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भक्ति की शक्ति बलवान है. अपना धन या बल यह प्रभु पर विश्वास है. 'प्रभुजीवी बनना' - अन्तर साक्षी भाव रखकर बाह्यदृष्टि को क्षोभपूर्वक भुला देना ही शांति की चाबी है.
जिन भक्ति: जिने भक्तिर्जिनेभक्तिर्जिनेभक्तिर्दिने दिने। सदा मेऽस्तु सदा मेऽस्तु सदा मेऽस्तु भवे भवे ।।
श्री जिनाज्ञापालन - यह सच्ची जिनभक्ति है. भक्तियोग अर्थात् भाव देना. भाव देना अर्थात् हृदय सौंपना. हृदय के सिंहासन पर इष्ट को प्रतिष्ठित करना, जो सामग्री प्राप्त हुई है, उसका भक्ति द्वारा सदुपयोग करना चाहिये.
सभी धर्मी आत्मा अपने को भाव-आत्म स्नेह प्रदान करते हैं. अतः प्राप्त सामग्री को परहित में सार्थक करने का प्रति क्षण सफल कर लेना चाहिये. मोक्ष में केवल देना ही है - लेने का कुछ नहीं. यह लेना देना दोनों है. लेने में ज्ञान-देने में भाव होना चाहिये, ये दो बातें अति महत्त्व की है.
भावपूर्वक प्रभुभक्ति करते रहने से जगत के जीवों को भाव देने की योग्यता प्राप्त होती है. भवस्थिति के परिपाक में भावदान यह रामबाण औषध है. श्री तीर्थंकर परमात्मा के अपने सर्व पर किये हुए उपकार की कोई गिनती नहीं हो सकती. अतः तीर्थंकर परमात्मा की आज्ञा को जीवन में खास अग्रिमता देनी चाहिये. जो कुछ भी करें, वह आज्ञापालक के उद्देश्यपूर्वक करने की जागृति रखनी चाहिये. अपने प्रत्येक कार्य के बीच श्री तीर्थंकर परमात्मा आने ही चाहिये.
तीर्थंकर परमात्मा जगत के सब जीवों को भाव दे रहें हैं और वह भाव भी स्वतुल्यता का, उससे जरा भी न्यून नहीं. अतः अपना भी कर्त्तव्य है कि जीवमात्र को भाव देवें, शुद्ध सद्भाव दे, आन्तरिक आदरभाव दे. हे प्रभो! आपकी कृपादृष्टि से यह भावभक्ति मुझे जन्म-जन्म में प्राप्त हो.
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