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सब जीवों के कल्याणार्थ फरमाया कि
सर्वोतम तत्त्व आत्मा है .
यह ज्ञान स्वरूप है.
यह पूर्णानन्द स्वरूप है.
तथा यह शाश्वत है.
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जीवन दृष्टि
किसी भी काल में इसका अभाव नहीं था तथा कभी भी यह नष्ट होने का नहीं. चैतन्यमय ज्योति सदैव रही है और सदा रहेगी.
अनादि मोहाधीन यह आत्मा बाह्य विजातीय रूपी पौद्गलिक पदार्थों में राग द्वेष करने के कारण अपने स्वरूप को भूली हुई है.
इसीलिए यह चार गति चौरासी लाख जीव योनि में विविध पर्याय धारण कर जन्म मरण की अपार वेदनाएँ सहन कर रही है. परमात्मा ने फरमाया कि - अग्नि को लोहे के संयोग में ही हथौड़ों की मार सहनी पड़ती है.
संयोग का त्याग कर अपने स्वरूप में रही अग्नि को मार सहनी नहीं पड़ती, ऐसे ही आत्मा अपने निज शुद्ध चैतन्य ज्ञान स्वरूप को प्राप्त कर लेने पर अव्याबाध सुख की भोक्ता बनती है.
शांति की चाबी :
अणुमात्रमपि तन्नास्ति
भुवनेऽत्र चराचरे ।
तदाज्ञानिरपेक्षं हि,
यज्जायेत कदाचन ।।
सारे विश्व में भगवान की शक्ति के सिवाय एक पत्ता भी नहीं हिल सकता. अर्थात सब क्रिया चेतन की दिव्य शक्ति द्वारा ही सम्पन्न होती है, चेतन की दिव्य शक्ति यही प्रभु का सामर्थ्य है. प्रभु पर सम्पूर्ण विश्वास रखने से अक्षय शांति का अनुभव किया जा सकता है क्योंकि प्रभु स्वयं परम शक्तिशाली होने के अतिरिक्त परम शान्ताकार है.
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अपना सब काम प्रभु कर रहें हैं अर्थात आत्म तत्त्व कर रहा है. इस दिव्य शक्ति के सिवाय अन्य किसी से भी कुछ हो नहीं सकता.
प्रभु परायण होने की अपने को जो परम्परा मिली है - इसका गौरव अनुभव करना चाहिये.
अन्न, जल के बिना चल सके परन्तु प्रभु के बिना एक क्षण मात्र भी नहीं चल सके. प्रभु के सिवाय दूसरे किसी का भी डर रखने की आवश्यकता नहीं. 'प्रभु प्रति प्रेम'. उसके लिए प्रभुनाथ रटन प्रबलतम साधन है. प्रभु अर्थात साक्षी - चेतन - आत्मा यह सर्वाधिक धनवान एवं