँ. कल सभा के बीच में मेरी प्रशस्ति सुनकर आपने कहा था कि सवा लाख स्वर्ण मुद्राएँ आपको भेंट की जायेंगी. कल आकर आप ले जाइये." राजा ने हँसकर कहा - "राजा कभी उधार नहीं रखता. जो कुछ देना होता है, तत्काल दे देता है. आपने मेरी कर्ण से तुलना की, किन्तु कर्ण क्या कभी उधार रखता था? फिर मैंने यही तो कहा था कि कल आपको सवा लाख स्वर्णमुद्राएँ दे दी जायेंगी; परन्तु कल हमेशा कल ही रहता है. वह कभी आज नहीं बन सकता. तीसरी सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन करके आपने मुझे शब्दों से प्रसन्न किया तो मैंने भी सवा लाख For Private And Personal Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४५ जीवन में सदाचार स्वर्णमुद्राओं के दान का आश्वासन देकर शब्दों से ही आपको भी प्रसन्न कर दिया. हिसाब बराबर . लेना-देना कुछ नहीं." इसी प्रकार यदि आप शब्दों से मुझे प्रसन्न करें कि आपने बहुत अच्छा प्रवचन किया औरं मैं भी शब्दों से आपकी प्रशंसा कर रहा हूँ कि पाली के श्रोताओं ने मुझे बहुत दिल से सुना तो इससे किसी को कोई लाभ नहीं होगा. मैं चाहता हूँ कि आप यहाँ से कुछ लेकर जायें. अधर्माचरण से बचने का, सदाचार को अपनाने का या रात्रि भोजन छोड़ने का संकल्प लें. बैंगलोर की बात है. शराब की चर्चा करते हुए मैं एक प्रवचन में समझा रहा था कि उससे गटर का पानी अच्छा होता है, क्योंकि गटर के पानी से केवल शरीर गन्दा होता है, जब कि शराब से शरीर, मन और बुद्धि तीनों गन्दे हो जाते हैं... आदि. यह सब सुनकर श्रोताओं के मन में शराब से ऐसी घृणा हो गई कि लगभग दो हजार विद्यार्थियों ने खड़े होकर सामूहिक रूप से शराब न पीने की प्रतिज्ञा ले ली. कुछ लोगों ने वहाँ फिल्म देखने का और कुछ ने फिल्म संगीत सुनने का भी त्याग कर दिया. संगीत कौनसा : कुछ लोग कहते हैं कि संगीत तो कानों को सुहाता है, पर वे यह नहीं जानते कि फिल्म संगीत सुगरकोटेड पॉयजन है (शक्कर चढी जहर की गोली है), कान से मन में पहुँच कर वह आपकी दुर्वासनाएँ जगाता है. उसका सायकोलोजिकल इफेक्ट बुरा होता है. स्वर दूसरी ओर भारत का शास्त्रीय संगीत है. दुनिया भर में उसका सम्मान होता है.. शब्द, और उत्तम भावों का उसमें समन्वय पाया जाता है. राग-रागिनियों को सीखने के लिए वर्षों साधना करनी पड़ती है. पहले देशना मालकोस राग में दी जाती थी. इस राग के स्वरों में अहंकार नष्ट करने की शक्ति है. परमात्मा की स्तुति प्रायः भैरवी राग में की जाती है. नमाज भैरवी राग में पढ़ी जाती है; क्योंकि यह राग बहुत कोमल है. सारे स्वर कोमल लगते हैं- इसमें. परमेश्वर की प्रार्थना में, स्तुति में, भक्ति में कोमलता अनिवार्य है; इसलिए इसी राग को पसन्द किया जाता है. विश्वविख्यात डिक्टेटर था - मुसोलिनी. उसे अनिद्रा की बीमारी हो गई. सब तरह का इलाज करवा लिया, परन्तु रोग नहीं मिट पाया. भारत के सुर सम्राट पं. ओंकारनाथ ठाकुर ने ऐसी रागिनी सुनाई कि उसकी स्वर लहरी से मुसोलिनी को नींद आ गई. सुरसम्राट का उसने अत्याधिक सम्मान किया. उसे भारतीय संगीत की शक्ति स्वीकारनी पड़ी. यह तो बिल्कुल ताजी घटना है - इसी शताब्दी की. For Private And Personal Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जीवन दृष्टि शंकरजी के हाथ में डमरू है- सरस्वती के हाथ में वीणा है- नारद के हाथ में तानपूरा हैश्री कृष्ण के हाथ में बाँसुरी है, जो भारतीय संगीत की प्राचीनता का प्रमाण है. क्लासिकल म्यूजिक से सुनने वालों का मस्तक हिलने लगता है; किन्तु पाश्चात्य संगीत या फिल्म-संगीत को सुनने वालों के बूट हिलने लगते हैं. इससे सिद्ध होता है कि लोग किसका सम्मान करना चाहते हैं. और किसका अपमान! अस्तु. मैं कहना यही चाहता हूँ कि परमात्मा तक पहुंचने के लिए भारतीय संगीत भी एक साधन है. भावना से भरे संगीत के स्वरों में मस्त होने पर संसार छूट जाता है:“प्रेमगली अति साँकरी । तामें द्वै न समाहिं ।।" परमात्मा की भक्ति का मार्ग ऐसा है, जिसमें दो नहीं समा सकते. केवल आप जा सकते हैं, आपका संसार नहीं प्रेम जा सकता है. राग-द्वेष नहीं, भक्ति जा सकती है, विषय वासना नहीं. शुद्ध धर्म जा सकता है, अष्टकर्म नहीं, शब्दों का चमत्कार : सन्त तुलसीदास में जब तक वासना थी, तब तक वे परमात्मा से दूर रहें, शादी के बाद पहली बार जब पत्नी पीहर गई तो उसका वियोग न सह सकने के कारण वे भी भागते हुए वहीं जा पहुंचे, उनकी पत्नी रत्नावली भी कवियित्री थी, रात को एकान्त में मिलन के समय उसने दो दोहे इस प्रकार सुनायें : लाज न लागत आपको, दौरे आयहु साथ । धिक धिक ऐसे प्रेम को, कहा कहौं मैं नाथ ।। अस्थि चर्ममय देह मम, तामें जैसी प्रीति। तैसी जो रघुनाथमहँ, होति न तो भवभीति ।। रत्नावली की भावना को महाकवि सूर्यकान्त त्रिपाठी "निराला" ने इन शब्दों में व्यक्त किया धिक् धाये तुम यों अनाहूत । धो दिया श्रेष्ठ कुल धर्म धूत ।। राम के नहीं, काम के सूत कहलाये। हो बिके जहाँ तुम बिना दाम ।। वह नहीं और कुछ हाड़ चाम । कैसी शिक्षा कैसे विराम पर आये ।। तुलसीदास पर रत्नावली के शब्दों का व्यापक प्रभाव पड़ा, वे तत्काल पत्नी का त्याग करके For Private And Personal Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४७ जीवन में सदाचार भक्ति के मार्ग पर लग गये- संन्यासी बन गये, सर्वस्व त्यागी बन गये. होटल की वस्तुएं कैसी? आपको भी धीरे-धीरे उस दिशा में बढ़ना है, अभक्ष्य (मांस) के भक्षण का त्याग करना है. फिल्मों का और फिल्म संगीत का त्याग करना है, शराव का त्याग करना है. बीड़ी सिगरेट का त्याग करना है. रात्रि भोजन का त्याग करना है और अन्त में संसार की सेन्ट्रल जेल से बाहर निकलना है, परन्तु वह अन्तिम कार्य है. उसके लिए मन सहसा तैयार नहीं होता. जो रिटेल में त्याग नहीं कर सकता, वह होलसेल में त्याग क्या खाक करेगा? जो लोग रिटेल में त्याग करना चाहते हैं, उन्हें मैं सलाह देना चाहता हूँ कि वे सबसे पहले होटल का त्याग करें. इस विषय में मैं अपने बचपन का एक अनुभव सुना दूं. कोई परिचित व्यक्ति दूसरे शहर से कलकत्ते में हमारे घर आया. घरवालों ने कलकत्ता शहर दिखाने का काम मुझे सौंपा, बड़ी खुशी से मेहमान को साथ लेकर मैं कलकत्ते की दर्शनीय वस्तुएँ दिखाता रहा. इस बीच नाश्ते की इच्छा जान कर मैं उन्हें एक अच्छे होटल में (रेस्टोरेन्ट) में ले गया. नाश्ता मंगवाकर हम दोनों खाने लगें. उस समय मेरी नजर पास ही एक कमरे में बैठे हलवाई पर पड़ी. कमरे की दीवार के बीच की खिड़की में एक पारदर्शक काँच लगा था. उससे साफ दिखाई देता था कि हलवाई क्या कर रहा है. __ मैं खाता भी जा रहा था और उधर देखता भी जा रहा था. उस समय वह समोसे बना रहा था. भट्टी की गर्मी के कारण उसका पसीना मसाले में टपक रहा था. मैंने मेहमान को दिखाया"देखिये, वह सामने हलवाई समोसे के मसालें में अपना मसाला किस तरह मिला रहा है!" ठीक उसी समय संयोगवश हलवाई को जोर की छींक आई और उसका नाक से निकला सारा विटामिन भी उसी मसाले में शामिल हो गया, यह सब देखकर मुझे होटल से घृणा हो गई. जब सुप्रसिद्ध स्टेन्डर्ड बड़े होटल का हलवाई ऐसा करता है तब छोटे-छोटे होटल वाले करते हों तो क्या आश्चर्य? उस दिन से मैंने संकल्प कर लिया कि किसी भी होटल में कभी पांव नहीं रक्खूगा. यह तो हुई साधारण अनुभव की बात; परन्तु अखबारों में जो घटनाएँ पढ़ने में आती हैं, वे तो और भी अधिक भयंकर होती हैं. कई बार मच्छर, मक्खी, मकोड़े, फुद्दिया, चूहे, बिच्छु, छिपकली, मेंढक आदि होटल की बनी चीजों में निकल आते हैं और खानेवालों का स्वास्थ्य चौपट कर देते हैं. यहाँ तक कि कभी-कभी जान भी ले लेते हैं. इसके अतिरिक्त होटल पापों का प्रवेशद्वार भी है; क्योंकि वहाँ ऐसी सोसायटी मिलती है, जो आपको पतन की ओर ले जाती है. आहार भी वहाँ अशुद्ध मिलता है. न जाने कैसे-कैसे For Private And Personal Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ४८ जीवन दृष्टि धूम्रपानकर्त्ता, शराबी, मांसहारी लोग वहाँ की कप - डिश में और गिलास में मुँह डाल जाते हैं.. उनके अशुद्ध परमाणुओं के साथ अशुद्ध विचार भी आपके भीतर पहुँच जाते हैं, जो मानसिक विकार पैदा करते हैं. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir या पत्नी के द्वारा प्रेम से बनाया हुआ शुद्ध स्वच्छ सात्त्विक स्वादिष्ट भोजन जिन्हें घर पर प्रतिदिन मिलता हो, उन्हें होटल की शरण में जाने की जरूरत भी क्या है ? वहाँ जाने से पैसों की बर्बादी, स्वास्थ्य का नाश और सोसायटी भी ऐसी, जो आपको गुमराह करती हो - गलत रास्ते पर ले जाती हो- दुर्व्यसनों में फँसा कर आपका जीवन बर्बाद करती हो. एक भी लाभ हो तो बताइये ! यदि आप तन और मन से स्वस्थ्य रहना चाहते हैं तो मेरी सलाह मानिये होटल में जाना बन्द कर दीजिये. उसका त्याग कर दीजिये. होटल में बनी किसी भी वस्तु पर आपका मन आकर्षित नहीं होना चाहिये. आज मैंने आपको त्याग करने के लिए इतनी सारी फुटकर बातें इसलिए बताईं कि आपको विचार करने का पर्याप्त अवसर मिल जाय. आप इच्छा से करें या अनिच्छा से करें, कुछ-न-कुछ त्याग आपको करना ही है. यही मेरा पारिश्रमिक है, जिसकी आप सब पाठकों से मुझे अपेक्षा है. पहले आप अच्छी तरह सोच लीजिये कि कौनसा त्याग आपसे भलीभांति जीवन-भर निभ सकेगा. फिर मेरे पास आइये. यह तो प्रेम का सौदा है. इसमें स्वार्थ और परमार्थ दोनों हैं. मुझे से त्याग की प्रतिज्ञा ग्रहण करने पर मेरी स्मृति भी आपके साथ जुड़ जायगी, जो धीरे-धीरे आत्म सुधार और आत्म विकास के मार्ग में आपको बढ़ाती रहेगी. आपको सदाचारी बनने के लिए प्रेरित करती रहेगी. सदाचारी बनने की प्रेरणा धर्म- स्थानों से मिलती है. साधु धर्मस्थान का अनुमोदन करता है, अन्य स्थान का नहीं. गुजरात के महामन्त्री ने अपने नवनिर्मित भवन को दिखाने के बाद एक बाल साधु से कहाः " मेरे पुण्योदय से ही आपने यहाँ पधारने की कृपा की है ऐसा मैं मानता हूँ !” बालसाधु ने कहा :- “भवन कैसा भी बना हो, इसमें धार्मिक कार्य तो होंगे नहीं; तब मुझसे इसके अनुमोदन की अपेक्षा आप क्यों रखते हैं?" महामन्त्री सावधान हो गये। जैन साधु भवन निर्माण जैसे कार्य का अनुमोदन नहीं कर सकते, फिर भी अनुमोदन पाने की इच्छा से मैंने भवन दिखाकर ऐसी बात कही- इसका उन्हें बहुत खेद हुआ. एक बाल साधु के सामने वे अज्ञानी साबित हुए. अन्त में अपनी भूल का पश्चात्ताप करते हुए चरणों में प्रणाम करके महामन्त्री ने कहा " आज से अपना यह भवन धर्म कार्यों के लिए में अर्पित करता हूँ. मेरा भवन आज से समाज For Private And Personal Use Only - Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४९ जीवन में सदाचार की सम्पत्ति है. अब यह भवन उपाश्रय का अंग है. इस पर से अपनी ममता का त्याग करके अपनी भूल का मैं प्रायश्चित्त कर रहा हूँ.” इसी प्रकार एक बार किसी राजा ने अपना नव-निर्मित भवन किसी साधु को दिखाकर निवेदन किया-इसमें कहीं कोई कमी रह गई हो तो कृपया बताने का कष्ट करें. साधु ने कहा - "राजन्! इसमें दो कमियां रह गई हैं, परन्तु उन्हें दूर करने की शक्ति आपमें नहीं है" राजा ने कहा :- “मेरे पास वहुत धन है, मैं उन कमियों को अभी दूर करवा देता हूँ. आप बताइये तो सही!" साधु ने कहा :- “पहली कमी तो यह है कि यह भवन नश्वर है, किसी न किसी दिन गिर जायगा. दूसरी कमी यह है कि इस भवन को बनाने वाला इसे छोड़कर एक दिन चला जायेगा." यह सुनकर राजा बहुत लज्जित हुआ. उसका अहंकार नष्ट हो गया. हमारे पास पूर्वाचार्यों के बनाये हुए कुछ ग्रन्थ ऐसे हैं, जो गृहस्थ जीवन का भी मार्गदर्शन करते हैं. साधु गृहस्थ जीवन के कार्यों का ऐसा मार्ग-दर्शन कर सकते हैं कि जिससे कम से कम दोष लगे. क्या आपने पूछा है कभी किसी साधु से? विवाह की पत्रिका छपवाई जाती है, मैं तो उसका भी मैटर डिक्टेट कराने को तैयार हूँ, मुश्किल यही है कि आपको वह मैटर पसंद नहीं आयेगा. साधु की भाषा लोग स्वीकार ही नहीं करते. आपके घर विवाह शादी का प्रसंग हो तब आप मुझसे पत्रिका के लिए मैटर लिखवाकर ले जाइये. और कोई भी पूछे तो वेखटके आप मेरा नाम बतला दीजिये. कि यह पद्मसागर ने लिखवाया है. श्रावक की विवाहोत्सव पत्रिका का मजमून ऐसा होना चाहिये, जिसके द्वारा कम से कम दोष लगे. जैसा मजमून मैं लिखवाऊँगा, उसके मुख्य शब्द इस प्रकार होंगे. बड़े ही खेद के साथ लिखना पड़ रहा है कि हमारे परिवार में एक श्रावक ने जन्म लिया था, हमें आशा थी कि वह श्रमण बन कर आत्मकल्याण करेगा. प्रभु महावीर के सुझाये मोक्ष मार्ग का पथिक बनेगा, परन्तु दुर्भाग्य से उसके कुछ कर्म-भोग बाकी हैं, इसलिए वह दुराचारी न बनकर स्वदारा सन्तोष व्रत का पालन करता हुआ सदाचारी बना रहे. इस आशय से उसका मजबूरी में विवाह करना पड़ रहा है, आशा है, इस दुःखमय प्रसंग पर पधार कर आप हमारे परिवार को धीरज बँधायेंगे. सान्त्वना देने का प्रयास करेंगे...आदि. छत्रपति शिवाजी के गुरु समर्थ स्वामी रामदास ने अपने विवाहस्थल पर पुरोहित के मुँह For Private And Personal Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जीवन दृष्टि से “वर कन्या सावधान” सुना तो सोच में पड़ गये, जहाँ खतरा हो, वहीं सावधान रहने की सलाह दी जाती है, अतः वैवाहिक जीवन में जरूर खतरा होना चाहिये और यदि खतरा है तो मुझे उससे वचने का प्रयास भी करना चाहिये. ऐसा विचार आते ही वे विवाह मंडप से उठकर भाग गये और संन्यासी बन गये. इस प्रकार अपने जीवन से एक आदर्श उपस्थित कर गये, स्वयं तो सावधान हो ही गये, दूसरों को भी मार्ग-दर्शन कर गये. सुप्रसिद्ध साप्ताहिक "धर्मयुग" में एक बार किसी विचारक की एक सूक्ति प्रकाशित हुई थी__ “वैवाहिक जीवन मसाले के समान है, जिसकी प्रशंसा आंखों में आंसू भर-भर कर की जाती शादियों का सीजन चल रहा था, एक गांव में शादी के अवसर पर बड़ी बहिन को रोती हुई देख कर छोटी बहिन ने माँ से पूछा- माँ! दीदी क्यों रो रही है?" माँ ने कहा - "तुम्हारी दीदी आज घर छोड़ कर अपने पति के साथ ससुराल जा रही है, इसे माँ-बाप के, पड़ोसियों के और सहेलियों के वियोग का दुःख है, इसी दुःख से इसे रोना आ रहा है.” बच्ची ने फिर पूछा – “ठीक है, परन्तु दीदी जिसके साथ जा रही है, वह दूल्हा क्यों नहीं रो रहा है?" इस पर माँ ने इतना अच्छा उत्तर दिया कि सभी सुनने वालों की तबीयत प्रसन्न हो जायबोली - “अरे उसे रोने की इतनी जल्दी क्या है? विवाह के बाद जीवन भर उसे रोना ही रोना कितनी अनुभवपूर्ण, कितना यथार्थ उत्तर था यह! रत्नावली की बात सुनकर तत्काल संसार से विरक्त होने वाले सन्त तुलसीदास ने लिखा फूले फूले फिरते हैं, आज हमारो ब्याव । 'तुलसी' गाय बजाय के, देत काठ में पांव ।। विवाह को उन्होंने बन्धन बताया है; किन्तु जैन धर्म की दृष्टि से पूरा संसार ही बन्धन है, जहाँ दुःख ही दुःख है. कहा हैजम्म दुक्खं जरा दुक्खं, रोगाणि मरणाणिय । अहो दुक्खो हु संसारो, जत्थ की संति जन्तुणो ।। For Private And Personal Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जीवन में सदाचार ५१ [ जन्म, बुढापा, रोग और मृत्यु का दुःख है. अरे यह संसार कितना दुःखपूर्ण है, जहाँ प्राणी क्लेश पा रहे हैं . ] इस संसार में सुखी वही हो सकता है, जिसका मन निर्मल है, जिसके विचार पवित्र है, जिसका आचरण उत्तम है, आचार से ही पता चलता है कि किसी मनुष्य के विचार कैसे हैं; इसलिए आचार का जीवन में सबसे अधिक महत्व है. उसे प्रथम धर्म माना गया है : आचारः प्रथमो धर्म ।। जैन धर्म के ग्यारह उपलब्ध अंग- सूत्रों में सबसे पहले सूत्र का नाम ही " आचारांग सूत्र " है. सज्जनों का आचार सदाचार है और दुर्जनों का आचार, दुराचार. सदाचार सच्चा मित्र है और दुराचार दुश्मन. सदाचार जीवन का भूषण है, दुराचार दूषण, दुराचार से दूर रहकर आप सब सदाचार को अपनायें, यही कहना है. For Private And Personal Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भक्ति की शक्ति - भक्तिः आत्मसमर्पण का रुप : तुह सामियुतुहु माइबप्पुतुहु मित्तपियकर तुहु गइ तुहु मइ गुरु खेमकरु, हुं दुह मर मरिउ वराड राड निमग्गह, लीनु तुम्ह कम कमलं जिनपालह चंगय ।। अनंत अपराधी और अल्प ज्ञानी भी शीघ्र मुक्त हो गये तथा अल्प अपराधी व महाज्ञानी भी अनन्त काल के लिए भव भ्रमण में भटक गये, इसमें कारण भक्ति अभक्ति के सिवा अन्य क्या है? भक्ति आत्मसमर्पण का रूप है. इससे अहंकार का नाश होता है. पापों का मूल 'अहंकार' है. सब धर्म का मूल ‘दया' अर्थात् 'दुःखित दुःख प्रहाणेच्छा' (दुःखियों के दुःख सम्पूर्णतः अंत करने की इच्छा) है. जिनमें यह गुण उत्कृष्ट चोटी पर पहुँचा हुआ है, उन्हें नमस्कार करना यह भक्ति है. महापुरुषों की करुणा, दया और विश्व के प्रति आत्मीयता की भावना - यह अशुभ का ह्रास और शुभ की वृद्धि कर रही है - अतः उनकी करुणा के प्रति समर्पित होना कर्तव्य है और इसका नाम 'भक्ति' है. यह भक्ति सब प्रकार के लौकिक और लोकोत्तर अहंकार का नाश करनेवाली, चित्त को परम शांति प्रदान करने वाली है. __ इसलिए भक्ति विभोर होकर नवांगी टीकाकार आचार्य श्री अभयदेव सूरीश्वरजी भगवान की स्तुति करते हुए फरमाते हैं कि “हे तरण तारण! आप ही मेरे एकमात्र नाथ हो. आप ही मेरे माता पिता हो. आप ही प्रेम से भरपूर मित्र है. आप ही मेरी गति हो. आप ही मेरी मति हो तथा आप ही कल्याण करने वाले गुरू हो. मैं निर्भागियों का सिरताज माया मोह से भरा हुआ आपके चरण कमल की शरण में आया हूँ. मुक्त दीन अनाथ को अपना समझ कर मेरी रक्षा करो. देवाधिदेव के प्रति सर्व समर्पण भाव लाने पर अवश्य ही भक्त का कल्याण होता है. इसलिए कहा गया है कि 'भक्त के अधीन भगवान है'. For Private And Personal Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भक्ति की शक्ति परमनाथ अरिहंतः लोकोत्तमो निष्प्रतिमरत्त्वमेव, त्वं शाश्वतं मंगलमप्यधीश! त्वमेकमर्हन् शरणं प्रपद्ये सिद्धर्षि सद्धर्ममयस्त्वमेव ।। अत्यंत वात्सल्य भाव से भरपूर, अनन्त करुणा निधान, तीन जगत के जीवों के एकमात्र आधार हे अरिहंत प्रभो! मैं आपकी शरण में आया हूँ मैं आपका दास हूँ मैं आपका सेवक हूँ मैं आपका किंकर हूँ। आप नाथ सिरताज तीन जगत के परमेश्वर की कृपा दृष्टि से कृतकृत्य हो गया हूँ. आत्मा का सच्चा स्वरूप दर्शानेवाले जगत में केवल आप ही हैं. इसलिए आपकी बराबरी करनेवाला अन्य कोई है ही नहीं. आप का नाम भी मंगल है. सब पापों का नाश करनेवाला है. आप का दर्शन भी मंगल है. सब सुख सम्पत्ति शांति और आनन्द देने वाला है. आप संदेही सिद्धरूप हैं, जीव मात्र के परमोपकारी जगत् गुरू हैं तथा शुद्ध ज्ञान दर्शन स्वरूप मूर्तिमान धर्म स्वरूप हैं अतः आप साक्षात् पंच परमेष्टि स्वरूप हैं. हे कृपालु नाथ! अव्यवहार राशि से निकल कर आप ही की कृपा प्रताप से मैं इतनी ऊँची स्थिति तक पहुँचा हूँ. अब एक ही नम्र प्रार्थना है कि जब तक मैं उस पदवी को प्राप्त न कर लूं जिसको आप साक्षात् भोग रहें हैं तब तक कभी मेरी उपेक्षा न करने का अनुग्रह करें. मुझे आपकी भवो भव शरण प्राप्त होती रहे. शाश्वत आत्मा : एगो मे सासओ अप्पा नाणं-दंसण-संजुओ सेसा मे बाहिरा भावा सव्वे संजोग-लक्खणः ।। तीन जगत के तीर्थंकर वीतराग सर्वज्ञ परमात्मा ने केवल ज्ञान को स्वात्मा में प्रकट कर के सारे जीव अजीव पदार्थों के सब गुण पर्यायों को हाथ की रेखा के समान स्पष्ट देखते हुए For Private And Personal Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ५४ सब जीवों के कल्याणार्थ फरमाया कि सर्वोतम तत्त्व आत्मा है . यह ज्ञान स्वरूप है. यह पूर्णानन्द स्वरूप है. तथा यह शाश्वत है. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जीवन दृष्टि किसी भी काल में इसका अभाव नहीं था तथा कभी भी यह नष्ट होने का नहीं. चैतन्यमय ज्योति सदैव रही है और सदा रहेगी. अनादि मोहाधीन यह आत्मा बाह्य विजातीय रूपी पौद्गलिक पदार्थों में राग द्वेष करने के कारण अपने स्वरूप को भूली हुई है. इसीलिए यह चार गति चौरासी लाख जीव योनि में विविध पर्याय धारण कर जन्म मरण की अपार वेदनाएँ सहन कर रही है. परमात्मा ने फरमाया कि - अग्नि को लोहे के संयोग में ही हथौड़ों की मार सहनी पड़ती है. संयोग का त्याग कर अपने स्वरूप में रही अग्नि को मार सहनी नहीं पड़ती, ऐसे ही आत्मा अपने निज शुद्ध चैतन्य ज्ञान स्वरूप को प्राप्त कर लेने पर अव्याबाध सुख की भोक्ता बनती है. शांति की चाबी : अणुमात्रमपि तन्नास्ति भुवनेऽत्र चराचरे । तदाज्ञानिरपेक्षं हि, यज्जायेत कदाचन ।। सारे विश्व में भगवान की शक्ति के सिवाय एक पत्ता भी नहीं हिल सकता. अर्थात सब क्रिया चेतन की दिव्य शक्ति द्वारा ही सम्पन्न होती है, चेतन की दिव्य शक्ति यही प्रभु का सामर्थ्य है. प्रभु पर सम्पूर्ण विश्वास रखने से अक्षय शांति का अनुभव किया जा सकता है क्योंकि प्रभु स्वयं परम शक्तिशाली होने के अतिरिक्त परम शान्ताकार है. For Private And Personal Use Only अपना सब काम प्रभु कर रहें हैं अर्थात आत्म तत्त्व कर रहा है. इस दिव्य शक्ति के सिवाय अन्य किसी से भी कुछ हो नहीं सकता. प्रभु परायण होने की अपने को जो परम्परा मिली है - इसका गौरव अनुभव करना चाहिये. अन्न, जल के बिना चल सके परन्तु प्रभु के बिना एक क्षण मात्र भी नहीं चल सके. प्रभु के सिवाय दूसरे किसी का भी डर रखने की आवश्यकता नहीं. 'प्रभु प्रति प्रेम'. उसके लिए प्रभुनाथ रटन प्रबलतम साधन है. प्रभु अर्थात साक्षी - चेतन - आत्मा यह सर्वाधिक धनवान एवं Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भक्ति की शक्ति बलवान है. अपना धन या बल यह प्रभु पर विश्वास है. 'प्रभुजीवी बनना' - अन्तर साक्षी भाव रखकर बाह्यदृष्टि को क्षोभपूर्वक भुला देना ही शांति की चाबी है. जिन भक्ति: जिने भक्तिर्जिनेभक्तिर्जिनेभक्तिर्दिने दिने। सदा मेऽस्तु सदा मेऽस्तु सदा मेऽस्तु भवे भवे ।। श्री जिनाज्ञापालन - यह सच्ची जिनभक्ति है. भक्तियोग अर्थात् भाव देना. भाव देना अर्थात् हृदय सौंपना. हृदय के सिंहासन पर इष्ट को प्रतिष्ठित करना, जो सामग्री प्राप्त हुई है, उसका भक्ति द्वारा सदुपयोग करना चाहिये. सभी धर्मी आत्मा अपने को भाव-आत्म स्नेह प्रदान करते हैं. अतः प्राप्त सामग्री को परहित में सार्थक करने का प्रति क्षण सफल कर लेना चाहिये. मोक्ष में केवल देना ही है - लेने का कुछ नहीं. यह लेना देना दोनों है. लेने में ज्ञान-देने में भाव होना चाहिये, ये दो बातें अति महत्त्व की है. भावपूर्वक प्रभुभक्ति करते रहने से जगत के जीवों को भाव देने की योग्यता प्राप्त होती है. भवस्थिति के परिपाक में भावदान यह रामबाण औषध है. श्री तीर्थंकर परमात्मा के अपने सर्व पर किये हुए उपकार की कोई गिनती नहीं हो सकती. अतः तीर्थंकर परमात्मा की आज्ञा को जीवन में खास अग्रिमता देनी चाहिये. जो कुछ भी करें, वह आज्ञापालक के उद्देश्यपूर्वक करने की जागृति रखनी चाहिये. अपने प्रत्येक कार्य के बीच श्री तीर्थंकर परमात्मा आने ही चाहिये. तीर्थंकर परमात्मा जगत के सब जीवों को भाव दे रहें हैं और वह भाव भी स्वतुल्यता का, उससे जरा भी न्यून नहीं. अतः अपना भी कर्त्तव्य है कि जीवमात्र को भाव देवें, शुद्ध सद्भाव दे, आन्तरिक आदरभाव दे. हे प्रभो! आपकी कृपादृष्टि से यह भावभक्ति मुझे जन्म-जन्म में प्राप्त हो. For Private And Personal Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारतीय संस्कृति में तप-साधना तप साधना की आत्मा : तप, साधना का ओज है, शक्ति है. तप शून्य साधना खोखली है. तप, साधना की आत्मा है. साधना का विशाल प्रासाद तपस्या की ठोस बुनियाद पर ठहरा हुआ है. तप साधना की आधारभूमि है. साधना प्रणाली, चाहे वह पूर्व में विकसित हुई हो या पश्चिम में, हमेशा तप से ओतप्रोत रही है. जीवन जीने का वह निम्नतम सिद्धान्त भी, जो वैयक्तिक सुखों की उपलब्धि में ही जीवन की इतिश्री मान लेता है, तप शून्य नहीं हो सकता. यह सिद्धान्त भी इस मनोवैज्ञानिक तथ्य को स्वीकार करके चलता है कि वैयक्तिक जीवन में भी इच्छाओं का, वासनाओं का संघर्ष चलता रहता है और बुद्धि उनमें से किसी एक को चुनती है, जिसकी संतुष्टी की जाती है और यह संतुष्टि ही सुख की उपलब्धि का साधन बनती है. लेकिन विचार पूर्वक देखें तो यहाँ भी त्याग-भावना मौजूद है, चाहे वह अल्पतम मात्रा में ही क्यों न हो. क्योंकि यहाँ भी बुद्धि की बात मानकर हमें संघर्षशील वासनाओं में से एक का त्याग तो करना ही होता है. त्याग की यह भावना ही तप है. दूसरी ओर तप का एक अर्थ होता है- प्रयत्न, प्रयास. इस अर्थ में भी यहाँ तप रहा हुआ है. क्योंकि वासना की पूर्ति भी बिना प्रयास के सम्भव नहीं है. लेकिन यह सब तो तप का निम्नतम रूप मात्र है. हमारा प्रयोजन तो यहाँ मात्र इतना ही है कि कोई भी जीवन प्रणाली या साधना-पद्धति तप-शून्य नहीं हो सकती है. जहाँ तक भारतीय साधना पद्धतियों का प्रश्न है, उनमें से लगभग सभी का जन्म ‘तपस्या की गोद में हुआ है. वे उसी में पली एवं विकसित हुई हैं. यहाँ तो भौतिकवादी अजित केशकम्बली और नियतिवादी गोशालक भी तप-साधना में प्रवृत्त परिलक्षित होते हैं, फिर दूसरी विचारसरणियों में तप के महत्त्व पर तो शंका करने का प्रश्न ही नहीं उठता. हां, विभिन्न विचारसरणियों में तपस्या के लक्ष्य के सम्बन्ध में एवं तप के स्वरूप के सम्बन्ध में विचार-भेद हो सकता है, लेकिन उनमें उपस्थित तपस्या के तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता. तप-साधना भारतीय संस्कृति का प्राण रही है. श्री भरतसिंह उपाध्याय के शब्दों में भारतीयसंस्कृति में “जो कुछ भी शाश्वत है, जो कुछ भी उदात्त एवं महत्त्वपूर्ण तत्त्व है, वह सब तपस्या से भी सम्भूत है. तपस्या से ही इस राष्ट्र का बल या ओज उत्पन्न हुआ है. तपस्या भारतीयदर्शन-शास्त्र की ही नहीं किन्तु उसके समस्त इतिहास की प्रस्तावना है. प्रत्येक साधना प्रणाली वह आध्यात्मिक हो, चाहे भौतिक, सभी तपस्या की भावना से अनुप्राणित है. For Private And Personal Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारतीय संस्कृति में तप-साधना तप का महत्त्व : भारतीय संस्कृति में तप के महत्त्व को अधिक स्पष्ट करते हुए काका कालेलकर लिखते हैं - "बुद्ध कालीन भिक्षुओं की तपश्चर्या के परिणाम-स्वरूप ही अशोक के साम्राज्य का और मौर्यकालीन-संस्कृति का विस्तार हो पाया. शंकराचार्य की तपश्चर्या से हिन्दू धर्म का संस्करण हुआ. महावीर की तपस्या से अहिंसा-धर्म का प्रचार हुआ. चैतन्य महाप्रभु, जो मुखशुद्धि के हेतु एक हर्र भी मुंह में नहीं रखते थे, उनके तप से बंगाल में वैष्णव संस्कृति विकसित हुई. यब सब तो भूतकाल के तथ्य हैं, लेकिन वर्तमान युग का जीवन्त तथ्य है-गांधीजी और अन्य भारतीय नेताओं का तपोमय जीवन, जिसने अहिंसा के माध्यम से देश को स्वतन्त्र कराया. वस्तुतः तपोमय जीवन प्रणाली ही भारतीय-संस्कृति का उज्ज्वलतम पक्ष है और उसके बिना भारतीय-संस्कृति को चाहे वह जैन, बौद्ध या हिन्दू संस्कृति हो, समुचित रूप में समझा नहीं जा सकता. आज यहाँ हम तप के महत्त्व, लक्ष्य, प्रयोजन एवं स्वरूप के सम्बन्ध में विभिन्न भारतीय साधना पद्धतियों के दृष्टिकोणों को देखने एवं उनका समीक्षात्मक दृष्टि से मूल्यांकन करने का प्रयास करेंगे. जैन धर्म में तप का स्थान : चरम तीर्थंकर भगवान महावीर का साधना-मय जीवन ही जैन-साधना में तप के स्थान का निर्धारण करने हेतु एक सबलतम साक्ष्य है. महावीर के साधनामय जीवन के साढ़े बारह वर्षों में लगभग ११ वर्षों का समय तो उनके निराहार उपवासों के समय का योग (जोड़) होगा. महावीर का यह पूरा साधना-काल स्वाध्याय, आत्म-चिन्तन, ध्यान और कायोत्सर्ग की साधना से युक्त रहा है. जिस धर्म का शास्ता अपने जागृत जीवन में तप का ऐसा उज्ज्वलतम उदाहरण प्रस्तुत करता हो, उसकी शासन पद्धति तप-शून्य कैसे हो सकती है. उस शास्ता का तपोमय जीवन अतीत जीवन से वर्तमान तक के जैन साधकों को तपसाधना की प्रेरणा देता रहा है. आज भी जैन साधकों में सैंकड़ों ऐसे मिलेंगे जो ८-१० दिन ही नहीं, वरन् एक माह और दो-दो माह तक केवल उष्ण जल (गर्म पानी) के आधार पर रहकर तप-साधना करते हैं. ऐसे अनेक साधक होंगे, जिनके भोजन के दिनों का योग वर्ष में २-३ माह से अधिक नहीं होगा. वे शेष सारा समय उपवास आदि तपस्या में व्यतीत करते हैं. विगत वर्षों में जयपुर और बैंग्लोर में दो बहनों ने केवल उष्ण जल के आधार पर १६५ दिन के उपवास किए हैं, जो न केवल तप साधना का उच्चतम रिकार्ड प्रस्तुत करता है, अपितु आज भी हमें महावीर के युग की तप साधना की स्मृति करा देता है. जैन धर्म में अहिंसा, संयम और तप मिलकर ही धर्म के समग्र स्वरूप को उपस्थित करते हैं. संयम और तप अहिंसा की दो पांखें है जिसके बिना अहिंसा साधना की गति अवरुद्ध हो जाती है, अहिंसक चेतना कुंठित सी होने लगती है. तप एवं त्याग के अभाव में अहिंसा For Private And Personal Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जीवन दृष्टि की सामाजिक एवं धार्मिक उपादेयता मृतप्राय हो जाती है. क्योंकि हिंसा का मूलभूत कारण तो मनुष्य की भोगाकांक्षा तथा स्वार्थवृत्ति ही है. इस तप और संयम से समन्वित अहिंसा धर्म की मंगलमयता का उद्घोष करते हुए दशवैकालिकसूत्र के प्रारम्भ में ही कहा गया है - "अहिंसा, संयम और तपरूप धर्म ही सर्वोत्कृष्ट मंगल है, कल्याणकारी है. जो इस विविध धर्म के पालन में दत्तचित्त है उसे मनुष्य तो क्या देवता भी नमस्कार करते हैं. जैन साधना का लक्ष्य मोक्ष है, शुद्ध आत्म तत्त्व की उपलब्धि है, जो तप से ही सम्भव है. जैन साधना में तप का कितना महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है, इस तथ्य के साक्षी जैनागम ही नहीं है, प्रत्युत बौद्ध और हिन्दू आगमों में भी जैन साधना के तपोमय स्वरूप का चित्रण उपलब्ध होता है. वैदिक-साधना चाहे अपने प्रारम्भिक काल में तप प्रधान (निवृत्तिमूलक) न रही हो, लेकिन अपने विकार की प्रक्रिया में श्रमण-परम्परा से प्रभावित हो, समन्वित हो तपोमय जीवन से युक्त हो गई. वैदिक ऋषि तप की महत्ता का स्पष्ट शब्दों में उद्घोष करते हुए कहते हैं - "तपस्या से ही वेद उत्पन्न हुए, तपस्या से ही ऋत और सत्य उत्पन्न हुए. तपस्या से ही ब्रह्म को खोजा जाता है. तपस्या से ही मृत्यु पर विजय पायी जाती है और ब्रह्म-लोक प्राप्त किया जाता है. तपस्या के द्वारा ही तपस्वीजन लोक-कल्याण का विधान करते हैं, और तपस्या से निश्चय ही लोक में विजय प्राप्त की जाती है.” इतना ही नहीं, अपितु तप, जो साधन है, उसे साध्य के समकक्ष मानते हुए वे कहते हैं - 'तप ही ब्रह्म है.' भारतीय नीति-शास्त्र के प्रवर्तक महर्षि मनु कहते हैं - "तपस्या के ऋषिगण त्रैलोक्य जगत के चराचर प्राणियों को साक्षात देखते हैं, जो कुछ भी दुर्लभ और दुष्कर इस संसार में है, वह सब तपस्या से साध्य है, तपस्या की शक्ति दुरतिक्रम है.” महापातकी और निम्न आचरण करने वाले भी तपस्या से तप्त होकर किल्विषी योनि से मुक्त हो जाते हैं. यह तो हुई प्राचीन काल के ऋषियों की बात, जो हिन्दू आचार शास्त्र के तप की महिमा को अभिव्यक्त करती है. तप की महत्ता के संबंध में और भी सैंकड़ों साक्ष्य हिन्दू आगम ग्रन्थों में है. गोस्वामी तुलसीदासजी द्वारा वर्णित महत्त्वपूर्ण चौपाइयों में भी तप का उल्लेख आता है “तप सुखप्रद सब दोष नसावा ।" “करउजाइ तप अस जिय जानी ।।" बौद्ध साधना में तप का स्थान : यह स्पष्ट है कि तप शब्द, आचार के क्षेत्र में जिस कठोर अर्थ में जैन और हिन्दू-साधना में प्रयुक्त किया गया, वही तप शब्द बौद्ध-साधना में उसकी मध्यममार्गी साधना के कारण उस For Private And Personal Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारतीय संस्कृति में तप-साधना कठोर अर्थ में प्रयुक्त नहीं हुआ है. बौद्धसाधना में तप का अर्थ है-चित्त शुद्धि का सतत प्रयास. बौद्ध साधना तप को प्रयत्न का प्रयास के अर्थ में ही ग्रहण करती है और इसी अर्थ में बौद्धसाधना तप के महत्त्व को स्वीकार करके चलती है. भगवान बुद्ध महामंगल सुत्त में कहते हैं“तप ब्रह्मचर्य आर्यसत्यों का दर्शन और निर्वाण का साक्षात्कार, ये उत्तम मंगल हैं. इसी प्रकार कासिभारद्वाज सुत्त में भी तथागत कहते हैं-मैं श्रद्धा का भी बीज बोता हूँ, उस पर तपश्चर्या की वृष्टि होती है. शरीर और वाणी पर संयम रखता हूँ और आहार से नियमित रहकर सत्य के द्वारा मन के द्वारा मन के दोषों की गोडाई करता हूँ.” दिद्विवज्ज सुत्त में शास्ता कहते हैं-किसी तप या व्रत के करने से किसी के कुशल धर्म बढ़ते हैं, अकुशल धर्म घटते हैं, तो उसे अवश्य करना चाहिए. स्वयं बुद्ध अपने को तपस्वी कहते हैं. बुद्ध का स्वयं का जीवन कठिनतम तपस्याओं से भरा हुआ है. उनके अपने साधना काल एवं पूर्व जन्मों का इतिहास एवं वर्णन, जो हमें बौद्ध आगमों में उपलब्ध होता है, उनके तपोमय जीवन का साक्षी है, मज्झिमनिकाय, महासीहनाद सुत्त में बुद्ध सारिपुत्त से अपनी कठिन तपश्चर्या का विस्तृत वर्णन करते हैं. यही नहीं सुत्तनिपात के पावज्जा सुत्त में बुद्ध बिंबिसार महाराज श्रेणिक से कहते हैं-अब मैं तपश्चर्या के लिए जा रहा हूँ. उस मार्ग में मेरा मन रमता है. यद्यपि उपरोक्त तथ्य बुद्ध के जीवन की तप-साधना के महत्त्पूर्ण साक्षी है, फिर भी यह सुनिश्चित है कि बुद्ध ने तपश्चर्या के द्वारा देह-दण्डन की प्रक्रिया को निर्वाण की उपलब्धि में आवश्यक नहीं माना. लेकिन, उसका अर्थ केवल इतना ही है कि बुद्ध मात्र अज्ञान युक्त देह-दण्डन को निर्वाण के लिए उपयोगी नहीं मानते थे ज्ञान समन्वित तप-साधना उन्हें स्वीकृत थी. श्री भरतसिंह उपाध्याय के शब्दों में - “गौतम बुद्ध की तपस्या में मात्र शारीरिक यंत्रणा का भाव बिल्कुल नहीं था, किन्तु वह सर्वथा सुख-साध्य भी तो नहीं थी." डॉ. राधाकृष्णन का कथन है “यद्यपि बुद्ध ने कठोर तपश्चर्या की आलोचना की, फिर भी यह आश्चर्य जनक है कि बौद्ध श्रमणों का अनुशासन किसी भी ब्राह्मण ग्रंथ में वर्णित अनुशासन (तपश्चर्या) से कम कठोर नहीं है, यद्यपि शुद्ध सैद्धांतिक दृष्टि से वे निर्वाण की उपलब्धि तपश्चर्या के अभाव में भी संभव मानते हैं, फिर भी व्यवहार में तप उनके अनुसार आवश्यक प्रतीत होता है." बुद्ध के परिनिर्वाण के बाद भी बौद्ध भिक्षुओं में धूतंग (जंगल में रहकर विविध प्रकार की तपश्चर्या करने वाले) भिक्षुओं का महत्त्व काफी अधिक था. विसुद्धिमग्ग एवं मिलिन्दप्रश्न में ऐसे धूतंगों की प्रशंसा की गई है. दीपवंश में कश्यप के संबंध में लिखा है कि वे धूतवादियों के अग्रगण्य थे - "धूतवादानं वग्गो सो कस्सपो जिनशासने." मेरी दृष्टि में यह सब तथ्य बौद्ध धर्म में तप का क्या स्थान रहा है, इसे बताने के लिए पर्याप्त है. तप यदि नैतिक जीवन की एक अनिवार्य प्रक्रिया है, तो उसे किसी लक्ष्य के निमित्त होना चाहिये. अतः यह निश्चय कर लेना भी आवश्यक है कि तप का उद्देश्य क्या है? For Private And Personal Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जीवन दृष्टि ६० जैन - साधना का लक्ष्य शुद्ध आत्म-तत्त्व की उपलब्धि है, आत्म-शुद्धिकरण है लेकिन यह शुद्धिकरण क्या है ? जैन-दर्शन यह मानता है कि प्राणी कायिक, वाचिक एवं मानसिक क्रियाओं के माध्यम से कर्म-वर्गणाओं के पुद्गलों को अपनी और आकर्षित करता है और ये आकर्षित कर्म-वर्गणाओ के पुद्गल राग-द्वेष या कषाय-वृत्ति के कारण आत्मा से एकीभूत हो, उसको शुद्ध सत्ता, शक्ति एवं ज्ञानज्योति को आवृत्त कर देते हैं. यह जड़ एवं चेतन तत्त्व का संयोग ही विकृति है, विभाव है, बंधन है. अतः शुद्ध आत्म-तत्त्व की उपलब्धि के लिए आत्मा के शुद्ध स्वरूप को आवृत्त करने वाले कर्म-वर्गणाओं के पुद्गलों का पृथक्करण की यह क्रिया निर्जरा कही जाती है, जो दो रूपों में संपन्न होती है. जग कर्मवर्मणा के पुद्गल अपनी निश्चित समयावधि के पश्चात अपना फल देकर स्वतः अलग हो जाते हैं, तो यह सविपाक निर्जरा कहलाती है. लेकिन यह साधना का मार्ग नहीं है. साधना तो सप्रयासता में है. जब प्रयासपूर्वक कर्म - पुद्गलों को आत्मा से अलग किया जाता है, तो उसे अविपाक निर्जरा कहते हैं. और जिस प्रक्रिया के द्वारा यह अविपाक निर्जरा की जाती है, वही तप है. इस प्रकार तप का प्रयोजन है- प्रयासपूर्वक कर्म पुद्गलों को आत्मा से अलग कर उसके स्वरूप को प्रकट करना. शुद्ध आत्मतत्त्व की उपलब्धि से आत्मा के विशुद्धिकरण की यह प्रक्रिया है. भगवान महावीर तप के संबंध में कहते हैं कि “ तप आत्मा के परिशोधन की प्रक्रिया है. आबद्ध कर्मों के क्षय करने की पद्धति है. तप से महर्षिगण पूर्व संचित कर्मों को नष्ट कर देते हैं. तप, राग-द्वेष जन्य- पाप कर्मों के बंधन को क्षीण करने का मार्ग है. उपरोक्त तथ्यों के आधार पर जैन-साधना में तप का उद्देश्य आत्म-परिशोधन - पूर्वबद्ध कर्म पुद्गलों को आत्म-तत्त्व से अलग करना और शुद्ध आत्म-तत्त्व प्रकट करना ही सिद्ध होता है. हिन्दू साधना में तप का स्थान : हिन्दू साधना मुख्यतः औपनिषदिक साधना का लक्ष्य आत्मा या ब्रह्म की उपलब्धि रहा है. औपनिषदिक विचारणा स्पष्ट रूप से उद्घोषण करती है " तप से ब्रह्म को खोजा जाता है. तपस्या से ही ब्रह्म को जानो यहीं नहीं, औपनिषदिक विचारणा में भी जैन विचारणा के समान तप को शुद्ध आत्म-तत्त्व की उपलब्धि का साधन माना गया है. मुण्डकोपनिषद् में कहा गया है - इस आत्मा को (जो ज्योतिर्मय और शुद्ध है) तपस्या और सत्य के द्वारा ही जानी जा सकती है. औपनिषदिक परम्परा भी जैन - परम्परा के समान ही यह मानती है कि तप के द्वारा कर्मरज दूर कर मोक्ष को प्राप्त किया जा सकता है. मुण्डकोपनिषद् के दूसरे मुण्डक का ११ वां श्लोक इस संदर्भ में विशेष रूप से द्रष्टव्य है. उसमें कहा गया है- “जो शान्त विद्वद्जन वन For Private And Personal Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६१ भारतीय संस्कृति में तप-साधना में रहकर भिक्षाटन करते हुए तप और श्रद्धा का सेवन करते हैं, वे विरज हो-कर्म रज को दूर कर सूर्य द्वारा उर्ध्व मार्ग से वहाँ पहुंच जाते हैं, जहाँ वह पुरुष (आत्मा) अमूल्य एवं अव्यय होकर निवास करता है. हिन्दू विचारणा में जहाँ तप आत्म-शुद्धि का साधन माना गया है, वहाँ उसके द्वारा होने वाली शरीर और इन्द्रियों की शुद्धि के महत्त्व को भी अंकित किया गया है. उसका सम्बन्ध आध्यात्मिक जीवन के साथ ही भौतिक जीवन से भी जोड़ा गया है. महर्षि पतंजलि योग-सूत्र में लिखते हैं - "तप से अशुद्धि का क्षय होने से शरीर और इन्द्रियों की शुद्धि (सिद्ध) होती बौद्ध साधना में तप का प्रयोजन पापकारक अकुशल धर्मों को तपा डालना माना गया है. इस सन्दर्भ में बुद्ध और निर्ग्रन्थ उपासक सिंह सेनापति का संवाद पर्याप्त प्रकाश डाल देता है. बुद्ध कहते हैं - "हे सिंह! एक पर्याय ऐसा है, जिससे सत्वादी मनुष्य मुझे तपस्वी कह सके. यह पर्याय कौनसा है? हे सिंह! मैं कहता हूँ कि पापकारक अकुशल धर्मों को तपा डाला जाय. जिसके पाप कारक अकुशल धर्म गल गये, नष्ट हो गये, फिर उत्पन्न नहीं होते, उसे मैं तपस्वी कहता हूँ.” इस प्रकार बौद्ध साधना में भी जैन साधना के समान, तप को आत्मा की अकुशल चित्तवृत्तियों को क्षीण करने हेतु स्वीकार किया गया है. For Private And Personal Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ध्यान और साधना ध्यान से ध्येय तक : जिनेश्वर के सन्देश को पोस्टमेन की तरह आपके पास पहुंचाने का कार्य मेरे गुरुदेव के द्वारा मुझे सौंपा गया है. श्रमण होने से उस कार्य की पूर्ति का श्रम मैं कर रहा हूँ. आप श्रावक हैं- सुनने वाले. सुनकर आपको यह विचार करना है कि संसार के बन्धन से किस प्रकार मैं अपनी आत्मा को मुक्त करूँ. साधना के द्वारा किस प्रकार अपने उज्ज्वल भविष्य का निर्माण करूँ. शुक्लध्यान की प्राप्ति के लिए किस प्रकार प्रयत्नशील बनूँ... आदि. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir परमात्मा का ध्यान करने से पहले अपने मन को विषय वासना से और कषायों से मुक्त करना जरुरी है. परमात्मा ही हमारा ध्येय है, ध्यान के द्वारा ध्येय तक हमें पहुंचना है. हमारे विचार, आचार, कार्य, व्यवहार सब ध्येय के अनुकूल होने चाहिये. साधना में सहायक होने चाहिये. स्व-पर कल्याण की कामना साधक के रोम-रोम में समाई हुई रहनी चाहिये. परोपकार उसका स्वभाव बन जाना चाहिये प्राणिमात्र के लिए उसके हृदय में सहानुभूति होनी चाहिये. जिससे दूसरों के दुःख को वह अपना दुःख समझकर उसे दूर करने का प्रयास कर सके. मन की एकाग्रता : ऐसी करुणा भावना ही ध्येय की प्राप्ति का कारण बन जाती है. मन की एकाग्रता के लिए माला फिराने की बात कही जाती है; परन्तु माला हाथ में फिरती रहती है और मन चारों दिशाओं में दौड़ लगाता रहता है : माला तो कर में फिरे, जीभ फिरे मुख माहिं । मनुआ तो चहुं दिसि फिरे, यह तो सुमिरन नाहिं । । कबीर साहब कहते हैं कि मन को ही फिराने की जरुरत है : माला फेरत जुग गया, मिटा न मन का फेर । कर का मनका डारि दे, मन का मनका फेर ।। इतना ही नहीं, स्वयं माला के ही मुँह से उन्होंने उपदेश दिलाते हुए कहा 'कबिरा ' माला काठ की, कहि समुझावै तोहि । मन न फिरावे आपणा, कहा फिरावै मोहिं । । मन को संसार से हटाकर परमात्मा के चरणों में लगाना है, प्रेम के अभाव में यह कार्य For Private And Personal Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ध्यान और साधना असम्भव है, परमात्मा के गुणों का स्मरण करने से प्रेम उत्पन्न हो सकता है : चन्दे सु निम्मलयरा, आइच्चेसु अहियं पयासयरा । सागरवरगम्भीरा, सिद्धा सिद्धिं मम दिसन्तु ।। Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६३ जो सिद्ध देव चन्द्रों से अधिक निर्मल है - सूर्यों से अधिक प्रकाशवान है और श्रेष्ठ समुद्र के समान गम्भीर है, वह मुझे सिद्धि प्रदान करे. लोग कहते हैं- “महाराज ! हमारा मन माला गिनने में नहीं लगता, क्या करें?" मैं उनसे पूछता हूँ कि आपको अपनी तिजोरी के नोट गिनने में मन कैसे लग जाता है; उसमें मन कैसे एकाग्र हो जाता है ? सिनेमा देखने जाते हैं, तब ढाई घन्टे तक कैसे पर्दे पर ध्यान जमा रहता है? उपन्यास पढ़ते समय क्यों खाना-पीना तक भूल जाते हैं ? इसका मतलब यह हुआ कि जिन वस्तुओं में आपकी रूचि होती है, प्रेम होता है, उनमें मन लग जाता है, दूसरी वस्तुओं में नहीं लगता. आप में से किसी को बम्बई जाना हो और कोई उदार सज्जन दस हजार रुपयों की एक गड्डी आपको दे दे और कह दे कि यह सारा धन मेरी ओर से वहाँ परोपकार में लगा दीजियेगा. आप गड्डी लेकर नागौर से चल पड़ते हैं. मुसाफिरी करते समय ट्रेन में आपके बहुत साथी होंगे. मित्र होंगे, परिवार के लोग होंगे. सबसे आप बातचीत करेंगे. गप-शप लड़ायेंगे. सब करेंगे, किन्तु किसी को भी यह सन्देह नहीं होने देंगे कि आपके शरीर पर पहने हुए कोट की भीतरी जेब में दस हजार रुपयों की एक गड्डी छिपी पड़ी है. बम्बई सेन्ट्रल पर उतर कर आप बस, ट्राम, टेम्पो, टैक्सी आदि से रास्ता पार करके जिस घर पर आतिथ्य स्वीकार करेंगे, उस घर के निवासियों से भी सब प्रकार की बातचीत करेंगे. शौच-स्नान भोजन आदि सारे कार्य करेंगे, परन्तु मन आपका उस गड्डी में ही केन्द्रित रहेगा. बिना आमन्त्रण के चित्त आपका उसी वर्तुल में चक्कर लगाता रहेगा. क्यों होता है ऐसा? इसलिए कि आप उस गड्डी का मूल्य समझते हैं. ठीक इसी प्रकार जब आप आत्मा का, परमात्मा का मूल्य समझ लेंगे - महत्त्व जान लेंगे, तब माला में मन लगने लगेगा. जिस दिन 'स्व' और 'पर' का भेद आपके ध्यान में आ जायेगा. जड़ और चेतन का भेद समझ में आ जायेगा. शरीर और आत्मा के भिन्न स्वरूप का बोध हो जायगा. उस दिन से मन को एकाग्रता सिखानी नहीं पड़ेगी. वह स्वयं ध्यान में डूब जायेगा. ध्येय में तल्लीन हो जायेगा. अनादिकालीन कर्म बन्धन से आत्मा को मुक्त करने के लिए प्रयत्नशील हो जायेगा. For Private And Personal Use Only कर्म बन्धन से मुक्ति का साधना है- परमात्मा के स्वरूप का स्मरण. उसी को हम ध्यान कहते हैं. Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६४ जीवन दृष्टि ध्यान के लिए एक समय निश्चित कर लेना चाहिये. यदि दस बजे आपको दूकान खोली हो तो कुछ बिफोर टाइम आप जा पहुंचेंगे; परन्तु साधना के क्षेत्र में सदा आफ्टर टाइम पहुँचेंगे. ऐसा नहीं होना चाहिये. संसार के क्षेत्र में आपका पुरुषार्थ सदा जागृत रहता है किन्तु परमार्थ के क्षेत्र में पुरुषार्थ सो जाता है. पैसों की प्राप्ति के लिए आप सदा आगे रहते हैं, परन्तु परमात्मा की प्राप्ति के प्रयत्न में पिछड़ जाते हैं. इसका कारण यह है कि आप धार्मिक कार्यों को साइड बिजिनेस मानते हैं. हुआ तो ठीक, नहीं भी हुआ तो कोई बात नहीं. ध्यान के लिए एकाग्रता की आवश्यकता : भौतिक संसार की प्राप्ति में सुख का अनुभव करना मानव जीवन का अनादिकालीन लक्षण है, स्वभाव है, संस्कार है. इसके विपरीत परमात्मा की प्राप्ति में आनन्द का अनुभव करना बहुत ऊँचे दर्जे की चीज है, उसके लिए साधना करनी पड़ती है. • हम ध्यान की, आत्मा की, परमात्मा की कितनी भी चर्चा करें, केवल चर्चा से कोई लाभ सम्भव नहीं है, जब तक कि अनुकूल साधन जुटा लिये जायें. ध्यान के लिए आवश्यक बातें : सबसे पहला साधन है - समय निश्चित करना. ब्राह्ममुहूर्त का समय उसके लिए बहुत उपयोगी रहता है. प्रातः पांच बजे आपको उठना है, उठ ही जाना है, जिससे आप समय के अनुकूल अपने को तैयार कर सकें. समय कभी आपके अनुकूल नहीं बनेगा. आपको स्वयंही समय के अनुकूल अपने को ढालना पड़ेगा. दूसरी बात है- स्थान निश्चित करना, जहाँ आप ध्यान करने बैठें, वह भूमि सुन्दर हो, पवित्र हो, स्वच्छ हो, स्थायी हो बार-बार स्थान का परिवर्तन मनोवैज्ञानिक दृष्टि से मानसिक चंचलता का कारण बनता है. चंचलता से व्यग्रता आती है, जो साधना में बाधा डालती है. साधना में समय और स्थान के निश्चय की जो उपेक्षा करते हैं, वे सफलता की अपेक्षा कैसे कर सकते हैं? जिस स्थान पर ध्यान किया जाता है उसके अणु-परमाणु वातावरण भी साधक को प्रभावित करते है. आदि शंकराचार्य अपने सर्व प्रथम मठ की स्थापना के लिए स्थान की तलाश में निकले. पूरे भारत में भ्रमण करते हुए अन्त में वे कर्नाटक पहुँचे, वहाँ पदयात्रा करते हुए उन्हें एक स्थान पर एक आश्चर्य-जनक दृश्य दिखाई दिया. उन्होंने देखा कि धूप से तपी हुई रेती से झुलसा हुआ एक मेढ़क तड़प रहा है और पास ही एक काला नाग अपने फन से उस पर For Private And Personal Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ध्यान और साधना छाया कर रहा है. वे सोचने लगे कि मैं कहीं इन्द्रजाल तो नहीं देख रहा हूँ. जो दृश्य मुझे दिखाई दे रहा है, वह यथार्थ है या केवल मेरी दृष्टि का भ्रम है? आस-पास रहने वाले ऋषि-मुनियों से पूछने पर उन्हें उत्तर मिला – “जो दृश्य आपने देखा, वह यथार्थ ही है, कल्पित नहीं. अहिंसक ऋषिमुनियों के आश्रमों के चारों ओर एक ऐसा वर्तुल होता है, जिसमें सहज वैरी भी अपना वैर भूल कर परस्पर सहायता करने लग जाते हैं. यह उस पवित्र भूमि के वातावरण का प्रभाव है. उस प्रभाव से हिंसक क्रूर प्राणी भी प्रेमी और परोपकारी बन जाते हैं." प्रभु महावीर जहाँ समवसरण करते थे, वहाँ भी ऐसा ही पवित्र वातावरण एक निश्चित सर्कल बन जाता था. ध्यान और संकल्प शक्ति का प्रभाव : हमारे विचारों का दूसरों के हृदय पर कैसा क्या प्रभाव होता है - इसका वैज्ञानिक अध्ययन किया जा रहा है. अमेरिका का एक व्यक्ति वहाँ न्यूयार्क के पार्क की एक बैंच पर बैठा हुआ था. उस पर लन्दन से लगभग पांच हजार मील की दूरी से एक प्रयोग किया गया. प्रयोग देखने वालों ने वायरलेस से लन्दन के उस व्यक्ति को सूचित कर दिया था कि यहाँ बेंच पर बैठे हुए उस व्यक्ति को ध्यान के प्रयोग से सुलाने का प्रयास किया जाय, लन्दन के व्यक्ति ने ध्यान और संकल्प शक्ति के द्वारा पांच मिनिट में उसे सुला दिया. अमेरिका में उन लोगों ने प्रत्यक्ष देखा, किन्तु साथ ही उन्होंने सोचा कि हो सकता है, बगीचे के शान्त वातावरण के कारण-शीतल, मन्द, सुगन्धित पवन के प्रभाव से सहज ही उसे निद्रा आ गई हो. संकल्प शक्ति का प्रभाव तो तब माना जाय, जब इसे (सोते हुए को) पुनः जगा दिया जाय. फलस्वरूप वायरलेस से सम्पर्क साध कर पुनः सूचित किया गया कि उस सोते हुए व्यक्ति को अपने प्रयोग से जगा दीजिये. लन्दन स्थित व्यक्ति ने ध्यान और संकल्प शक्ति का पुनः प्रयोग किया. पांच ही मिनिट में बेंच पर बैठा व्यक्ति जागृत हो गया. प्रयोग देखने वालों ने उससे पूछा कि तुम कैसे अचानक सो गये और जाग भी गये. ___ उस व्यक्ति ने अपना अनुभव सुनाया कि कोई मुझे अन्दर से यह कह रहा था कि सो जाओसो जाओ; और मैंने यन्त्रवत् इस आदेश का पालन किया. मैं सो गया. थोड़ी ही देर बाद मेरे मन पर किसी ने शब्दों का प्रहार किया- उठो, उठो, उठकर बैठ जाओ. यह सुनते ही मैं उठ बैठा. आंख खुलते ही चारों ओर मैंने देखा कि आस-पास कोई व्यक्ति नहीं है, फिर किसने मुझे सोने और फिर जागने का आदेश दिया. मैं आश्चर्य से सोच ही रहा था कि आप लोगों ने समीप आकर मुझसे यह प्रश्न किया. For Private And Personal Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org जीवन दृष्टि ६६ यह तो हुआ एक भौतिक स्थल प्रयोग, परन्तु आध्यात्मक दृष्टि से इसका प्रयोग सार्वजनिक कल्याण के लिए किया जाता है : Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः । सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःखमाप्नुयात् । । [ सब सुखी हों, स्वस्थ ( निरोगी) हो, सबका कल्याण हो कोई दुःख प्राप्त न करे ] यह भावना यदि प्रत्येक मनुष्य के अन्तःकरण में मौजूद रहे तो कोई दुःखी न रहे. लोग कहते हैं - 'माला से कोई लाभ नहीं होता"; किन्तु प्रभु का स्मरण मन में न हो और आप काठ की माला के मनके घुमाते रहें तो इसमें माला का क्या अपराध ? कहा है : माला अच्छी काठ की, बीच पिरोया सूत । किन्तु बिचारी क्या करे, फेरनहार कपूत ।। माला कहती है - "तुम अपने मन का दोष मुझ पर क्यों आरोपित करते हो. तुम्हारा मन चंचल है. उसमें विषय-कषाय की कालिमा है. पूरा संसार बसा हुआ है. पहले उसे बाहर निकालो. मन को निर्मल बनाओ, फिर परमात्मा का स्मरण करो, तब निश्चित ही लाभ होगा. " किसी कवि ने कहा था : रसरी आवत जात है, सिल पर परत निसान । कुएँ की शिला पर औरतें पानी खींचने के लिए जिस रस्सी का उपयोग करती हैं, उससे निशान पड़ जाते हैं. एक-एक इंच तक के गड्ढे उस कठोर पत्थर की शिला के किनारे पड़ जाते हैं. उसी प्रकार प्रभु के नाम का, उनके गुणों का, उनके पवित्र चरित्र का बार-बार स्मरण करने से मन पर भी अच्छे संस्कार पड़ जाते हैं, जो अमिट होते हैं, गहरे होते हैं, स्थायी होते हैं. नाम स्मरण कभी निष्फल नहीं होता. उससे चित्तवृत्तियों का निरोध होता है. मन में पवित्रता पैदा होती है. आस-पास का वातावरण प्रभावित होता है. यह उस वातावरण का ही प्रभाव था कि सर्प जैसा क्रूर प्राणी अपने भक्ष्य मेंढक की फन फैला कर स्वयं धूप से रक्षा करने लगा. उसके मस्तिष्क से क्रूरता का भाव ही गायब हो गया. क्रूरता के बदले सहानुभूति, अनुकम्पा और परोपकार परायणता पैदा हो गई. शंकराचार्य ने निश्चय किया कि मैं अपना पहला मठ यहीं स्थापित करूँगा. ऐसी निर्दोष भूमि भला और कहाँ मिलेगी. जो मेरी साधना के अनुकूल हो ! मैं कह रहा था कि ध्यान की साधना के लिए स्थान निश्चित होना चाहिये. स्थान के विषय में आपको भी यह अनुभव आया होगा कि जिस रूम में, जिस पलंग पर जिस गादी पर आप प्रति-दिन सोते हैं. उसी रूम में, उसी पलंग पर, उसी गादी पर यदि आप For Private And Personal Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ध्यान और साधना लेटें तो तत्काल आसानी से आपको निद्रा आ जाती है, परन्तु यदि आप स्थान में कुछ परिवर्तन कर देते हैं तो आपको निद्रा के लिए प्रतीक्षा करनी पड़ती है. कुछ देर से निद्रा आती है. इस प्रकार सिद्ध होता है कि किसी भी कार्य के लिए निश्चित स्थान का अपना महत्त्व ोता है. आप भी अपनी ध्यान साधना के लिए एक ऐसा स्थान निश्चित कर लिजिये, जहाँ सब प्रकार की अनुकूलताएँ हों, कोई गड़बड़ी न हो-विक्षेप न हो. एक बार स्थान निश्चित कर लेने के वाद फिर उसमें कोई परिवर्तन न करें. कार्यवश कहीं अन्यत्र जाना पड़ जाय तो बात दूसरी है. तीसरी वात है-नियमितता. महात्मा गांधी नियमित प्रार्थना करते थे, वे कहते थे-कितना भी जरूरी काम हो, मैं प्रार्थना की उपेक्षा नहीं कर सकता. नीतिकार भी ऐसा लिख चुके हैं : शतं विहाय भोक्तव्यम्, सहस्त्रं स्नानमाचरेत् । लक्षं विहाय दातव्यम्, कोटिं त्यक्त्वा प्रभु स्मरेत् । । [सौ आवश्यक काम भी सामने हों तो उन्हें छोड़ कर पहले भोजन करना चाहिये. हजार काम छोड़कर स्नान और लाख काम छोड़ कर दान करना चाहिये. परन्तु करोड़ काम छोड़ कर प्रभु का स्मरण करना चाहिये.] इस श्लोक में प्रभु स्मरण का महत्त्व दान से सौ गुना अधिक घोषित किया गया है. चौथी वात है दिशा की, यह भी निश्चित कर लेनी चाहिये. साधना के लिए पूर्व और पश्चिम अधिक अनुकूल है, उत्तर और दक्षिण प्रतिकूल है, क्योंकि उत्तरी ध्रुव और दक्षिणी ध्रुव मन को अध्रुव (चंचल) बना देते हैं. पूर्व और पश्चिम इन दोनों दिशाओं में भी पूर्व दिशा अधिक अनुकूल मानी गई है. इसलिए ध्यान के लिए प्रातःकाल पूर्वदिशा में मुँह करके बैठे पांचवीं बात है- आहार शुद्धि. आपका आहार शुद्ध हो. सात्त्विक हो, परिमित हो यह भी साधना के लिए जरुरी है. अनियमित अशुद्ध गरिष्ठ आहार से प्रमाद पैदा होता है. छठी वात है- वस्त्रों की शुद्धि. साधना के लिए जिस वस्त्र का आप उपयोग करें, वह स्वच्छ हो और आपका खुद का हो, साथ ही वह वस्त्र किसी अन्य व्यक्ति के उपयोग में आया हुआ न हो. सातवीं वात है- संख्या की. पहले जितनी संख्या में जाप करना हो, वह न्यूनतम संख्या निर्धारित कर ली जाय. ऐसा न हो कि आज एक माला फिराई, कल पच्चीस और परसों एक भी नहीं. पहले निर्धारित संख्या में नियमित जाप किया जाय और फिर अधिक गुंजाइश हो तो धीरे-धीरे संख्या बढ़ाई जाय. याद रखने की बात यह है कि जाप में क्वांटिटी की अपेक्षा क्वालिटी अधिक महत्त्वपूर्ण होती है. क्वालिटी (शुद्ध भावना) के अभाव में केवल क्वांटिटी (संख्या) की वृद्धि की गई तो उससे आत्मा की पुष्टि नहीं मिलेगी. मनोविकारों को ही पुष्टि For Private And Personal Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जीवन दृष्टि ६८ मिलेगी. “मैंने सवा लाख जप किया है. दस हजार मालाएं फिराई हैं. पांच वर्षों से सुबह उठ कर ध्यान करता हूँ..." आदि अहंकार प्रकट होकर सभी साधना को ध्वस्त कर देगा. घी शक्ति वर्धक है, परन्तु दस-बीस ग्राम के परिमाण में सेवन किया जाय तभी, अन्यथा और कुछ न खाकर किलोग्राम घी ही खा लिया जाय तो आपकी क्या दशा हो जायेगी ? आप समझ सकते हैं. यही बात जाप की संख्या के लिए समझें. आठवीं बात है - गुरु का मार्गदर्शन. साधना जिसकी प्रेरणा से कर रहे हैं, उसी से उसकी सम्पूर्ण विधि समझ लें. गुरु की कृपा से विधिपूर्वक साधना में सफलता निश्चित रूप से मिलती है. नौवीं बात है - ब्रह्मचर्य, शीलधर्म, सदाचार या स्वदार सन्तोष व्रत का पालन. सदाचार साधना का प्राण है. प्राण निकल जाने पर साधना की केवल लाश रह जायगी. दसवीं और अन्तिम वात है- मन की शान्ति, मानसिक निर्मलता. जब परमात्मा का ध्यान करना है, तब संसार की किसी वस्तु का ध्यान नहीं आना चाहिये. नमक से मकोड़े को उठा कर शक्कर के पहाड़ पर रख दिया गया और उससे पूछा कि बताओ शक्कर का स्वाद कैसा है तो उसने " खारा” बताया, क्योंकि उसके मुँह में नमक का अंश था. जब वह अंश निकाल दिया गया, तब कहीं जाकर उसे शक्कर का मीठा स्वाद आया. इसी प्रकार जब तक मन में संसार घुसा रहेगा, तब तक उसमें परमात्मा का प्रवेश नहीं हो सकता. सेठ मफतलाल का जूता : अनादिकाल से हमारे जीवन में कुटिल संस्कार है कि हम अपनी ओर न देखकर केवल दूसरों की ओर ही देखा करते हैं. सेठ मफतलाल भाई किसी व्यवसाय के सिलसिले में बम्बई गये. वहाँ एक लॉज में ठहरे. जव भी वे बम्बई जाते, उसी लॉज में अपने निश्चित रूम में ठहरा करते थे. उनके रूम के ऊपर एक रूम था. सेठ के आने पर मैनेजर उस ऊपर वाले रूम को खाली ही रहने देता था, क्योंकि सेठ को किसी प्रकार का डिस्टर्वेन्स पसन्द नहीं आता था, ऊपर के रूम में जरा भी धमधमाहट होती तो सेठजी को नींद नहीं आती थी. ऐसी दशा में वे चिल्लाहट करते और झगड़ने लगते. उनकी बड़बड़ाहट से दूसरों की नींद भी हराम हो जाती थी, इसलिए मैनेजर ऊपर वाले रूम को सेठजी के आते ही ताला लगा दिया करता था. उस दिन भी उसने वैसा ही किया. रात की शुरूआत ही हुई थी कि कहीं से एक अन्य व्यक्ति भी वहाँ आया. उसे अन्य किसी लॉज में ठहरने के लिए रूम नहीं मिला था. वड़ी आशा के साथ वह इस लॉज में आया था. मैनेजर से उसने कहा कि मैं आपकी लॉज मे रात-भर ठहरना चाहता हूँ. किसी भी तरह एक रूम खाली हो तो दे दीजिये. For Private And Personal Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ध्यान और साधना __ मैनेजर ने कह दिया कि - कोई रूम खाली नहीं है; परन्तु आगन्तुक बहुत चतुर था. उसने की-बोर्ड पर नजर डाली, वहाँ एक चाबी लटक रही थी. उसे देखकर मैनेजर से कहा - “यह चावी बता रही है कि इस लॉज में एक रूम खाली है, फिर आप क्यों इन्कार कर रहें हैं?" मैनेजर ने सेठ मफतलाल के झगडालू स्वभाव की बात कही और यह भी बता दिया कि जरा भी डिस्टर्बेस उन्हें पसन्द नहीं आता. आगन्तुक ने मैनेजर को विश्वास दिलाया कि मैं जरा भी डिस्टर्व नहीं करूँगा, कदम भी धीरे-धीरे रखूगा. किसी को मालूम तक नहीं होने दूंगा कि यहाँ कोई आकर ठहरा भी है. आप मुझे रूम दे दीजिये. मैनेजर ने उसे चावी सौंप दी. आगन्तुक बहुत थका हुआ था. ताला खोल कर उसने ऊपर वाले रूम में प्रवेश किया. फाटक के पास ही दीवार पर स्विच बोर्ड लगा था. उसने स्विच ऑन किया. फाटक वन्द करके सीधे पलंग पर वैठते ही एक पाँव से जूता निकाल कर फाटक के पास धचाक् से फंक दिया. उसी समय मैनेजर को दिया हुआ अपना, ध्वनि न करने का आश्वासन याद आया. वह सम्भल गया. दूसरा जूता उसने धीरे-से निकाला और दबे पाँवों से जाकर पहले जूते के पास रख दिया और फिर अपने पलंग पर आकर लेट गया. उधर थोड़े समय बाद सेठ मफतलाल सीढ़ी चढ़कर ऊपर आये. उस रूम का दरवाजा खटखटाया आगन्तुक व्यक्ति ने उठकर द्वार खोला. सामने सेठ खड़े थे. बोले - “आपको मैंने डिस्टर्ब किया, इसके लिए क्षमा करें. पिछला एक घण्टा मेरा बहुत बेचैनीसे गुजरा. आप आये, मैनेजर से चावी ली, रूम खोला, पलंग पर बैठकर एक जूता खोला-यह सब मुझे मालूम है. मैं इस रूम के नीचे वाले रूम में लेटा हुआ था. मैं भी आज ही आया हूँ. आपने एक जूता फेंका. उसकी आवाज मुझे आई; परन्तु दूसरे जूते का क्या हुआ-यह मुझे समझ में नहीं आया. आप लँगड़े हैं या एक पाँव में लकवा है अथवा एक जूता आपका कहीं खो गया है-क्या वात है? खूब विचार करने पर भी यह रहस्य सुलझ नहीं पाया. उससे इतनी बैचेनी हो गई कि अपनी शंका का समाधान करने के लिए मुझे आपके पास आना पड़ा है. मेरे दिमाग में घुसे हुए जूते को यदि आप निकाल देगें तो मुझे आसानी से नींद आ जायेगी. आगन्तुक ने हँस कर कहा – “सेठजी! पहला जूता निकाल फेंकने के बाद मुझे ध्वनि न करने को अपना (मैनेजर को दिया) आश्वासन याद आ गया था; इसलिए दूसरे पांव के जूते को निकाल कर धीरे से मैंने पहले जूते की बगल में रख दिया था; इसलिए उसकी आवाज आपको सुनाई नहीं दी." सेठ मफतलाल दूसरा जूता दिमाग से निकालने के लिए आगन्तुक को धन्यवाद देकर अपने रूम को लौट गये. हमारे दिमाग में भी संसार का जूता ऐसा घुसा हुआ है कि अपने आपको जानने का हम प्रयास ही नहीं करते. दूसरों को ही देखते हैं, अपने को नहीं. साधना के लिए यह जरूरी है For Private And Personal Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७० जीवन दृष्टि कि हम अपने को देखें. दूसरों की अपेक्षा स्वयं को देखना कहीं अधिक अच्छा है. पानी जितना स्वच्छ होगा, स्थिर होगा. आपका चेहरा उसमें उतना ही स्पष्ट दिख सकेगा. उसी प्रकार मन की चंचलता मिट जाने पर, चित्तवृत्तियों में ध्यान के द्वारा एकाग्रता आ जाने पर शुद्ध मन में शुद्ध चैतन्य के स्पष्ट दर्शन किये जा सकते हैं. मानसिक शुद्धि आवश्यक : मुश्किल यही है कि मानसिक शुद्धि के लिए हम कोई वास्तविक प्रयत्न नहीं करते. हमारे यहाँ बातें तो बहुत होती हैं. हर आदमी आत्मा-परमात्मा की चर्चा कर लेता है, परन्तु हमारी स्थिति कपड़ों की दुकान पर रखे लोहे के मीटर के समान हो गई है. हजारों व्यक्तियों को वह मीटर कपड़े नाप-नाप कर पहना चुका है. सैंकड़ों को श्वेताम्वर और सैंकड़ों को विचित्राम्बर बना चुका है, परन्तु यह स्वयं दिगम्बर रहता है, कपड़ों के थानों का एक इंच सूत भी इसके शरीर पर लगा हुआ नहीं मिलता. __ हमारी भी यही दशा है. मुँह से त्याग का, तप का, परमात्मा की साधना का, चर्चा का हजारों टन माल पैक कर देते हैं. सप्लाई कर देते हैं; परन्तु जब अपनी आत्मा को झांक कर देखते हैं तो साधना के एक सूत का टुकड़ा भी वहाँ नहीं मिलता. बम्बई से लौटते समय मैं एक कालेज के अन्दर ठहरा. वहाँ देखा कि कुछ वच्चे मैदान में फुटबॉल खेल रहे थे. जहाँ भी वह बॉल जाकर गिरती थी, वहीं से उसे किक लगाई जा रही थी. ठोकर लगाई जा रही थी. किसी भी बच्चे के द्वारा उसे हाथ में उठाने का प्रयास नहीं किया जा रहा था. मैंने फुटबॉल से पूछा – “क्यों भाई! क्या हालत है? इतना अपमान क्यों हो रहा है आपका?" वह बोला :- “महात्मान्! मेरे भीतर कुछ भी नहीं है. मैं केवल हवा से फूला हुआ हूँ. यही है मेरे अपमानित होने का कारण." याद रखिये यदि हमारा जीवन भी धर्म से रहित होगा. साधना से शून्य होगा तो हमारी भी यही दशा होगी यदि संसार की हवा से (वासना से) हम फूले रहें तो चौरासी लाख जीवयोनियों में भटकना पड़ेगा. सब जगह अपमानित होना पड़ेगा. एक बार मैं एक मन्दिर में गया, वहाँ आरती हो रही थी. नगारा बजाया जा रहा था. डंडे से पीटा जा रहा था. इस प्रकार निरन्तर पीटे जाने का कारण पूछने पर उसने बताया :-- "महाराज! मेरे भीतर पोल है. शून्य है, यही कारण है कि मैं पीटा जा रहा हूँ." यदि व्यक्ति भी इसी प्रकार सदाचार से शून्य होगा तो यही शून्यता उसके लिए रुदन बन जायगी. जगह-जगह बार-बार कर्म के डंडे की पिटाई उसे खानी पड़ेगी. For Private And Personal Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७१ ध्यान और साधना यदि आप आध्यात्मिक क्षेत्र में आगे बढ़ना चाहते हैं तो आपको बहुत कुछ सहना पड़ेगा. सहनशीलता के बिना किसी भी साधना में सफलता नहीं मिल सकती. सहनशीलता का सम्मान : आज हमारे यहाँ सबसे बड़ी कमी इसी बात की है - सहिष्णुता जिसे हम तपस्या भी कह सकते हैं, हमारे पास विल्कुल नहीं है. धनार्जन के क्षेत्र में हम सहनशील बन जाते हैं; परन्तु धर्मार्जन के क्षेत्र में जरा भी सहनशीलता हमारे भीतर नहीं रहती, साधना के लिए सहनशीलता, धीरज, शान्ति, दृढ़ता आदि गुणों की अत्यन्त आवश्यकता रहती है. दिल्ली में गणतन्त्र दिवस पर महामहिम राष्ट्रपति राष्ट्रीय ध्वज तिरंगे झंडे को सलामी दे रहे थे. वहीं सामने राष्ट्रपति भवन में दरवाजों पर खिड़कियों पर पर्दे लगे हुए थे. वे कश्मीर से लाये गये थे. बहुत कीमती थे. उनमें से एक पर्दा सहसा सिसकियां भर-भर कर रोने लगा. किसी कवि की नजर उस पर पड़ गई. सहानुभूति-पूर्वक कवि ने उस पर्दे से रोने का कारण पूछा पर्दे ने कवि से कहा- “दुनिया का अन्धेर देखकर मुझे रुलाई आ रही है." कवि ने पूछा - "तुमने कौनसा अन्धेर अभी देखा? जरा स्पष्ट समझा कर कहो." पर्दे ने कहा – “एक छोटा-सा खद्दर का टुकड़ा, जिसमें कोई सुन्दरता नहीं-कोई कला नहींकोई मजबूती नहीं-कोई विशेषता उसमें नहीं, फिर भी सवसे ऊपर लहरा रहा है. राष्ट्रपति जैसा राष्ट्र का सर्वोच्च अधिकारी भी उसे सलामी दे रहा है-सारी सेना उसका सम्मान कर रही है. वड़े-बड़े नेता और प्रमुख नागरिक उसके सामने सिर झुकाकर उसकी सुरक्षा के लिए प्रतिज्ञा कर रहे हैं. इधर मेरी हालत देखिये. मैं सुन्दर हूँ. मजबूत हूँ - मूल्यवान् हूँ; फिर भी यहाँ लटक रहा हूँ. दिन में तीन बार चपरासी आता है और मेरा कान पकड़कर इधर से उधर, उधर से इधर सरका जाता है. कितनी ग्रेट इन्सल्ट मेरी यहाँ की जाती है? आज तक मुझे कोई सलामी देने सन्मान देने वाला नहीं मिला." पर्दे की व्यथा कथा सुनकर कवि ने शान्ति से समझायाः -- “पर्दे भाई! यह खद्दर का टुकड़ा साधारण कपड़ा नहीं है, राष्ट्रध्वज होने से पूरे राष्ट्र का प्रतीक है. दूसरे राष्ट्र भी इस झंडे को भारत समझ कर सन्मानित करते हैं. यह असल में उसकी साधना का सम्मान है. मई और जून महिने की भयंकर गर्मी में वह प्रसन्नता से लहराता है, जुलाई और अगस्त की तूफानी वरसात में भी वह मुस्कुराता रहता है. दिसम्बर-जनवरी की कड़कड़ाती ठंड से भी वह नहीं घबराता, उसमें कैसी सहन-शीलता है? कितनी तपस्या है? यही सब देखकर साधारण नागरिक से राष्ट्रपति तक सभी उसका सन्मान करते हैं. उसकी तुलना में तुम्हारी साधना कैसी है? करोड़ों रुपयों की लागत से बने हुए भव्य राष्ट्रपति भवन में तुम रहते हो, ठंड हो, गर्मी हो या वरसात तुम पर किसी मौसम का कोई प्रभाव नहीं For Private And Personal Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७२ जीवन दृष्टि पड़ता, क्योंकि तुम्हें एयरकंडीशन्ड रूम में रखा गया है. जहाँ सुरक्षार्थ समस्त सुविधाएं मौजूद है; इस लिए राष्ट्र ध्वज जैसे सन्मान की तुम्हें आशा नहीं करनी चाहिये." यह सुनकर पर्दे को बहुत सन्तोष हुआ, उसके मन में लगी हुई ईर्ष्या की आग बुझ गई, दुःख मिट गया. पर्दे और झंडे के उदाहरण से मैं आपको जो समझाना चाहता हूँ, वह आप कुछ-कुछ समझ ही गये होंगे, फिर भी अपनी ओर से स्पष्टीकरण कर देना चाहता हूँ कि जहाँ पर भौतिक सुख सामग्री प्रचुर मात्र में होगी, वहाँ रह कर सन्मान पाना संभव नहीं है, संसार तो सहनशील का ही सम्मान करता है. साधक जीवन में सहयोग, साधना में तल्लीनता और सहनशीलता ये तीन गुण अपेक्षित हैं. जरा-जरासी बात पर रुष्ट होना और मानसिक सन्तुलन खो देना अच्छा नहीं, लोग कहते हैं – “महाराज! क्रोध आ जाता है. आ ही जाता है, क्या करें?" मैंने कहा – “सब जगह क्रोध नहीं आता. पुलिस स्टेशन पर या इन्कम-टेक्स ऑफिसर के सामने कभी आपने गुस्सा किया है क्या? यदि वहाँ कहा जाय कि आप चोर हैं - वेईमान हैं. नालायक हैं तो भी आप चुप रहते हैं. विरोध भी करना हो - अपने ऊपर लगाये गये आरोपों का खण्डन भी करना हो तो आप क्रोध नहीं करते. जो कुछ कहना हो, कोमल शब्दों में कहते हैं. कैसी नम्रता-कितनी लघुता कैसा अनुशासन अपने आप में उत्पन्न हो जाता है वहाँ! प्रतिकार में संघर्ष बढ़ता है. स्वीकार से ही समर्पण की, त्याग की भावना जन्म लेती है. परमात्मा के दर्शन के लिए मैं एक दिन मन्दिर जा रहा था. ज्यों ही मैंने सीढ़ी के पत्थर पर कदम रक्खा , वह रोने लगा. रुदन का कारण पूछने पर उसने बताया :- “सव लोग मुझ पर पांव रखकर जाते हैं. कुछ लोग मेरी छाती पर जूते खोल कर रख देते हैं. कितने ही वर्षों से यह सिलसिला चल रहा है. पता नहीं, कब तक मुझे यह घोर अपमान सहना पडेगा. आप जैसे साधु - सन्त भी मेरी छाती पर पांव रख कर मुझे अपमानित करने में विल्कुल नहीं सकुचाते. जिस खदान से मेरा जन्म हुआ, उसी से उस पत्थर का भी जन्म हुआ है, जिसके आप दर्शनार्थ पधारे हैं. दुनिया का यह पक्षपात कैसा? यह अन्याय कैसा?" मैंने उसे समझाया :- “भाई पत्थर! जिस खदान से तू पैदा हुआ, उसी से वह पत्थर भी हुआ, जिसके दर्शन करने सब लोग आते है, परन्तु दोनों में अन्तर कितना है? उस पत्थर ने मूर्तिकार की छेनी - हथौड़ी के तीखे प्रहार शान्ति से सहन किये-तपस्या की है. प्रभु महावीर ने बारह वर्ष तक घोर परिषह-उपसर्ग सहन किये थे. उनकी प्रतिमा में भी कुछ सहिष्णुता तो होनी ही चाहिये. उस सहिष्णुता का उस पत्थर ने परिचय दिया है. सारे प्रहार उसने स्वीकार For Private And Personal Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७३ ध्यान और साधना किये हैं. कभी कोई प्रतिकार नहीं किया. निरन्तर छह महीनों तक मूर्तिकार के मन मस्तिष्क में महावीर स्वामी की मंगलमय आकृति छाई रही. परिणाम स्वरूप वह पत्थर मूर्ति बन सका. यह मूर्ति का सन्मान वास्तव में उस पत्थर की भी तपस्या का सन्मान है और जिन प्रभु महावीर की आकृति उसने धारण की है, उनकी तपस्या का भी. । दूसरी ओर तुम हो. शिल्पी के सामने तुम्हें भी ले जाया गया. सहिष्णुता की परीक्षा करने के लिए उसने हथौड़ी का एक प्रहार किया. तुम आवेश में आ गये. क्रेक हो गये. उसने तुम्हें सीढ़ी के योग्य पत्थर की आकृति बनाकर छोड़ दिया. लोगों से उसने कह दिया कि यह पत्थर प्रतिमा के योग्य नहीं है. अयोग्य घोषित कर दिये जाने पर तुम्हें यहीं सीढ़ी में लाकर फिट कर दिया गया. असहिष्णुता की सजा तुम्हें मिल रही है. प्रतिकार का फल तुम्हें यहाँ भोगना पड़ रहा है.” यह सुनकर उसका रुदन शान्त हो गया. अब वह समझदार हो गया था, इसलिए क्रोध नहीं किया मुझ पर, अन्यथा कहा है :उपदेशो हि मूर्खाणाम् प्रकोपाय न शान्तये । पयः पानं भुजङनाम् केवलं विषवर्धनम् ।। (मूों को यदि उपदेश दिया जाय तो इससे गुस्सा वढ़ता ही है, शान्त नहीं होता. साँपों को दूध पिलाने से केवल उनका जहर बढ़ता है.) ___ गरम दूध में नीम्बू का रस डाल दिया जाय तो तुरन्त फट जाता है. उत्तेजित व्यक्ति को उपदेश देने पर उसके सारे सद्गुण नष्ट हो जाते हैं. क्षुब्ध व्यक्ति गरम तेल के समान होता है. उसमें उपदेश-रूपी पानी के छींटे डाल दिये जायँ तो उछलकर वह उपदेश को ही जलाने का प्रयास करता है, महाराष्ट्र के सन्त तुकाराम कभी क्षुब्ध नहीं होते थे. एक वार किसी खेत के पास से गुजर रहें थे कि वहाँ किसान ने गन्ने का एक भारा उन्हें भेंट किया. भारा उठा कर ला रहे थे कि रास्ते में अनेक बच्चों ने उनसे गन्ने की मांग की. सन्तों में सहज उदारता होती है. भारा से गन्ना निकाल कर एक वच्चे को दिया, फिर दूसरे को, फिर तीसरे को. इस प्रकार बाँटते रहे और जव घर पहुँचे तो उनके पास केवल एक ही गन्ना बचा था. गन्ना देखकर पत्नी आगबबूला हो गई. दिन भर वाहर रहे और शाम को लौटे तो केवल एक गन्ने के साथ! पत्नी ने गन्ना हाथ में उठाया और उसी से सन्त तुकाराम के सिर पर प्रहार किया. गन्ने के तीन टुकड़े हो गये. सन्त ने कहा :- “परमेश्वर! पत्नी हो तो ऐसी कि इस गन्ने के टुकड़े भी मुझे नहीं करने दिये, स्वयं ही कर दिये. बंटवारा हो गया गन्ने का. एक टुकड़ा बच्चे के लिए; एक पत्नी के लिए और एक मेरे लिए. कितना अच्छा हुआ?" For Private And Personal Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७४ जीवन दृष्टि यह सुनकर पत्नी हँस पड़ी. उसका गुस्सा गायब हो गया. गुस्से को गायव करने के लिए एक विचारक ने उपाय बताया है : “यदि गुस्सा आ जाय तो मन ही मन एक से दस तक गिनती करो और अगर तेज गुस्सा हो तो सौ तक." इसमें सहिष्णुता की ही बात कही गई है. एक उपाय मैं भी वताता हूँ - गुस्से को दूर करने का. मान लीजिये, आप के घर में टेलीफोन की घंटी बजती है और बातचीत करने पर मालूम होता है कि सामने वाला व्यक्ति आपका विरोधी है - दुश्मन है. फोन पर वह आपको अपशब्द सुनाने लगा है :- “तुम ठग हो, तुम धूर्त हो - लुच्चे हो - बदमाश हो - चोर हो..." इस प्रकार सैंकड़ों गालियां आपको देकर अपने दिल की भड़ास निकाल देता है. उसके वाद आपकी प्रतिक्रिया जानने के लिए वह क्षण भर चुप रहता है. ठीक उसी समय आप दो शब्द बोल दीजिये – “रोंग नंबर" सामने वाला निराश होकर मुँह लटका कर बैठ जायेगा कि मैंने गुस्से में न जाने किसको क्या - क्या कह डाला. वह अपने आप पछताता रहेगा और शान्त हो जायेगा. इसी प्रकार प्रत्यक्ष भी आपको कोई आकर हजार-हजार अपशब्द कह जाय - गालियां दे जाय, आप मन में कह दीजिये – “रोंग नंबर” इससे आप पर उन अपशब्दों का कोई प्रभाव नहीं पडेगा. पागल का उपचार यह नहीं है कि आप भी पागल बन जाय, यदि कुत्ता हमें काट खाये तो क्या हम भी उसे काटने दौड़ते हैं. कभी नहीं, परन्तु व्यवहार में हम यह वात भूल जाते हैं, जो भयंकर साबित होती है. एक साधु किसी बगीचे में ठहरा हुआ था. वहाँ किसी अन्य व्यक्ति ने घुस कर चुपचाप पके - पकाये फल तोड़ लिये. माली ने फल कम देखकर उस साधु पर शंका की. उसे डंडे से पीटने लगा. साधु इस परिषह को बहुत शान्ति से सहता रहा, परन्तु उसके शिष्यों से गुरुजी का यह अपमान सहा नहीं गया. वे सब उस माली से झगड़ने लगे - उसे भला - बुरा कहने लगे. ठीक उसी समय कुछ सज्जन बगीचे से बाहर जाते हुए दिखाई दिये. साधु ने उनसे जाने का कारण पूछा - तो वे बोले - “हम आपको वन्दन करने आये थे, परन्तु आपके शिष्यों का क्रोध देखकर हमारी श्रद्धा आपके प्रति समाप्त हो गई, इसलिए हम वन्दन किये बिना ही लौट रहे हैं." क्या बात हुई? शिष्यों के क्रोध ने गुरुदेव को भी अयोग्य साबित कर दिया, यद्यपि गुरुदेव सुयोग्य ही थे. For Private And Personal Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७५ ध्यान और साधना किसी विचारक ने लिखा है - “क्रोध समुद्र सा वहरा और आग सा उतावला होता है. क्रोध मनुष्य को बहरा बना देता है, इसलिए वह मनमानी करता है. किसी की बात नहीं सुनता आग के समान उतावला होता है - जल्दबाजी में वह कुछ भी कर डालता है. एक सूक्ति है “क्रोध मूर्खता से शुरु होता है और पछतावे पर खत्म". क्रोधी अन्त में पछताता है, किन्तु जब पछताता है, तब तक बहुत कुछ हानि हो चुकी होती है. प्रभु महावीर ने क्या उपाय बताया है क्रोध का? उन्होंने कहा - "उवसमेण हवे कोहं ।।" [उपशम से क्रोध को नष्ट करना चाहिये.] प्रोफेसर की परेशानी : अमेरिका के एक प्रोफेसर को गुस्सा करने की आदत थी. वात-बात पर उनका टेम्प्रेचर हाई हो जाता था. पढे - लिखे थे, समझदार थे, इसीलिए क्रोध के दुष्परिणामों को देखकर बाद में पछतावा भी करते थे, परन्तु वेचारे अपनी आदत से मजबूर थे. इस आदत में वे परेशान भी वहुत रहते थे. उनकी परेशानी को देखकर उनके एक मित्र ने उन्हें एक उपाय बताया. उसके अनुसार प्रोफेसर साहब ने सौ कोरे लिफाफों का एक पैकेट लाकर अपने नौकर को दे दिया. साथ ही उससे कह दिया कि जब भी मुझे गुस्से में देखो, इस पैकट में से एक लिफाफा लाकर मेरे सामने मेज पर रख दिया करो. नौकर ने मालिक के आदेश के आधार पर लिफाफा रखना शुरु कर दिया. उसे देखते ही प्रोफेसर साहव को स्मरण हो आता कि वे कुछ गलती कर रहे हैं. गुस्सा कोई अच्छी आदत नहीं है. काम तो शान्ति से भी बन सकता है, फिर गुस्सा करके अपने को और दूसरो को क्यों परेशान किया जाय. धीरे-धीरे उनकी आदत सुधर गई और जीवन भर के लिए पछतावे की परेशानी मिट गई. संत की सहिष्णुता : महाराष्ट्र के सन्त एकनाथ के विषय में यह प्रसिद्ध था कि वे गुस्सा नहीं करते. एक युवक ने इसे अस्वाभाविक समझा और उन्हें गुस्सा दिलाने के लिए उनके घर जा पहुंचा. उस समय For Private And Personal Use Only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जीवन दृष्टि ७६ एकनाथ स्नान करके पूजा करने बैठ गये थे. युवक हाथ - पांव धोये विना ही सीधे सन्त की गोद में जाकर बैठ गया. सन्त ने युवक "बेटे! मिलने के लिए तो यहाँ बहुत से लोग आते के सिर पर प्रेम से हाथ फिराते हुए कहा है, परन्तु तुम्हारा प्रेम अद्भुत है.' " फिर भोजन का समय हुआ. एकनाथ की पत्नी श्रीमति गिरजावाई थाली परोसने के लिए की. उसी समय उछल कर वह युवक उनकी पीठ पर सवार हो गया. यह देखकर सन्त एकनाथ ने कहा " देखना यह वालक कहीं गिर न जाय. " गिरजावाई ने उत्तर "मुझे अपने वेटे हरि को पीठ पर लाद कर काम करने की आदत है ही; इसलिए इसे नहीं गिरने दूंगी." युवक दोनों की सहिष्णुता से अत्यन्त प्रभावित होकर प्रणाम करके, क्षमायाचना करके चलता वना. साधक में इतना विवेक तो होना ही चाहिये कि प्रतिकूल परिस्थिति को वह अपने अनुकूल बना ले. क्रोध की कोई दलील नहीं है : एक साहित्यकार जव अपने घर रात को देर से पहुंचे तो उनकी पत्नी ने बड़बड़ाते हुए खाना परोसा, बोली " यदि समय पर आते तो भोजन ताजा मिलता - गरम मिलता. अव खाओ ठंडा कीचड़ " साहित्यकार ने तत्काल वह परोसी हुई थाली उठा कर पत्नी के सिर पर रख दी. उसने पूछा " यह आप क्या कर रहें हैं ?" पति ने कहा - " गुस्से में तुम्हारे सिर का टेम्प्रेचर बढ़ गया है, इसलिए सोचा कि भोजन क्यों न उसी से गरम कर लूँ !” यह सुनकर पत्नी हँस दी. उसका गुस्सा गायव हो गया. एक विचारक ने लिखा है " शान्त रहो . क्रोध युक्ति नहीं है." हम किसी को कोई बात समझाना चाहते हैं तो शान्ति से भी समझा सकते हैं. समझाने के लिए युक्तियां चाहिये दलीलें चाहिये; परन्तु क्रोध अपने आप में कोई युक्ति (दलील) नहीं है. आपका व्यवहार, आपकी वाणी, आपका मुखमण्डल- सव कुछ ऐसा होना चाहिये, जो सामने आये क्रुद्ध व्यक्ति का सारा आवेश खत्म कर दे. For Private And Personal Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७७ ध्यान और साधना साधक को संसार में कदम-कदम पर सावधान रहना है. पता नहीं, कव क्रोध का कोई निमित्त मिल जाये और मैं लुट जाऊँ-मेरी साधना लुट जाये. क्रोध की जरा-सी भी चिनगारी जीवन की सम्पूर्ण साधना को जलाकर राख कर सकती है; इसलिए अपनी मनोवृत्ति को सदा जागृत रखने की जरूर है. यदि बुखार में कभी आपके शरीर का तापमान बढ़कर १०४ या १०५ डिग्री तक पहुँच जाय और उसी समय आपका कोई घनिष्ट मित्र आपके सामने गुलाब जामुन, खोपरा पाक, रसगुल्ले आदि मिठाइयों की और सेव, चिवड़ा, समोसा आदि नमकीनों की प्लेट सजा कर कहे कि आज मेरा जन्म-दिन है-वर्ष गांठ है-खुशी का दिन है; इसलिए ये सव बड़े प्रेम से मैं आपके लिए लाया हूँ. आप इनका भोग लगाइये. तो क्या आप खायेंगे? क्या वह सब खाने की रूचि आप में उस समय होगी? बिल्कुल नहीं. यदि जवर्दस्ती खिलाने की कोशिश की तो आपको तत्काल उल्टी हो जायेगी. इस उपद्रव का एकमात्र कारण है-बुखार . यदि टेम्प्रेचर डाउन हो जाय-नॉर्मल हो जाय तो आपको भूख लगेगी-खाने में रूचि पैदा होगी और रूखी रोटी भी अत्यन्त स्वादिष्ट लगेगी. यही दशा आज हमारी है. यहाँ जो भी बैठे हैं, वे चाहे साधु-साध्वी हों या श्रावक-श्राविका हों, इतना हाई टेम्प्रेचर सवके भीतर भरा हुआ है कि मैं सदा अलग-अलग डिशों में उत्तम पुरुषों के योग्य उत्तम धर्म-भोजन परोस कर खाने का आग्रह करूँ तो आप इन्कार कर देंगे. मैं कहूँ कि मेरे पास त्याग है, तप है, पूजा है, ध्यान है, दान है, आराधना है, साधना है, सामायिक है, प्रतिक्रमण है, उपासना है, नाम-जप है, परोपकार है, उदारता है, सेवा है, विनय है... बहुत सी वेरायटीज हैं. मैं कहूँ कि आप इनमें से कोई भी अपनी रूचि का धर्म भोजन चुन लीजिये-स्वीकार कीजिये तो आप कहेंगे-“नहीं-नहीं महाराज, अभी नहीं. अभी इनमें से कुछ नहीं ले सकता." मैं समझता हूँ, यह वीमारी है. जव तक विषय-कपाय का टेम्प्रेचर डाउन नहीं होगा-स्वभाव शान्त नहीं होगा-नॉर्मल न होगा, तब तक प्रवचन के माध्यम से परोसी गई मेरी कोई सामग्री आपको नहीं रूचेगी. घर में आपने औरतों को रोटी सेंकते समय देखा होगा कि वे गर्म होने पर ही तवे पर रोटी डालती हैं. यदि रोटी के बदले गर्म तवे पर वे पानी के कुछ छींटे डाल दें तो क्या होगा? छुम्म की आवाज के साथ सब छींटे सूख कर गायव हो जायेंगे. आपके हृदय का टेम्प्रेचर भी उस तवे जैसा ही है. उस पर घन्टे भर तक प्रवचनामृत के छींटे भले ही डाले जायें, परन्तु ज्यों ही इस उपाश्रय से बाहर निकले त्यों ही छुम्म करके सव साफ हो जाता है. कुछ भी नहीं वचता. कुछ भी नहीं टिकता. For Private And Personal Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७८ जीवन दृष्टि जब मन सन्तुलित होगा, तभी परमात्मा के विचार जीवन में आचार का रूप ग्रहण कर पायेंगे. क्रोध शत्रु है : आप क्रोध किस पर करते हैं? जो आपका शत्रु है, उसी पर. शत्रु कौन है? जो आपका अहित करता है, वही. आपका अहित करने वाला-आत्मा को कलुषित करने वाला कषाय क्रोध ही तो है. इसलिए वही आपका शत्रु है. क्रोध करना हो तो क्रोध पर ही कीजिये, जिससे वह भाग जाय, कहा भी है“अवकारिषु कोपश्चेत् कोप कोपः कथं न ते?" [यदि अपकारी पर क्रोध आता है तो क्रोध पर ही तुम क्रोध क्यों नहीं करते?] ठीक ही कहा गया है. विष का निवारण विष से किया जाता है, कांटे से कांटा निकाला जाता है. इसी प्रकार क्रोध से क्रोध मिटाया जा सकता है; परन्तु शर्त यह है कि वह अपने ही क्रोध पर किया जाय, दूसरों के क्रोध पर नहीं. दूसरों के क्रोध को अपने क्रोध से मिटाने का प्रयत्न तो ऐसा ही होगा, जैसे खून के दाग को खून से धोने का प्रयत्न. साधना के लिए समर्पण आवश्यक : साधना की सफलता के लिए पूर्ण समर्पण चाहिये. जव तक मन में क्रोध आदि किसी भी कषाय का अस्तित्व है, तब तक समर्पण का भाव पैदा नहीं हो सकता. धर्म क्रियाओं के प्रति जो रूचि होनी चाहिये, वह नहीं हो सकती. सामायिक में विश्वास नहीं हो सकता. माला फिराने में एकाग्रता नहीं आ सकती. __ मन को सन्तुलित, सन्तुष्ट और शांत करने के लिए उसे मौत का भय दिखाना भी उपयोगी है. सिर्फ एक नोटिस जिस दिन आप मन को दे देंगे, वह सावधान हो जायेगा. नोटिस इसकी कि एक दिन मृत्यु होने वाली है. यह जीवन एक यात्रा है, जो श्मशान पर समाप्त होगी. प्रतिदिन हम एक-एक कदम मृत्यु-रूपी मंजिल की ओर ही तो बढ़ा रहे हैं! यह सुन्दर शरीर मृत्यु के वाद जला दिया जायेगा अथवा गाड़ दिया जायेगा. कोई साथ आने वाला नहीं है. प्रिय से प्रिय वस्तु भी वहीं छूट जाने वाली है :धनानि भूमौ पशवश्च गोष्ठे भार्यां गृहद्वारि जनः श्मशाने । देहश्चितायां परलोक मार्गे कर्मानुगो गच्छति जीव एकः ।। [धन जमीन में ही रह जायेगा (पहले धन सुरक्षा के लिए जमीन में गाड़ दिया जाता था), पशु बाड़े में छूट जायेंगे, पत्नी घर के द्वार पर रह जायेगी, कुटुम्वी और मित्र लोग श्मशान तक आयेंगे और यह शरीर भी चिता तक साथ आयेगा (चिता में जला दिया जायेगा; इसलिए For Private And Personal Use Only Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ध्यान और साधना ७९ यहीं छूट जायेगा) परलोक में अच्छे-बुरे कर्मों के साथ जीव अकेला ही जायेगा!] जिस धन का संग्रह करने के लिए व्यक्ति अपना सम्पूर्ण जीवन बिता देता है, वह नश्वर है-जड़ है. चेतन आत्मा को उसकी गुलामी से दूर रहना चाहिये. मृत्यु संसार के क्षणिक पदार्थों से आत्मा को अलग कर देती है. जो मृत्यु को याद रखता है, वह प्रसन्न रहता है. कहा गया यह जीवन की साधना, कभी न मन अवसन्न । खुद भी सदा प्रसन्न हो, जग को रखे प्रसन्न ।। जीवन साधक शोक में, कभी न फँसने पाय । उसकी संगति प्राप्त कर, रोता भी हँस जाय ।। -“सत्येश्वर गीता” से प्रसन्नता परम गुण है : प्रसन्न रहने और प्रसन्न रखने वाले एक जीवनसाधक महाराष्ट्र में उत्पन्न हुए थे-सन्त एकनाथ. किसी व्यक्ति ने उनसे उनकी प्रसन्नता का रहस्य पूछा. इस पर सन्त एकनाथ ने कहा - "भाई! प्रश्न का उत्तर तो मैं वाद में देता रहूँगा; परन्तु अभी तो मैं तुम्हारे लिए एक भविष्यवाणी करना चाहता हूँ. भविष्यवाणी भी इतनी ही कि एक सप्ताह के बाद तुम्हारी मृत्यु हो जायेगी." यह सुनकर वह व्यक्ति घवराहट में पड़ गया. भागता हुआ सीधे अपना घर पहुँचा वहाँ बैठकर सोचने लगा कि किस-किसका कितना कर्ज चुकाना बाकी है. सूची बनाई और एक-एक व्यक्ति के पास जाकर उसकी राशि धन्यवाद सहित लौटा दी. जिन-जिन लोगों से लड़ाई-झगड़ा किया था-जिनका अपमान किया था-जिन्हें गालिया दी थीं, उन सवसे हाथ जोड़कर चरणों में प्रणाम करके क्षमायाचना कर ली. अपना दिल हल्का कर लिया. इस प्रक्रिया में छह दिन निकल गये, सातवें दिन मृत्यु का स्वागत करने के लिाग निश्चिन्त होकर वह खाट पर लेटा था. सन्त की भविष्यवाणी पर उसे पूरा विश्वास था. आज रात को मैं सब कुछ छोड़कर परलोकवासी हो जाऊँगा-ऐसा सोचते हुए उसे ऐसा लगने लगा कि शरीर में धीरे-धीरे कमजोरी बढ़ती जा रही है. खाना-पीना सब छूट गया. शाम को सन्त एकनाथ ने उस व्यक्ति के घर में प्रवेश किया. कमजोरी के कारण वह उठ नहीं पाया. लेटे-लेटे ही उसने सन्त को प्रणाम किया. सन्त ने उससे कहा "भाई! तुम्हारे लिए एक अच्छी खवर लाया हूँ कि तुम कई वर्षों तक और जीने वाले हो. मृत्यु आज नहीं आने वाली है." For Private And Personal Use Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ८० जीवन दृष्टि इस कथन का ऐसा मनोवैज्ञानिक प्रभाव उस व्यक्ति पर पड़ा कि वह सहसा उठ बैठा. उसकी सारी कमजोरी जाती रही. दौड़ के उसने सन्त के चरणों में प्रणाम किया. फिर कहा- “आपने पहले मेरी मृत्यु की भविष्यवाणी क्यों की थी ?” Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सन्त ने कहा - " वह भविष्यवाणी तो तुम्हारे प्रश्न का उत्तर देने के लिए ही की थी. बताओ, पिछले सात दिनों में तुमने कौन-कौन से पाप किये है? " व्यक्ति बोला- “महाराज ! पाप तो कुछ नहीं; केवल कृत पापों के प्रायश्चित और पश्चात्ताप में ही सात दिन निकल गये; परन्तु इसका मेरे प्रश्न से क्या सम्बन्ध है? मैंने तो आपकी प्रसन्नता का रहस्य पूछा था !” सन्त ने कहा- " मरण का स्मरण ही मेरी प्रसन्नता का रहस्य है. जिस प्रकार एक सप्ताह तक मरण का स्मरण रहने से तुमने निष्पाप जीवन विताया- निश्चिन्त और प्रसन्न रहे, उसी प्रकार जीवन भर हम मरण का स्मरण रखते हैं; इसलिए निष्पाप निश्चिन्त और प्रसन्न रहते हैं.” मनोवृति पर अंकुश आवश्यक : आपको भी यह सूत्र सदा ध्यान में रखना चाहिये कि एक दिन हम मरने वाले हैं. इससे मनोवृत्तियों पर अंकुश रहता है. एक बार आदिनाथ प्रभु ऋषभदेव ने भरत चक्रवर्ती की प्रशंसा समवसरण में की. एक सुनार को वह अनुचित लगी. - " वाप वेटे की प्रशंसा करता ही है. इसमें बड़ी बात घर आकर उसने पड़ोसियों से कहा क्या है? वे कहते थे कि भरत संसार में रहकर भी निर्लिप्त है; किन्तु यह असम्भव है. संसार में जैसे वे रहते हैं, वैसे हम भी रहते हैं. हम यदि निर्लिप्त नहीं हैं तो भरत निर्लिप्त कैसे रह सकते हैं?" गुप्तचरों से यह बात मन्त्री को मालुम हुई. उसने सोचा कि सुनार ने प्रभु ऋषभदेव की भी आलोचना की है और भरत चक्रवर्ती की भी. अतः उसे किसी तरह समझाकर उसका भ्रम दूर कर देना चाहिये. इसके लिए उन्होंने एक योजना बनाई. उसके अनुसार सुनार को बुलाकर उसके सामने तेल से भरा हुआ एक सोने का कटोरा रख दिया और कहा “यह कटोरा उठा कर तुम्हें नगर की मुख्य सड़क पर चलना है और उसी सड़क से लौट कर यहाँ आना है. इस वीच कटोरे से तेल की एक बूँद भी छलकनी नहीं चाहिये. हमारे दो सैनिक नंगी तलवारें हाथों में लेकर पीछे-पीछे चलते रहेंगे और कटोरे से यदि एक भी बूँद गिर गई तो तत्काल तुम्हारा मस्तक काटकर नीचे गिरा देंगे. यदि तुम विना एक भी बूँद छलकाये सकुशल राजमहल में लौट आये तो यह सोने का कटोरा स्वर्ण मुद्राओं से भर कर तुम्हें इनाम में दे दिया जायेगा.” सुनार भय और प्रलोभन से अभिभूत होकर चल पड़ा. तेल का कटोरा उसने अपनी दोनों For Private And Personal Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ध्यान और साधना हथेलियों पर रख लिया. नजर वरावर तेल की सतह पर टिकी रही. सड़क पार करके वह फिर उसी सड़क पर से राजमहल लौट आया. मन्त्री ने उसका ध्यान कटोरे पर से हटाने के लिए स्थान-स्थान पर सड़क के दोनों और विविध नृत्य-गीतों के कार्यक्रम आयोजित किये थे; फिर भी सुनार नहीं फिसला. ___ मन्त्री से उसने इसका कारण पूछा. सुनार ने बताया - “मेरा पूरा ध्यान तेल की सतह पर ही केन्द्रित रहा; क्यों कि जरा-सी असावधानी पर मेरा मस्तक काट दिया जाने वाला था! इसलिए सड़क के दोनों और कहाँ कौन से कैसे कार्यक्रम हो रहे हैं- इस और मैंने विल्कुल ध्यान नहीं दिया." मन्त्री ने कहा - "मरण का स्मरण रहने के कारण जिस प्रकार तुम्हारा ध्यान इधर-उधर नहीं गया. उसी प्रकार भरत चक्रवर्ती का भी ध्यान इधर-उधर नहीं जाता. वे प्रजापालन की जिम्मेदारी तो पूरी सावधानी से निभाते हैं, परन्तु मरण का स्मरण रहने से निष्पाप जीवन विताते हैं, संसार में रहकर भी विपय-भोगों से निर्लिप्त रहते हैं. प्रभु ऋषभदेव ने उनकी जो प्रशंसा की थी, वह यथार्थ थी." सुनार का भ्रम मिट गया, प्रभु की आलोचना के लिए उसने क्षमायाचना की. मन्त्री ने स्वर्ण मुद्राओं से भरकर वह सोने का कटोरा उसे इनाम में देकर विदा किया. मरण का स्मरण आसक्ति को विरक्ति में परिवर्तित करने की सामर्थ्य रखता है. हाथ में तेल लगा कर उसे पानी में डुवो दीजिये. फिर वाहर निकालकर देखिये. पानी की एक बूँद भी उस पर नहीं मिलेगी. पानी में रहकर भी हाथ निर्लिप्त रहा. उसी प्रकार विरक्ति का तेल मन पर लगाकर उसे संसार में छोड़ देने पर भी वह निर्लिप्त रहेगा. दूध गरम करने पर भगोनी को चूल्हे से उतारने के लिए महिलाएँ संडसी का प्रयोग करती हैं. डायरेक्ट भगोनी को नहीं छती. संसार भी गरम भगोनी के समान है. उसे वैराग्य की संडसी के माध्यम से छूएँ. आपका कोई नुकसान नहीं होगा. चमड़े की आँख से संसार दिखता है और मन की आँख से परमेश्वर. साधना के लिए मन की आँख खोलने की जरूरत है. वैराग्य से मन की आँख खुलेगी. मन की आँख खुलने पर परमात्मा प्रत्यक्ष दिखाई देने लगेंगे. आप साधना से सिद्धी की ओर पहुँच जायेंगे. एक वार भी यदि ध्यान में और साधना में प्रवेश हो जाय तो फिर पूर्णता में कोई कठिनाई नहीं रहती अमावस्या के वाद प्रतिपदा को भी घोर अन्धकार होता है - रात में, परन्तु बीज (द्वितीया) की रात में यदि छोटा-सा चांद भी प्रकट हो गया-आसमान में प्रविष्ट हो गया तो धीरे-धीरे स्वयं की पूर्णिमा का चन्द्र वन ज़ायगा. हम भी संसार की विषय वासना से बाहर निकलकर यदि परमात्मा की शरण में चल जायें-ध्यान और साधना में प्रविष्ट हो जायें तो स्वयं ही पूर्ण वन जायेंगे. प्रयास केवल प्रवेश के लिए करना है. For Private And Personal Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मितभाषिता : एक मौन साधना मौन और सम्यक्त्व : प्रभु महावीर द्वारा उपदिष्ट आचारांग सूत्र की एक टीका में लिखा है : मनुर्भावो मौनम् ।। [ मुनि के भाव को मौन कहते हैं ] व्रत जो स्वीकार करता है, उसे मुनि कहते हैं. इस व्रत को स्वीकार करके मुनि को क्या करना चाहिये ? प्रभु फरमाते हैं आचारांग सूत्र में : “मुणी मोणं समादाय धुणे कम्मसरीरयं । । " [ मुनि मौन रहकर कर्मरूपी शरीर को हिलाये - नष्ट करे-आत्मा से अलग करे ] परन्तु मौन के मूल में संयम होना चाहिये. डरके मारे या अज्ञान के कारण मौन रहना मुनित्व नहीं हो सकता. एक विचारक ने लिखा है- “ भय से उत्पन्न मौन पशुता है और संयम से उत्पन्न मौन साधुता है." प्रभु महावीर ने मौन और सम्यक्त्व का अविनाभाव इन शब्दों में प्रकट किया है : "जं सम्मति पासहा तं मोणंति पासहा । जं मोणंति पासहा तं सम्मति पासहा ।।” [ जिसे सम्यक्त्व के रूप में देखते हो, उसे मुनित्व (मौन) के रूप में देखो और जिसे मुनित्व के रूप में देखते हो, उसे सम्यक्त्व के रूप में देखो ] सम्यक्त्व का विलोम मिथ्यात्व है. दोनों एक साथ नहीं रह सकते . यदि सम्यक्त्व (मौन या मुनित्व) है तो मिथ्यात्व (झूठ) नहीं रह सकता. जहाँ प्रकाश है, वहाँ अन्धकार नहीं रह सकता. असत्य का प्रयोग वाणी से होता है; इसलिए मौन की भूमिका अगर मिल जाय तो वाणी असत्य से दूषित नहीं होगी. यही कारण है कि भारत के बड़े-बड़े योगी, ऋषि, महर्षि, ज्ञानी, महात्मा मौन की साधना में लीन रहें हैं. मौन आत्म शक्ति का प्रतीक : योगदर्शन के रचयिता महर्षि पतंजलि ने अपने ग्रन्थ में लिखा है आपकी आत्मशक्ति उतनी ही अधिक केन्द्रित होगी." For Private And Personal Use Only ." आप जितना कम बोलेंगे, Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मितभाषिता : एक मौन साधना ८३ आज का मेडिकल साइन्स भी इस तथ्य की घोषणा करता है कि एक पौंड (४५० ग्राम) दूध पीने से जितनी शक्ति प्राप्त होती है, उतनी एक शब्द के उच्चारण से खर्च हो जाती है. इससे यह समझा जा सकता है कि कम-से-कम बोलने वाला अधिक से अधिक शक्तिशाली होता है. एक पाश्चात्य विचारक बेकन का कथन है- “मौन निद्रा के समान होता है, जो ज्ञान में नई शक्ति उत्पन्न करता है." दिन भर के काम से थका हुआ मनुष्य जब रात को नींद ले चुकता है, तब प्रातः उठते ही शरीर में नई शक्ति का अनुभव करता है; उसी प्रकार मौन रहने वाले के भीतर बोलने की शक्ति संचित होती रहती है. इस शक्ति का उपयोग दुष्टों के बीच कभी नहीं करना चाहिये :कोलाहले काककुलस्य जाते विराजते कोकिलकूजितं किम्? परस्परं संवदतां खलानाम् मौनं विधेयं सततं सुधीभिः ।। [जहाँ कौओं का झुण्ड कोलाहल कर रहा है-काँव-काँव कर रहा हो, वहाँ कोयल की कूक सुशोभित होती है क्या? जहाँ दुष्टों का परस्पर संवाद चल रहा हो, वहाँ सुबुद्धिमानों को लगातार मौन रखना चाहिये] जहाँ मूर्ख विवाद कर रहे हों, वहाँ भी विद्वानों को मौन रहने का सुझाव देते हुए कहा गया भद्रं भद्रं कृतं मौनम् कोकिलैर्जलदागमे । दुर्दरा यत्र वक्तार-स्तत्र मौनं हि शोभनम् ।। [बादलों के आने पर (आसमान में छा जाने पर) कोयलों ने मौन धारण करके अच्छा किया! अच्छा किया!! क्योंकि जहाँ मेंढक बोलने वाले हों, वहाँ मौन रहने में ही शोभा है] दुष्टों या मूों के साथ संवाद नहीं, विवाद होता है; क्योंकि वे लोग बकवास करते हैं. अकबर इलाहाबादी का एक शेर है शेख से छूटे, उलझे इंजन में, उसमें बकवक थी, इसमें भकभक है ।। वे धार्मिक विवाद से भी बचने की कोशिश करते थे. लिखा है :मज़हबी बहस मैने की ही नहीं। फ़ालतू अक्ल मुझमें थी ही नहीं ।। For Private And Personal Use Only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८४ जीवन दृष्टि _जिसमें फालतू (बेकार) अक्ल होती है, वही विवाद में समय नष्ट करता है. कबीर साहब अपने शिष्यों से कहते हैं :वादविवादे विषे घणां बोल्यां बहुत उपाध । मौन रहे, सबकी सहे सुमिरे नाम अगाध ।। महात्मा गांधी कहते थे :- “मौन सर्वोत्तम भाषण है. अगर बोलना ही हो तो कम से कम बोलो. एक शब्द से काम चल जाय तो दो शब्द मत बोलो.” मौन रहने वाला झूठ से बचता ही है, झगड़े से भी बच जाता है :मौनिनः कलहो नास्ति ।। [मौन रहने वाला झगड़ा नहीं करता] झगड़ा शब्द से ही प्रारम्भ होता है. हम किसी को अपशब्द कहेंगे तो सामने वाला भीसुनने वाला भी अपशब्द कहे बिना नहीं रहेगा. हमें फिर उसके जवाब में कुछ कहना पड़ेगा और फिर से कुछ कठोर कर्णकटु शब्द सुनने पड़ेंगे. इस प्रकार झगड़ा चलता रहेगा. कबीर साहबने कहा है : आवत गारी एक है, पलटत होत अनेक । 'कबिरा' जो नहिं पलटिये, वह एक की एक ।। अगर हम गाली को पलटें नहीं-मौन रह जाए तो सामने वाला भी और कुछ नहीं बोलेगा. इस प्रकार झगड़ा शान्त हो जायगा. गुजराती में दो कहावतें प्रचलित है :(१) नहीं बोल्यामां नव गुण (२) बोले ते वे खाय । अबोले त्रण खाय । ये दोनों कहावतें मौन के लाभ की ओर संकेत करती हैं. हिन्दी की भी ऐसी ही एक कहावत एक चुप सौ सुख ।। लेकिन संस्कृत की कहावत सर्वोत्तम है, जिसमें मौन को सब प्रकार की सिद्धियों का-समस्त प्रयोजनों का साधन मानते हुए कहा गया है :“मौनं सर्वार्थसाधनम् ।।" For Private And Personal Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra मितभाषिता: एक मौन साधना मौन के दो प्रकार : www.kobatirth.org “मौनावलम्बनं साधोः, संज्ञादिपरिहारतः । वाग्वृत्तेर्वा निरोधो यः, सा वाग्गुप्तिरिहोदिता । । जैन शास्त्रों में मौन के लिए वचनगुप्ति या वाग्गुप्ति शब्द का प्रयोग किया गया है. इसकी परिभाषा इस प्रकार है : Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८५ [ संकेत आदि का त्याग करके साधु जो मौन धारण करता है अथवा वाणी की प्रवृत्ति का निरोध करता है, उसे वाग्गुप्ति कहा गया है) इस परिभाषा से वाग्गुप्ति के प्रकार स्पष्ट होते हैं. पहली वाग्गुप्ति वह है, जिसमें सर्वथा मौन धारण किया जाता है. मुँह, आँख, भौंह आदि का विकार, ऊँगली से इशारा, ऊँचे स्वर में खंखारना, हुंकार, कंकर आदि फेंकना आदि अपने भाव को प्रकट करने के समस्त साधनों को सर्वथा त्याग करके “आज मुझे कुछ भी नहीं बोलना है” ऐसा सुदृढ़ अभिग्रह धारण किया जाता है. मुँह बन्द रखकर चेष्टाओं से बात कहना वास्तव में मौन है भी नहीं. केवल मौन का दम्भ है- दिखावा है . ] वागुप्ति का दूसरा प्रकार वह है, जिसमें बहुत सोच समझ कर जितना आवश्यक हो, उतना ही विनयपूर्वक मधुर, सरल शब्दों में बोला जाता है. प्रभु महावीर ने उत्तराध्ययन सूत्र में वाग्गुप्ति का फल इस प्रकार बताया है : वइत्याए णं निव्विकारत्तणं जणयइ । निव्विकारे णं जीवे अज्झप्पजोग साहणजुत्ते यावि भवद् ।। हितं यत्सर्वजीवानाम्, त्यक्तदोषं मितं वचः । तद्धर्महेतोर्वक्तव्यम्, भाषासमितिरित्यसौ । । [वाग्गुप्ति के दूसरे प्रकार को ही भाषा समिति कहते हैं. इसकी परिभाषा करते हुए आचार्य श्रीमद् विजयलक्ष्मीसूरिजी ने अपने सुविशाल ग्रन्थ " उपदेशप्रासाद" में लिखा है : (जो सब जीवों के लिए हितकारी हो, दोष रहित हो, परिमित हो ऐसा वक्तव्य धर्मार्थ देना अर्थात् धर्म प्रचार के लिए ऐसा बोलना ही भाषासमिति है ) वागुप्ति में निवृत्ति की प्रधानता है और भाषासमिति में प्रवृत्ति की प्रधानता है, यही दोनों में अन्तर है. भाषासमिति जिसमें होती है, उसमें वाग्गुप्ति अवश्य होती है. कहा है For Private And Personal Use Only समियो णियमा गुप्तो, गुत्तो समियत्तणंमि भयणिज्जा । कुसलवयमुदीरंतो, जं वइगुत्तोवि समियोवि ।। ( जो समिति वाला है, वह नियम से गुप्ति वाला है; परन्तु जो गुप्ति वाला है, वह समिति Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जीवन दृष्टि वाला हो भी सकता है और नहीं भी. जो कुशल वचन बोलने वाला है, वह वाग्गुप्ति वाला भी है और भाषा समिति वाला भी) कुशल वचन वही है, जो पूरी जानकारी के साथ बोला जाय :जमट्टं तु न जाणेज्जा, एवमेयंति नो वए ।। (जिस अर्थ का (वस्तु स्थिति का) ज्ञान न हो, उसके विषय में “यह ऐसा है" ऐसा नहीं कहना चाहिये) यदि किसी विषय में आपकी जानकारी कम है अथवा सन्देह है तो वहाँ मौन रहिये :जत्थ संका भवे तं तु, एवमेयंति तो वए ।। (जहाँ शंका हो वहाँ “यह ऐसा है" ऐसी बात नहीं बोलनी चाहिये) जानकारी होने पर भी यदि किसी बात से पाप होने की संभावना हो तो वहाँ मौन रहना चाहिये :सच्चावि सा न वत्तव्वा, जओ पावस्स आगमो ।। (ऐसी सच्ची बात भी नहीं बोलनी चाहिये, जिससे पाप का आगम हो) जैसे एक मुनि ने जंगल में किसी हरिण को किसी दिशा में जाते हुए देख लिया. पीछे से शिकारी ने आकर पूछा :- “बाबाजी! एक हरिण इधर आया था, वह किधर गया? इसके उत्तर में अपनी जानकारी के अनुसार सच्ची बात कहने पर हरिण की हत्या होने की सम्भावना स्पष्ट दिखाई देती है; इसलिए ध्यानस्थ मौन रहा जा सकता है. परन्तु मौन रहने पर शिकारी क्रुद्ध होकर उपसर्ग करने वाला हो तो उसे क्रोध के पाप से बचाने के लिए मौन तोड़ कर ऐसा बोला जा सकता है- "जिन्होंने देखा, वे बोलती नहीं और जो बोलता है, उसने देखा नहीं [अर्थात् आँखों ने देखा, पर वे वोलती नहीं और मुँह बोलता है, पर उसने देखा नहीं] मुनि की इस यथार्थ किन्तु ऊटपटाँग बात से शिकारी उन्हें पागल समझकर अन्यत्र चला जायगा. मुनि को असत्य का दोष भी नहीं लगेगा और उधर हरिण के प्राण भी बच जायेंगे. इसी को कहते हैं-कुशल वचन का प्रयोग. जापान एवं अफ्रिका की अनेक जातियों में नियमानुसार वक्ता को एक पाँव पर खड़े होकर भाषण देना पड़ता है. दूसरा पाँव गिरते ही भाषण बन्द करना पड़ता है. इस प्रथा के मूल में मितभाषिता है. कम से कम समय में, कम से कम शब्दों में वक्ता अपनी बात कह दे- यही प्रेरणा इस प्रथा में है. अमेरिका के राष्ट्रपति विल्सन से किसी ने कहा “आपको अमुक जगह दस मिनिट भाषण देना है". For Private And Personal Use Only Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मितभाषिता : एक मौन साधना ८७ वे बोले :- “आपने पहले क्यों नहीं बताया? इसके लिए मुझे दो सप्ताह तक सोचना पड़ेगा!" व्यक्ति ने कहा :- “यदि आधा घंटे तक बोलने के लिए कहा जाय तो? वे बोले :- “आधे घंटे तक बोलने के लिए भी कम से कम एक सप्ताह का समय चाहिये." व्यक्ति ने कहा :- "और यदि पुरे एक घंटे का समय भाषण के लिए निर्धारित कर दिया जाय तो?" विल्सन ने कहा :- “मैं अभी चलने को तैयार हूँ. चलिये!" इससे क्या सिद्ध होता है? संक्षिप्त भाषण में अधिक चिन्तन की - अधिक समय तक तैयारी करने की आवश्यकता होती है. बोलना एक कला है. मुँह से निकले हमारे प्रत्येक शब्द का श्रोता पर क्या प्रभाव पडेगा? इसका पूरा - पूरा विचार करके फिर मुंह खोलना चाहिये : बोलो बोल अमोल है; बोल सके तो बोल । पहले भीतर तौल कर; फिर बाहर को खोल ।। मूर्ख और विद्वान में यही अन्तर है कि विद्वान पहले सोच लेता है, फिर बोलता है. इसके विपरीत मूर्ख पहले बोल लेता है और फिर सोचता है कि वह क्या कह गया! वक्ता और वकवादी का अन्तर एक संस्कृत सुभाषित में बहुत अच्छी तरह इन शब्दों में बताया गया है : अल्पाक्षररमणीयम् यः कथयति निश्चितं स खलुवाग्मी । वहुवचनमल्पसारम् यः कथयति विप्रलापी सः।। (कम अक्षरों में सुन्दर बात जो कहता है, वह निश्चित ही कुशल वक्ता है. जिसके भाषण में शब्द अधिक हो और सार कम हो वह बकवादी है.) बहुत से वक्ता अपने भाषण की गहराई को लम्वाई से पाटने की भूल करते हैं, जो लम्बा भाषण होता है, वह प्रायः गहरा नहीं होता. एक शब्द ही नहीं - एक अक्षर भी नहीं, एक मात्रा भी यदि कम हो और पूरा भाव व्यक्त हो जाय- ऐसे वाक्य से व्याकरण के पंडितों को उतना ही आनन्द आता है, जितना पुत्र जन्म के उत्सव में :“एक मात्रालाघवेन पुत्रोत्सवं मन्यन्ते वैयाकरणाः।" For Private And Personal Use Only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ८८ जीवन दृष्टि सचमुच अपनी बात को संक्षेप में कह देना ही पाण्डित्य का फल है. मूर्खता और विद्वत्ता की वाणियों में वही अन्तर होता है, जो दीवार घड़ी की दोनों सूइयों में एक बारह गुना चलती है, दूसरी बारह गुना दर्शाती है. सोख्ता नामक शायर ने अपने विषय में लिखा है : आदत है हमें बोलने की तौल-तौल कर । है एक-एक लफ्ज बराबर वजन के साथ ।। बाइबिल में भी लिखा है : 44 'अल्प शब्दो में अधिक भावों को व्यक्त करो। " Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतांग सूत्र में लिखा है : “निरुद्धगं वावि न दीहइज्जा ।। " [संक्षिप्त बात को दीर्घ मत करो-लम्वी मत तानो] आइये, अब कुछ दृष्टान्तों के द्वारा हम यह समझने का प्रयास करें कि सारगर्भित हितकर संक्षिप्त वाणी का प्रभाव कैसा पड़ता है. चिन्तन से ही ज्ञान प्राप्ति : एक महात्मा विहार करते हुए अपने शिष्यों के साथ किसी गांव में पहुंचे, गांव वाले उनका प्रवचन सुनना चाहते थे. अपने चिन्तन से वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि ज्ञान चिन्तन से ही प्राप्त होता है, प्रवचन सुनने से नहीं, फलस्वरूप गांव के प्रमुख लोग जब उनसे प्रवचन के लिए प्रार्थना करने आये तो महात्माजी ने बोलने से इन्कार कर दिया; किन्तु लोगों का अत्यधिक आग्रह देख कर वाद में उन्होंने वोलने की स्वीकृति दे दी. प्रवचन की व्यवस्था ऐसे खुले स्थान पर की गई, जहाँ गाँव के अधिकांश स्त्री-पुरुष और बच्चे एकत्रित हो सकें. लोगों के एकत्रित हो जाने पर प्रवचन प्रारम्भ करने से पहले महात्मा ने सबसे एक प्रश्न किया : " क्या आप लोगों को आत्मा और परमात्मा पर विश्वास है?" सबने एक स्वर से कहा : " नहीं है" महात्मा बोले : “यदि आपको आत्मा और परमात्मा पर विश्वास ही नहीं है तो मैं क्या कहूँ ? नास्ति मूलं कृतः शाखा : ? जहाँ मूल का ही पता न हो - बीज का ठिकाना न हो, वहाँ सिंचाई करने से शाखायें - प्रशाखायें कैसे हो सकती हैं?" ऐसा कह कर उन्होंने तत्काल “सर्व मंगल मांगल्यम्” सुना दिया. फिर उठकर चले गये. लोगों ने परस्पर विचार किया कि इस प्रश्न को यदि फिर उठाया गया तो अपन सब इसका For Private And Personal Use Only Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मितभाषिता : एक मौन साधना पोजिटिव उत्तर देंगे. दूसरी बार प्रतिनिधि मण्डल उनके पास आग्रह करने गया. आग्रह मानकर महात्मा पधारे. उसी स्थान पर उन्होंने श्रोताओं के सामने फिर वही प्रश्न किया :- “क्या आपको आत्मा-परमात्मा पर है विश्वास ?" लोगों ने एक स्वर से कहा :- “हां, है हमें विश्वास." महात्मा ने कहा :- “तब तो मुझे कुछ भी बोलने की जरुरत नहीं है; क्यों कि मेरा प्रवचन आत्मा-परमात्मा पर विश्वास जगाने के ही लिए होता है. वह विश्वास जब आप सबके भीतर पहले से मौजूद है तो मैं क्या कहूँ?" इसके बाद “सर्व मंगल मांगल्यम्” और प्रस्थान. श्रोताओं को तो किसी तरह प्रवचन सुनमा ही था; इसलिए उन्होंने परस्पर मीटिंग करके यह निर्णय लिया कि यदि महात्मा ने पुनः यही प्रश्न उठाया तो आधे लोग कहेंगे - “विश्वास है" और आधे लोग कहेंगे - “विश्वास नहीं है" इस पर उन्हें प्रवचन देना ही पड़ेगा. तीसरी बार आग्रह करने पर फिर महात्मा चले आये. उसी स्थान पर बैठ कर उन्होंने वही प्रश्न किया. श्रोताओं के अलग-अलग उत्तर सुन कर महात्मा ने कहा :- "यह तो और भी अच्छी बात है. जिन आधे लोगों को विश्वास है, वे उन लोगों को समझा दें, जिनको विश्वास नहीं है. मैं क्या कहूँ?" ऐसा कह कर, माँगलिक सुना कर वे जहाँ से आये थे, वहीं चले गये. लोग समझ गये कि स्वयं चिन्तन करने पर ही वास्तविक ज्ञान प्राप्त हो सकता है. प्रवचन से यही लाभ होता है कि हमें चिन्तन करने की प्रेरणा मिल जाती है. यही समझाना महात्मा का उद्देश्य भी था, जिसे उन्हेंने एक-एक मिनट के तीन प्रवचनों से पूरा किया. शब्दो की प्रेरणा : एक बार किसी युद्ध में बुरी तरह से परास्त चाणक्य और चन्द्रगुप्त किसी गांव में एक घर पर जल पीने गये. घर में उस समय एक बालक खिचड़ी खाने बैठा था और गर्म खिचड़ी से ऊंगलिया जल जाने के कारण रो रहा था, बालक की मां ने उससे कहा :- "तू भी चाणक्य और चन्द्रगुप्त जैसा मूर्ख है!" मां से जल पीने के बाद चाणक्य और चन्द्रगुप्त ने पूछा :- “माताजी! चाणक्य और चन्द्रगुप्त ने कौसीन-सी मूर्खता की और उस मूर्खता का बालक से क्या सम्बन्ध है? कृपया समझा कर कहिये." For Private And Personal Use Only Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ९० जीवन दृष्टि मां ने कहा :- "जिस प्रकार आसपास के स्थानों को जीते बिना सीधे केन्द्र पर आक्रमण करने को मूर्खता के फलस्वरूप चाणक्य और चन्द्रगुप्त को बुरी तरह पराजित होने का दुःख उठाना पड़ा, उसी प्रकार इस बालक ने भी आसपास की खिचड़ी खाये बिना बीच में से उठाने की मूर्खता करके अपनी उँगलिया जला ली. दोनों ने कहा :- “धन्यवाद! हम ही दोनों चाणक्य व चन्द्रगुप्त हैं, आपने हमारी आँखें खोल दी, अब हम ऐसी भूल नहीं करेंगे." इसके बाद उन्होंने आस-पास के स्थानों पर विजय प्राप्त करते हुए क्रमशः केन्द्र पर अधिकार हासिल कर लिया. रज्जा साध्वी का विचार रहित बोलने का परिणाम : महानिशीथ सूत्र के अनुसार प्रभु महावीर ने देशना में एक दिन कहा :- “एक ही विचार रहित वाक्य के प्रयोग से रज्जा साध्वी को घोर दुःख उठाना पड़ा है." गणधर गौतम स्वामी ने पूछा :- “प्रभु! कृपया रज्जा साध्वी का पूरा वृत्तान्त सुनाइये." प्रभु बोले :- “हे गौतम! इसी भरत क्षेत्र में श्री भद्राचार्य द्वारा दीक्षित पांच सौ साधुओं और बारह सौ साध्वियों का एक गच्छ था. उस गच्छ में तीन प्रकार का जल ही काम में लिया जाता था :- (१) तीन बार उबाला गया, (२) आयाम (ओसामन) और (३) सौवीर (काँजी). पूर्व कर्म के उदय से एक बार रज्जा साध्वी को कोढ़ हो गया. उसकी यह हालत देख कर अन्य साध्वियों ने पूछा :- “आप तो दुष्कर संयम का पालन करती रही हैं, फिर आपको यह रोग कैसे हुआ?" रज्जा साध्वी ने गहरा विचार किये बिना ही कह दिया :- “प्रासुक जल पीने का यह फल भोग रही हूँ." __ यह सुनकर, एक को छोड़कर शेष समस्त साध्वियों के मन में यह आशंका उत्पन्न हो गई कि यदि हम भी गच्छ के नियम के अनुसार प्रासुका जल पीती रहेंगी तो हमें भी कोढ़ हो जायगा. परन्तु उनमें से एक साध्वी ने सोचा कि अनन्त ज्ञानियों ने संयमियों के लिए प्रासुक जल पीने का जो विधान किया है, वह गलत कभी नहीं हो सकता. रज्जा साध्वी को जो कोढ़ हुआ है, वह उसके किसी पूर्व कर्म के उदय का फल है; किन्तु उसने दुःख से छटपटाकर शास्त्र विरूद्ध वचन बोलने का घोर पाप किया है. मेरे तो यदि प्राण भी चले जायें तो भी प्रासुक जल पीने का नियम कभी नहीं तोडूंगी... ऐसा विचार करते-करते ही उसे केवल ज्ञान प्राप्त हो गया. चारों और से उसकी जय जयकार होने लगी. For Private And Personal Use Only Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मितभाषिता : एक मौन साधना केवल ज्ञान की प्राप्ति के बाद उस साध्वी ने धर्म-देशना दी. फिर रज्जा साध्वी ने उसे प्रणाम करके पूछा कि मुझे कोढ़ रोग क्यों हुआ. केवल ज्ञान के बल पर उसने बताया :- “आपने रक्त पित्त की परवाह न करके जिस स्निग्ध आहार का सेवन किया था, वह करोलिये की लार से मिश्रित था; इसीलिए आपको कोढ़ रोग हो गया. इसमें प्रासुक जल का कोई दोष नहीं है." पुनः रज्जा ने प्रश्न किया कि यदि मैं प्रायश्चित कर लूं तो तो क्या मेरा शरीर निरोगी हो जायगा? केवल ज्ञान वाली साध्वी ने कहा :- “आप शारीरिक रोग शान्त करना चाहती है; परन्तु उससे भाव रोग कैसे मिटेगा? ऐसा कोई प्रायश्चित नहीं है जो आपके भाव रोग को नष्ट कर सके. अपने शारीरिक रोग को प्रासुक जल का फल बताकर आपने अन्य समस्त साध्वियों के मन को आन्दोलित करके पथभ्रष्ट करने का जो महापाप किया है, उसके फलस्वरूप कुष्ठ के अतिरिक्त आपको भगंदर, जलोदर, वायुगुल्म, श्वास, अर्श, गंडमाल आदि अनेक व्याधियों का भोग अगले भवों में करना है और चिरकाल तक निरन्तर दारिद्र्य, दुःख दौर्गत्य, अपयश, अभ्याख्यान, सन्ताप, उद्वेग आदि का भोजन होना है." यह भविष्य सुनकर समस्त अन्य साध्वियों ने “मिच्छामि दुक्कडं” कहकर रज्जा का साथ छोड़ दिया और केवली-प्ररूपित मार्ग पर चलना प्रारम्भ कर दिया. केवल एक ही अविचारित वाक्य ने रज्जा के जीव को संसार की अनेक योनियों में भटकने को विवश कर दिया था. इस कथा से हमें सुविचारित वचन बोलने की प्रेरणा मिलती है. अविचारित वाक्य की तरह कठोर वाक्य भी त्याज्य है. चाणक्य का एक सूत्र है :अग्निदाहादपि विशिष्टं वाक्यारूष्यम् (कठोर वाणी आग से भी अधिक जलाती है!) आग से शरीर का कोई अंग जल जाय तो बर्नोल आदि लगाकर उसका उपचार किया जा सकता है; परन्तु कठोरवाणी से जो दूसरों का दिल जलाया जाता है, उसका उपचार बहुत मुश्किल से हो पाता है. इसीलिए आचारांगसूत्र में प्रभु महावीर कहते हैं :नो वयणं फरूसं वइज्जा ।। [कठोर वचन नहीं बोलना चाहिये] गुजराती में एक कहावत (संवाद गर्भित) इस प्रकार है :"हे बाई बाड़ी! छास आपजे जाड़ी।" For Private And Personal Use Only Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ९२ " जेवी तारी वाणी । तेवुं छासमां पाणी । । ” इसी प्रकार एक हिन्दी का संवाद है :बड़ा देवर :- " कानी भाभी ! पानी दे . " भाभी :- " कुत्ते को दूँ, तुझे नहीं." छोटा देवर :- “रानी भाभी ! पानी दे . " भाभी :- " शरबत पी ले, पानी क्यों?" चाणक्य ने लिखा है : प्रिय वाक्य प्रदानेन सर्वे तुष्यन्ति जन्तवः । तस्मात्तदेव वक्तव्यम् वचने का दरिद्रता ? बरू खोलिय तरवार । www.kobatirth.org सुनत मधुर परिनाम हित [प्रिय वाक्य वोलने से समस्त प्राणी प्रसन्न होते हैं; इसलिए प्रिय (मधुर) वाक्य ही बोलना चाहिये, बोलने में कैसी दरिद्रता ? (धन की दरिद्रता हो सकती है; किन्तु शब्दों की कैसी दरिद्रता ? ) ] सन्त तुलसीदास का यह दोहा भी याद रखने योग्य है : रोष न रसना खोलिये, बोलिय वचन विचारि ।। Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जीवन दृष्टि [ जीभ से गुस्से को प्रकट मत करो - अपशब्दों (गालियों) का प्रयोग मत करो, भले ही तलवार खोल लो. सोच विचारकर वही वचन वोलो, जो सुनने में मीठे लगे और भलाई करने वाले हों] कागा काको धन हरे, कोयल काको देत । मीठो वचन सुनायके, जग अपुनो करि लेत ।। मीठी वाणी के कारण कोयल से लोग प्यार करते है; अन्यथा काला पक्षी तो कौआ भी होता है; परन्तु कर्कश बोली के कारण कोई उसे सुनना और देखना तक पसन्द नहीं करता For Private And Personal Use Only राजा जयसिंह का नया विवाह हुआ था, नवोढा के सौन्दर्य से अभिभूत होकर वे निरन्तर उसी के सान्निध्य में रहने लगे, इससे राज्य में अव्यवस्था फैल गई, प्रजाजनों की शिकायत Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मितभाषिता: एक मौन साधना ९३ सुनने के लिए राजसभा में राजा मौजूद ही नहीं रहते थे. लोग किसके सामने अपना दुखड़ा रोयें? यह समस्या खड़ी हो गई थी. मन्त्री ने महाकवि बिहारी को प्रेरित किया कि इस संकट में आप ही महाजनों की रक्षा कर सकते हैं. आप अपनी कवित्व शक्ति से राजा जयसिंह को समझा कर पुनः उन्हें राजसभा में आने के लिए तैयार कर सकते हैं. मेरी प्रार्थना है कि प्रजाहित के लिए आप इतना सा कष्ट उठाइये. बिहारी ने दो-तीन मिनिट गुनगुना कर एक दोहा रचा. उसे सुन्दर अक्षरों में एक कागज पर लिखकर मन्त्रीजी से कहा : " यह दोहा आप किसी के भी साथ अन्तःपुर में भिजवा दीजिये और फिर इसका प्रभाव देखिये. " मन्त्री ने वह कागज एक दासी के साथ अन्तःपुर में महाराज जयसिंह के पास भिजवा दिया. राजा जयसिंह ने कागज हाथ में लेकर वह दोहा इस प्रकार पढा : नहिं पराग नहिं मधुर मधु, नहिं विकास यहि काल । अली कली ही ते वन्ध्यो, आगे कौन हवाल ? [ इस समय कलिका (कली) पर न पराग है, न मीठा रस है और न उसका विकास ही हुआ है, फिर भी भौंरा उसी में बंध गया है- आसक्त हो गया है तो फिर आगे (कली के खिल जाने पर) भौंरे का क्या हाल होगा ? ] अन्योक्ति अलंकार के द्वारा इस दोहे में जो प्रतिबोध दिया गया है, उसे राजा जयसिंह तत्काल समझ गये. वे फिर से राजसभा में उपस्थित रहने लगे और प्रजाजनों की शिकायतों को ध्यान से सुनकर उन्हें मिटाने का प्रबन्ध करने लगे. इतना ही नहीं, अपने को पुनः कर्त्तव्य मार्ग पर आरूढ करने वाले महाकवि " बिहारी" को उन्होंने सन्मानपूर्वक अपने पास बुलवाया और उन्हें 'राजकवि” के पद पर प्रतिष्ठित किया. इस प्रतिष्ठा का सारा श्रेय उनके एक दोहे को ही तो है ! ज्ञान का प्रयोग जीवन में भी हो : इसी प्रकार एक बार आद्यशंकराचार्य स्नान करके अपने आश्रम को लौट रहे थे कि सड़क झाड़ने वाले एक भंगी (हरिजन) के शरीर से उनके शरीर का स्पर्श हो गया. शंकराचार्य चिल्ला पड़े :- “ अरे शुद्र ! क्या तू अन्धा है? मैं अभी नदी से स्नान करके चला आ रहा हूँ. तूने अपने गन्दे शरीर से छूकर मुझे अपवित्र कर दिया. अब मुझे दुबारा स्नान करना पड़ेगा. " For Private And Personal Use Only Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जीवन दृष्टि भंगी ने हाथ जोड़कर विनय पूर्वक कहा :- ‘ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या, जीवो ब्रह्मैव नापर" क्या यह महावाक्य आपने कभी सुना है?" शंकराचार्य :- “अरे यह तो मेरा प्रियतम वाक्य है. हजारों को मैंने यह वाक्य सुनाया हैसमझाया है. इस वाक्य की सिद्धि के लिए शास्त्रार्थ करके सर्वत्र दिग्विजय प्राप्त की है और तू मुझसे ही पूछ रहा है कि क्या मैंने यह वाक्य सुना है!" भंगी ने हँसते हुए कहा :- “आपने यह वाक्य लोगों को सुनाया होगा, समझाया होगा, शास्त्रार्थ भी किया होगा, परन्तु मैं समझता हूँ कि आपने स्वयं इसे समझने की कोशिश नहीं की, अन्यथा आप वह बात न कहते जो आपने मुझसे अभी कही है." शंकराचार्य चकित होकर पूछने लगे :- “तुम कहना क्या चाहते हो? जरा साफ-साफ कहो." भंगी :- “देखिये, आपके उस महावाक्य के अनुसार ब्रह्म ही सत्य है और जीव ही ब्रह्म है, इसलिए जो ब्रह्म आपके शरीर में है, वही मेरे शरीर में है, सोचने की बात यह है कि मेरे शरीर के स्पर्श से अपवित्र कौन हुआ - आपका ब्रह्म या आपका शरीर? ब्रह्म तो सबका पवित्र है और शरीर सबका अपवित्र है, क्योंकि वह मलमूत्र, हड्डियों से और खून से भरा हुआ है. इस प्रकार पवित्र ब्रह्म ने अपने अपवित्र शरीर से किसी दूसरे ब्रह्म के अपवित्र शरीर को छू भी लिया तो ऐसा कौन-सा पहाड़ टूट गया, जिससे आपका ब्रह्म व्याकुल होकर दुबारा स्नान करने की जरुरत महसूस करने लगा?” बड़े-बड़े शास्त्रार्थ महारथियों को परास्त करने वाले शंकराचार्य इस भंगी के सामने निरुत्तर हो गये. उन्होंने भंगी को प्रणाम करके कहा :- “मैं आपका बहुत कृतज्ञ हूँ कि आपने मुझे सच्चा ज्ञान देकर मेरा उद्धार किया. अब मैं दुबारा स्नान न करके सीधे आश्रम ही जाऊँगा." शंकराचार्य का यह साहस प्रशंसनीय है कि उन्होंने एक साधारण हरिजन के मुँह से निकली हुई सच्ची बात को सिर झुका कर स्वीकार किया. ज्ञान केवल शास्त्रार्थ के लिए नहीं होता. जब तक उसका प्रत्यक्ष प्रयोग जीवन में न दिखाई दे, तब तक बौद्धिक व्यायाम से अधिक उसका कोई मूल्य नहीं है. तत्त्वार्थसूत्र में :"सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः ।।" इस सूत्र के द्वारा सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान के बाद सम्यक चारित्र को मोक्ष का मार्ग बताया गया है. चरित्र का अर्थ है - ज्ञान और दर्शन के अनुसार आचरण करना. आचरण के बिना ज्ञान हो या दर्शन; सब मूल्य हीन है. यही बात संक्षेप में उस हरिजन ने अपनी मधुर तर्कपूर्ण वाणी के द्वारा शंकराचार्य को समझाई थी. For Private And Personal Use Only Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra मितभाषिता: एक मौन साधना प्रमाद का परिणाम : www.kobatirth.org एक राजा की सेज पर, झाडु लगाने वाली एक दासी लेट गई, यह जानने के लिए कि उस पर लेटने से कैसा सुख मिलता है. ठंडी-ठंडी हवा चल रही थी. शयनकक्ष का सुगन्धमय एकान्त शान्त वातावरण था. थकी हुई दासी को लेटते ही नींद आ गई. थोड़ी देर बाद राजा और रानी का शयनकक्ष में प्रवेश हुआ. दासी को अपनी सेज पर देखकर राजा के दिमाग का पारा सातवें आसमान तक चढ़ गया. उसने छड़ी उठाकर उससे दासी की धुलाई कर दी. दासी पिटाई चुपचाप (सेज के नीचे उतर कर ) सहती रही. जबा राजा पीटतेपीटते थक गया, तब अचानक दासी खिलखिला कर हँस पड़ी. राजा को बड़ा आश्चर्य हुआ, क्योंकि ऐसा अनुभव उसे जीवन में पहली बार आया था. पिटाई खाकर सभी रोते थे, किन्तु वह दासी खिलखिला कर हँस रही थी ! Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir राजा को हँसने का कारण बहुत कुछ सोचने पर भी जब समझ में नहीं आया, तब उसने दासी से पूछा. भारक्खमेवपुत् ९५ दासी ने कहा :- “राजन्! मैं यह सोच रही थी कि केवल पांच-दस मिनिट तक जिस शय्या पर लेटने से मुझे सौ डेढ सौ प्रहार प्राप्त हुए, और जो छह-सात घंटे तक हर रोज वर्षों से सोते रहे हैं, उन्हें कितने प्रहार सहने पड़ेंगे ? उतने प्रहारों के बाद आप दोनों की जो दुर्दशा होगी, उसकी तुलना में मुझ पर पड़े प्रहारों से मेरी जो दुर्दशा हुई है, वह कितनी कम है ? यही कल्पना मेरी हँसी का कारण है, बस और कुछ नहीं. " बात जरा सी थी, किन्तु वह राजा के अन्तस्थल को छू गई. न जाने क्या कल्पना करके राजा कांप उठा. उसने तत्काल संन्यासी बनने का संकल्प ले लिया. दूसरे दिन सारा राजपाट पुत्र को सौंप कर वह संन्यास के लिए, तपस्या के लिए - आत्म कल्याण के लिए चल पड़ा. कहा है : जो निज-भारं ठवेइ निच्चितो । न य साहेइ सकज्जं सो मुक्खसिरोमणी भणिओ । । 1 ( जव पुत्र गृह प्रबन्ध का भार संभालने योग्य हो जाय, तब भार उसे सौंप कर निश्चित होकर जो स्वकार्य (आत्म कल्याण) की साधना नहीं करता, उसे मूर्खशिरोमणि कहा गया हैं.) For Private And Personal Use Only दासी ने यदि अपनी बात नहीं कही होती तो राजा संन्यासी नहीं बनता. ठीक समय और ठीक स्थान पर कहे गये ठीक शब्दों से राजा का हृदय परिवर्तन हो गया. उसकी जीवनचर्या वदल गई. Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जीवन दृष्टि जैन समाज चाहता था कि ॐकारेश्वर के निकट एक विशाल भव्य जिनालय भी बन जाय, इसके लिए महाराज विक्रमादित्य ने अनुज्ञा भी प्राप्त करनी थी और सम्पत्ति भी. __ महाराज के पास इस कार्य के लिए किसे भेजा जाय? समाज की इस समस्या का समाधान करने के लिए जैनाचार्य श्री सिद्धसेन दिवाकर सूरि तैयार हो गये. उन्होंने सुन रक्खा था कि महाराज विक्रमादित्य काव्य प्रेमी हैं. काव्यकला से प्रसन्न होकर वे प्रचुर पुरस्कार कविवृन्द को दिया करते हैं. आचार्यश्री ने भी उन्हें प्रसन्न करने के लिए उनकी प्रशस्ति में चार श्लोक रचे. उन्हें अपने साथ रखकर वे राजमहल के द्वार पर जा पहुंचे. उन चार श्लोकों के अतिरिक्त एक पांचवां श्लोक तत्काल वहीं खड़े-खड़े एक कागज के टुकड़े पर लिख कर द्वारपाल को दिया. द्वारपाल ने वह श्लोक महाराज को दे दिया. महाराज ने उसे पढ़ा :दिहक्षुर्भिक्षुरायातस्तिष्ठति द्वारि वारितः । हते न्यस्तचतुः श्लोकः किं वाऽऽगच्छतु गच्छतु ।। [देखने की इच्छा से आया हुआ एक भिक्षुक रोके जाने से द्वार खड़ा है. उसके हाथ में (सुनाये जाने के लिए स्वरचित चार श्लोक हैं. वह आये या चला जाय?] इस श्लोक में ही अनुप्रास और यमक की चमक से प्रसन्न हो कर महाराज विक्रमादित्य ने भी एक श्लोक लिख कर द्वारपाल को दे दिया कि वह आगन्तुक को दे दे. द्वारपाल ने आचार्यश्री को महाराज का लिखा हुआ श्लोक दे दिया. उन्होंने पढ़ा :दीयते दशलक्षाणि शासनानि चतुर्दश । हते न्यस्तचतुः श्लोको यद्वाऽऽगच्छतु गच्छतु ।। [दस लाख स्वर्ण मुद्राओं के साथ चौदह राज्यों का अधिकार दिया जाता है (पुरस्कार के रूप में). अब हाथ में जिसके चार श्लोक हैं, वह आना चाहे तो आ जाय और जाना चाहे तो चला जाय (यह उसी की इच्छा पर निर्भर है. वह जैसा भी चाहे, करे)] आचार्यजी जैन साधुत्व की मर्यादा के अनुसार न दस लाख स्वर्णमुद्राएं ले सकते थे और न चौदह राज्यों का अधिकार ही. उनका प्रयोजन तो कुछ दूसरा ही था. फिर रचे हुए श्लोकों को सुनाना भी जरूरी था; इसलिए वे राजसभा में चले गये. महाराज उनके स्वागत में खड़े हो गये. उन्हें सम्मानपूर्वक उच्च आसन पर बिठाकर कहा गया कि आप अपने चारों श्लोक सुना दें. For Private And Personal Use Only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २10 मितभाषिता : एक मौन साधना सूरिजी ने अपने श्लोक इस प्रकार पढ़ कर सुनाये :अपूर्वेयं धनुर्विद्या भवता शिक्षिता कुतः? मार्गणौध : समायाति गुणोयाति दिगन्तरम् ।। [हे राजन्! आपने यह अनोखी धनुर्विद्या कहाँ से सीखी कि मार्गणों (वाणों) का समूह तो चला आता है और गुण प्रत्यंचाधनुष की डोर) का दिगन्त में प्रस्थान हो जाता है? (साधारणतः धनुर्विद्या में बाण जाते हैं, प्रत्यंचा धनुष में ही लगी रहती है; परन्तु यहाँ विपरीत हो रहा है; इसलिए इसे अनोखी धनुर्विद्या कहा गया है, यह विरोधाभास नामक अलंकार है. विरोध का परिहार इस प्रकार होगा :- मार्गणों (याचकों) का समूह तो आपके पास याचनार्थ चला आता है, किन्तु (सुयश) दिशाओं के अन्त तक चला जाता है.] सरस्वती स्थिता वक्त्रे लक्ष्मीः करसरोरुहे। कीर्तिः किं कुपिता राजन् । येन देशान्तरं गता ।। [हे राजन्! सरस्वती आपके मुख में है. लक्ष्मी आपके कर कमल पर है, फिर क्या कीर्ति आप से रूठ गई, जो दूसरे देशों में चली गई? (आशय यह कि आप विद्वान् हैं - धनवान् हैं और आपका सुयश दूर-दूर देशों तक फैला हुआ है)] सर्वदा सर्व दोऽसीति मिथ्या संस्तूयसे बुधैः । नारयो लेभिरे पृष्ठम् न वक्षः परयोपितः ।। "आप सदा सव कुछ दे दिया करते हैं" ऐसी विद्वानों के द्वारा आपकी जो स्तुति की जाती है, वह मिथ्या है; क्योंकि शत्रुओं ने आपकी पीठ और पराई स्त्रियों ने आप की छाती कभी नहीं पाई! (युद्ध में आप सदा वीरता पूर्वक लड़ते रहे हैं. रणक्षेत्र से डर कर आप कभी भागे नहीं हैं. इस प्रकार शत्रुओं को आपने कभी पीठ नहीं दिखाई, इसी प्रकार आप स्वदारसन्तोषी हैं-शीलधर्म का पालन करने वाले हैं अर्थात् व्यभिचारी नहीं हैं; इसलिए पराई स्त्रियों को आपका वक्षस्थल नहीं मिला. आशय यह है कि पराई स्त्रियों का आपने आलिंगन कभी नहीं किया)] फिर चौथा और अन्तिम श्लोक इस प्रकार सुनाया : For Private And Personal Use Only Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जीवन दृष्टि आहते तव निस्वाने स्फुटितं रिपुहृद्घटैः। गलितं तत्प्रियानेत्रैः राजश्चित्रमिदं महत् ।। [आपका डंका बजने पर शत्रुओं के हृदयघट फूट गये और उनकी स्त्रियों की आंखें टपकने लगीं! राजन्! यह महान् आश्चर्य की बात है. (यहाँ असंगति अलंकार का प्रयोग किया गया है, साधारणतः जहाँ कारण होता है, वहीं कार्य भी होता है. इससे विपरीत कारण कहीं हो और कार्य कहीं दूसरी जगह ऐसा वर्णन जहाँ किया जाता है, वहाँ यह असंगति नामक अर्थालंकार होता है. यहाँ नगारा पीटा जा रहा है तो वही फूटना चाहिये; परन्तु फूट रहे हैं - शत्रुओं के हृदयघट और यदि घट फूट रहे हैं तो उन्हीं से जल टपकना चाहिये; परन्तु जल टपक रहा है शत्रुओं की स्त्रियों की आँखों से! आशय यह है कि आपके नगारों की ध्वनि सुन कर ही भय के मारे शत्रुओं का हार्टफेल हो गया और उनके मरने से उनकी विधवाएँ आँसू बहाने लगीं)] चारों श्लोक एक से एक बढ़ कर थे. सुनने वाले सभी सभासदों ने उनकी मुक्तकंठ से प्रशंसा की. महाराज भी अत्यंत प्रसन्न हुए. उन्होंने सूरिजी की इच्छा के अनुसार ॐकारेश्वर में ॐकारेश्वर के मन्दिर से भी ऊँचे चार द्वारों के एक विशाल मन्दिर का निर्माण करवा दिया, आचार्यश्री सिद्धसेन दिवाकर सूरि ने उसमें भगवान् पार्थनाथ की प्रतिमा प्रतिष्ठित कराई. यह था सारगर्भित मनोहर मधुर वाणी का चमत्कार. कहा है :तास्तु वाचः सभायोग्याः याश्चित्ताकर्षणक्षमाः। स्वेषां परेषां विदुषाम् । द्विषाम विदुषामपि ।। [जो वचन अपनों के, परायों के, विद्वानों के, द्वेषियों के और मूखों के चित्त को आकर्षित करने में समर्थ हों, वे ही सभा के योग्य होते हैं] व्यंग करें, पर कोमल शब्दो में : एक राजा था. एक बार किसी युद्ध में उसे विजय श्री तो प्राप्त हुई, किन्तु उसमें एक वीर, जो उसके दाहिने हाथ के समान सहायक था, काम आ गया. जीत की खुशी के साथ उस वीर योद्धा सैनिक के वियोग का दुःख भी था, जो धीरे-धीरे मिट गया. उधर उस वीर सैनिक की विधवा पत्नी के पतिदेव के द्वारा संचित धन कुछ समय तक तो अपने बाल-बच्चों का भरण पोषण किया; परन्तु धन समाप्त होने पर आर्थिक सहायता For Private And Personal Use Only Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra मितभाषिता: एक मौन साधना पाने के लिए वह स्वयं राजसभा में उपस्थित हुई. मालिक चुनने में हुई मेरी कछू न चूक । www.kobatirth.org विधवा की मांग सुनकर राजा ने उसे सलाह दी कि वह दूसरा विवाह कर ले और किसी पुरुष के आश्रय में रहे ; किन्तु वह दूसरा विवाह करना नहीं चाहती थी. वह जानती थी कि युद्ध में काम आने वालों के परिवार का पालन-पोषण करना राजा का कर्त्तव्य है. अपने उस कर्त्तव्य से बचने के ही लिए राजा मुझे पुनर्विवाह की सलाह दे रहे हैं, जो अनुचित है, उस पतिव्रता बुद्धिमती विधवा महिला ने वहीं एक दोहा बनाकर राजा को इस प्रकार सुनायाः मालिक चुनने में हुई मालिक की ही चूक । । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ९९ मालिक (पति) चुनने में मेरी कोई भूल नहीं हुई; क्योंकि मैंने ऐसे मालिक को, जिसने वीरता पूर्वक युद्ध क्षेत्र में अपने मालिक (स्वामी - राजा) की रक्षा में अपने प्राण लुटा दिये, चुना (पति बनाया) किन्तु अपना मालिक (स्वामी- राजा) चुनने में मालिक (पतिदेव) ही चूक गये. कि उन्होंने ऐसे मालिक को चुना जिसे अपने कर्त्तव्य का भान नहीं है और जो मुझे पुनर्विवाह करने की अनुचित सलाह अपने कर्त्तव्य पालन की जिम्मेदारी से बचने के लिए दे रहा है. छोटे से दोहे में ऐसे गम्भीर भाव भरे हुए थे कि उसे सुनते ही राजा की आँखें खुल गई. उसे अपनी भूल का भान हो गया. तत्काल उसने उस महिला के परिवार के पालन-पोषण की समुचित व्यवस्था कर दी. यद्यपि दोहे में उस महिला ने अपने पतिदेव की भूल बताई थी, राजा की नहीं; फिर भी उसमें उसे राजा की कर्त्तव्य हीनता पर जो व्यंग्य किया गया था, उससे राजा साहब तिलमिला उठे और उन्हें अपने कर्त्तव्य का पालन करना ही पड़ा. जिस प्रकार कोमल शब्दों के प्रयोग से विधवा पत्नी ने राजा को प्रभावित किया, उसी प्रकार एक बार पति ने किस प्रकार अपनी पत्नी को प्रभावित किया- सो भी एक बहुत मनोरंजक कथा है : पति द्वारा पत्नी को सबक : एक घर में आई हुई नई पुत्र- वधू सारे परिवार पर अपनी धाक जमाना चाहती थी. उसने परिवार के सदस्यों के अन्धविश्वास से लाभ उठाने की एक योजना बनाई. For Private And Personal Use Only उस योजना के अनुसार अपने मस्तक के बाल बिखेर कर उसने रौद्र रूप धारण कर लिया. 'फिर विचित्र ढंग से हाथ-पाँव और मस्तक हिलाती हुई चिल्लाकर बोली :- " मैं इसे ले जाऊँगी. Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org १०० जीवन दृष्टि इसने मेरे पेड़ के नीचे पेशाब करके मेरा अपमान किया है. मैं आज इसकी जान लेकर ही छोडूंगी. हटो - हटो सामने से हट जाओ! मैं चंगेश्वरी देवी हूँ !” घर के सब लोग यह सब देख-सुनकर घवराहट में पड़ गये. सबने गिड़गिड़ाते हुए प्रणाम करके बहू को बचाने का उपाय पूछा. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वह ठहाका लगा कर बोली :- "यदि तुम इस बहू की जान बचाना चाहते हो तो इसका केवल एक ही उपाय है. इस घर की बुढ़िया यदि मुझे अपनी पीठ पर बिठा कर इस घर के चारों और तीन चक्कर लगा दे तो मैं इसे छोड़ कर जा सकती हूँ." उस औरत का पति बहुत चतुर था. वह पत्नी की चाल को समझ गया; किन्तु मन-हीमन कुछ सोच कर उसने मधुर स्वर में निवेदन किया- “हे चंगेश्वरी माँ ! मेरी माता आपके तेज को सह नहीं पाएगी; इसलिए आप यदि फेरी लगाने से पहले अपनी आँखों पर कपड़े की आठ तह वाली पट्टी बाँधने की कृपा करेंगी तो ठीक रहेगा.” बात मंजूर हो गई. पति ने अपनी बूढ़ी माता से कहा कि आप स्नान करके नये कपड़े पहन लीजिये. इधर बहू ने अपनी आँखों पर पट्टी बाँध ली और उधर भागता हुआ पति अपनी ससुराल जा पहुंचा और वहाँ अपनी सासू से घबराते हुए कहा- आपकी बेटी की जान खतरे में है. उस पर चंगेश्वरी देवी का प्रकोप हुआ है. यदि उसे अपनी पीठ पर बिठा कर आप मेरे मकान के तीन चक्कर लगा देगी तो वह बच जायगी; अन्यथा वह मर जाएगी उसकी जान केवल आप ही बचा सकती हैं. " सासू बोली - " ऐसी कौन माँ होगी, जो अपनी बेटी की जान बचाने के लिए कुछ भी करने को तैयार न हो ? चलिये मैं इसी समय आपके साथ चलती हूँ.' 11 " देख-देख, बंदी की फेरी ! देख-देख बंदी की फेरी !!” पति सासू के साथ अपने घर आया, बेटी को उसकी पीठ पर बिठा कर मकान के तीन चक्कर लगवाये. आँखों पर पट्टी बंधी होने से वह अपनी माँ को पहचान न सकी. जब मकान के चारों और तीसरा चक्कर लगवाया जा रहा था, उस समय वहू से न रहा गया. वह सबको सुनाकर बोलने लगी " जब तीसरा चक्कर पूरा होने आया तव पति ने भी उसी स्वर में कहा : " देख - देख, माँ तेरी कि मेरी ? देख देख, माँ तेरी की मेरी ?" For Private And Personal Use Only Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मितभाषिता : एक मौन साधना १०१ ___ यह सुनते ही बहू ने आँखों से पट्टी हटा कर देखा. वह सचमुच उसकी माँ थी, सासू नहीं. वह वहुत लज्जित हुई. फिर उसने कभी ऐसा नाटक नहीं किया. यहाँ भी चतुर पति ने कोमल शब्दों के प्रयोग से ही पत्नी को आँखों पर पट्टी बाँधने के लिए तैयार किया था. समय और धन का उपयोग करें : किसी सेठ के पास एक बार एक अनाथ बालक आया और बोला :- “सेठजी! मैं दो दिन से भूखा हूँ. कृपा करके मुझे कुछ भोजन दीजिये या कुछ पैसे दीजिये, जिससे मैं कुछ खाने की सामग्री खरीद कर पेट का गड्डा भर सकूँ!" सेठजी ने लापरवाही से कहा दिया, - “आज नहीं, तुम फिर कभी आकर ले जाना.” दूर से एक कवि यह दृश्य देख रहा था. उससे रहा नहीं गया. निकट आकर अन्योक्ति अलंकार में उसने कहा :वितर वारिद! वारि दवातुरे चिर पिपासित चातक पोतके प्रचलिते मरुति क्षणमन्यथा क्व च भवान् क्व पयःक्व च चातकः ।। हे मेघ! दावानल से घबराये हुए लंबे समय से प्यासे इस चातक पक्षी के बच्चे को तू जलदान कर; अन्यथा क्षणभर हवा चलने पर तू कहाँ रहेगा? कहाँ तेरा पानी रहेगा? और कहाँ यह चातक? समय पर अपने जलका उपयोग कर. इन शब्दों में जो प्रतिबोध छिपा था, वह इस प्रकार था :हे सेठ! दरिद्रता से पीड़ित भूखे प्यासे इस बालक को तू सन्तुष्ट कर; अन्यथा समय बितने पर जब मृत्यु का आगमन होगा तब कहाँ तू रहेगा? कहाँ तेरा धन रहेगा? और कहाँ यह अनाथ बालक? समय रहते अपने धन का उपयोग कर. सेठ ने कवि की वाणी से प्रभावित होकर बालक को उसकी आवश्यकता के अनुसार धन देकर विदा किया. आचार्यश्री हेमचन्द्रसूरि की विद्वता से गुजरात के महाराज कुमारपाल बहुत प्रभावित थे. वे उन्हें विद्वत्गोष्ठियों में सम्मानपूर्वक आमन्त्रित किया करते थे. आचार्यजी के इस सम्मान से ईर्ष्यालु लोग उनका मजाक उड़ाने का अवसर ढूँढ़ने में लगे रहते. एक दिन की बात है. आचार्यजी जब राजसभा में पधारे उनका उपहास करते हुए किसी For Private And Personal Use Only Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०२ जीवन दृष्टि ईर्ष्यालु पंडित ने कहा : “आगतो हेमगोपालो दण्डकम्बलमुद्वहन् ।।" [लो, डंडा और कम्बल धारण करने वाला यह हेम नामक ग्वाला आ गया है] यह सुन-समझ कर आचार्यश्री हेमचन्द्रसूरि ने तत्काल शान्ति से उत्तर दिया :“षड् दर्शन पशु प्रार्या. श्चारयन् जैन वाटके ।।" (आपका कथन सत्य है क्योंकि) लगभग पशुओं के समान जो छह दर्शन हैं, उन्हें जैन सिद्धान्त रूपी बाड़े में चराता हुआ (यह हेम नामक ग्वाला दंड-कम्बल धारण किये इस राजसभा में आ गया है] यह सुन कर वह पंडित झेंप गया. फिर कभी उसने आचार्यश्री का इस तरह उपहास करने का प्रयास नहीं किया. एक सड़क पर किसी जैन साधु को सामने से आते देख कर एक ब्राह्मण पंडित ने अपने साथियों से कहा : “इन जैन साधुओं की ओर तो कभी देखना तक नहीं चाहिये, क्योंकि ये नहाते ही नहीं." साधु ने यह सुन लिया. वह बोला : “गाय कभी नहाती नहीं; किन्तु भैंस पानी में ही पड़ी रहती है. आप किसका अधिक सन्मान करते हैं? किसे अधिक पूज्य मानते हैं?" वह निरुत्तर हो गया और चुपचाप अपने रास्ते पर आगे बढ़ गया. इसी प्रकार सड़क पर एक जैन मुनि को सुना कर किसी पंडित ने अपने शिष्यों से कहाः "जो इन लोगों के दर्शन करता है, वह नरक में जाता है! जैन मुनि ने यह सुन कर उसे मधुर शब्दों में पूछा : भाई! यह बता दीजिये कि जो आपके दर्शन करता है, वह कहाँ जाता है?" पंडित ने कहा :- “स्वर्ग में!" जैन मुनि :- “तब तो आपकी ही मान्यता के अनुसार में स्वर्ग में जाऊँगा और आप नरक में जायँगे; क्योकि मैंने आपके दर्शन किये हैं और आपने मेरे!" यह सुन कर वह पंडित भी निरुत्तर हो कर आगे बढ़ गया. For Private And Personal Use Only Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra मितभाषिता: एक मौन साधना कर्त्तव्य की कसौटी : www.kobatirth.org जितना लम्बा प्रश्न हो, उतना ही लम्बा जो उत्तर दे सकता है, वह सचमुच गम्भीर विद्वान् होता है - इसमें कोई सन्देह नहीं. एक दृष्टान्त से यह बात स्पष्ट होगी. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir एक नवयुवक था. बहुत से शास्त्र पढ़ कर वह संभ्रम में पड़ गया था; क्योंकि सभी शास्त्र भिन्न-भिन्न परस्पर विरोधी तर्क विधान करते थे. १०३ कहीं लिखा था - " सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात् । । [ सच बोलना चाहिये, मीठा बोलना चाहिये ] " कहीं लिखा था - " न ब्रूयात् सत्यमप्रियम् । । [ अप्रिय हो तो सत्य नहीं बोलना चाहिये ] " कहीं लिखा था - " वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति । । [ वेदविहित हिंसा हिंसा नहीं है ] " कहीं लिखा था " मा हिंस्यात्सर्वभूतानि ।। [सब प्राणियों को मत मारो (कुछ प्राणी मारे जा सकते 1 हैं, सब नहीं)]” तो कहीं लिखा था - " अहिंसा परमो धर्मः [ अहिंसा श्रेष्ठ धर्म है ] 66 कहीं लिखा था - " मौनान्मूर्खः । । [ मौन रहने वाला मूर्ख होता है ] " कही लिखा था- "मौनं सर्वार्थसाधकम् ।। [ मौन सारे प्रयोजनों को सिद्ध करता है ] " कहीं लिखा था - " अति सर्वत्र वर्जयेत् । । [ अति सब जगह त्याज्य है ] " कहीं लिखा था'अधिकस्याधिकं फलम् [ अधिक का अधिक फल होता है- जितना गुड़ डालो उतना मीठा होता है ] " - कोई भक्ति का समर्थन करता है कोई ज्ञान का! कोई श्रद्धा का समर्थक है कोई बुद्धि का ! कोई विश्वास का अनुमोदन करता है, कोई विवेक का तर्क का ! अपनी शंका का निवारण करने के लिए वह सच्चे गुरू की खोज में इधर-उधर भटकता हुआ किसी महर्षि के आश्रम में पहुंचता है, महर्षि उस समय उच्चासन पर विराजमान हो कर अपने शिष्यों को पढ़ा रहे थे. युवक तीर की तरह सीधा महर्षि के निकट पहुंच कर उनके कन्धे पकड़ कर उनकी आँखों में आँखें डालकर पूछता है – “यदि आप ज्ञानी हैं तो मेरी शंका का समाधान कीजिये. " शिष्यों में से एक ने कहा “भाई ! प्रश्न करने की यह कोई विधि नहीं है, पहले आपकी तीन प्रदक्षिणाएं लगाकर तीन बार गुरूदेव को वन्दना करनी चाहिये. फिर बैठकर विनयपूर्वक अपना प्रश्न प्रकट करना चाहिये. " For Private And Personal Use Only युवक बोला - “ अरे ! तीन क्या ? मैं तीन सौ प्रदक्षिणाएं करूँगा और तीन बार नहीं, तीन हजार बार प्रणाम करूँगा; परन्तु यह सब बाद में, पहले मेरे प्रश्न का उत्तर मिलना चाहियेमेरी शंका का निवारण होना चाहिये मेरी समस्या का समाधान होना चाहिये. " महर्षि ने भी अपने शिष्यों को डाँट कर कहा - “ मत रोको इसे ! पढ़ाते-पढ़ाते मुझे चालीस Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org जीवन दृष्टि १०४ वर्ष हो गये हैं; किन्तु पहली बार आज मुझे एक सच्चा जिज्ञासु मिला है. ज्ञान के लिए जब ऐसी तीव्र उत्कष्ठा हो - तड़प हो, तभी सच्चा ज्ञान प्राप्त होता है." Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यह सुनकर शिष्य शान्त हो गये. महर्षि ने बड़े वात्सल्य भाव से युवक के मस्तक पर हाथ फिराते हुए पूछा - " कहो - कहो, क्या प्रश्न है तुम्हारा?" महर्षि ने मुस्कुराते हुए कहाकर्त्तव्य निर्णय की ?" युवक - " बहुत शास्त्र पढ़ चुका हूँ; किन्तु समझ में नहीं आया कि कर्त्तव्य की कसौटी क्या है. आप बताइये न !” "वह ईश्वर क्या करता है? वही सबसे बड़ी कसौटी है- हमारे बस, इसी उत्तर से युवक का समधान हो गया कि जैसा ईश्वर करता है, वही हमें करना चाहिये. वह झूठ नहीं बोलता-चोरी नहीं करता- निर्दोष प्राणियों को नहीं सताता - अन्याय नहीं करता - कोई पाप नहीं करता तो हमें भी प्राणीमात्र के लिए कल्याण - कामना करनी चाहिये. यह रागद्वेष से दूर रह कर मोक्षमार्ग पर चलता है तो हमें भी चलना चाहिये. जितने भी वह अच्छे कार्य करता है, वे सभी हमारे भी कर्त्तव्य हैं. इस प्रकार सारे धर्मशास्त्रों का रहस्य गागर में सागर की तरह महर्षि के केवल एक वाक्य से समझ में आ गया. इसे कहते हैं - मितभाषिता. यह गुण मौन साधना से प्राप्त होता है. For Private And Personal Use Only Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जीवन व्यवहार जीवन की प्रामाणिकता : अनन्त उपकारी महान आचार्यश्री हरिभद्रसूरिजी ने धर्मबिन्दु ग्रन्थ के द्वारा अपने अनुभव का अपूर्व चिन्तन दिया है कि किस प्रकार हमारा जीवन व्यवहार हो, दूसरों का रक्षण करना, दूसरों को सहयोग करके उनको ऊंचा उठाना, यदि हमारे जीवन में सेवा भाव हो तो इसके लिए पहले जीवन व्यवहार को शुद्ध करें फिर आत्मा की शुद्धि होगी. विचार और आचार का समन्वय, ज्ञान और क्रिया का समन्वय हो तभी मोक्ष प्राप्ति का मार्ग मिलेगा. धर्म साधना के प्रवेश द्वार में न्याय सम्पन्न व्यक्ति चाहिये. सर्वप्रथम जीवन की प्रामाणिकता आनी चाहिये. व्यक्ति सर्व प्रथम अपनी आत्मा के लिए ईमानदार बन जाए. हर धर्म के व्यक्ति, हर सम्प्रदाय के व्यक्ति यदि अपने सम्प्रदाय के लिए, अपने धर्म ग्रन्थों के लिए ईमानदार बन जाए, हिन्दू सच्चा हिन्दू बन जाए और गीता के प्रति उसकी पूर्ण वफादारी आ जाए, कृष्ण के प्रति पूर्ण समर्पण भाव मीरा की तरह यदि आ जाए, जैन महावीर के प्रति पूर्ण प्रामाणिक वन जाए और उनके आदेश के पालन के लिए स्वयं को पूर्ण ईमानदार बना ले. जीवन के अन्दर सत्य, संयम और सदाचार को प्राप्त कर ले. मुसलमान समझ लीजिए अपनी कुरान के लिए वफादार बन जाएं, पूर्ण प्रामाणिक वन जाएं कि खुदा की नजर में दुनिया की कोई ऐसी नहीं जो न हो. मेरे जीवन की हर रचना उसके सम्मुख उपस्थित है. जो मैं देखता हूँ, वही मेरा खुदा देख रहा है. मैं क्यों गलत करूं? मेरी गलती की सजा भी वही देगा. यदि हर व्यक्ति इस दृष्टिकोण से अपने धर्म के लिए वफादार बन जाए तो मैं आपको विल्कुल सही कहा हूँ- यह संसार स्वर्ग बन जायेगा. श्रद्धा और विश्वास : इंग्लैंड के अन्दर ८० साल पहले एक ऐसा दुष्काल आया कि पीने को पानी तक नहीं. कई वार विज्ञान भी प्रकृति के आगे विवश हो जाता है. विज्ञान मार सकता है, जीवन नहीं दे सकता. सभी लोग निराश हो गये उस भयंकर दुष्काल से, तब अन्तिम उपाय परमेश्वर की प्रार्थना को अपनाया. टेम्स नदी के किनारे आये और प्रार्थना करने लगे. एक निर्दोष बालक जो १० वर्ष की उम्र का था, उन दस लाख लोगों की प्रार्थना सभा मैं आया और अपने साथ रेन कोट और छाता लेकर आया. लोग उस पर हंसने लगे-तुम इस भयंकर गर्मी में छतरी लेकर आये हो और यहाँ दूर-दूर तक पानी की एक बूंद नहीं है. निर्दोष उम्र के उस लड़के ने कहा- तुम परमात्मा में अविश्वास लेकर आये हो, तुम्हारी क्या प्रार्थना सफल होगी ? मुझे अपने परमात्मा पर पूर्ण विश्वास है. मेरी प्रार्थना सुन कर उस करुणा सागर के अन्तर में करूणा जरुर जाग्रत होगी और वरसात जरूर आयेगी. मैं वापस भीगता हुआ कैसे जाऊँगा, इसलिए For Private And Personal Use Only Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जीवन दृष्टि मेरा छाता मैं साथ लेकर आया हूँ. मैं विश्वास लेकर आया हूँ. लड़के का कैसा आत्म विश्वास. दस लाख की भीड़ में एक अकेला बालक अपने परमात्मा में विश्वास रख कर प्रार्थना करता है और आप विश्वास करें कि उस बालक के शब्दों में इतनी करूणा थी कि इतनी भयंकर बरसात हुई कि टेम्स नदी में बाढ़ ही आ गई. सालों का दुष्काल एक निर्दोष बालक की पुकार पर समाप्त हो गया. इसीलिए मैं आपसे कहता हूँ कि आज आप श्रद्धा और विश्वास की भावना से ग्रहण करें. उसे अपने जीवन में उतारें. यह श्रद्धा और विश्वास का ही चमत्कार है कि मृत्यु शैया पर अंतिम सांसे गीन रहा व्यक्ति भी भला चंगा हो जाता है. मात्र आपको प्रभु पर श्रद्धा होनी चाहिये. अपनी अन्तर आत्मा में उसके प्रति विश्वास होना चाहिये. इंग्लैण्ड के एक बहुत बड़े मनोवैज्ञानिक डाक्टर की पत्नी को अचानक हार्ट अटैक का दौरा पड़ गया. अस्पताल ले जाने का समय नहीं. करे तो क्या करें, डाक्टर साहब ने क्या किया? उसने प्लास्टिक का एक बटन जो घर में ही पड़ा था, उसे और सोड़ा वाटर की बोतल लेकर बीबी से कहा-ये गोली मेडिकल साइन्स की नयी खोज है. सबसे पहिले यह दवा मेरे पास ही प्रयोग के लिए आई है. इससे तुम निश्चित ही ठीक हो जाओगी. मध्यम रोशनी में वह बटन गोली की तरह दिखा, फिर पति के शब्दों पर श्रद्धा और विश्वास था. पति के शब्दों पर विश्वास कर गोली निगल ली. और उन शब्दों का चमत्कार कि वह थोड़ी ही देर में पूर्ण स्वस्थ. तो मेरा भी यही कहना है कि परमात्मा में पूर्ण श्रद्धा और विश्वास रखकर उपासना करें. पूर्ण भक्ति भाव से परमात्मा की आराधना करें. अपनी मर्यादा और आचरण को ध्यान में रख कर परमात्मा के प्रति पूर्ण श्रद्धानत हो जाये, तभी हमें मोक्ष की प्राप्ति होगी. धर्म और सम्प्रदाय : धर्म किसी की बपौती नहीं, प्राणी मात्र का होता है. व्यक्ति चाहे किसी भी संप्रदाय में रहे, धर्म का तत्व एक ही है. सम्प्रदाय एक परम्परा है, व्यवस्था है. जैसे हमारे सेना में अलग अलग रेजीमेन्ट होते है. सिख रेजीमेंट, राजपूत रेजीमेंट, गोरखा रेजीमेंट. किन्तु सभी रेजीमेंट का एक ही लक्ष्य होता है-देश का रक्षण करना है. ठीक उसी तरह सम्प्रदाय अलग-अलग हैं, किन्तु परमात्मा तत्व की प्राप्ति का लक्ष्य एक ही है. वह है धर्म का मार्ग. मैं कहता हूँ कि हिन्दू हो, सिख हो, जैन हो-मुसलमान हो, ईसाई हो, अथवा किसी भी धर्म का या सम्प्रदाय का हो. है तो परमात्मा के सैनिक ही. मौलिक तत्व की दृष्टि से सभी सम्प्रदाय एक हैं. गाय चाहे किसी भी कलर की हो-दूध सबका सफेद ही होगा. उसी तरह सभी धर्मों का जो सत्य है, उससे महावीर का सत्य अलग नहीं है. महावीर ने जो परम सत्य का प्रकाशन किया, वही सभी धर्म की आत्माओं के अन्दर विद्यमान है. मात्र उसे खोजने का तरीका अलग For Private And Personal Use Only Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जीवन व्यवहार १०७ अलग है, टेक्निक अलग-अलग है. आप कहीं से दूध लोटे में लेकर आ रहे हो और रास्ते में ऐसे मित्र का घर हो जिसके यहाँ दस बीस गायें हो, छाछ मुफ्त में मिलती हो. आप छाछ ले लेंगे लेकिन मुझे ये बताये कि आप दूध किस हाथ में पकड़ेंगे. राईट हैण्ड में पकड़ेंगे. क्योंकि दूध मूल्यवान वस्तु है. उसे कसकर पकड़ेंगे. कहीं ठोकर लग जाये तो छाछ भले ही गिर जाय पर दूध नहीं गिरने देंगे. याद रखें मजहब का लोटा बाएं रखें और आत्मा का दांये हाथ में. ये लक्ष्य लेकर चलेंगे तो कभी मन में साम्प्रदायिक दुर्भावना नहीं आयेगी. जीवन जीने की कला : अमेरिका में कुछ वर्ष पहले एक घटना घटी. यहाँ तो हम खाने के बाद गुणानुवाद तो दूर रहा, अवर्ण वाद जरुर करेंगे. एक व्यक्ति ने अपनी मंगल भावना के साथ भोज का आयोजन किया. लोग खाने बैठे, उसने खीर परोसी तो उसको खाकर एक व्यक्ति ने अनुमोदना करने के बजाय उल्टा मुंह बिगाड़ा जैसे केस्टर आयल पी लिया हो. आपने कभी मुसलमानों से नहीं सिखा की कार्य की अनुमोदना कैसे करें? मुसलमानों के यहाँ भी भोज के आयोजन होते हैं. आप किसी भी मुसलमान से पूछ ले-भई, उसने क्या खिलाया? वह भले ही तेल का सीरा खाकर आया होगा पर यही कहेगा- क्या लाजवाब रसोई थी. सुबह खाया था. शाम तक मुंह से सीरे का ही स्वाद आता रहा. वो खाने की अनुमोदना ही करेंगे न कि हमारी तरह मुंह बिगाड़ेंगे. कभी अपने जाति भाई की निन्दा नहीं करेंगे. मुसलमानों का यह गुण आपको भी अपनाना चाहिये. अपने जीवन व्यवहार में इस गुण का समावेश करे. किसी के अच्छे कार्य की अनुमोदना ही करें न कि आलोचना. जीवन जीने की एक कला यह भी है. अमेरिका की यह घटना है. रात्रि का समय; एक व्यक्ति अपनी गाड़ी से समुद्र के किनारे-किनारे जा रहा था. समुद्र के किनारे की हवा खाने का मन हुआ तो गाड़ी रोकी और उतर कर समुद्र की तरफ चला गया. पीछे से कोई बड़ी गाड़ी निकली. हाइवे रोड पर एक गाड़ी खड़ी देख कर पीछे वाली गाड़ी के ड्राईवर ने सोचाये गाड़ी यहाँ क्यों खड़ी है. कहीं कोई दुर्घटना तो नहीं हो गई. उसके मन में कई तरह की शंकायें जन्म लेने लगी. मानवता के नाते मेरा कर्तव्य है कि मैं उसकी रक्षा करूं, उसे मित्र को लेने एयरोड्राम जाना था, देर हो रही थी. पर यहाँ मानवता का सवाल था. मानव जीवन के कर्तव्य की पुकार थी. अपनी गाड़ी से नीचे उतरा और अगली गाड़ी के अन्दर झांक कर देखा. गाड़ी खाली थी और काफी दूरी पर समुद्र की ओर एक आदमी उसे जाता हुआ दिखाई दिया. उसके दिमाग में आया कि- ये अवश्य ही आत्मघात के लिए जा रहा है. संसार से दुखी लगता है, ये अवश्य मर जायेगा. वह दौड़ कर अगले व्यक्ति के नजदीक आया और उसे समझाया-मित्र, यह जीवन बड़ा मूल्यवान है. मरना बड़ा सरल है, क्यों कायर की तरह मर रहे हो. ये मेरा एड्रेस और ये ५ डालर रखो. अगर भूखे हो तो खाना खा लेना. कल मेरे आफिस For Private And Personal Use Only Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०८ जीवन दृष्टि चले आना. मैं तुम्हें काम दूंगा. और हर संभव सहयोग दूंगा. अभी मैं जल्दी में हूँ. यह मेरी भेंट ले लो, इसका तिरस्कार न करना. हवा खोरी के लिए आया व्यक्ति स्तब्ध रह गया. उसे बोलने का भी अवसर नहीं मिला. पीछे वाला व्यक्ति तुरन्त पलटा और तेजी से अपनी गाड़ी की ओर लौट पड़ा. पहिले वाला व्यक्ति अपने हाथ में एड्रेस कार्ड और ५ डालर लिये अपनी गाड़ी में आ बैठा. अब उसके हृदय में विचार का आन्दोलन शुरू हुआ. मैं भले ही करोड़पति हूँ पर मेरा आज तक का जीवन निष्फल गया. मैंने कभी परोपकार का कार्य नहीं किया. जीवन तो इस व्यक्ति का है जो दुसरों के लिए भी सोचता है. दुसरों के दुःख दर्द में काम आता है. उस व्यक्ति के मात्र ५ मिनिट के अल्प परिचय से उसके जीवन के अंदर इस नये परिचय से परिवर्तन आया. कुछ ही महिनों बाद न्यूयार्क टाइम्स के अन्दर उसने एक समाचार पढ़ा कि- कोई वहुत बड़ी कम्पनी भयंकर घाटे में जा रही है. शायद दिवाला निकल जाये. कम्पनी का नाम उसे कुछ परिचित सा लगा. अपने पास के एड्रेस कार्ड से मिलाया तो उसने देखा कि ये कम्पनी तो उसी परोपकारी व्यक्ति की है जिसने मुझे जीवन जीने की कला सिखलाई. उसने उस समय जो मेरी मदद की, उसका बदला चुकाने का समय आ गया. वह अपनी चेक बुक लेकर उस व्यक्ति के ऑफिस में गया, जाकर के परिचय दिया- मैं आपको कुछ महिने पहिले समुद्र तट पर मिला था और आपने कहा था कि मैं सहयोग करूँगा. सामने वाले व्यक्ति की वाणी में विनम्रता कितनी कि हाथ जोड़ कर बोला-क्षमा कीजिए; इस समय मैं बहुत लाचार हूँ. स्थिति सुधरने दीजिये फिर मैं आपको अवश्य सहयोग करूँगा. चेक बुक लेकर आया वह व्यक्ति वोला- मैं आपसे कुछ मांगने नहीं आया वरन् देने आया हूँ. आपने मेरे उपर इतना महान उपकार किया है जिसका किंचित् मात्र वदला देने आया हूँ, ताकि मेरी आत्मा कर्ज मुक्त वन जाये. उस दिन आपने मुझे गलत समझ लिया था. मैं तो अपने चित्त की शांति के लिए वहाँ गया था. मैं कई कम्पनियों का डायरेक्टर हूँ. कइयों का मेनेजिंग डायरेक्टर हूँ. वतलाइये मैं आपको क्या सहयोग दे सकता हूँ. मुझे आपकी मदद करते हुए अत्यन्त खुशी ही होगी. मुझे सेवा का अवसर दीजिए. जीवन की यह कला मैंने आप से ही सीखी है. उसने कहा-आप मेरे घाटे को पूरा नहीं कर सकते. पूरे पचास लाख डालर का नुकसान है. आने वाले व्यक्ति ने चेक बुक निकाल कर पचाल लाख डालकर का चेक काट कर उसे देते हुए कहा-ये चेक मैं आपको दे रहा हूँ. और कुछ मेरे लायक सेवा हो तो निःसंकोच टेलीफोन करियेगा. उपकार का कैसा वदला? पांच डालर के बदले पचास लाख डालर. ये परिवर्तन सिर्फ दो मिनट के परिचय से आया. कोई घण्टा आधा घण्टा प्रवचन नहीं दिया था उसने. मात्र ५ मिनट के अल्प परिचय से एक व्यक्ति के जीवन में इतना बड़ा परिवर्तन आया कि उसने ५० लाख डालर का चेक कितने सहज और उदार भाव से दे दिया. जिसने जीवन जीने की कला सीख ली हो फिर उसके लिए पैसे का कोई महत्व नहीं रह जाता है. मानवता की सेवा करना उसके For Private And Personal Use Only Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०९ जीवन व्यवहार जीवन का उद्देश्य बन जाता है. जीवन रक्षण : हमें समर्पण की भूमिका प्राप्त करनी है. हम समर्पण की साधना भी निष्काम भावना से नहीं करते. उसमें भी प्राप्ति की आकांक्षा रखते हैं. Give and Take अर्थात् मैं तुझे देता हूँ, तू मुझे दे. शान्ति की कामना हम शब्दों से करें और मन विषय की और लगा रहे. भगवान से अपने लाभ की प्रार्थना करते हैं तो वहाँ भी हम भिखारी बन जाते हैं. प्रभु के द्वार पर जो निष्काम भाव से जायेगा वही भगवान् बनकर लौटेगा. पुण्य की निधि लेकर लौटेगा. परमात्मा के द्वार पर अपराधी बन कर जाये कि- हे भगवान् मैं तेरी शरण में आया हूँ और मुझे तेरे सिवाय कोई शरण नहीं दे सकता. तेरी शरण में आकर मैं निष्पाप बन जाऊँ यही मेरी कामना है. समर्पण का यह भाव ही आपको निर्भय कर देगा. सिंह जंगल का राजा है, उसे भय नहीं होता. सिंह के बालक ने जंगल में पहली बार अपने से कई गुना विशाल शरीर वाले हाथियों के झुण्ड को देखा तो भय से थर-थर कांपता हुआ सिंहनी की गोद में जा बैठा. माँ ने वालक को भयभीत देख कर कहा- अरे तूने मेरे दूध को भी लजा दिया. सिंह के बालक को डर कैसा? तेरा पिता इस जंगल का राजा है. तू अपने पिता को पुकार कर देख, वह जहाँ भी होंगे तेरी करूण पुकार सुन भागते आयेंगे और फिर तू देखना उनका चमत्कार. सिंह के बालक ने माँ की गोद में बैठ कर करूण विलाप किया तो पास ही कहीं जंगल में घूम रहे सिंह के कानों में उसकी पुकार आई. भला सिंह अपने बालक को कैसे संकट में देख सकता? तुरन्त दौड़ा उसके रक्षण के लिए बालक के पास में आते ही सिंह को वस्तुस्थिति का पता चल गया कि मेरा बालक क्यों चिल्लाया है. सिंह ने तुरन्त ही जंगल को कंपा देने वाली भयंकर गर्जना की कि विशालकाय हाथियों का झुण्ड वहाँ से जान बचा कर भाग निकला. इसी तरह परम पिता परमात्मा भी आपका रक्षण करेगा, पर आपकी पुकार में वेदना होनी चाहिये. परमात्मा निश्चय ही आपका रक्षण करेगा. पंडित की परिभाषा : परमात्मा से जब यह पूछा गया कि- भगवान्, इस संसार के अन्दर सबसे अधिक विद्वान और पंडित किसे कहा जाय? इसकी व्याख्या क्या है. भगवान् महावीर ने वतलाया - जो समय के मूल्य को समझे, वही पण्डित. समय का उपयोग करने वाला अप्रमादकर्ता साधना की सिद्धि प्राप्ति करता है. परन्तु प्रमाद अवस्था के अन्दर For Private And Personal Use Only Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ११० जीवन दृष्टि मात्र विषय कषायों का पोषण होगा, मात्र संसार में आगमन होगा और वह व्यक्ति अपनी अज्ञान दशा में उस कार्य को आमन्त्रण देगा जो आत्मा को घायल करने वाले हैं. आत्मा को रूष्ट करने वाले हैं. यह अपनी अज्ञान दशा के लक्षण हैं. अज्ञान दशा में भी ज्ञान का प्रकाश पुंज प्राप्त करना है. प्रकाश के अन्दर में से प्रयत्न को उपस्थित करना है जिससे जीवन की अनादि कालीन वासना से मैं अपनी आत्मा को मुक्त करूँ और मेरी आत्मा जागृत प्रकाश के अन्दर परमात्मा के आदेश का परिपूर्ण पालन करने वाली आत्मा बने. भक्ति का बन्धन, प्रेम का बन्धन : संत तुलसीदास एक बार काशी में थे. बड़े अच्छे विद्वान पंडित सज्जन पुरुष उनके सत्संग में आयें. तुलसीदासजी जो राम के परमभक्त, परम उपासक थे, ने विद्वानों से कहा - आज मैं एक नयी बात आपको सुनाना चाहता हूँ. आज तक तो आपने राम की रामायण सुनी. मेरे द्वारा राम का कीर्तन सुना परन्तु जो बात मैं आज आपको बतला रहा हूँ, उसका ज्ञान भी मुझे आज ही मिला. आज ही मैंने उस वस्तुस्थिति को जाना. अब आप लोग समझ लेना कि आज तक मैं कहता रहा हूँ कि राम सर्वशक्तिमान है. राम के अन्दर प्रचण्ड शक्ति छिपी हुई है परन्तु मेरी यह धारणा गलत हुई. राम कायर है, राम कमजोर है. सर्वशक्तिशाली है तो संत तुलसीदास. पण्डितों ने विचार किया-कहीं भक्ति का अतिरेक पागलपन तो लेकर नहीं आया. कहीं दिमाग तो खराब नहीं हो गया. पण्डितों ने संत तुलसीदासजी से कहा- जरा स्पष्टीकरण करके बतायें. तुलसीदास जी ने कहा- राम को मैंने अर्न्तहृदय में, मन के पिंजरे में बंद करके रखा है, और ताकत नहीं कि राम मेरे मन से बाहर चले जाये. तुलसीदास इतना सर्वशक्तिमान है कि राम को भी अपने मन के पिंजरे में बांध कर रख लिया है. राम की ताकत नहीं कि वह मन के पिंजरे से बाहर चले जायें. इसी अपेक्षा से मैंने कहा कि राम कायर है, कमजोर है. और तुलसीदास सर्व शक्तिमान है जो राम को भी अपने मन के बंधन में रख सकता है. तो भक्ति ऐसी होनी चाहिये कि प्रभु आपके मन के बंधन में बंध जाये. आपकी इच्छा के बिना वहाँ से न निकल सके. भक्ति का बंधन, वो प्रेम का बंधन बन जाय कि बिना आमंत्रण के प्रभु आपके मन मन्दिर में पधार जाए. एक में शांति, अनेक में अशांति : यदि आप आत्म चिन्तन में जाते हैं तो चिन्तन के लिए मात्र एक चिनगारी चाहिये. ध्यान की जरासी भी अग्नि यदि प्रकट हो जाय तो बरसों का व अनादि अनन्तकाल का जो कुछ कर्म किया, उपार्जन किया, वह जल कर भस्म हो जायेगा. For Private And Personal Use Only Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जीवन व्यवहार १११ वैराग्य की जागृति के लिए तो मात्र एक ही चिन्तन चाहिये और एक ही चिन्तन आपके अन्दर यदि आ गया तो सारी चिन्ताओं को नष्ट कर देगा. मुनि राजऋषि मिथिला के बहुत बड़े राजा थे. एक बार एक ऐसी भयंकर व्याधि त्राणज्वर से वे ग्रस्त हुए कि उनके शरीर में भयंकर गर्मी उत्पन्न हो गई. सारा शरीर तपने लगा. बड़ी बेचैनी और अशांति रहने लगी. बड़े-बड़े वैद्य उपचार के लिए आए. एक अनुभवी वैद्य ने उपचार बताया- यदि आप शीतोपचार करें यानि चन्दन का विलेपन सारे शरीर पर करें तो यह त्राण ज्वर मिट सकता है. राजा के आठ रानियां थी. आठों रानियां वैद्य के बताये अनुसार चन्दन घिसने लगी. घिसते समय उनके हाथों में जो चूडियां पहनी हुई थी, उसकी आवाज आने लगी. आवाज आना स्वाभाविक था. आप जानते हैं कि बीमार आदमी का स्वभाव चिड़चिड़ा होता है. राजा बहुत दिनों से बेचैन थे और काफी दिनों से नींद भी नहीं आई थी. चूड़ियों की आवाज ने उनकी शान्ति को और भंग कर दिया तो सम्राट एक दम आवेश में आकर उत्तेजित हो गये और कहा-“यह वज्रपात कहाँ हो रहा है?" इसे बन्द करो. यह आवाज मुझे जरा भी पसंद नहीं. रानियों के पास विवेक था. उन्होंने सोचा महाराज को आवाज जरा भी पसंद नहीं है. क्या किया जाय कि महाराज को चूड़ियों की आवाज भी सुनाई न दे और उपचार हेतु चन्दन भी घिस कर तैयार हो जाये. ऐसी अवस्था में उन्होंने तुरन्त चूड़ियां हाथों से निकाल ली. मात्र सुहाग की निशानी हेतु एक एक चूड़ी ही अपने हाथ में रखी. दो मिनट बाद राजा ने पूछा- यह आवाज कैसे बंद हो गई? क्या चन्दन घिसना ही बन्द कर दिया? रानियों ने नम्र निवेदन किया- राजन्! दवा तो हम तैयार कर रही हैं. चन्दन घिसा जा रहा है. चूंकि यह आवाज आपको पसंद नहीं थी अतः हमने हमारे हाथ की चूड़ियां निकाल दी. मात्र एक चूड़ी रखी जो सुहाग की निशानी है. जैसे ही यह जवाब मिला, राजा ने तुरन्त दार्शनिक दृष्टि से उसका चिन्तन शुरू किया कि एक में शान्ति. अनेक में अशान्ति. मात्र एक चूड़ी हाथ में हो तो कहीं कोई संघर्ष नहीं, आवाज नहीं कोई क्लेश नहीं, बल्कि परम शान्ति है. अनेक में संघर्ष था, क्लेश था. राजा ने तुरन्त आत्म चिंतन किया कि मैं संसार के संघर्षों से जकड़ा हुआ हूँ. यही मेरी अशान्ति का कारण है. यही भाव मेरे मन के द्वेष का है कि मेरे मनोभाव में यह क्लेश पैदा हो रहा है, अशांति हो रही है. कितनी उद्विग्नता लेकर मैं चल रहा हूँ? इसलिए इस रोग से यदि मैं मुक्त हो गया व इस बिमारी से मैं बच गया तो परमात्मा के चरणों में जाकर परम शान्ति प्राप्त करूँगा. यही शुद्ध एकत्व भाव उनके उपचार का कारण बना. For Private And Personal Use Only Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ११२ जीवन दृष्टि विचार की पवित्रता : आप बाजार में जा रहे हैं. सामने से आपको डाक्टर आता दिखाई दे तो आपको हॉस्पीटल याद आ जाता है. वकील मिलने पर कोर्ट याद आ जाता है. पुलिस मिलने पर जेल याद हो आती है, विद्यार्थी मिलने पर कॉलेज याद आ जाता है. यदि मैं आपसे पूंछु कि साधु पुरुषों को देखकर आपके मन में क्या भाव आता है? उनको देखकर आपकी दृष्टि कहाँ तक पहुंच जायेगी, मुझे समझाइये? परन्तु आपकी दृष्टि में गहराई नहीं है. कभी इस प्रकार से सोचने का प्रयास किया ही नहीं. परमात्मा को देखने से यदि दृष्टि मिल जाय तो यह दृष्टि का विकार निकल जायेगा. निर्विकारी आत्मा की दृष्टि से अपनी दृष्टि मिलाये तो आपकी दृष्टि का विकार चला जायेगा. उसके परमाणुओं द्वारा इतना बड़ा परिवर्तन होता है. परन्तु यह स्थिति कहाँ? दृष्टि में गहराई कहाँ ? साधु पुरुषों को देखकर आपकी दृष्टि परलोक तक पहुंचनी चाहिये. परन्तु आप अपने जीवन को दुर्गति तक पहुंचा रहे है, यह सद्गति और दुर्गति आप अपने वर्तमान में तैयार करते हैं और आपका विचार ही उसका निमित्त बन रहा है. विचार की अपवित्रता ही दुर्गति का कारण बनती है. विचार की पवित्रता आपको सद्गति तक पहुंचाती है. प्रसन्नचन्द्र जैसे राजऋषि, जिन्होंने दीक्षा ग्रहण कर उत्कृष्ट चरित्र की आराधना की और जब सम्राट श्रेणिक ने आकर भगवान महावीर से पूछा, 'भगवन्! इस समय आपके साधुओं में सबसे उत्कृष्ट साधना करने वाला कौन है?' भगवान ने उत्तर दिया - वर्तमान में हमारे साधुओं में सबसे उत्कृष्ट साधना करने वाले साधक प्रसन्नचंद्र राजर्षि हैं. श्रेणिक ने पुनः पूछा- 'भगवन्, यदि वे परलोक पहुंचे तो उनकी गति क्या होगी?' 'इस समय देवलोक हो तो मर कर सांतवी नर्क में जायेंगे.' इस पर राजा श्रेणिक ने जिज्ञासा से पूछा - "भगवन् यह कैसे हो सकता है?" कुछ ही देर बाद देव दुन्दुभी बजी. आकाश में देवताओं ने प्रसन्नचंद्र राजर्षि को केवल ज्ञान प्राप्त करने का महोत्सव किया. जब यह देव दुन्दुभी का नाद सुना तो श्रेणिक ने भगवान् से पूछा - यह देव दुन्दुभी का क्या रहस्य है? यह प्रसन्नचंद्र राजर्षि को केवल ज्ञान उत्पन्न हुआ, उसका नाद है. एक क्षण पहले तो कहाँ प्रसन्नचंद्र राजर्षि सांतवी नरक में जाने वाले थे और अव उन्हें एक क्षण वाद ही केवल ज्ञान की प्राप्ति हो गई: अन्तर सिर्फ इतना ही कि उनके मन में तूफान था. मन के अन्दर युद्ध चल रहा था. भयंकर संघर्ष था जिसकी वजह से कर्म दुषित बन गये For Private And Personal Use Only Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जीवन व्यवहार ११३ थे. यदि उस समय वह काल कर जाये तो निश्चित ही दुर्गति में चले जायें, परन्तु जैसे ही उनका हाथ अपने मस्तक पर गया और जव उन्होंने देखा कि अरे! मैं साधु हूँ, राजा नहीं, मेरे मस्तक पर अव राज मुकट नहीं हैं. वह सतर्क हुए. अन्तर्मन में जागृति आयी. अन्तर का पश्चाताप इतने सुन्दर भाव से प्रकट हुआ कि उसका यह चमत्कार कि एक क्षण के अन्दर वे केवली ज्ञान की स्थिति में पहुंच गये. 'मनएव मनुसयानाम कारणे वन्द मोक्षये.' यह मन सद्गति और दुर्गति का कारण बनता है. मन एक है. कारण एक है और कार्य दो हैं. आप तिजोरी खोलते हैं, चाबी एक है. बन्द उसी से किया जाता है और इसी से खोला भी जाता है. इस मन की चाबी भी ऐसी है. संसार में बन्धन इसी के माध्यम से होता है. और यदि चाबी लगाना आ जाये तो यह मोक्ष का द्वार भी खोल देती है. यदि राइट टर्न किया तो खुल जायेगा. मन का उपयोग भी यदि सही तरीके से किया जाय तो भगवान का द्वार खुल जाता है, सबसे बड़ा ठग : एक बार संत तुलसीदास ने कहा कि मैं आज से राम को नमस्कार नहीं करूँगा. आज से मैं उस व्यक्ति को नमस्कार करूँगा जो जगत में सबसे बड़ा ठग होगा. लोगों ने सोचा कि ये क्या हो गया. संत तुसलीदास ऐसा क्यों कह रहे हैं कि सबसे बडे ठग को नमस्कार करूँगा. पूछने पर संत तुलसीदास ने स्पष्ट कियामाया तो ठगनी भयी, ठगत रहत दिन रात । जिसने माया को ठगा, उस ठग को नमस्कार ।। माया का मतलब है कर्म, जिसने कर्म को ही ठग लिया, जिसने पाप को ही लूट लिया, उस ठग को नमस्कार. वह वीतराग प्रभु के अलावा अन्य कोई है ही नहीं जो कर्म को भी ठग ले, जो पाप को भी खत्म कर दे. पाप की वासना से अपने आप को मुक्त कर ले. ठगाई करनी है तो ऐसी ठगाई करे. जवकि हम तो अपनी आत्मा को ही ठगते हैं. मन कहे कि पाप करना है, उसे समझाइये कि आज नहीं कल करेंगे. आप पाप में जितना विलंब करेंगे, पाप उतना ही कमजोर बनेगा. जबकि हमारी आदत है कि पाप आज करना है, पुण्य फिर कभी करेंगे. पाप रोकर के करना है, पुण्य हँस कर करना है. इसकी जगह पाप हँस करके कर है और पुण्य करते समय चेहरे पर उदासी के भाव ले आते है कि कहाँ से देने का प्रसंग आ गया. बुद्धि का दुरूपयोग : हर इन्सान के पास बुद्धि तो है किन्तु आज व्यक्ति इसका उपयोग अनीति, अप्रमाणिकता के लिए करता है.पाप छिपाने के लिए करता है. यह बुद्धि का अतिरेक हमारे जीवन में अभिशाप For Private And Personal Use Only Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ११४ जीवन दृष्टि बन गया. कलकत्ता के ग्रान्ट होटल के नीचे सेठ मफतलाल अपनी मर्सीडीज गाड़ी लेकर आये और होटल के सामने खड़ी करके चले गये. वहाँ गाड़ी पार्किंग नहीं की जाती थी. परन्तु जैसे ही वापस लौटे, पुलिस मेन वहाँ खड़ा देखा. गाड़ी गलत पार्क की हुई थी. पुलिस मेन ने गाड़ी देखी और सोचा- कोई बड़ा आदमी दिखता है. चालान भरवा कर कोर्ट के चक्कर में नहीं पड़ना पसंद करेगा. अपनी भी कुछ आमदनी हो जायगी. भ्रष्टाचार तो आप जानते ही है कि सभी जगह फैला हुआ है. एक हिन्दी कवि ने इस झूठ के साम्राज्य के बारे में अपनी कविता के माध्यम से परिचय दिया आज झूठ का ही प्रताप है, सच बोलना महापाप है। बाप गधा है बेमतलब का, मतलब है तो गधा वाप है। सेठ मफतलाल पुलिस मेन का इरादा भांप गये. वगैर एक धेला खर्च किये बिना गाड़ी अपने कब्जे में करने का तुरन्त उपाय सोचा, टैक्सी ली और घर आ गये. घर से थाने में फोन किया कि मेरी फलां नम्वर की गाड़ी फलां कलर की और फलां मोडल की चोरी हो गई है. थाने में रिपोर्ट लिखवा कर वह निश्चित हो गये कि गाड़ी को तो कोई नुक्सान होने वाला है नहीं. वह पुलिस वाला इधर खड़ा गाड़ी मालिक का इन्तजार करता रहा. इधर वायरलेस से गाड़ी के बारे में सभी जगह सूचना भेज दी गई. जैसे ही पुलिस की गाड़ी वहाँ पर आई, अधिकारी ने देखा कि गाड़ी तो वही है, जिसकी चोरी हो जाने की रिपोर्ट लिखी गई है. पुलिस मेन से अधिकारी ने कहा- यह गाड़ी तो चोरी होई गई थी. तुम यहाँ पर खड़े हो चोर आयेगा कैसे. पुलिस मेन विचारा वड़ा निराश हुआ कि एक घंटा मेरा यूं ही बेकार हो गया, आमदनी भी नहीं हुई. पुलिस की गाड़ी के पीछे लगाकर मर्सीडीज को सेठ मफतलाल के घर पर पहुंचाया गया. सेठ मफतलाल को गाड़ी सौंप दी-ये रही आपकी गाड़ी. एक पैसा भी खर्च हुआ नहीं और गाड़ी सुरक्षित घर पहुंच गई. तो मेरे कहने का यह आशय था कि हमारी बुद्धि का अतिरेक इतना भयंकर है कि जहाँ इसका उपयोग आता तत्व के चिन्तन के लिए होना चाहिये. सत्य की खोज करनी चाहिए, उसकी जगह पर हम इसका अनीति के लिए, अप्रामाणिकता के लिए करते हैं .. हमारा चरित्र और वर्तमान शिक्षा प्रणाली : पहले पुराने जमाने के समय में ऋषि मुनियों के आश्रम में शिक्षा की व्यवस्था थी. हमारी उस समय की शिक्षा प्रणाली ही ऐसी थी कि छात्र ऋषि-मुनियों के आश्रम में रह कर तप और त्याग से परिपूर्ण बन कर निकलते थे. वे शुद्ध सदाचारी और संयमी वनकर के इस देश के For Private And Personal Use Only Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जीवन व्यवहार नागरिक बनते थे. राष्ट्र का निर्माण और प्रजा की सेवा करने वाले होते थे और स्वयं की आत्मा की उपासना भी करते थे. आज वो सब रहा ही कहाँ? आज तो मोडर्न एज्युकेशन प्रणाली इतनी दुषित हो चुकी है कि तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राधाकृष्णन् जैसे महान शिक्षा शास्त्री ने दुखी होकर, आज की शिक्षा प्रणाली पर प्रहार करते हुए लिखा- NO Education But Character. ऐसी शिक्षा से कोई मतलब नहीं जो चरित्र का निर्माण न कर सके. जीवन के अंदर नैतिक उत्थान न कर सके. पहले ऐसी व्यवस्था थी कि हजारों ऋषि-मुनियों के जो आश्रम थे, वहीं से पढ़ कर विद्यार्थी बाहर निकलते थे. वे अपनी संस्कृति, अपने संस्कार के लिए जीवन अर्पण करने वाले होते थे. हमारे यहाँ उस समय शिक्षा का लक्ष्य रखा गया- “सा विद्या या विमुक्तये." मुझे ऐसा ज्ञान चाहिये जो वासना से, पाप से, अनीति से मेरी आत्मा को मुक्त कर सके. मेरी आत्मा में गुणों का सृजन कर सके. राष्ट्र, समाज और प्रजा के लिए मैं कर्तव्य, बुद्धि और प्रेरणा प्राप्त कर सकू. आज जितने भी स्कूल-कॉलेज हैं वहाँ से व्यवहारिक ज्ञान प्राप्त तो होता है, परन्तु उस व्यवहारिक क्षेत्र में धर्म का अनुशासन चाहिये. ये धर्म का अनुशासन वहाँ नहीं सिखाया जाता है, जिसका ये परिणाम कि आज सारा ही विश्व अशान्ति से घिरा हुआ है, एक बार स्वामी विवेकानन्द किसी कॉलेज में प्रवचन देने के लिए गये. मॉडर्न एज्युकेशन के उन विद्यार्थियों से स्वामीजी ने पूछा- जीवन में तुम क्या बनना चाहते हो? छात्रों में से किसी ने डॉक्टर, किसी ने वकील, किसी ने इंजीनियर बनने का लक्ष्य बताया. स्वामी विवेकानन्द ने कहा- बड़े दुःख की बात है आप में से किसी को अपना लक्ष्य ही नहीं मालूम. कोई भी विद्यार्थी यह नहीं कह सकता कि मैं मानवता को प्राप्त करूँगा. प्राणिमात्र का कल्याण करूंगा. आज की शिक्षा प्राणाली का व्यक्ति स्व की परिधि तक ही सीमित हो गया है, स्व की परिधि में ही घिरा है. सर्व तक जाने का संकल्प ही नहीं, लक्ष्य ही नहीं है. आज सरकार सभी चीजों का राष्ट्रीयकरण कर रही है, मैं कहता हूँ कि हमारी इस शिक्षा प्रणाली का सबसे पहले भारतीयकरण करो. आज की मॉडर्न एज्युकेशन जिसमें सिर्फ शब्द ज्ञान मिलेगा, भौतिक ज्ञान मिलेगा किन्तु उस आध्यात्मिक चेतना का लक्ष्य नहीं मिलेगा. आत्मा का पोषण करने वाला वह तत्व नहीं मिलेगा. वह सम्यक् ज्ञान नहीं मिलेगा. जिससे राष्ट्र का नैतिक उद्धार हो सके. पहले के जमाने में जो शिक्षा प्रणाली थी, उसका लक्ष्य था मोक्ष प्राप्त करना. सत्य और सदाचार के मार्ग पर चलकर समाज और राष्ट्र का कल्याण करना, प्राणिमात्र का कल्याण करना. किन्तु अंग्रेजों ने आकर कुछ ऐसा किया कि हम अपनी संस्कृति को भूल गये. लार्ड For Private And Personal Use Only Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ११६ जीवन दृष्टि कर्जन के जमाने में लार्ड मैकाले को इस काम के लिए नियुक्त किया गया. मैकाले ने अपनी डायरी में लिखा है कि मैं इस नई शिक्षा प्रणाली के माध्यम से एक ऐसा शुगर कोटेड पॉयजन देकर जा रहा हूँ जो आने वाले वर्षों में पूरे भारत को अभारतीय बना देगा. उनको अपनी संस्कृति से विमुख कर देगा. वही हुआ जो अंग्रेज चाहते थे. अंग्रेज हमारे देश से चले गये पर हमें अंग्रेजियत की मानसिक दासता में जकड़ गये. हम आजादी के वाद एक भी अंग्रेज को धोती कुर्ता नहीं पहना सके. वो सारे देश को पैंटसूट पहिना कर चले गये. हमारा वेश पूर्वजों ने बहुत सोच समझ कर चयन किया था कि यहाँ का वातावरण गर्म है. धोती कुर्ता ढीला ढाला होता है ताजी हवा का आवागमन उसमें रहता है. इसके अलावा शरीर को सूर्य की रोशनी से विटामिन मिलता है. हमारे शरीर के जर्स का नाश होता है. पश्चिम में इसलिए लोग सनवाथ करते हैं. किन्तु हमने विना सोचे समझे पैंट-सूट धारण कर लिया और अनेक विमारियों को आमन्त्रण दे डाला. अंग्रेज टाई पहनते है तो इस धार्मिक भावना से कि क्राइस्ट के शूली पर लटक जाने की याद आती रहे. पर हम किस देवता के शूली पर चढ़ने की याद में टाई लगाते हैं! विज्ञान-विकृत विज्ञान : मुझे एक पत्रकार ने पूछा आज का विज्ञान इतना एडवान्स हो गया है. भौतिक दृष्टि से वहुत खोज की गहराई में उतर चुका है और नई वस्तुओं का काफी अविष्कार हो चुका हैं. उसके वारे में आपको कुछ कहना हैं. __ मैंने कहा - आज का विज्ञान इतना विकृत हो चुका है कि निश्चित रूप से एक दिन मानव जाति का विनाश करके रहेगा. जो विज्ञान विशिष्ट ज्ञान था, वह आज विकृत वन चुका है, एटम बम बनाकर इस विश्व को विज्ञान ने क्या दिया? एटमिक एनर्जी के रूप में जहाँ विश्व का कल्याण होना था, उसका दुरूपयोग किया जा रहा है. इसका निर्माण करने वाला वैज्ञानिक जिसने अपनी खोज राष्ट्र को अर्पण कर दी, उस व्यक्ति ने अपनी खोज का परिणाम जब देखा तो स्तब्ध रह गया. हिरोशिमा-नागासाकी पर एटमिक विस्फोट जव उसने टी. वी. पर देखा तो उसे इतना मानसिक क्लेश हुआ कि वह विक्षिप्त हो गया. मरते समय भी उसके मुंह पर यही शब्द थे- 'He shall go to Hell. वह व्यक्ति मर कर निश्चित रूप से नर्क में जायेगा, जिसने इस मानव जाति का घोर अहित किया है. इस तरह के अनेक अस्त्र आज तो वन चुके हैं. बुद्धि का दुरूपयोग आज इतना भयंकर हो गया कि उस विशिष्ट ज्ञान को हमने विकृत ज्ञान बना दिया. हमारी बुद्धि पर हमारा अनुशासन नहीं रहा, हमारे विचारों में विवेक नहीं रहा. विचारों पर विकृत विज्ञान ने कब्जा कर रखा है जिसके कारण आज मानव जाति का अस्तित्व ही खतरे में हैं. किस प्रकार इस विकृत विज्ञान द्वारा उत्पन्न अशान्ति का निवारण हो, इसी पर हमें विचार करना है. इस अशान्ति का मूल कारण क्या है? उसे हमें देखना है. For Private And Personal Use Only Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जीवन व्यवहार ११७ विचारों की दुर्बलता : अशान्ति का मूल कारण हमारे विचारों की दुर्बलता है. दुर्विचारों का आक्रमण हमारी आत्मा को सुषुप्तावस्था में डाल चुका है. आत्मा के उपर दुर्विचारों की इतनी धूल पड़ी है कि इसे साफ करने में बहुत समय लगेगा. उसके लिए दृढ़ संकल्प सत्यनिष्ठा और सदाचार का बल चाहिये. देश की वर्तमान दशा इसीलिए इतनी गिरी है. यह सिनेमा जो आपके मनोरंजन का साधन है, हमारी आत्मा की हत्या करने वाला है. विषयवासना को जाग्रत करने वाला है. ये उपन्यास कैन्सर हैं आत्मा का और ये होटल-क्लब आत्मा के पतन के द्वार हैं. इनमें कभी भी हमारे चित्त को शान्ति नहीं मिल सकती. ये सिनेमा, उपन्यास, होटल हमारे चरित्र के पतन के कारण है. हमारे यहाँ तो सदाचार की परिभाषा में यहाँ तक कहा गया है कि यदि दीवार पर भी स्त्री का कोई चित्र लगा हो तो नहीं देखे. आंखों में विकार आ जायेगा. हमारे यहाँ स्त्री को देवी के रूप में माना जाता है; इसीलिए कंहा भी गया है : । 'यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, तत्र रमन्ते देवता' । अर्थात् जहाँ नारी की पूजा होती है, वहाँ पर देवता निवास करते हैं. हमारे यहाँ नारी को एक ही रूप में देखा गया है और वह है मां का रूप. 'मातृ देवो भव.' माँ को देवी तुल्य मानना, उनका आशीर्वाद वरदान के रूप में रोज प्रतिदिन ग्रहण करना. लार्ड मेकाले, जिसने हमारी पुरानी शिक्षा पद्धति को नष्ट करने के लिए आधुनिक शिक्षा प्रणाली का सुगर कोटेड पॉयजन Sugar Coted Poision दिया. उस समय में यहाँ लार्ड कर्जन वायसराय थे. सर आशुतोष मुखर्जी जिनकी विद्वता से प्रभावित होकर वायसराय ने उन्हें कोंसिल का मेम्वर तथा कलकत्ता युनिवर्सिटी का वाइसचांसलर बनाया. सर आशुतोष मुखर्जी प्रथम भारतीय वाइसचांसलर बने. ऐसे विद्वान व्यक्ति को जव वायसराय ने कहा, - 'देखो भारतीय शिक्षा प्रणाली में क्या-क्या परिवर्तन करते हैं, इंग्लैण्ड जाकर वहाँ की बड़ीवड़ी युनिवर्सिटीज में जा कर अध्ययन करो और फिर रिपोर्ट करो. सर आशुतोष मुखर्जी के संस्कार कैसे? एकदम भारतीय संस्कृति में रंगे हुए. माता-पिता की आज्ञा को देव-आज्ञा मानने वाले. उन्होंने वायसराय को कहा-आपका कहना सही है. पर इंग्लैण्ड जाने के लिए माता को पूछ कर कल जवाव दूंगा. जो व्यक्ति अपने माता-पिता का कहना नहीं माने तो भगवान कहाँ से प्रसन्न होगा, माता-पिता की आज्ञा का पालन करना, ये हमारे यहाँ का आदर्श है. मातृ भक्त सर आशुतोप का उत्तर सुन कर लार्ड कर्जन ने मुँह बनाया कि ये कैसा पागलपन है? अपनी ८० वर्षीय अनपढ़ माता से जाकर पूछेगा. भला इंग्लैण्ड जाने का अवसर कोई मूर्ख ही छोड़ सकता है. For Private And Personal Use Only Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ११८ जीवन दृष्टि घर जा कर सर आशुतोष ने अपनी माँ से कहा - माँ! भारत के वायसराय ने मुझे इंग्लैण्ड जाने का निमन्त्रण दिया है ताकि वहाँ की शिक्षा पद्धति का अध्ययन कर यहाँ उसे शुरू कर सके. माँ ने जवाब दिया- बेटा विदेश जा कर तू अपना संस्कार खोना चाहता है. यहाँ क्या कमी है. भारत में वेद है, उपनिषद है, बहुत कुछ है हमारे पास. यह देश सारी दुनिया को शिक्षा देता था और तू यहाँ से भिखारी बन कर जायेगा. देश का अपमान करेगा. मेरी इच्छा है कि तुझे विदेश नहीं जाना है. सर आशुतोष ने माँ की चरण वन्दना की-माँ जैसी तेरी इच्छा, वही मेरी इच्छा. दूसरे दिन सर आशुतोष वायसराय के पास गये. साथ में कोंसिल के मेम्वर व युनिवर्सिटी के वाइस चांसलर पद के इस्तीफा लिख कर ले गये. वायसराय से जाकर सर आशुतोष ने निवेदन किया- सर मुझे क्षमा करें. मैं आपकी आज्ञा का पालन करने में असमर्थ हूँ. मेरी माँ की आज्ञा सर्वोपरि है, बिना उनकी अनुमति के मैं नहीं जा सकता और शायद यह आपको वुरा लगेगा, इसलिए मैं अपना इस्तीफा लिख कर लाया हूँ. वायसराय स्तब्ध रह गये. उन्होंने जैसा भारत के बारे में सुना था, वैसा ही उसे पाया. वायसराय ने सर आशुतोष का इस्तीफा फाड़ दिया और कहा- धन्यवाद है इस भूमि को, जहाँ ऐसे नर रत्न पैदा होते हैं. हमारे देश में ऐसे पुत्रों का दुष्काल है. भारतीय संस्कृति और उनकी परम्परा का मैं स्वागत करता हूँ. ये शब्द लार्ड कर्जन के है. यम नियम का अनुशासन : नदी के मन में एक मनोविकार आया, कवि की कल्पना में. मैं इतनी पवित्र हूँ कि सारा जगत मेरे अन्दर आकर स्नान करता है. परम शुद्धि प्राप्त करता है. मैं महान हूँ और मेरी महानता के लिए ये जो दो बन्धन हैं किनारों के, मुझे नहीं चाहिये. नदी के अन्दर जब ये मनोविकार आ गया तो दोनों किनारों से कह दिया-तुम हट जाओ, मुझे तुम्हारी कोई आवश्यकता नहीं. दोनों किनारे हट गये. परिणामतः नदी का सारा प्रवाह अस्त व्यस्त हो गया और थोड़ी ही दूर में उसका अस्तित्व ही खत्म हो गया. कारण कि सारा पानी इधर-उधर फैल गया. नदी ने दोनों किनारों से फिर प्रार्थना की - -तुम मेरी व्यवस्था के लिए आओ. तुम्हारे सहयोग के विना मैं कभी महान नहीं बन सकती. नदी के दोनों किनारें जैसे ही उपस्थित हुए फिर से अनुशासन मिल गया. वो प्रवाह वहते वहते वरावर उस नदी को समुद्र तक पहुंचा दिया, उसे वहाँ महासागर का रूप दे दिया. याद रखिये, जीवन भी एक प्रकार का प्रवाह है और उसके अन्दर यम नियम अनुशासन है तो ये बंधन में प्रवाह वहते-वहते आपको परमात्मा तक पहुंचा देता है, वहीं आत्मा परमात्मा वन जायेगी. इसलिए कहा गया है कि जीवन व्यवह्मर में यम नियम का अनुशासन आवश्यक है. For Private And Personal Use Only Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org जीवन व्यवहार परमात्मा की खोज : सेठ मफतलाल राजा के परम मित्र थे. राजा के महल में ही रहते थे. एक दिन राजा ने पूछ लिया- मैं बहुत दिनों से साधना में परमात्मा की खोज में लगा हूँ. परन्तु मुझे कहीं परमात्मा ही नजर नहीं आया. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मफतलाल सेठ बड़े बुद्धिशाली थे. उन्होंने कहा- आपके खोज का तरीका ही गलत है. राजमहल में रहकर कोई परमात्मा की खोज हो सकती है? यह कोई खोजने का तरीका है ? मफतलाल ने सोचा- राजा को सही रास्ता दिखाना चाहिए. दो चार दिन बात रात्रि के ग्यारह बजे सेठ मफतलाल राजमहल आये. सीधे छत पर चढ़ गये. लालटेन लेकर कुछ खोजने लग गये. राजा ने सोचा, ये मफतलाल रात्रि में क्या खोज रहा है. जाकर उससे पूछा- मफतलाल यहाँ क्या ढूंढ रहे हो ? मेरे घर से ऊँट चला गया है, खो गया है, वही खोज रहा हूँ. मफतलाल ने उत्तर दिया. अरे मूर्ख आदमी ! राजमहल की छत पर कहीं ऊँट मिलेगा. मफतलाल ने जवाब तैयार ही रखा था- हुजूर आप भी तो परमात्मा को यही खोज रहे हैं. वो तो बहुत बड़े हैं. मैं तो अपना ऊँट ही खोज रहा हूँ. जब यहाँ ऊँट ही नहीं मिल सकता तो यहाँ इस राजमहल में परमात्मा कहाँ से मिलेगा. मृत्यु में ही जीवन है : ११९ राजा विचार में पड़ गया- बात तो इसने सही कही है. जो चीज त्याग के माध्यम से मिलने वाली है, वह प्राप्ति में कहाँ से मिलेगी. तो परमात्मा को खोजने का हमारा तरीका ही गलत है त्याग की भूमिका पर साधना करें तभी परमात्मा को खोजने में सफलता मिलेगी. For Private And Personal Use Only मृत्यु एक शाश्वत सत्य है. जन्म के साथ ही मृत्यु की गाड़ी दौड़नी शुरू हो जाती है और जीवन को लक्ष्य तक पहुंचाने के बाद ही छोड़ती है. रवीन्द्र नाथ टैगोर ने विश्व प्रसिद्ध काव्य गीताजंली, जिस पर उन्हें नोबेल पुरस्कार मिला, में मृत्यु को संबोधित करते हुए लिखा- आओ ? तुम बड़ी प्रसन्नता से आओ. मैं तुम्हारा स्वागत करता हूँ. बहुत वर्षों से मैं तुम्हारी प्रतीक्षा में मैं था. परन्तु याद रखना! इस रवीन्द्रनाथ के यहाँ से कोई निराश नहीं गया. आज तक कोई खाली नहीं गया. आने वाले अतिथि को कुछ न कुछ देकर ही भेजा है. अब मेरे पास कुछ नहीं बचा है. अब तुम अपनी खाली झोली लेकर आये हो तो मैंने सोचा, अपना ये जीवन ही तुम्हें अर्पण कर दूं. मृत्यु को इतनी शान्ति के साथ उन्होंने देखा, उसको अपने जीवन में अनुभव किया और Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १२० उसका दर्द भूलकर मृत्यु को ही संगीत बना लिया. जटायु ने सीता हरण के समय अपना जीवन अर्पण कर दिया. उसे मालूम था कि मैं सीता को बचाने में सफल नहीं हो सकता. पर किसी प्रकार मैं रावण को रोकूं, उसके कार्य में बाधा उत्पन्न करूं. जीवन दृष्टि परिणाम क्या रहा? रावण ने तलवार से जटायु के पंख काट दिये. परन्तु जटायु खुश था, उसे मृत्यु में भी प्रसन्नता नजर आ रही थी कि मैंने सत्कार्य के लिए अपना जीवन अर्पण किया है. हमारे जीवन में जिस दिन यह भावना आ जाय, कि परमात्मा के कार्य के लिए मैं अपना सर्वस्व अर्पण कर दूं, अपना जीवन अर्पण कर दूं. यह भाव ही पुण्यभाव बन जाता है जो परमात्मा की प्राप्ति में कारण बनता है. व्रत नियम का पुण्य प्रभाव : हमारे जीवन में परमात्मा की प्राप्ति हो, इसके लिए जीवन के दैनिक व्यवहार में कुछ ऐसे नियम धारण करे जो हमें अनीति के मार्ग पर जाने से रोके पाप के दलदल में धंसने से बचाये. व्रत नियमों का ऐसा पुण्य प्रभाव होता है जो हमारे जीवन में बदलाव भी ला सकता है. सेठ मफतलाल रोज प्रवचन सुनने जाते थे. महाराज प्रतिदिन प्रेरणा देते थे और व्रत नियम लेने का आग्रह करते. मफतलाल व्रत नियमों से कोसों दूर भागते थे. एक दिन महाराज से कहा- आपने मेरे को ही क्यों टारगेट बनाया है. ये क्या उपदेश मेरे लिए ही है ? और कोई नहीं मिला. महाराज ने कहा- तुम्हारे उपर मेरा विशेष अनुराग है. साधु सन्तों के अन्तर में ऐसी करूणा होती है कि जो आध्यात्मिक रूप से सीरियस पेशेन्ट हो उसी का मैं पहले रक्षण करूं. मफतलाल ने कहा- भगवन्, मैंने तो बहुत व्रत नियम ले रखे हैं. आप और कितने नियम देंगे. सुबह उठता हूँ, पहले बीड़ी पीता हूँ, ये मेरा पहला नियम. दूसरा नियम-पान खाता हूँ. तुरन्त चाय पीता हूँ, ये तीसरा नियम फिर बाजार जाता हूँ ये चौथा नियाम. सारा जीवन ही इस तरह नियमों से जकड़ा है. अब आप कहाँ और नियमों का जंगल पैदा कर रहे हैं. महाराज ने कहा- फिर भी प्रयास करो ये मेरा आग्रह है, चार महिना निकल गया, पर मफतलाल नहीं माने. परन्तु महाराज की करूणा ऐसी कि मैं इसको कुछ नियम देकर जाऊं. For Private And Personal Use Only आखिर जाते-जाते विहार करते समय महाराज ने कहा- भले आदमी, चार महिने पुरे हो गये. अब तो जाते जाते मेरी गुरूदक्षिणा तो दे दो. कम से कम अपने मन की प्रसन्नता तो लेकर जाऊं. मफतलाल ने कहा- महाराज आपने तो बहुत प्रयास किया. मेरा ही पुण्य बल कम था कि Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १२१ जीवन व्यवहार मैं आपकी वस्तु ग्रहण न कर सका. आप देना चाहते हैं तो एक नियम मैं ले सकता हूँ किन्तु मेरी बुद्धि से. महाराज ने कहा-ठीक है भाई, तुम्हारी जो इच्छा हो, वही नियम तुमको दूंगा. मफतलाल ने कहा-मेरे घर के सामने एक कुम्हार रहता है. रोज सवेरे जब मैं उठता हूँ तो सबसे पहले उस कुम्हार की टाट दिखाई देती है. तो मैं यह नियम ले सकता हूँ कि जहाँ तक कुम्हार की टाट नहीं देखू, वहाँ तक चाय पानी नहीं करूं. महाराज ने नियम दे दिया और कहा - धन्यवाद. इतना भी तुम कर लेते हो तो धीरे-धीरे यह परिग्रह रूप ले लेगा. इस बात को काफी समय बीत गया. एक दिन मफतलाल कुछ लेट उठे. कुम्हार अपनी दिनचर्या के अनुसार गधे को लेकर खेत चला गया था. उठते ही मफतलाल ने सामने देखा वहाँ कुम्हार नहीं था. घर वालों से पूछा तो पता लगा कि कुम्हार तो खेत में जा चुका है और बारह बजे पहले आने वाला नहीं है. सेठ मफतलाल ने कहा-गजब हो गया; तब तो मेरी ही बारह बज जायेंगे. यहाँ तो उठते ही चाय चाहिये. अब क्या करें? आखिरकार मफतलाल ने कुम्हार के खेत का पता मालुम किया और घोड़ा लेकर रवाना हो गये. कुम्हार खेत में से मिट्टी निकाल रहा था, पसीने से भरी टाट, सूर्य की रोशनी में चमकी. मफतलाल ने घोड़े पर बैठे-बैठे जब कुम्हार की टाट देखी तो इनता प्रसन्न हुआ कि प्रसन्नता के अतिरेक में चिल्ला उठा-देख लिया, देख लिया. उधर कुम्हार को गढ्ढ़ा खोदते समय संयोगवश काफी सामान निकल आया था.काफी कीमती रत्न आभूषण थे. कुम्हार ने देखा-ये तो मफतलाल है. इसने अगर गांव में जाकर कह दिया तो सारा माल लुट जायेगा. ठाकुर ले जायेगा. उसने मफतलाल से कहा- अरे! जो भी है, आधाआधा वांट ले. मफतलाल ने देखा कि सोना चांदी दुनियां भर का बहुमूल्य सामान पड़ा है. मफतलाल खुश हो गया. अपने हिस्से का आधा माल पोटली में डाल घर ले आया. फिर तो वो जो रोने लगा कि-लाख धिक्कार है मुझे. महाराज ने मेरे को कितना समझाया, पर मैं नहीं माना. जाते जाते एक नियम मैंने लिया और उसी नियम के प्रभाव से कितनी संपत्ति मुझे मिल गई. घर का सारा दारिद्र्य समाप्त हो गया. घर में जो समस्या थी, वो नियम के पुण्य प्रताप से खत्म हो गई. यदि मैंने पहले ही नियम ले लिये होते तो मेरा पहले ही कल्याण हो जाता. तो मेरे कहने का मतलब है कि एक भी लिया हुआ नियम कभी निष्फल नहीं जाता. आपका जीवन नियमों में बंधा रहेगा. तो नियमों के पुण्य प्रभाव से आपका सारा जीवन ही बदल जायेगा. आपको मानसिक शांति तो प्राप्त होगी ही. उसके साथ साथ आपकी जीवन दृष्टि भी बदल जायेगी. For Private And Personal Use Only Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir निभानुभयो घटज्ञान श्री अरुणोदय फाउन्डेशन SHREE ARUNODAYA FOUNDATION AHMEDABAD. BOMBAY... BANGALORE . MADRAS For Private And Personal Use Only