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धर्म
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को लेकर एक प्रश्न उपस्थित किया, और पूछा - भगवन मैं आपसे क्या प्रश्न करूं, मेरा एक नम्र निवेदन है - इस संसार की कोई ऐसी क्रिया है जिसके अंदर धर्म का बन्धन आत्मा को न हो? मेरे हर कार्य के अंदर पाप का वंध हो रहा है. मैं किस प्रकार चलूं, किस प्रकार बैलूं, किस प्रकार सोऊं, किस प्रकार वोलू और किस प्रकार भोजन करूँ कि मेरी आत्मा को पाप कर्म का वंधन न हो?
भगवान महावीर ने वहुत सुन्दर रूप से एक व्यावहारिक दृष्टि से उसका परिचय दियायदि जयणा पूर्वक अपने जीवन का आचरण करें, विवेक पूर्वक वोलें, संयम पूर्वक आहार ग्रहण करें और जागृति पूर्वक शयन करें तो वह संपूर्ण व्यवहार पाप रहित बन जाता है.
सद् आचरण ही धर्म है : तो जीवन के अंदर संसार का संपूर्ण कार्य जो है, मुझे धर्ममय बनाना है. भोजन करते समय भी मेरा भोजन धर्म भोजन बन जाये, मेरा शयन शरीर के विश्राम का एक साधन बन जाये, यह नहीं कि इसके द्वारा मैं प्रमाद कर सकू. शयन इस शरीर का धर्म है, उसके निवारण के लिए ताकि आगे भविष्य में और ज्यादा स्फूर्ति पूर्वक, प्रसन्नता पूर्वक मैं धर्म क्रिया या परोपकार का कार्य कर सकू, इस आशय से यदि शयन करें तो वह शयन भी धर्म बनेगा. यह समझ करके भोजन करें कि मात्र मेरे शरीर का निर्वाह करना है, क्योंकि धर्म साधना का यह एक अंग है और विना साधन के मैं कभी साधना नहीं कर सकूँगा।
दर्जी कितना भी होशियार हो, सीने की बड़ी सुन्दर कला उसे आती हो परन्तु उसके पास सुई डोरा नहीं हो तो वह कैसे कार्य पूर्ण करेगा? डाक्टर बहुत ही क्वालिफाइड हो पर उसके पास स्टेथोस्कोप न हो, इंजेक्शन लगाने के साधन न हो तो वह रोगी को कैसे आरोग्य प्रदान करेगा? हर क्षेत्र के अन्दर साधन की आवश्यकता है. इसी तरह मोक्ष मार्ग की साधना में इस शरीर की आवश्यकता है और शरीर के निर्वाह के लिए मुझे भोजन करना अपरिहार्य है, आवश्यक है, इसीलिए मात्र शरीर के रक्षण के लिए मैं आहार करता हूँ. इस भावना से आहार में आसक्ति नहीं होगी, आहार स्वाद के लिए नहीं होगा. और आहार में मर्यादा रहेगी ताकि आहार का अतिरेक विकार को जन्म देने वाला न वने, आत्मा को पतन करने वाला न वने. इस प्रकार के विचार की भूमिका पर आहार ग्रहण किया जाय तो वह भोजन भी धर्म भोजन बन जाता है. मात्र आपके विचार पर आपका नियन्त्रण चाहिये. कार्य के अन्दर विवेक का दर्शन चाहिये, उन कार्यों के अन्दर उपयोगपूर्ण जागृति चाहिये. यदि जयणा पूर्वक चले, दृष्टि से देखकर चले, चलने में दृष्टि का संयम आ जाये तो वह चलना भी धर्म है. संसार की हर एक क्रिया जो पाप को जन्म देने वाली है, विचार पूर्वक रूपान्तर के कारण इन संपूर्ण क्रियाओं को धर्म का रूप दे सकते हैं. मात्र आपके विचार के अन्दर जागृति और विवेक चाहिये.
यहाँ जिस प्रकार धर्म तत्व की व्याख्या दी, यह बहुत बड़ी व्याख्या है. ये सामान्य व्याख्या
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